भारत एक लिंग पूजाक राष्ट्र है। शिवलिंग की अभ्यर्थना सभी शिव भक्तों करते हैं । उनके अर्धनारीश्वर स्वरूप को भी पूज्य माना गया है । संस्कृत में तीन लिंग – पुल्लिंग , स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग तथा अंग्रेजी में भी मैस्क्युलिन , फेमिनिन एवं न्यूट्रल जेंडर की व्यवस्था है किंतु हिंदी में केवल पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग ही स्वीकृत हैं । तीसरी सत्ता को पूरी तरह अस्वीकार किया जाता रहा है। भाषा की इस स्वीकार्यता के आधार पर समाज में द्विलिंगी संरचना हुई है जबकि इनके अतिरिक्त करीब पचास लाख व्यक्ति ऐसे भी हैं जो लैंगिक दिव्यांगता के कारण ना नर कहे जा सकते हैं ना मादा अतः तथाकथित सामान्य सभ्य समाज द्वारा तिरस्कृत , प्रताड़ित होने के साथ–साथ मानसिक समस्याओं से भी यह वर्ग जूझता है । उन्हें समाज की मुख्यधारा से कटकर गंदी, मलिन बस्तियों में हार्शिए पर घोर निर्धनता ,अशिक्षा और अभाव से भरा जीवन जीने को बाध्य कर दिया गया है । इन्हें शिखंडी, छक्का , कीव, खोजा , मौसी , हिजरा , किन्नर (हिंदी) हिजरा, हिजला (बंगाली) नपुंसुकुडू, कोज्जा,मादा (तेलुगु) अरावली,अरुवनी (तमिल )खुसरा (पंजाबी) खदरा ( सिंधी) पवैया (गुजराती) यनक , हर्माफ्रोडाइट (अंग्रेजी ) आदि नामों से संबोधित किया जाता है । अब यूरोप में इन्हें ही, शी, जी कहा जाता है । 2014 में न्यायालीय निर्णय के अनुरूप इन्हें ‘ थर्ड जेंडर‘ कहा जाने लगा है ।
किन्नरों का अस्तित्व अनंतकालीन है। ये किसी दैवी आपदा की भांति अचानक अविर्भूत नहीं हुए हैं । ये रामायण में ‘ पहिरावहु जयमाल सुहाई‘ कहकर सीता की प्रसन्नता को बढ़ाते हैं तो महाभारत में शिखंडी रुप में धर्म की विजय के वाहक बनते हैं, अर्जुन के बृहन्नाला रूप में अज्ञातवास को पूर्ण बनाते हैं तो तमिलनाडु में ‘ थिरु नाम्गाई‘ (ईश्वर पुत्री) के रूप में मान्य हैं। मध्य कालीन राजाओं और नवाबों की अनुपस्थिति में उनके रनिवासों के संरक्षक बनते हैं तथा शत्रुओं की गुप्तचरी कर उनके विजय अभियान को सुगम बनाते हैं । ख्वाजा सरा के रूप में उनकी यौन क्षुधा भी शांत करते थे। अलाउद्दीन खिलजी और सेनापति मलिक काफूर का संबंध अब ऐतिहासिक सत्य बन चुका है । भारतीय संस्कृति में यक्षों गंधर्वों के सदृश ही इनका महत्व पूर्ण स्थान था किन्तु अब इनकी स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई है। ‘ ई मुर्दन का गांव ‘ (कुसुम अंसल ) में गुरु जया सिद्धार्थ से कहती हैं_” जन्म तो किसी के बस की बात नहीं है बेटे,पर ठीक से जीने का हक तो सबको है। पुराने जमाने में हमारे जैसे लोग ख्वाजा सरा कहलाते थे और बादशाहों के महलों खोलियों में रहते थे। मंदिर मस्जिद की पहरेदारी या जनानखानों की रखवाली के साथ– साथ हमारा काम था इधर उधर की गप्पबाजियों और अफवाहों को सुनकर राजा को बताना ।” [1] मिस्त्र, बेबिलोनिया और मोहनजोदड़ो की सभ्यता में भी इनके पुरातन सहअस्तित्व के चिह्न मिलते हैं तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी इनका उल्लेख मिलता है। उसके पश्चात एक प्रकार से इन्हें भुला ही दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति एवं संविधान के वास्तविक अर्थ के ज्ञान से अब इनकी स्थिति में अंतर आया है । यह वर्ग स्वयं भी अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो रहा है । न्यायालय के गलियारों तक पहुंची इनकी गुहार व्यर्थ नहीं गई। इनकी अस्मिता के संघर्ष में सकारात्मक मोड़ 2009 में उच्चतम न्यायालय के निर्णय से भी पूर्व दृष्टिगत होता है जब चुनाव आयोग ने चुनाव संहिता में पुरुष और स्त्री श्रेणी के मतदाताओं के अतिरिक्त ‘अन्य‘ श्रेणी के अंतर्गत इन्हें मतदाता सूची में पंजीकृत कर पहचान पत्र दिया । 2011 की जनगणना में पांच लाख तृतीय लिंगी व्यक्तियों में से 2 8341अब मतदाता घोषित हो चुके हैं । इससे पूर्व 2008 में तमिलनाडु में इस समुदाय को सरकारी मान्यता मिल चुकी है तथा वहां एक ट्रांसजेंडर वेलफेयर बोर्ड की स्थापना भी हो चुकी हैं।संवेदनशील साहित्यकार किसी वर्ग या विषय से संबद्ध अनदेखे , उपेक्षित पहलू की पड़ताल कर उसपर तर्क वितर्क करके समाधान हेतु प्रयास प्रस्तावित करते हैं। इस प्रकार एक विषय से जुड़े अन्य विषय भी उभरते और विमर्श के विषय बनते जाते हैं जैसे दलित विमर्श के साथ सुगबुगाता किन्नर अस्तित्व एवं अस्मिता का प्रश्न सर्वाधिक गर्म विमर्शीय विषय है। इस समाज में वाद विवाद,, संवाद कुछ भी स्थिर नहीं है अतः स्त्री विमर्श, दलित व आदिवासी विमर्श समय समय पर उभरते गए। 23 -24 जुलाई 2016 हिन्दी भवन , भोपाल में आयोजित ‘ समकालीन उपन्यासों में थर्ड जेंडर की सामाजिक उपस्थिति ‘ व्याख्यानमाला के साथ ही डॉ शरद सिंह ने थर्ड जेंडर विमर्श का आरंभ किया। अब साहित्यकारों ने उपन्यासों , कहानियों , कविताओं और पुस्तकों में इनके चुनौतियों से भरे जीवन, पारिवारिक, सामाजिक ,आर्थिक , शैक्षिक , राजनीतिक पहलुओं से सामान्य जनमानस को परिचित कराने का प्रयास कर रहे हैं। यमदीप (नीरजा माधव,2002) , पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नालासोपारा ( चित्रा मुद्गल , 2016) किन्नर कथा (महेंद्र भीष्म, 2011 ) तथा मैं पायल ( महेंद्र भीष्म ,2016) तीसरी ताली (प्रदीप सौरभ 2011) , मैं हिंजड़ा मैं लक्ष्मी (लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ), प्रति संसार (मनोज रुपड़ा 2008),गुलाम मंडी ( निर्मला भुराड़िया 2014) आदि अवलोकनीय औपन्यासिक कृतियां हैं। ‘जानमन ‘ (मछेन्द्र मोरे ) नाटक है । अंग्रेजी की