Saturday, July 27, 2024
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डॉ मनोज मोक्षेन्द्र की कहानी – एक अतृप्ता का हलफ़नामा

(आप सभी लोगों को कुछ समय तक और कुछ लोगों को हर समय बेवकूफ़ बना सकते हैं, लेकिन आप हर समय सभी लोगों को बेवकूफ़ नहीं बना सकते हैं—अब्राहम लिंकन)
मैं 40 साल की एक हाउसवाइफ हूँ।
बेशक, मैं जवान हूँ और बेहद खूबसूरत भी। लेकिन मुझे हाउसवाइफ कहा जाना बिल्कुल पसंद नहीं है। गृहणी और घरवाली भी कहलाना पसंद नहीं करती। ऐसा बिल्कुल नहीं। ये संबोधन मुझे बहुत बोरिंग लगते हैं और मैं हीन भावना से ग्रस्त हो जाती हूँ। जैसेकि हाउसवाइफ़ या घरवाली कहकर मुझे बेकारी से बचाने के लिए और बेग़ारी कराने के लिए एक तग़मा दिया जा रहा हो या ज़बरन इस बात को छिपाया जा रहा हो कि मैं नौकरीशुदा नहीं हूँ क्योंकि मुझमें सिर्फ़ हाउसवाइफ़ बनने की ही योग्यता है और इस तरह मेरी अकर्मण्यता पर पर्दा डालने की कोशिश की जाती है। पर, मैं अकर्मण्य तो हूँ ही नहीं। मेरी राय में मेरे जैसी कोई हाउसवाइफ़ कामचोर या आलसी हो ही नहीं सकती।
लोग औरत को क्या समझते हैं—बस, एक गुड़िया जो मर्दों के लिए हर प्रकार से सुख का स्रोत बन सके और हाँ, इसी बात पर उसे सौ फ़ीसदी खरा उतरना होता है। यानी, न केवल उसके साथ हमबिस्तर होकर उसे शारीरिक आनन्द दे सके, बल्कि उसके साथ घर में भी सारी सुख-सुविधाओं और सामग्रियों का सृजक बन सके। और अब तो वह कमा कर, अपनी कमाई से गृहस्थी के ज़रूरी सामान खरीदकर, घर को सजाने का काम भी ख़ूब करने लगी है। पर, जहाँ तक उसके लिए रति-सुख की एक सामग्री के रूप में ख़ुद को किसी पुरुष को समर्पित करने का संबंध है, मैं समझती हूँ कि इसमें कोई झूठ भी नहीं है। आख़िर, लड़कियाँ ख़ुद को इतना सजा-धजा कर क्यों रखती है? इसीलिए तो! हाँ, बेशक, पुरुष को इसी क्षण के लिए लुभाने के लिए! स्त्रियाँ स्वयं को एक लुभाने वाली वस्तु के रूप में बाज़ार-हाट पर या गली-चौबारे में, यानी हर जगह अपनी नुमाइश क्यों लगाना चाहती हैं?  उनकी मंशा किसी को भले ही समझ में न आए, मुझे तो भली-भाँति समझ में आती है।
इस दौर की औरत का संकल्प
लिहाज़ा, भले ही मुझे गुड़िया समझो, इससे मुझ पर कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं है। मैं भी ख़ूब सीख-समझ चुकी हूँ; खेल-खा चुकी हूँ। चुनांचे, इस गुड़िया के पास भी एक गरम ज़िस्म है जो हर प्रकार से ज़ोश में आ सकता है और ताव खा सकता है—प्रेम करने के लिए और नफ़रत करने के लिए तथा अपने तन-मन को येन-केन-प्रकारेण संतुष्ट करने के लिए भी। यह जनाना ज़िस्म ममता और स्नेह की बारिश तो कर ही सकता है और यही औरत अपने बच्चों के लालन-पालन में जी-जान से जुटी भी रह सकती है।
चुनांचे, क्या एक गृहणी के लिए इतना ही काफ़ी है? मैं समझती हूँ कि उसे और भी बहुत कुछ चाहिए जो एक उम्र के बाद उसे उसके पति से, पति के घर से और बच्चों से नहीं मिल पाता है। जबकि घर का मर्द अधेड़ावस्था में पदार्पण करते ही बाहर गरम ज़िस्म तलाशने लगता है। ऐसे में, अतृप्ता औरत अगर इधर-उधर झाँकने-ताकने लगती है ताकि वह अपनी ज़िंदग़ी को सर्वांगीण रूप से भोग सके, तो उसे तो बड़ी बुरी निग़ाह से देखा जाने लगता है। लेकिन, ऐसी बुरी निग़ाहों का मुझ पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। मैं जानती हूँ और संकल्प के साथ समझ भी चुकी हूँ कि भविष्य में मुझे अपने लिए क्या करना है।
मै जिस हकीक़त का खुलासा कर रही हूँ, उससे हमउम्र औरतें कतई इत्तफ़ाक़ नहीं रखेंगी, बल्कि वे मेरे इस हलफ़नामे को पढ़कर मुझे खूब भला-बुरा कहेंगी कि मैं एक औरत होकर दूसरी औरतों को बिगाड़ रही हूँ। चुनांचे, वे सभी झूठी ज़िंदग़ी जी रही हैं। मैं ऐसी ज़िंदग़ी से तौबा करती हूँ। मैं 20 वर्षों से शादीशुदा हूँ। हमारे जुड़वा बच्चे हैं जो 18 साल के हो चुके हैं। मेरे पति 44 साल के हैं और प्रॉपर्टी डीलिंग का काम करते हैं। एक बात मैं बता दूँ—मैं मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती हूँ जहाँ मेरे माँ-बाप और भाई-बहन बहुत पुराने ख़यालात के हैं। इसी वज़ह से मैं ग्रेज़ुएशन के बाद अपनी पढ़ाई भी जारी नहीं रख सकी। ग्रेज़ुएशन करते समय ही घर में मेरे ख़िलाफ़ इतनी टोका-टाकी, छींटाकशी और टीका-टिप्पणी होने लगी थी कि मैं बेहद उकता गई थी। तब, मैंने ख़ुद एक दिन बाबूजी से कह दिया कि ‘कर दीज़िए ना मेरी शादी; हाँ, मेरी आज़ादी पर लगा दीज़िए ग्रहण । यही चाहते हैं ना, आप सभी लोग।’
मेरी रज़ामंदी के बाद, चाहे वह उन्हें मेरे गुस्से में मिली हो या मेरे पूरे होशो-हवास में, मेरी शादी फटाफट करा दी गई और मैं एक वाइफ़ बन गई। तब मुझे लगा कि जैसे अभी तक पके-पकाए स्वादिष्ट पुलाव की तरह मेरे लिए हसबैंड भी कहीं तैयार बैठा था; बस, उसे मेरी ज़िंदग़ी की खाली थाली में परोसने भर की देरी थी। चुनांचे, उस समय मैं अठारह साल की थी और मेरे पति यानी करन बाईस साल के। आज के दौर में करन की आयु के लड़के गृहस्थी सम्हालने की ज़हमत नहीं उठाना चाहते जबकि लड़कियों के इर्द-गिर्द मंडराना उनकी फ़ितरत होती है। हाँ, ज्वाइंट फ़ैमिली से अलग रहने की इच्छा मुझमें बहुत थी और मेरी इच्छा पर अमल करते हुए मेरे पति ने अलग गृहस्थी भी जमा ली जहाँ मैं खुश रहने की ख़ूब कोशिश करती हूँ। दरअसल, जो मकान उन्होंने खरीदा है, उसकी ऊपरी मंजिल पर हम चारों यानी मियां-बीवी और दोनों लड़के रहते हैं जबकि नीचे करन का प्रॉपर्टी डीलिंग का ऑफ़िस है। पर, वह ऑफ़िस में बहुत कम रहते हैं, ज़्यादातर अपने क्लाइंट के साथ साइट पर गए होते हैं। सो, मुझे अपने ढंग से जीने की बहुत आज़ादी मिल जाती है। मेरे लड़के तो कॉलेज़ गए होते हैं। ऐसे में, मैं बॉलकनी पर बैठकर अपना ज़्यादातर समय फ़ेसबुक और व्हाट्स-एप पर अपने यार-दोस्तों के साथ चैट करने में गुजारती हूँ। ऐसा करना मुझे बहुत अच्छा लगता है। पर, मैंने फ़ेसबुक पर अपनी पहचान छुपाते हुए एक बेहद सुंदर लड़की की तस्वीर अपलोड कर रखी है; हाँ, मैंने अपना नाम तक सार्वजनिक नहीं किया है ताकि सेफ़-साइड में रह सकूं और बाद में मेरे ऊपर कोई भी उंगली न उठा सके। चुनांचे, मुझे आज कितनी खुशी हो रही है कि मेरे चहेते फ़ेसबुकिया दोस्तों की संख्या कोई साढ़े चार हजार से भी ज़्यादा है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि मैं अपने फ़ेसबुकिया दोस्तों में लोकप्रिय