आलोचनात्मक पुस्तकों Invisibles:A tale of eunuchs in India (Jia Jafri), Neither man nor women:the hizras of India (Serena Nanda) Changing sex and bending gender (Elisan Shaw), The female eunuch (Jarmen Greer), The autography of a sex worker (Naline janida ) आदि में भी इनके जीवन की विभिन्न परतों को उघाड़ा गया है। वेदिका गीतिका, सत्या शर्मा कीर्ति, भरत प्रसाद आदि ने अपनी कविताओं में इनकी पीड़ा को मार्मिक अभिव्यक्ति दी है । इन पर लिखी कहानियों की संख्या कम है । श्री फिरोज खान ने ‘थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां‘ नाम से इनपर लिखी कहानियों को संकलित किया है । इसमें किन्नर वर्ग की समस्याओं, सामाजिक वर्जनाओं एवं पूर्वाग्रहों को रेखांकित करती हर संयंत्र की छोटी बड़ी कहानियां है। इनमें कहानीपन है तथा ये इस वर्ग की कड़वी सच्चाई को उकेरी और बहुस्तरीय एकांगी सोच को निरस्त करती हैं । इनकी संवेदनासंकुलता पाठकों की आंखों में आंसू भर देती है। पाठक मन पीड़ा और अनकही व्याकुलता से भर उठता है । गिनी –चुनी होने पर भी कथाकारों की विद्वत्ता, दृष्टिकोण और वैचारों की बेबाकी की छाप इन कहानियों में स्पष्ट दिखाई देती है। यद्यपि कुछ कहानियां केवल किसी मनोवैज्ञानिक स्तर को आलेखित करती हैं पर वास्तव में वही इनको वृहत्तर बनाने वाली शक्तियां भी हैं। कहानियों के आईने में प्रतिबिंबित यह वर्ग अगणित समस्याओं और चुनौतियों से जूझता है।
विस्थापन का दंश अत्यंत भयावह एवं कष्टकारी होता है।एक किन्नर बालक को सर्वप्रथम अपने परिवार से ही विस्थापित किए जाने का दंश भोगना पड़ता है। महेन्द्र भीष्म ने ‘किन्नर कथा ‘ में लिखा है -” प्रत्येक हिंजड़ा अभिशप्त है। अपने परिवार से बिछुड़ने के दंश से । समाज का पहला घात यहीं से उस पर शुरू होता है। अपने ही परिवार से , अपने ही लोगों द्वारा, उसे अपनों से दूर किया जाता है। परिवार से विस्थापन का दंश सर्वप्रथम उन्हें ही भुगतना होता है।“[2]
अन्य शिशुओं की भांति ही मां के गर्भ से उत्पन्न हुआ किन्नर शिशु अपने माता –पिता एवं भाई– बहनों से निर्ममता पूर्वक पृथक कर दिया जाता है । सर्वप्रथम तो अस्पताल की नर्सों और यदा–कदा डॉक्टर द्वारा ही ऐसे शिशु की सूचना किन्नरों को मिल जाती है और वे उन्हें छीन ले जाते हैं । पुरुष वर्चस्व वाले समाज की वर्जनाएं भी सक्रिय भूमिका निभाती हैं । पिता अपने मान – सम्मान तथा पुरुष के मिथ्याभिमान में ऐसी संतान को उसकी माता से अलग कर हिंजड़ो को सौंप देते हैं जबकि उस अबोध बालक को यह भी ज्ञात नहीं होता कि किन्नर क्या होता है ? और वह किन्नर है ? परिवार के लिए रोता –बिलखता, शारीरिक– मानसिक यंत्रणा सहता वह धीरे–धीरे किन्नरों में ही रहता जाता है । अंजना वर्मा की ‘कौन तार से सीधी चदरिया‘ कहानी परिवार से विस्थापित सुंदरी की पीड़ा को मुखर करती है। इसी प्रकार चांद दीपिका की कहानी ‘खुश रहो क्लिनिक ‘ में ऋषि का दर्द पाठक को द्रविभूत करता है। पारिवारिक समृद्धि उसके लिए धूल हो जाती है और वह किन्नरों के समूह में प्रताड़ना झेलता बड़ा होता है। उसके पिता ही उसे उसकी सोती मां के पास से उठाकर किन्नरों को सौंप देते हैं । अपने इस आधे–अधूरेपन के लिए उसका रचयिता ईश्वर भी निरुत्तर बना रहता है । वह समझ नहीं पाता कि–
“अपनी मां के ही गर्भ में पला
माताा पिता के संबंधों का प्रतिफल
मां का ही दूध पिया था मैंने
पर खुद नहीं किए थे सृजित मैंने अपने शारीरिक अंग
फिर कुछ अंगों के निर्धारण ने क्यों अछूत बना दिया मुझको
क्यों खुद से काट मेरे अपनों ने भेज दिया अनजानों की बस्ती में “[3]
पिता से वह कुछ पूछ नहीं पाता अतः अपनी सबसे सगी मां से ही पूछता है–
” दिया था तुमने ही जन्म मुझे
फिर दोष कहां था मेरा मां?
दर –दर की ठोकर खाने मुझको
फिर कैसे छोड़ दिया था तुमने मां ?
अपने घर भी रह सकता था तुम संग
पर महफिलों में अब नाचता हूं मैं मां।“[4]
अपने विकलांग अथवा मानसिक रूप से विकसित बालक को जो माता–पिता अतिरिक्त प्रेम प्रदान करते हैं यथा सामर्थ्य,धनव्यय कर चिकित्सा कराते हैं वे ही जैविक विकलांगता से ग्रस्त शिशु ( किन्नर) को नहीं रख पाते। कभी कभी ऐसी बच्चे कुछ बड़े होने और वास्तविकता से परिचित होने पर अपने अभिभावकों को लांछना , अपमान से बचाने के लिए घर से निकल जाते हैं तो कुछ पिता की निर्ममता के कारण घर छोड़ देते हैं । ऐसे बच्चे यदि फिर घर लौटना चाहें तो किन्नर समाज साम, दाम, दंड ,भेद अपनाकर उन्हें लौटने नहीं देता और यदि ये उनकी आंखों में धूल झोंक किसी तरह भाग आते हैं तो माता –पिता इन्हें रखने को तैयार नहीं होते । इस प्रकार इन्हें दोहरा –तिहरा विस्थापन भोगना पड़ता है। ‘ पहली बख्शीश ‘ (रजनी पोरवाल) कहानी में रतन पिता की मार से बचने के लिए घर से भागता है फिर किन्नर समूह में व्याप्त भयावह वातावरण से किसी प्रकार भाग घर आता है तो मां उसे देख मूर्छित हो जाती है और पिता उसे भगा देता है । पुनः हिम्मत कर दुबारा घर आने पर मां ही उसे वापस जाने के लिए कह देती है अतः उसे अंतिम शरण किन्नरों की बस्ती में ही मिलती है । कालान्तर में अपनों द्वारा पहचाने व चाहने पर भी वह वापस नहीं लौटना चाहता। ‘खुश रहो क्लिनिक ‘ का राजा डांस ऋषि बन अपना क्लिनिक खोलता है। वहां पिता के साथ आई रोगिणी मां को पहचान लेता है किंतु घर लौटने के स्थान पर अपने असिस्टेंट को क्लिनिक सौंप कर एक अनजानी राह पर चल पड़ता है । ‘कौन तार से सीधी चंद्रिमा ‘(अंजना वर्मा ) की कहानी महीन संवेदनात्मक रेशों से बुनी है। मां की सुषुप्तावस्था में किन्नरों द्वारा उठाकर ले जाई किन्नर बालिका में अपनी मां– बहनों से मिलने की स्वाभाविक लालसा है किंतु वह यह भी जानती है कि सामाजिक वर्जनाओं के कारण वह खुलकर उनसे बात या मिल नहीं सकती है । वह अपनी साजिश कुसुम से अपना दर्द व्यक्त करते हुए कहती है-” और क्या करना कुसुम बेसी हिली – मिली के? ओ सबके दुनिया अलग है , अउर हमर सबके दुनिया अलग , हाथ –पैर मुंह कान मानुष के समान होके भी हम मानुष में नहीं गिनाते हैं। ऐसे अच्छा होता कि हम कोनौं जानवरै जाति में जनम लेते, चाहे मरद होते चाहे मउगी, अभी हम क्या है ? बताओ तो? “ [5]