होना चाहती हूँ। इसलिए, मैंने सोचा है कि कुछ ऐसा किया जाए कि मेरे चहेतों के बीच मेरी लोकप्रियता में चार-चाँद लग जाए। मैंने देखा है कि मेरे कुछ ऐसे फ़ेसबुकिया शायर-दोस्त हैं जिनकी पोस्ट की गई कच्ची-पक्की शायरी पर बड़ी संख्या में लाइक और कमेंट आते हैं। बेशक, अगर एक ख़ूबसूरत औरत की फोटो के साथ शायरी का तड़का लग जाए तो मेरी ऐसी पोस्टों पर लोग टूट पड़ेंगे–रोमांटिक अंदाज़ वाली फोटो के साथ इश्कियाना शायरी पर तो लोगबाग पागल हो उठेंगे। दरअसल, मेरे इस विचार में कहीं न कहीं, कोई रोमांटिक भावना भी शामिल थी। चैटिंग करते समय मैं भाँप चुकी थी कि खूबसूरत नौजवान लड़के मेरे साथ बातचीत में कितनी दिलचस्पी लेते हैं और मैं भी उनकी ओर कितनी आकर्षित होती हूँ। सोचती हूँ कि काश…!
 सो, मैंने बाज़ार से एक शेरो-शायरी की किताब खरीदी और उसमें से चुन-चुनकर शायराना पंक्तियाँ पोस्ट करने लगी; पर, मैं साथ में इंटरनेट से ब्राउज़ करके लड़कियों की रोमांटिक अंदाज़ वाली, एडिट की हुई अर्धनग्न, मॉडल-टाइप फोटो अपलोड करना कभी नहीं चूकती।
मेरी युक्ति-युक्त योजना रंग लाई है। मैं फ़ेसबुक की शाहज़ादी बन गई हूँ। इस बात पर मुझे कितनी खुशी होती है, इसका ब्योरा मैं लफ़्ज़ों में नहीं दे सकती। लंबी कतार में प्रतीक्षारत लड़कों से चैटिंग करते हुए मुझे सांगोपांग, अंदर-बाहर कितना रोमांच होता है—यह मैं कैसे बताऊँ? उन्हीं लड़कों में कुछ लड़कों की मुझसे साक्षात मिलने की बेताबी भी साफ़-साफ़ झलकती थी। हाँ, वैसी बेताबी करन में भी शादी के शुरुआती दिनों में कभी नहीं दिखी। मैं सच कहती हूँ कि सुहागरात के दिन भी जैसे सब सूखा चला गया था। वह कुछ ही देर बाद सो गया जबकि मैं रातभर तड़प-तड़प कर करवटें बदलती रही। अपने प्यासे अरमानों को थपकियाँ दे-दे कर सुलाती रही। बरसों से उस रात के लिए सजाए गए सपनों के चकनाचूर होने पर सुबगती रही।
लिहाज़ा, मुझे इस बात का पता ही नहीं चला कि उन युवकों के साथ चैटिंग़ करते-करते कब मैं उनके साथ सेक्स संबंधी बातों का आदान-प्रदान भी करने लगी और बातें इतनी बढ़ गईं कि अंतरंग तस्वीरे देखने-दिखाने तक आ गई। पर, मज़ा खूब आ रहा था, भले ही करन के प्रति मेरे लगाव में बेहद मंदी आती जा रही थी।
बहरहाल, ये सब क्यों हो रहा था? क्या मैं आदर्श पत्नी बनने के मार्ग से भटक रही थी या यह सब इस खुले दौर का परिणाम है? इसके पीछे एक अहम वज़ह यह भी हो सकती है कि मुझे अहसास होने लगा कि मेरे पति मुझमें बहुत कम दिलचस्पी रखने लगे हैं और उनका कोई एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशन भी पनप रहा है। मैं उनके कपड़ों पर बहुत प्रायः लड़कियों के चिपके हुए बाल बरामद करती थी और जेबों से गुलाब के फूल। उनकी कमीज़ से ऐसे इत्रों की गंध आती थी जो इत्र घर में उपलब्ध है ही नहीं। इसलिए, मेरे मन में यह पक्का यक़ीन हो गया कि करन किसी लड़की के साथ इनवाल्व है और वो भी बड़ी संज़ीदग़ी से। पूछे जाने पर वह सफ़ेद झूठ बोल जाते हैं तथा मेरे भोलेपन को गच्चा दे जाते हैं।