यह ध्यातव्य है कि यदि अभिभावक सामाजिक वर्जनाओं, मान सम्मान की चिंता छोड़ अपनी किन्नर संतान को भी अन्य संतानों जैसा ममत्व एवं संरक्षण , उनके विकास के लिए यथोचित शिक्षा दें तो वे भी समाज में अपना स्थान बना सकते हैं। ‘ ई मुर्दन का गांव ‘ कहानी में लेखिका कुसुम अंसल ने स्पष्ट किया है कि अभिभावकों की दृढ़ता, ऐसे शिशुओं को मुर्दों के गांव अर्थात किन्नर समाज में जीवन व्यतीत करने से बचाकर स्वस्थ सामाजिक जीवन दे सकते हैं । अलिंगी विली के माता–पिता उसे लेने आए हिजड़ों की टोली को मोटी रकम थमा कर उनका मुंह बंद रखते हैं तथा विली को पेरिस भेजकर शिक्षा प्राप्त करने और सफल फैशन डिजाइनर बनने के लिए पूरा सहयोग देते हैं ।
‘संझा‘ ( किरण सिंह) कहानी, कथ्य , शिल्प , संदेश , संभावना सभी दृष्टियों से एक उत्कृष्ट या माइलस्टोन रचना है । लेखिका ने व्यापक कैनवस पर एक किन्नर बालिका के जन्म से लेकर उसके अभिभावकों की पीड़ा और समाज द्वारा दी जाने वाली यातना को यथार्थ के धरातल पर अभिव्यक्त किया है। रहमान खेड़ा के चौगांव के वैद्य जी अपनी किन्नर बालिका को समाज और संसार से छिपा कर अपने प्रेम और निगरानी में पालने में अपनी सारी ऊर्जा समाप्त कर देते हैं। वे समस्त सामाजिक वर्जनाओं को अस्वीकार कर मृत पत्नी का दाह संस्कार भी स्वयं करते हैं तथा उसे अकेला छोड़कर जड़ी बूटी लेने जंगल में भी नहीं जाते जिससे वैदिकी समाप्त प्राय: हो जाती है । मात्र एक जननांग न होने या प्रजनन की क्षमता ही इतनी महत्वपूर्ण क्यों है यह सौदा को समझ में नहीं आता क्योंकि उसने अंधों, हाथ पैरों से विकलांग , रीढ़ की हड्डी के विकार से ग्रस्त तथा मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्तियों को एवं बांझ स्त्रियों को भी जीवन जीते देखा है । वैद्य जी उसे समाज की रुग्ण मानसिकता तथा अपने भय से अवगत कराने के लिए विवश हो जाते हैं -” इस धरती के बाशिंदों ने तुम्हारी जाति के लिए नरक की व्यवस्था की है। उस नरक के लोग उस पहाड़ी पर तुम्हारे जनम के सात साल बाद आकर बस गए हैं। वे लोग कपड़ा उठाकर नाचते हैं ,भीख मांगते हैं। लोग उन्हें गालियां देते हैं और थूकते हैं उनके मुंह पर, दरवाजा बंद कर लेते हैं , उन्हें घेरकर मारते हैं । …..तुम्हारे बारे में पता लग गया तो वे लोग तुम्हें भी छीनने आ जाएंगे और चौगांव के लोग तुम्हें घर से खींच कर उनके साथ भेज देंगे ।” [6] वे लोकापवाद से बचने के लिए । उसका विवाह ललिता महाजन के किन्नर दत्तक पुत्र कनाई से कर देते हैं । वे उसे वैदिकी के गुणों में निष्णात करते हैं जिससे वह ना केवल पितृगृह की गिरती साख को बचाती है अपितु अत्यंत साहस से अपना विरोध करने वालों _ ललिता महाराज, बसुकि के बलात्कारी चचेरे भाइयों ,तीन बच्चों को जहर देने वाली सोमंती , वेश्यावृत्ति करने और गर्भ से बचने के लिए गर्भाशय निकलवाने वाली कुनाकी का भंडाफोड़ करते हुए कहती है -” ना मैं तुम्हारे जैसी मर्द हूं, ना तुम्हारे जैसी औरत । मैं वह हूं जिसमें पुरुष का पौरुष हैऔर औरत का औरतपन। तुम मुझे मारना तो दूर अब मुझे छू भी नहीं सकते क्योंकि मैं एक जरुरत बन चुकी हूं । सारे चौगांव ही नहीं , आसपास के कस्बे शहर तक , एक मैं ही हूं जो तुम्हारी जिंदगी बचा सकती हूं। अपनी औषधियों मे अमरित का सिफत मैंने तप करके हासिल किया है । मैं जहां जाऊंगी मेरी इज्जत होगी। तुम लोग अपनी सोचो।“[7] वह बाउदी की गद्दी तक पहुंची है जिसका श्रेय वैद्य जी के साथ स्वयं उसके साहस को है । अंत में कहानी कहती है-” मैं अब तक भाग्य था । लेकिन किसी मजबूर पर ताकत आजमाने वाला और किसी मजबूत की ताल में दुबका हुआ मैं सबसे बड़ा हिजड़ा हूं ।“[8]
भारतीय समाज भी अपूर्ण लिंगीं प्राणियों के प्रति निर्मम है। विकृत सामाजिक परंपराओं तथा पूर्वाग्रहों ने इनके जीवन को और अधिक त्रासद बनाया है। इन पर चोरी, टोना टोटका , जादू करने, मानवी तस्करी तथा बरबस लोगों को अपहृत कर उन्हें हिंजड़ा बनाने के आरोप जब तक लगाए जाते हैं । मनचाहा नेग ना मिलने पर नग्न होकर नाचने, गाली बकने तथा शाप देने , शराब गांजा चरस पीने तथा वेश्यावृत्ति करने के पूर्वाग्रहों के कारण भी सभ्य व्यक्ति इनसे संबंध रखने में कतराता है। किन्नर भी इसी समाज की इकाई हैं किन्तु समाज ना उनसे अपेक्षित जुड़ाव अनुभव करता हैं ना इनकी पीड़ा उन्हें झकझोरती है। वह उनके साथ उठना– बैठना, खाना–पीना दूर अपने जीवन की मुख्यधारा से किसी प्रकार भी जुड़ने देना उचित नहीं समझता। ‘ई मुर्दन का गांव‘ (कुसुम अंसल) में सिद्धार्थ के साथ किन्नरों के निवास पर पहुंचे सरदार जी उनके हाथ का पानी पीने के लिए तैयार नहीं होते -” कैमरा दी बोतल मंगवाओ जी…तुआडे हाथ था पाणी किस्त्रां पी सकते आं असी।“[9] सलीमा कहती है-“हमारी समाज में ना कोई जगह है न पहचान …..