चुनांचे, करन और उसकी गर्लफ़्रेंड के नाजायज़ संबंध को लेकर मैं काफ़ी समय तक अत्यधिक मानसिक तनाव से ग्रस्त रही। फिर, मैंने निर्णय लिया कि करने दो करन को जो करना है; सच्चाई तो यह है कि वह मुझसे संतुष्ट नहीं है और मैं उससे नहीं। इसलिए, मैं भी मनमानी करूंगी और किसी बात की परवाह नहीं करूंगी। सारी चीज़ें इतनी गुप्त रखूंगी कि करन क्या उसके बाप के बाप को भी ख़बर नहीं लगेगी।
मैं और सोशल मीडिया
यहाँ मैं एक ख़ास बात बताना चाहती हूँ। जब तक मैं सोशल मीडिया से रू-ब-रू नहीं हुई थी या यूं कहिए कि जब तक मेरे पास एन्ड्रॉयड मोबाइल फोन नहीं था, मैं बेहद एकाकीपन महसूस करती थी। बच्चों के स्कूल और मेरे पूज्य पतिदेव के काम पर जाने के बाद, मैं क्या करूं–शाम का खाना अभी बना लूं, या वाशिंग मशीन में कपड़े साफ कर लूं या बेडरूम को ड्राइंग़रूम में और ड्राइंगरूम को बेडरूम में तब्दील कर दूं, फिर से झाड़ू-पोछा लगा लूँ या कपड़ों पर इस्तरी कर लूँ–कुछ भी समझ में नहीं आता था। वक़्त काटने के लिए व्यस्तता का कोई-न-कोई तो बहाना चाहिए ही और यह तकाज़ा तो ख़ुद वक़्त हमसे करता है, वर्ना, ज़िंदग़ी में रह ही क्या जाएगा? लिहाज़ा, अब इस एन्ड्रॉयड फोन के बदौलत ज़िंदग़ी में मेरी खुशियाँ फिर से दस्तक देने लगी हैं। अब तो दिल का कुछ ऐसा आलम हो गया है कि मैं जब तक करन को काम पर और लड़कों को कॉलेज भेजने जैसे घर-गृहस्थी के काम में लगी रहती थी, तब तक एक तरह की बेचैनी मन में व्याप्त रहती थी। कैसे ज़ल्दी से इन सारे फ़िज़ूल के कामों को अंज़ाम देकर मैं एन्ड्रॉयड फोन से जुड़ जाऊँ? मुझे अहसास रहता था कि मेरे फ़ेसबुकिया दोस्त भी मुझसे मुख़ातिब होने के लिए बेताब होंगे।
किसी मल्टीनेशनल कंपनी के एम डी सिद्धार्थ, एक फ़ाइव स्टार होटल के मैनेजर अमितराज, किसी पी जी कॉलेज़ के प्रिंसिपल देव सर, जे एन यू के रिसर्च स्कॉलर कैलाश नन्दन, एक सरकारी मोहकमे के सेक्रेटरी प्रताप सिंह, एक वृद्धाश्रम के संचालक मुकुंद मोहले, बौद्ध मठ के प्रधान भिक्षु स्वामी मानानन्द आदि जैसे विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेरे चहेते फ़ेसबुकिया मित्रों में से हैं। हाँ, एक नाम तो बताना ही भूल गईं—योगिराज कृष्णेश्वर का, जिसका मेरे प्रति लगाव इतना उग्र होता जा रहा है कि कभी-कभी उससे अंतरंग चैटिंग़ करते हुए मैं डर जाती हूँ कि कहीं वह तलाशते हुए मेरे घर तक न आ धमके। पर, वह आएगा भी कैसे क्योंकि मैं तो उसे अपने घर का गलत पता ही बताती हूँ? हो सकता है कि उसने मुझे ढूंढने की कई बार कोशिश भी की होगी। मुझे तो ऐसा लगता है कि ये सभी शख्स मुझे कोई ख़ूबसूरत मॉडल समझ कर मुझसे रिश्ता बनाने के लिए व्याकुल हैं। पर, मैं भी इन सभी को ख़ूब गच्चा देने में महारत हासिल कर चुकी हूँ। कोई मुझे कॉफ़ी हाउस में मिलने का टाइम देता है तो कोई यह पूछ बैठता है कि वह मुझसे मेरे ऑफ़िस में मिलना चाहता है। मैंने तो शरारतवश उनमें से प्रत्येक को बता रखा है कि मैं एक मंत्रालय में सेक्शन ऑफ़िसर हूँ और एक महिला हॉस्टल में अकेली रहती हूँ क्योंकि मैं शादीशुदा नहीं हूँ। ये सारी बातें जानकर मुझमें उनकी रुचि और भी बढ़ती जा रही है और मैं हैरतअंगेज़ हूँ। घबड़ाहट तो नहीं होती; पर, मन में कोई अपराधबोध घर करता जा रहा है।
निजता का इस कदर नग्न होना
लेकिन, जिस लड़के से बातें करते हुए मेरे अंदर उसके प्रति बेहद खिंचाव होने लगता है, उसका नाम राजीव है। उससे मैं निजी जैसी माने जाने वाली बातें भी शेयर कर चुकी हूँ और वह मुझे अपनी नग्न तस्वीरें भी व्हाट्सअप पर भेज चुका है। मैं भी, अपनी तो नहीं, लेकिन इंटरनेट पर किसी ब्लू फ़िल्म से एक नग्न लड़की की तस्वीरें कॉपी करके उसे भेजकर और यह बताकर कि यह मेरा अपना अंतरंग है, उसे पागल बना रखी हूँ। आलम तो ऐसा हो चुका है कि वह मुझसे शादी करने के लिए बेताब है और कहता है कि वह मुझसे मिलते ही मुझे सरेआम आलिंगन में लेकर बेपनाह मोहब्बत करेगा। वह यह भी कबूल कर चुका है कि वह तलाक़शुदा है और अपनी पत्नी के किसी अन्य पुरुष के साथ चक्कर होने के कारण उसे छोड़ चुका है। मैं हैरान हूँ कि वह कहता है कि वह मुझसे चाणक्य होटल के सामने फलाने तारीख को सायंकाल मिलना चाहता है। सच बताऊँ, मुझे तो लगता है कि वह मुझसे झूठ कतई नहीं बोलता है। वह सचमुच तलाक़शुदा है और मेरे प्रति उसका गरमागरम प्यार चौबीस कैरेट सोने की तरह सुच्चा है। जब मैंने उससे कहा कि वह उसके साथ सब कुछ करने को तैयार है, लेकिन शादी नहीं तो वह इसके लिए भी राज़ी है। कहता है कि वह भी आजीवन शादी नहीं करेगा पर, मुझे अपनी बीवी की तरह प्यार करेगा। मैं सोचती हूँ कि इसमें बुरा भी क्या है। मैं यह रिश्ता कायम कर लेती हूँ और उसे अपने शादीशुदा गृहस्थ जीवन के बारे में किसी भी बात का खुलासा कभी नहीं करूंगी।
मुझे उसके द्वारा व्हाट्सअप पर भेजे गए अंतरंग के चित्र देखकर इतना रोमांच हो रहा है कि मैं इसका बयां साधारण लफ़्ज़ों में नहीं कर सकती हूँ। उसकी भेजी हुई अंतरंग़ की तस्वीरें यह पुख़्ता सबूत देती हैं कि उसके जैसा जवां मर्द इस दुनिया में खोजने से नहीं मिलेगा। अब बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होता है। जी करता है कि उसे अभी बुलाकर उसके साथ हमबिस्तर हो जाऊँ। पर, हे भगवान, मुझे कौन-सी शक्ति ऐसा करने से रोक रही है? मैं अब और अतृप्त नहीं रहना चाहती। अगर इसी अतृप्तावस्था में मैं मर गई तो मेरी आत्मा हजारों साल तक भटकती रहेगी और उसे मुक्ति नहीं मिलेगी। अंतर्मन से बार-बार यह आवाज़ आ रही है कि ‘वंदना, अपने शरीर को प्यासा रखने से बड़ा कोई और अपराध नहीं हो सकता। इस तरह अपने को मत तरसाओ। जाओ, राजीव के पास या उसे बुला ही लो—हाँ, किसी भी एकांत स्थान पर और अपने मन की मुराद पूरी कर लो।’
सच बताऊँ, मैं उसके लिए पागल हो गई हूँ। बता नहीं सकती कि उसकी चाह में मैं करन और बच्चों से भी कितनी नफ़रत करने लगी हूँ। मेरा बस चले तो इन तीनों को सायनॉयड खिलाकर सारे बंधन से मुक्त हो जाऊँ और राजीव के ज़िस्म में समा जाऊँ। पर, इतने गट्स मुझमें नहीं हैं। बेहतर होगा कि अपने इस दोतरफ़े रिश्ते को ही कायम रखूँ और ज़िंदग़ी के लुत्फ़ उठाती रहूँ–इधर भी और उधर भी।
मुरादें पूरी करने की अकुलाहट