हम सब अछूत हैं, नीच से भी नीच समझे जाते हैं ।” [10] यूरोपीय देशों में ऐसे यौनिक दिव्यांगों का जीवन अत्यंत सामान्य होता है। प्रजनन में असमर्थ वे दत्तक संतान के रूप में वारिस प्राप्त करते हैं । स्त्रियों जैसी मानसिकता वाले किन्नर पुरुष श्रम चिकित्सा , स्टेरायड हारमोंस का सहारा लेकर विकृत नर या शी मेल बन जाते हैं। फिलीपींस में ऐसे लोगों की बहुतायत है किंतु भारत में ऐसी मानसिक विकृति को स्वीकृति नहीं मिली है । आधुनिक समाज में जीते तथाकथित सभ्य लोग जहां आरक्षण के नाम पर आगजनी की घटनाओं को अंजाम देते हैं, सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाते हैं तथा वेतन भत्ता बढ़ाने की मांग करते हुए आए दिन धरना देते एवं भूख हड़ताल करते हैं वहीं किसी किन्नर को बसें फूंकते, रेल को अकारण चेन खींचकर रोकते , व्यर्थ का झगड़ा करते नहीं देखा सुना गया । अपने गिरेबान में ना झांककर सभ्य कहलाने वाले व्यक्ति इनसे निकटता स्थापित करने में हिचकिचाते हैं । इनके प्रति उनकी दृष्टि अश्लीलता से भरी होती है। सामाजिक स्वीकार्यता के अभाव में इनका जीवन अत्यंत शोचनीय है। श्री अनिल मिश्रा ने उक्त स्थिति पर संवेदनात्मक दृष्टि डाली है-“तीसरी दुनिया के लगभग हर इंसान की कहानी एक जैसी है । बचपन के संजोए सपने ताश के पत्तों की तरह बिखर गए । तिरस्कार के कारण घर छूटा , अपने छूटे और फिर ऐसे चौराहे पर आकर खड़ा हुआ जो कहने को तो चौराहा था लेकिन रास्ता इनके लिए कहीं नहीं था । फिर एक छोटी सी गली दिखी , शायद तीसरी दुनिया की थी , जहां इस समुदाय के टूटे इंसानों का बसेरा था, बरसात से गीली लकड़ी थी, एक वक्त की आधी रोटी थी और कभी ना टूटने वाली उम्मीद थी जिसके सहारे आज किन्नर और ट्रांसजेंडर अपने हक के लिए लड़ रहे हैं।“[11]
विडम्बना यह है कि बहिष्कृत तिरस्कृत करने वाले समाज के शुभ कार्य इनकी बधाइयों के बिना पूर्ण नहीं होते जबकि बिन बुलाए मेहमान की तरह पहुंचे ये वहां भी उपेक्षित और अपमानित होते हैं क्योंकि वहां भी इनकी स्थिति एक याचक की होती है सहभागी की नहीं । समाज की इस बेरुखी से दुखी होकर इन्होंने भी अपनी दुनिया को उससे काट लिया है , एक अबोला रिश्ता बना लिया है । इनका एक पृथक समाज है जिसकी संरचना अत्यंत जटिल है। बाहर वालों की उसमें कोई जगह नहीं है और जन्म देकर निराधार भटकने के लिए छोड़ देने वाले संबंधियों को ये याद ना करने की चेष्टा करते हैं । अपने समूह के लोगों से ही ये माता –पिता , गुरु, बहन –भाई का संबंध स्थापित कर लेते हैं ।
इनकी अपनी सामाजिक मान्यताएं , कायदे–कानून होते हैं जिनका पालन इनके लिए अनिवार्य होता है । सात घरों के समूह का एक मुखिया या नायक होता है जो अपने नीचे एक गुरु का चयन करता है। गुरु का स्थान अत्यंत सम्माननीय होता है । जब कोई नया किन्नर समूह में आता है तो उसका विवाह गुरु से कराया जाता है। वह तथा अन्य किन्नर गुरु और वयोवृद्ध किन्नरों की सेवा आदर्श बहू की तरह करते हैं । ‘ई मुर्दन का गांव ‘ में एक किन्नर बताती है _”अब तो यही परिवार है हमारा। गुरु जया हमारी सब कुछ हैं। हम सब आपस में एक दूसरे के दुख –सुख के साथी हैं। गुरु की एक समझदार बहू की तरज्ह सेवा करती हैं। गुरु वह खिड़की है जो बाहर के दृश्य का बोध कराती है…. गुरु यानी खिड़की । जीवन पर लगी खिड़की खुलनी तो होगी। “[12] किन्नर पुरुष भाई तथा स्त्री प्रवृत्ति के किन्नर बहन कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त दादा , दादी , चाचा , बुआ आदि संबंधी होते हैं जिनके साथ रहते हुए ये अपना जीवन बिताते हैं। प्रत्येक किन्नर ईमानदारी से अपनी कमाई का एक भाग गुरु को देता है जिसे गुरु उक्त किन्नर की बीमारी, मृत्यु तथा अन्य आयोजनों पर व्यय करता है। गुरु की मृत्यु पर सर्वसम्मति से दूसरे गुरु का चयन किया जाता है। किन्नरों के 500 ग्राम तथा निम्न शाखाएं हैं– बुचरा (जन्म जात किन्नर) नीलिमा ( जबरन बनाए गए किन्नर ), मनसा ( इच्छा से बने किन्नर) हंसा (किसी शारीरिक दुर्बलता से ग्रस्त किन्नर ) , अबुआ ( धन के लोभ में किन्नर बनकर किन्नरों को न्यौछावर के रूप में मिलने वाली धनराशि को लूटते हैं )। छिबरा. (पारिवारिक रंजिश के कारण शत्रु परिवार के लड़के–लड़कियों को उठाकर , उनके लिंग हटवाकर उन्हें किन्नर बना देते हैं ) । अपनी _अपनी शाखा के अनुसार ही इनके कार्यों का विभाजन किया जाता है यथा बुचरा , मृत किन्नर को छूने व उसकी कब्र पर पहली मुट्ठी मिट्टी डालने का काम करते हैं । नीलिमा शाखा के किन्नर गाने– बजाने का काम करते हैं । मनसा किन्नर सामान एकत्र करते हैं तथा हंसा किन्नर साफ–सफाई , कब्र खोदकर उसमें राख डालने का काम करते हैं । सभी किन्नरों को अपने पेशे को अपनाना पड़ता है जिसमें इन्हें इनके गुरु प्रशिक्षित करते हैं। नाचना, मटकना, ताली बजाना , अश्लील मजाक करना वस्तुत: एक स्वांग होता है जो उनके धंधे के लिए जरूरी होता है और धंधा पेट भरने की अनिवार्यता होती है। ‘ ई मुर्दन का गांव ‘ की आधुनिका किन्नर सिद्धार्थ को बताती है -” यह सब नाटक है , मसखरापन , पैसों के खातिर रचा हुआ स्वांग। पेट की खातिर महज एक धंधा । ये वही है जो हमें सिखाया गया है । हम तो इसमें कहीं नहीं हैं। “[13] धंधा अपनाने से मना करने पर इन्हें घोर यातनाएं दी जाती हैं। चोरी करना , भीख मांगना, वेश्यावृत्ति अपनाना तथा किसी को जबरदस्ती किन्नर बनाना इनके समाज में वर्जित है किंतु फांकों की स्थिति में अथवा किसी विशिष्ट आवश्यकता की पूर्ति के लिए ये उपर्युक्त अनुचित मार्ग भी अपना लेते हैं। विजेन्द्र प्रताप सिंह की कहानी ‘ संकल्प ‘ में किन्नर बालक को मां की मृत्यु और पिता की मानसिक विक्षिप्तता के कारण पिता तथा नवजात बहन के पालन–पोषण के लिए भीख मांगनी पड़ती है , रद्दी बीनकर कबाड़ियों को बेचनी पड़ती है। गुरु माई शांति के पास से लौटते हुए पुलिस द्वारा बलात्कार का शिकार होने पर वह शल्य प्रक्रिया द्वारा पूर्ण स्त्री बनने के लिए जरूरी एक लाख रुपये एकत्र करने के लिए वेश्यावृत्ति भी अपनाता है। प्रश्न उठता है कि किन्नरों को वेश्यावृत्ति में धकेलने वाला कौन है? हम ही ना ? पुरुषों की शारीरिक लिप्सा की पूर्ति करने वाली देह मंडियों, सांफ्ट पोर्न साइट्स , और ब्लांगों को धड़ल्ले से स्वीकार्यता मिली है। ऐसे पुरुष जो यौन तृप्ति चाहते हैं किंतु संतानोत्पत्ति से बचना चाहते हैं प्रजनन में असमर्थ किन्नर समूह को वेश्यावृत्ति में धकेलते हैं और उन्हें कोई कुछ नहीं कहता।