अगली सुबह, घर के थकाऊ काम-काज से फ़ारिग होने के बाद एक निश्चय के साथ इंटरनेट पर चैटिंग पर बैठ गई। मैंने चैटिंग़ के लिए इंतज़ार कर रहे सिद्धार्थ, अमितराज, देव सर, कैलाश नन्दन, प्रताप सिंह, मुकुंद मोहले और स्वामी मानानन्द को एक सिरे से ख़ारिज़ करते हुए, राजीव के साथ चैटिंग से चिपक गई। वह बेशक! मेरे बिना बहुत उदास लग रहा था। उसने कहा कि अगर मैंने आज उससे मुलाक़ात नहीं की तो वह कुछ ऐसा कर बैठेगा जिससे उसको आजीवन मलाल रहेगा। मैं सहम गई, कहीं राजीव ख़ुदकुशी करने की बात तो नहीं कर रहा है। मैंने आनन-फानन में लिख दिया कि इंडिया गेट के पास मस्ज़िद के पीछे, मैं तीन बजे तक तुमसे मिलने आ रही हूँ क्योंकि मैं भी अब तुम्हारा वियोग सहन नहीं कर पा रही हूँ। सारे सामाजिक बंधनों को तोड़कर और धार्मिक वर्जनाओं को दरकिनार करके मैं तुम्हारे साथ अपनी सभी मुरादें पूरी करने आ रही हूँ। उस वक़्त, दोपहर के ढाई बजने वाले थे। मैं बेहद हड़बड़ाहट में थी। फिर भी मैंने फ़ेसबुक को लॉग आउट करने से पहले उससे पूछ लिया–राजीव, तुम किस रंग की शर्ट-पैंट पहने हुए मिलोगे? उसने बताया लाल शर्ट और क्रीम कलर की पैंट तथा सिर पर व्हाइट कैप—और हाँ, इस पहली मुलाक़ात को यादग़ार बनाने के लिए मेरे हाथ में एक गुलदस्ता भी होगा। मैंने भी उसे बताया कि मैं टी-शर्ट और जींस-पैंट में हूँ।
तब, मैंने धड़धड़ाकर सीढ़ी से नीचे उतरकर दरवाज़े पर ताला लगाया और सड़क पर आते ही एक थ्री-व्हिलर को आवाज़ दी—मुझे तत्काल इंडिया गेट ले चलो। ऑटो में सवार होने के बाद कोई चालीस मिनट में मैं इंडिया गेट पहुँच गई। उस समय, मुझे बेशक, यह समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करने जा रही हूँ। मैं इंडिया गेट पर जमा विज़िटरों की भीड़ में उस राजीव को उसके द्वारा बताए गए हुलिया के अनुसार ढूंढने लगी; पर, भीड़ में इतनी आसानी से वह कहाँ नज़र आने वाला था। बहरहाल, मन में घबड़ाहट के साथ-साथ उत्तेजना भी बढ़ती जा रही थी क्योंकि मैं एक ऐसे पुरुष से मिलने जा रही थी, जिसके इश्क़ में मैं पागल हो चुकी थी और जिसके सच्चे प्यार पर मुझे बेइंतेहा भरोसा हो चला था कि वह मेरे पति करन जैसा कोल्ड कदापि नहीं होगा। तभी, मुझे अचानक ध्यान आया—अरे, मैं भी कितनी बावली हूँ; दरअसल, राजीव ने तो मुझसे मस्ज़िद के पीछे का पता दिया है। तब, तेज कदमों से मैंने सड़क पार की और कोई पाँच-सात मिनटों में मस्ज़िद के पीछे आ गई। पर, मैं हैरान थी कि राजीव कहीं नज़र नहीं आ रहा है। सोचने लगी कि कहीं उसने मुझे वादे का लॉलीपॉप तो नहीं दिया है—झूठे प्रेम में फँसाकर। क्योंकि वहाँ कुछ लोग ही नज़र आ रहे थे जो ग्रीन लॉन पर बैठे धूप सेंक रहे थे, उनमें से किसी ने भी लाल शर्ट और क्रीम कलर की पैंट नहीं पहन रखी थी। चुनांचे, अगर राजीव उनमें से कोई होता भी तो वह इतने अनमने ढंग से क्यों बैठा होता। अरे, उसमें तो अपनी प्रेमिका से मिलने की बेहद बेचैनी होती। मैं चारो ओर अपनी निग़ाहें दौड़ाती रही; तभी मेरी निग़ाहें ठहर गईं–मस्ज़िद के बिल्कुल दाईं ओर, दूर निचाट कोने में कोई व्यक्ति अपने हाथ लहराकर मेरी ओर इशारा कर रहा था। मैंने ग़ौर किया कि उसकी पैंट भी क्रीम कलर की थी और शर्ट भी लाल थी। हाँ, कोई तीस-चालीस गज की दूरी होने के कारण उसका चेहरा बिल्कुल धुंधला दिखाई दे रहा था। मैं उसके हाथ में फूलों का गुलदस्ता देखकर ठिठक गई। सच बताऊँ तो उसे देखते ही मेरे बदन से पसीने छूटने लगे। अंदर तक हड्डियाँ कंपकपा उठी। पैर तो उठने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मैं सोच रही थी कि राजीव के पास पहुँचते ही वह कहीं मुझे आलिंगन में ना जकड़ ले। पर, मैंने हिम्मत जुटाई और धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी–यह सोचते हुए कि जो होगा, सो देखा जाएगा। तब, राजीव ने भी अपने कदम आगे बढ़ाने शुरू कर दिए थे। उस वक़्त मुझे अहसास हुआ कि जैसे उसके बदन की आँच मुझ तक पहुँचकर मेरे मोम-सरीखे बदन को पिघला रही है। पर, पास पहुँचकर यद्यपि उसका चेहरा तो अभी भी साफ़ नहीं दिखाई दे रहा था लेकिन उसकी चाल-ढाल कुछ जानी-पहचानी सी लगने लगी थी। तब, मेरी जिज्ञासा ने मेरे कदम को और तेजी से आगे बढ़ाया और उससे कोई दस मीटर की दूरी रह जाने पर मैं चींख उठी–“अरे, बाबूजी, ये आप हैं?”
उफ़्फ़यह क्या? जैसा सोचा भी न था…
वह आदमी तो जैसे बर्फ़ की मूरत की भाँति वहीं कुछ देर जम गया। उसने कुछ पल मुझे घूरकर देखा और मुझे पहचानते हुए, अपनी कैप को बाएं हाथ से उतारकर, गुलदस्ते को नीचे गिरा दिया और अपना माथा पकड़ कर बैठ गया।
मैं पास पहुँचकर, गरज उठी, “तो इस उम्र में आपकी ऐसी गिरी हुई हरक़त! अरे, मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि आप मेरे साथ ऐसा भद्दा मज़ाक करेंगे और अपनी ही बहू को अपने प्रेमजाल में फँसाकर उसे नरक में धकेलने का गंदा खेल खेलेंगे।”
वह भी चुप नहीं रहे। फ़ुसफ़ुसाकर बोल पड़े, “और तुमने क्या किया, बहू? तुम भी तो पर-पुरुष की तलाश में यहाँ आई हो। आख़िर, क्या कमी है मेरे बेटे में?”
“बहरहाल, मुझे यह बताइए कि यह गंदा खेल आप कितनी औरतों के साथ खेल चुके हैं। मैं तो आपकी असलियत आपके बेटे से बताऊँगी।”
ठठाकर हँसते हुए, “अरे, इस कारस्तानी में तो तुम भी मेरे साथ शामिल हो।”
मैं रो पड़ी, “चाहे कुछ भी हो; भले ही करन के साथ हमारा अलगाव हो जाए, मैं आपका यह गंदा रूप अब करन से नहीं छिपाने वाली।”
“नहीं, तुम ऐसा कभी नहीं करोगी।”
तब, वह मुझे पकड़ने के लिए झपटे; पर, मैं अपनी पूरी शक्ति से उनके चंगुल से छूटकर भाग खड़ी हुई और सड़क पर आकर एक थ्री-व्हिलर वाले को आवाज़ लगाई—“मुझे जनकपुरी जाना है। ज़ल्दी करो।”
मैंने पीछे मुड़कर देखा कि मेरे श्वसुर जी वहीं खड़े-खड़े मुझे देख रहे थे और बार-बार अपने माथे पर आए पसीने को पोंछ रहे थे।
मैं वापस घर आकर बॉलकनी में बदहवास-सी खड़ी हो गई—निःसंदेह, अज़ीब-सी मनःस्थिति में। हाँ, शायद कुछ सोच रही थी या यूं ही यंत्रवत खड़ी थी—कितनी देर तक, मुझे इसका कुछ पता नहीं चल रहा था।
एक त्रासद अंत
शाम ढलकर रात के आगोश में समा चुकी थी। पर, अभी भी मैं बॉलकनी में खड़ी-खड़ी न जाने किस उधेड़बुन में खोई हुई थी। भय और आशंका तो जैसे मूर्त रूप में मुझसे रू-ब-रू थी। तभी गेट की कॉल बेल बजी। पर, मैं बेजान-सी ही खड़ी थी। फिर, अचानक सक्रिय हो गई, बुदबुदाते हुए—बच्चों के आने का समय तो हुआ नहीं, करन ही होंगे। मैंने बरामदे में दीवाल-घड़ी पर निग़ाह डाली—ठीक आठ बज रहे थे।
मैंने दरवाज़ा खोला तो करन सिर झुकाए हुए दाख़िल हुए और सीधे सोफ़े पर जाकर निढाल गिर पड़े। मैं चिल्ला उठी, “क्या हुआ?”