कादंबरी मेहरा की कहानी ‘ हिजड़ा ‘ की नायिका रागिनी ग्रेजुएट तथा गायन –वादन, अभिनय में निपुण होने के बाद भी परिस्थितियों की प्रतिकूलता में स्वयं को ढालने की कोशिश करती है किंतु विमाता के अत्याचार , पड़ोसियों के तानों तथा जीजा द्वारा किए जाने वाले बलात्कार से तंग आकर अंततः अपनी आजीविका के लिए किन्नर बनती है और उनके समान ही गाने गाने , मजाक करने लगती है। प्राय: सभी किन्नर शराब गांजे का सेवन करते हैं । कुछ नकली या बने हुए किन्नर अपेक्षित नेग ना मिलने पर लड़ाई झगड़ा तथा अश्लील व्यवहार भी करते हैं । अपने किन्नर समाज में प्रवेश करते ही इनका वास्तविक नाम और जाति बदल जाती है। हिंदू किन्नर का मुस्लिम और मुस्लिम किन्नरों के हिंदू नाम रखे जाते हैं । सब की आराध्य देवी माता बुचरा होती हैं जिनका मंदिर गुजरात में है । अर्थवान (अर्जुन पुत्र) को ये देवता तथा अपना पति मानते हैं जिनका कथान्उवार मंदिर तमिलनाडु के बिल्लुपुरम जिले के कुरांन गांव में स्थित है । केरल में आमप्पा एवं कर्नाटक में चामप्पा तथा बिहकू , कर्नाटक में चेलम्मा देवी के मंदिरों में प्रतिवर्ष आयोजित उत्सवों में डांडिया नृत्य, गायन तथा सौंदर्य प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है जिसमें जगह–जगह से बड़ी संख्या में किन्नर एकत्रित होते हैं तथा मिलकर आनंद मनाते हैं ।
किन्नरों में प्रचलित विश्वास के मतानुसार किन्नरों में सिद्ध पुरुषों जैसे दिव्य शक्ति होती है । इनके आसपास व्याप्त दैवीय शक्ति का यह आभामंडल ही उनको सब के प्रति सदाशयता से भरता है । स्वयं दुखी होते हुए भी ये दूसरों की खुशी में खुश होते , नाचते – गाते हैं । किसी को बद्दुआ नहीं देते । तीर्थ यात्रा से पूर्व इनका आशीष मनोरथ सिद्ध करता है तथा शांति की प्राप्ति होती है । ‘ ई मुर्दन का गांव ‘ में सलीमा बताती है कि-” मक्का शरीफ या काबा जाने से पहले अगर हाजी किसी हिजड़े का हाथ चूम ले तो पुरअसर ही नहीं होता सवाब भी पहुंचता है। ” [14] थर्ड जेंडर :हिंदी कहानियां , संपादक एम. फिरोज खान , पृष्ठ 56 तथा ” किन्नर गुरु जया कहती हैं -” बांझ औरतें हमारे पास बच्चे की कामना से आती हैं और ताज्जुब हमारा आशीर्वाद फलता भी है । किसी भी बच्चे का जन्म हमारे नाच –गाने के बिना पूरा नहीं होता ।“[15] सुहागिनों का सुहाग भी इनके आशीष से दीर्घ जीवी होता है । किन्नर लड़की के जन्म पर नेग नहीं लेते और मातम वाले घर से पूरे वर्ष कोई न्यौछावर नहीं लेते। जब किसी किन्नर की मृत्यु होती है तो कोई विलाप नहीं करता अपितु ये खुशी मनाते हैं । उसकी शव यात्रा अर्द्ध रात्रि में चुपचाप निकाली जाती है । इनके शव को उल्टा लटका कर जूते चप्पलों से मारा जाता है जिसके मूल में यह विश्वास है कि ऐसा करने से वे पुनः इस योनि में जन्म नहीं लेते । किन्नर महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी और किन्नर महामंडलेश्वर मीरा परेडा इस विश्वास को पूर्वाग्रह ग्रसित मानती हैं। उनके अनुसार ऐसा कुछ नहीं होता। वस्तुत: मृत किन्नर को उसके धर्मानुसार जलाया या दफनाया जाता है।किन्नरों ने स्वयं अपने समाज और जीवन के चारों तरफ ऐसी अभेद्य प्राचीर निर्मित कर रखी है जिसमें किसी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश असंभव है। ये स्वयं भी अपने विषय में कुछ नहीं बताते संभवतः इन्हें अपने इतिहास व समाज के विषय में पूरी जानकारी नहीं है और यदि है भी तो इन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि इनके बारे में जानकर भी लोगों का इनके प्रति दृष्टिकोण बदलेगा नहीं अतः ये अपने बारे में मौन ही रहना उचित समझते हैं। साहित्यकारों द्वारा चित्रित किए गए इनके स्टीरियोटाइप वेशभूषा और व्यवहार , नेग ना मिलने पर गाली गलौज करना नाचना, बद्दुआ देना आदि के कारण भी इनकी जो छवि उभरती है उसके कारण भी लोग इनसे कतराते हैं ।
कायिक अपूर्णता , पारिवार व समाज से तिरस्कृत ऐसे प्राणियों में दया , माया , ममता , प्रेम आदि मनोभाव सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा कहीं अधिक होते है । शिव प्रसाद सिंह की कहानी ‘बिंदा महाराज ‘ इस दृष्टि से नई कहानी के दौर की एक उत्कृष्ट रचना है। बिंदिया या बिंदास महाराज सदियों पुरानी जटिल संवेदना का प्रतिनिधित्व करता किन्नर है जिसके माता–पिता उसके प्राणहीन शरीर को जन्म देकर उसे निराधार छोड़ जाते हैं । वह ना पुरुष है ना स्त्री अतः पुरुषत्व का शासन और बाल –बच्चों के सुख से वंचित रहता है । निर्मम समाज उसकी न्याय और समानता की पुकार को ठुकरा देता है । अधेड़ावस्था में जब शरीर आयुजनित विकारों से खोखला जर्जर हो चुका था तब सीलन भरी कोठरी में नि:संबल एकाकी पड़ा वह प्रतिपल पास आती मृत्यु को देखता रहता है। वह अपने विगत पर जब दृष्टि डालता है तो उसमें से दिखाई देता है परिजनों द्वारा दिए जाने वाला विस्थापन का दंश, भाई भतीजों की दुत्कार तथा प्रेम स्नेह की अधूरी प्यास। वह चचेरे भाई की संतान से प्रेम करता हैं पर प्रतिदान में उपेक्षा और घर से निष्कासन मिलता है। उसका प्रेम पवित्र और आंतरिक है जो वह दीपू मिसिर से नहीं उसके ढाई वर्षीय पुत्र से करता हैं किंतु उसके अकस्मात रुग्ण व मृत्यु हो जाने पर बिंदा के ऊपर डायन होने का आरोप लगाया जाता है । बिंदा की जहां से प्रेम मिले उसे दोनों बाहें फैला कर बटोरने की चेष्टा असफल रहती है और अन्ततः उसकी फैली हथेलियां खाली ही रह जाती हैं। इस मार्मिक बिन्दु पर आकर कथानक व्यष्टि की सरहदों को पारकर समष्टि तक फैल जाता है। कथाकार का संदेश कहानी की बुनावट की परतों के नीचे छिपा है । किन्नर वर्ग की पीड़ा , सामाजिक पूर्वाग्रहों की कलई विभिन्न आयामों में खुलती जाती है। बिंदा महाराज की झुलसती हंसी से स्तब्ध पाठक भी समझ जाता है कि घूरे पर कबाड़ बीनते घुरबिनवा का प्रेम बिंदा महाराज इसलिए नकार देते हैं कि वे अपने किसी प्रिय का अपशकुन नहीं देखना चाहते । उनकी प्यार की प्यास प्यासी रह जाती है।
राही मासूम रजा की कहानी ‘ख़लीक अहमद बुआ ‘ चरित्रप्रधान कहानी है । नायिका हैं ख़लीक अहमद बुआ जो आयु में अपने से छोटे रुस्तम से पति रूप में प्रेम करती हैं । शारीरिक संबंध ना होने पर भी उनका प्रेम पराकाष्ठा पर पहुंचा हुआ है । वे सुहागिनों की तरह वेशभूषा धारण करती है तथा रुस्तम की हर प्रकार से सेवा करती हैं। वे अन्य सुहागिनों की भांति ही उस पर एकाधिकार चाहती हैं। वे रुस्तम की बेवफाई और मौत के अतिरिक्त किसी से नहीं डरती हैं । वही रुस्तम जब पुखराज बाई के कोठे पर जाने लगता है तो वे स्पष्ट शब्दों में अपना विरोध अंकित करती हैं। इसके पश्चात कहानी आदर्श से यथार्थ की ओर अग्रसर होती है। वे रुस्तम की हत्या कर देती हैं । कथाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि संवेदनाओं के उफान को लैंगिक विभेद नहीं रोक सकता। प्रेम की पराकाष्ठता और अधिकारबोध बुआ को फांसी के तख्ते तक ले जाता है।गुंफित दृश्य विधान , संवेदनात्मक सहजता , तथा स्वाभाविक चरित्रविकास द्वारा कथाकार अपना संदेश प्रेषित करने में सफल रहा है। श्री कृष्ण सैनी कृत ‘ हिंजड़ा‘ रज़िया के उदात्त रूप को व्यक्त करती है। राघव और उसकी पत्नी की दुर्घटना में मौत हो जाने पर राघव की पत्नी से बहनापा जोड़ने वालीली रसिया किन्नर उसके एकमात्र पुत्र को अनाथालय भेजने का तीव्र विरोध करती है । वह उसका पालन–पोषण ही नहीं करती अपितु उसे शिक्षित कर उच्च पदाधिकारी बनाती है। उसके दुर्घटनाग्रस्त होने पर अपना रक्त देती है किंतु समाज की मानसिकता से बचने के लिए अपनी पहचान उजागर नहीं करती। उसके किन्नरों के प्रति जुगुप्सा व्यक्त करने पर हेड मास्टर रजिया का रहस्योद्घाटन करते हैं। अहं का त्याग, अनवरत संघर्ष रंग लाता है और ना केवल उसकी पालित संतान उसे समुचित सम्मान देती है बल्कि कहानी के विस्तृत कैनवस पर रजिया का परोपकारी व्यक्तित्व अपनी संपूर्ण विराटता में छा जाता है।
डॉ पद्मा शर्मा की कहानी ‘ इज्जत के रहबर ‘ हिजड़ा सोफिया के साहस और दिलेरी को व्यक्त करती है । उसके दो परस्पर नितांत भिन्न रूप इस कहानी में दिखाई देते हैं। अपने पारंपरिक रूप में वह प्रत्येक त्योहारों , शादी–ब्याह, बच्चे के जन्म, दुकानदारों को और यहां तक कि रेल की सवारियों से भी मन मांगे पैसे लेती थी तथा उन्हें रिझाने पटाने के लिए नए नए गानों पर ठुमके लगाती थी। श्री लाल के भाई के विवाह में वह अपनी टोली सहित नाच करती है तथा मन माना नेग ना मिलने पर धमकी देने से भी नहीं चूकती – ” देखो लाला जी, जो सबसे लेते हैं वह आपसे भी लेंगे। यदि नहीं दोगे तो हम अभी नंगा नाच दिखाते हैं ।“[16] उसकी ताली की फटकार, मर्दाना गालियों के साथ किया गया नाच , देखने सुनने वाले को भी शर्मिंदा करता है किंतु यही सोफिया मानवता की सशक्त मूर्ति भी है। वह एक पगली के बालक बिल्लू को पालती है । कारगिल युद्ध के समय फौजियों के निमित्त 5000 का चैक देती है तथा सड़क पर खून से लथपथ पड़े व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाती है और अपना खून देने के लिए तैयार हो जाती है। लेखिका ने स्पष्ट किया है कि संवेदना की गहनता और विरोध करने की अप्रतिम शक्ति नकारा समझे जाने वाले इन अधूरे व्यक्तियों में कहीं अधिक होती है।
वास्तविक इज्जत और सम्मान का जीवन जीने के हकदार भी यही हैं। जब एक स्थानीय गुंडा श्रीलाल की बेटी का बलात्कार करता है तब सोफिया श्रीलाल को पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने और बिल्लू को गवाह रूप में पेश करने के लिए कहती है। जब श्रीलाल परिवार की इज्जत का हवाला देकर निष्क्रिय बने रहते हैं तो सोफिया अपने साथियों सहित बलात्कारी को हिजड़ा बना कर समाज में अपनी एक नई छवि पेश करती है । वह कहती है ” इन हरामियों को ऐसी सजा मिले जो हमने दी है तो कोई बहू बेटियों की तरफ आंख उठाने की हिम्मत ना करे।” [17] ‘ त्रासदी ‘ स्त्री जीवन की त्रासदी को सुंदरी किन्नर के माध्यम से रेखांकित करती है। इंजन की शंटिंग के समय ख्यालों में खोए बंसी की मृत्यु हो जाती है । उसकी पत्नी रति अत्यंत सुंदर है तथा जुड़वा पुत्रियों और एक पुत्र की माता है । पति के स्थान पर मिली नौकरी रोटी की समस्या को हल कर देती है किंतु विधवा और वह भी अपूर्व सुंदरी गुंडों की वहशी नजरों से बच नहीं पाती। वे उसे रेल के एक खाली डिब्बे में ले जाते हैं जहां सुंदरी किन्नर उसकी रक्षा करती है किंतु स्वयं उसका चेहरा घायल और कुरूप हो जाता है जिससे उसका पेशा छूट जाता है। लोग उसे भीख देकर पीछा छुड़ाने लगते हैं। ऐसे में रति उसे संरक्षण देती है। उसकी आत्मीयता रति के दुश्चरित्र पुत्र को पसंद नहीं आती अतः वह उसे प्लेटफार्म के नीचे पटक देता है। उस पर से इंजन निकल जाता है। मर्माहत रति का भी प्राणांत हो जाता है। एक प्रकार से विवेच्य कहानी ‘खलीक अहमद बुआ‘ का विस्तार लगती है। इसमें भी प्रतिशोध की आंच आत्मोत्सर्ग में बदल जाती है ।