“बाबूजी, नहीं रहे। पता नहीं, क्यों उन्होंने ऐसा क्या?”
मैं चिल्ला उठी, “क्या किया उन्होंने?”
“उन्होंने आत्महत्या कर ली। ऑफ़िस में फ़ोन आया था—एक पड़ोसी का।” वह फ़फ़क पड़े।
इस अप्रत्याशित ख़बर से मैं चिहुंक उठी। उनकी बात पर तो मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था। मैं बोल पड़ी, “अरे, उन्होंने आत्महत्या क्यों की? मैं तो समझी थी…”
“क्या समझी थी?” उन्होंने अपनी पनीली आँखों से मुझे घूरकर देखा तो मैं पसीने-पसीने हो गई। तब मैंने ख़ुद को संयत किया।
“कुछ नहीं, कुछ नहीं। हाँ, मैं इस ख़बर से अपने होशो-हवास खो बैठी हूँ। पता नहीं, क्या-क्या बोले जा रही हूँ।”
तब, मैं भी रुआंसी हो गई, “बाबूजी, आपने ऐसा क्यों किया?” पता नहीं, उस समय मैं रो रही थी, या रोने का स्वांग कर रही थी।
तेरह दिनों तक चले बेहद उबाऊ अंत्येष्टि के कर्मकांड से निपट चुकने के बाद, अब मैं सामान्य हो चुकी हूँ—ऊपरवाले को शुक्रिया अता करते हुए कि चलो, अच्छा हुआ; बाल-बाल बच गई—एक फ़रेबी से। बहरहाल, सोचती हूँ कि मोबाइल फोन को तिलांजलि दे देनी चाहिए। पर, ऐसा कितने दिनों तक चलेगा? आख़िर, सभी तो बाबूजी की तरह फ़रेबी होते नहीं। तब, मैंने चार्ज़िंग पर लगे हुए मोबाइल को बड़ी ग़ैरियत से उठाया और मैसेंजर पर अंगुलियाँ फ़ेरने लगी। मेरे चहेतों के साथ-साथ योगिराज कृष्णेश्वर ऑनलाइन थे। शायद, वह दो हफ़्ते तक मुझसे चैट न कर पाने के कारण ख़फ़ा-ख़फ़ा चल रहे थे। उसके बाद, मैं मोबाइल को चूमते हुए उनके साथ चैटिंग में मशग़ूल हो गई।
डॉ मनोज मोक्षेन्द्र
डॉ मनोज मोक्षेन्द्र
डॉ मनोज मोक्षेन्द्र मूलतः वाराणसी से हैं. वर्तमान में, भारतीय संसद में संयुक्त निदेशक के पद पर कार्यरत हैं. कविता, कहानी, व्यंग्य, नाटक, उपन्यास आदि विधाओं में इनकी अबतक कई पुस्तकें प्रकाशित. कई पत्रिकाओं एवं वेबसाइटों पर भी रचनाएँ प्रकाशित हैं. एकाधिक पुस्तकों का संपादन. संपर्क - 9910360249; ई-मेल: [email protected]
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1 टिप्पणी

  1. पुरुष हो कर महिलाओं को पुरुष की ही दृष्टि से देख सकेंगे, यह prejudiced ही रहेगा, अंतरंग दृष्टि से कुछ लिखना है तो पुरुष के बारे में लिखिये, उसमें आप अधिक सफल होंगे, साधुवाद

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