डॉ लवलेश दत्त की कहानी ‘ नेग ‘ किन्नरों का एक नया रुप प्रस्तुत करती है। यह एक प्रकार से ‘बेटी बचाओ‘ अभियान की संस्तुति करती है। सुधीर एवं सुमन की तीसरी कन्या पर क्षुब्ध सुधीर की मां ना केवल बेटी जन्म की बात छुपाती है बल्कि किन्नरों को नेग देने से भी मना कर देती है।सुमन के विलाप करने और नेग के स्थान पर बेटी को ही ले जाने के लिए कहने पर किन्नर स्वयं उसकी बेटी को नेग देकर जाते हैं तथा उसकी सास को भी लक्ष्मी के घर आने पर प्रसन्न होने के लिए कहते हैं । पूनम पाठक की कहानी ‘ किन्नर ‘ की कथा नायिका बस में अपने पास बैठी किन्नर को देख कंडक्टर से सीट बदलने के लिए कहती है । सीट बदलते समय अपनी बांह पकड़ने का प्रयास करते लड़के को थप्पड़ मारते ही वह उसके साथियों द्वारा घेर ली जाती है । पहले उसके पास बैठी किन्नर ही उस लड़के को जोर से थप्पड़ मार कर अलग करती है।
किन्नरों की दुर्दशा का एक बड़ा कारण उनका अशिक्षित होना है। शिक्षण संस्थानों और विद्यालयों में इनके प्रति सौहार्द्र नहीं मिलता। पहले तो इन्हें दाखिला ही नहीं दिया जाता और यदि इनकी वास्तविकता को छिपाकर दाखिला दिया जाता है तो वास्तविकता खुलते ही इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है । ये उपहास का पात्र रहते हैं। अल्पायु में ही शिक्षा से वंचित हो इन्हें समूह में शरण लेनी पड़ती है जहां जीविकोपार्जन के लिए संघर्ष में शिक्षा की कोई संभावना ही नहीं होती। शिक्षा के नाम पर गाना बजाना, ताली बजाना, मादक द्रव्यों का सेवन करना , चोरी करना, भीख मांगना और देह व्यापार अपनाना ही इनके हिस्से में आता है। शिक्षा आयोग एवं उसकी नीतियां भी मौन साधे रहती है । इन्हें पाठ्य पुस्तकों में पाठों के निर्णयों, पाठ्यक्रमों व चर्चाओं में कोई भागीदारी नहीं मिलती। जो विषय पाठ्यक्रमों में निर्धारित होते हैं उनमें तृतीय लिंगियों में जागरूकता लाने वाली सामग्री नहीं होती। कोठारी आयोग (1964-66) राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) राष्ट्रीय शिक्षा आयोग पुनरीक्षा समिति (1990 ) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा( 1978, 2000 , 2005) आदि भी इनके प्रति उदासीन हैं। सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य ( 2000) तथा संशोधित सतत विकास लक्ष्य (2016-2030 ) में भी इनका उल्लेख नहीं हुआ है। यह उल्लेखनीय है कि यदि मेधावी प्रतिभा संपन्न एवं शिक्षा के प्रति जिज्ञासु किन्नर बालकों को यथोचित शिक्षा मिले तो वे भी समाज में सम्मानित पद प्राप्त कर सकते हैं । किन्नर बालक ऋषि ( खुश रहो क्लीनिक – चांद दीपिका) किन्नर डेरे के प्रमुख बाबा की सहायता से डाक्टर बनता है तथा समाज सेवा करता है। मानवी बंदोपाध्याय भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित होती हैं । उड़ीसा की किन्नर साधना बिजीनेस एडमिनिस्ट्रेशन तथा सोशल वर्क में स्नातकोत्तर डिग्री लेकर कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस में सामाजिक विकास अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । विगत 14 वर्षों से वे भुवनेश्वर में उपेक्षित महिलाओं व बच्चों के विकास के लिए कार्य कर रही हैं। लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी ( महामंडलेश्वर ) भी किन्नर समाज के लिए निरंतर कार्य कर रही हैं। इसी तरह मीरा परेडा ( महामंडलेश्वर) भी उड़ीसा में किन्नरों के उत्थान के लिए संघर्षरत हैं अब सरकार की मनोवृति में भी बदलाव आया है। गुजरात में (2014 )सी.ई. पी.टी यूनिवर्सिटी ने थर्ड जेंडर व्यक्ति को प्रवेश देने की पहल की है । इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय ने इस वर्ग को निशुल्क शिक्षा देने की घोषणा की है किन्तु अभी इस क्षेत्र में अभी और सुधार अपेक्षित हैं। सरकार को इनके लिए पृथक शिक्षा केंद्रों की व्यवस्था करनी चाहिए जिसमें इनके लिए उपयुक्त शौचालय तथा खेलकूद एवं मनोरंजन का पूरा प्रबंध हो । इनके अंदर छिपी प्रतिभाओं का समुचित वातावरण में विकास होना चाहिए । यद्यपि यह वर्ग अपनी अस्मिता के प्रति जागरूक हुआ है तथा शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं दिए जाने की मांग करते हुए न्यायालय के दरवाजे खटखटा रहा है तथापि अभी भी उनकी आवाजों में अपेक्षित तल्खी और बुलंदी की कमी है । नित्य प्रति मिलने वाले तिरस्कार ,अपमान आदि पर लगाम रखने, नकली किन्नरों द्वारा दी जाने वाली प्रताड़नाओं पर अंकुश लगाने के लिए इनके लिए पृथक थानों की भी व्यवस्था जरूरी है जिससे इनकी शिकायतों को गंभीरता से सुना जा सके।
शिक्षा के अभाव में किन्नर अपने पेशे के अतिरिक्त कोई व्यवसाय नहीं कर पाते और अभावग्रस्त जीवन जीते हैं। विशेष रूप से वृद्धावस्था में ये आयुजनित विकारों से त्रस्त होते हैं । इनको घोर अर्थाभाव में जीना पड़ता है। कभी–कभी आर्थिक स्थितियां सामान्य व्यक्ति को भी किन्नर बनने पर मजबूर कर देती हैं किंतु ये नकली किन्नर , असली किन्नरों की रोजी–रोटी में सेंध लगाते हैं । ये दो– दो रुपयों के लिए लड़ते_ झगड़ते, गाली देते , शाप देते, भीख मांगते हैं जिससे सामान्य लोगों में किन्नरों के प्रति वितृष्णा का भाव उत्पन्न होता है । अर्थाभाव के कारण ये किन्नर रोगग्रस्त होने पर कुशल डाक्टर से चिकित्सा भी नहीं करवा पाते । इनके लिए कोई पृथक चिकित्सा व्यवस्था भी नहीं है । डाक्टर इनका इलाज करने से कतराते हैं कि कहीं उनके अन्य मरीज भाग ना जाए । ऐसे में ये छोटी –मोटी बीमारी के लिए दवाओं की दुकान से गोली लेकर खा लेते हैं। आधुनिक चिकित्सा के क्षेत्र में होने वाले नए आविष्कार जिससे ये पूर्ण स्त्री या पुरुष बन सकते हैं इसका ज्ञान भी इन्हें नहीं होता। भारत में ऐसी चिकित्सा सहज उपलब्ध नहीं है और महंगी भी बहुत है जिसके लिए इनके पास पैसा ही नहीं होता। विजेंद्र प्रताप सिंह की कहानी ‘ संकल्प ‘ की नायिका माधुरी , शांति गुरु मां से यह जानकर कि बुचरा हिंजड़ो की योनि होती है और यदि उनके अंदर भ्रूण हो तो शल्य चिकित्सा द्वारा वे पूर्ण स्त्री बन सकते हैं प्रसन्न हो जाती है। सोनोग्राफी उसके अंदर भ्रूण होने की पुष्टि करती है किन्तु चिकित्सा के लिए अपेक्षित एक लाख की बड़ी राशि एकत्र करने के लिए उसे वेश्यावृत्ति अपनानी पड़ती है । गाजियाबाद का डाक्टर उसकी प्लास्टिक सर्जरी कर उसे पूर्ण औरत बनाता है।
यह स्पष्ट हो चुका है कि जैविक अनिश्चितता का कारण स्त्री पुरुष में गुणसूत्रों की कमी है । टेस्टोस्टेरॉन के प्रभाव की न्यूनता से पुरुष लिंग किंतु स्त्री भाव वाले हिजड़ों का जन्म होता है तथा शल्य चिकित्सा द्वारा उनके अधूरेपन को समाप्त कर उन्हें स्वस्थ सामान्य जीवन दिया जा सकता है । सरकार को इस दिशा में भी सार्थक सक्रियता दिखानी होगी । पूर्णता प्राप्त कर वे किसी भी सरकारी नौकरी को पा सकेंगे अथवा परंपरागत घृणित पेशे को त्याग सम्मानीय व्यवसाय कर सकेंगे।अशिक्षा के कारण ही कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी ये पिछड़े हुए हैं। चलचित्रों में बहुधा इन्हें हास्य–व्यंग्य की सृष्टि के लिए लिया जाता है। इस दिशा में भी पर्याप्त बदलाव आना है । दूरदर्शन के कार्यक्रमों में इन्हें सक्रिय भागीदारी मिलने लगी है। प्रारंभ में सरकारी रवैया भी इनके अनुकूल नहीं था। इन्हें वोट भुनाने के माध्यम रूप में ही महत्त्व दिया जाता था । सलाम बिन रज़ाक ने अपनी व्यंग्यात्मक कहानी ‘ बीच के लोग ‘ में किन्नरों के जुलूस के माध्यम से सरकारी तंत्र की अकर्मण्यता को उजागर किया है । पुलिस कांस्टेबल, लेडीज फोर्स, पुलिस कमिश्नर , होम मिनिस्टर इन से डरे रहते हैं और इन्हें अपने दम पर गिरफ्तार नहीं कर पाते। व्यवस्था का हिंजड़ापन आतंक और हिंसा को नहीं रोक पाता । लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि अब यह वर्ग भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गया है तथा सामान्य व्यक्तियों की भांति एकजुट होकर अपने क्षोभ को जुलूसों के माध्यम से व्यक्त करने लगा है । वह निर्भीक है क्योंकि उसके पास खोने के लिए अब कुछ भी नहीं होता । अन्तत: इस विषय पर भी कमेटी का गठन कर दिया जाता है जो एक लंबे समय तक खोजबीन करने के बाद अपनी रिपोर्ट देती हैं और तब तक के लिए मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है। सरकार ने भी अपनी मनोवृत्ति बदली है। किन्नरों के प्रतिनिधि भी सरकार में पहुंच चुके हैं। शबनम मौसी विधायक रह चुकी हैं। उज्जैन के महाकुंभ में इनको स्थान मिला है। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी महामंडलेश्वर रह चुकी हैं। शिक्षा और रोजगार क्षेत्र में मेल फीमेल के अतिरिक्त तीसरा कांलम अन्य का भी हो गया है। इन्हें रेलवे में आरक्षण मिलेगा तथा ऑनलाइन बुकिंग की सुविधा भी प्राप्त होगी। सरकार ने ( 2017) कोच्चि मेट्रो में 23 ट्रांसजेंडरों को नौकरी दी है।
समाहारत: उपन्यासों में किन्नरों के संघर्षरत जीवन के विषय में सब कुछ कहा जा चुका है । उपन्यासों में प्राय: किन्नर शिशु के जीवन के विविध आयाम चित्रित हुए हैं। कैनवस विस्तृत होने के कारण ना केवल मुख्य चित्र पूर्ण हैं।
संदर्भ –
- ‘थर्ड जेंडर, हिंदी कहानियां ‘ सम्पादक एम.फिरोज खान , पृष्ठ 56
- देखिए_ सामयिक सरस्वती पत्रिका, अंक 13-14 , अप्रैल –सितम्बर, पृष्ठ 70 पर उद्धृत
- संवेदना के स्वर , सत्या शर्मा कीर्ति, सामयिक सरस्वती पत्रिका , वर्ष 4 अंक 13- 14, अप्रैल सितंबर 2018 ,थर्ड जेंडर विशेषांक, पृष्ठ 72
- किन्नरों की अन्तर्व्यथा , सत्या शर्मा कीर्ति, सामयिक सरस्वती पत्रिका, वर्ष 4 , अंक 13- 14, अप्रैल– सितंबर, 2018 ,थर्ड जेंडर विशेषांक , पृष्ठ 73
- थर्ड जेंडर: हिन्दी कहानियां, संपादक डांस एम.फिरोज खान, पृष्ठ 100
- थर्ड जेंडर: हिंदी कहानियां , संपादक एम फिरोज़ खान, पृष्ठ 65
- थर्ड जेंडर: हिन्दी कहानियां, संपादक एम फिरोज़ खान, पृष्ठ 79
- थर्ड जेंडर: हिन्दी कहानियां, संपादक एम फिरोज़ खान, पृष्ठ 79
- थर्ड जेंडर: हिन्दी कहानियां, संपादक एम फिरोज़ खान, पृष्ठ 56-57
- थर्ड जेंडर: हिन्दी कहानियां, संपादक एम फिरोज़ खान, पृष्ठ56
- सामयिक सरस्वती पत्रिका, अप्रैल सितंबर 2018, पृष्ठ 63 पर उद्घृत
- थर्ड जेंडर हिन्दी कहानियां, संपादक एम.फिरोज खान, पृष्ठ 57
- थर्ड जेंडर : हिन्दी कहानियां, संपादक एम.फिरोज खान, पृष्ठ 58
- थर्ड जेंडर :हिंदी कहानियां , संपादक एम. फिरोज खान , पृष्ठ 56
- थर्ड जेंडर :हिंदी कहानियां , संपादक एम. फिरोज खान , पृष्ठ 56
- थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, संपादक एम.फिरोज खान , पृष्ठ 92
- थर्ड जेंडर हिंदी कहानियां , संपादक एम . फिरोज खान, पृष्ठ 95) डॉ पद्मा शर्मा की कहानी ‘ इज्जत के रहबर ‘
सटीक आलेख साधुवाद रुचिरा जी
धन्यवाद महेंद्र जी।