एक… दो… तीन… चार…पाँच… छः… सात…आठ…शायद नौ भी?शायद इसलिए क्योंकि आठ के आगे नवीं सीढ़ी नीचे से दिखाई नहीं देती थी। दिखता था तो सिर्फ एक गहन,स्याह अंधेरा।सुना था उस अंधेरे के पीछे था एक बड़ा सा कमरा जहाँ रौशनी नहीं उससे भी कहीं ज्यादा था सघन अंधेरा…उस कमरे में रहने वाले लोगों की किस्मत को न जाने किस कालिख से पोत दिया था कि जिसका पक्का रंग किसी साबुन से नहीं छूट सकता था।
एक छोटे से शहर के बीचों-बीच शहर का नामी औरतों का बाजार । जी हाँ औरतों का बाजार …जहाँ बिकती थी उनकी आवाज…सुना था कभी जिस्म भी बिका किया करते थे। कितनी अलग थी उन औरतों की किस्मतें नीचे औरतों का बाजार यानी सम्भ्रांत,इज्जतदार और ओहदेदार के घर की बहन,बेटियाँ, बहुएँ और माएँ ख़रीदारी करने आती थी। जहाँ बिकती थी,बिंदी, सुहाग की लाल-पीली चूड़ियाँ ,रेशमी,मखमली छापेदार,जरदोजी, बनारसी कपड़ें, कढ़ाईदार मोजरिया,कोल्हापुरी चप्पलें और श्रृंगार का सामान…खरीदारी करने वाले हाथ और आँखें बेफिक्री से सामान खरीदती ।कितनी अलग थी उन औरतों की किस्मतें और दुनिया वे सजती थी खुद के लिए या फिर अपने पतियों के लिए और ऊपर जाती हुई सीढ़ियों के मुहाने पर स्थिति कमरों में रहने वालियाँ सजती थी ग्राहकों के लिए उनकी ख़रीदारी होती उन अमीरजादों, जमीदारो,हुक्मरानों के पैसों से जो लुटाई जाती थी उनकी हर अदा पर…कितनी अलग थी उनकी दुनिया। दिन भर उदास पड़ी रहने वाली वो सीढ़ियाँ रात के गहन अंधेरे में जब सारी दुनिया सो जाती उन ऊपर जाती सीढ़ियों पर लगे सफ़ेद संगमरमर और उन पर बनी पच्चीकारी जगमगा जाती।
सफेदपोश चेहरे जो दिन के उजाले में उन सीढ़ियों की तरफ देखना भी नहीं चाहते थे,रात के अंधेरे में बेखौफ चढ़ जाते थे। कितनी अलग थी उन सीढ़ियों के उस पार रहने वाली जिंदगियों की जिंदगी ये सीढ़ियाँ ऊपर तो जाती थी पर नीचे कभी नहीं आती थी। बाजार में घूमती औरतें उन सीढ़ियों से लगे छज्जों पर से उस घर में रहने वाली उन चेहरों को हिकारत भरी नजरों से देखती तब वे भूल जाती उन्हें इस जगह तक पहुँचाने और दाद देने वालों में उनके अपने घरों के दीपक और सुहाग भी है।
समय बीतता गया,बाजार आज भी पहले की तरह सजता था पर कोठे उजड़ गए घुंघुरुओं की रुनझुन, तबले की थाप कहीं गुम हो गई, सितार घर के किसी कोने में रख दिया गए, सारंगी सरगम भूल गई।जिन पर कभी उंगलियाँ थिरकती थी वहाँ अब गर्द और जाले ने जगह ले ली थी। सरकार ने इस पेशे से तौबा कर ली थी।जिस जगह पर महफिले गुलजार हुआ करती थी वहाँ मरघटी सन्नाटा पसर गया, धीरे-धीरे करके वो जगह खाली होने लगी। महफिलों की रौनक मानी जाने वाली पाई-पाई की मोहताज हो गई।भूख कहाँ जाति, धर्म, रंग-रूप,अमीरी-गरीबी का भेदभाव करती है।धीरे-धीरे सभी पलायन कर गए जिन्होंने कभी टूटे और हारे हुए लोगों को अपने यहाँ पनाह दी थी आज वो खुद पनाह के लिए भटक रही थी ।जानती थी इस समाज में तथाकथित इज़्ज़त की रोटी उन्हें आसानी से मयस्सर नहीं होगी। वे नए घोंसलों की तलाश में निकल गई जहाँ उन्हें कोई न पहचानता हो।क्योंकि उनकी यह पहचान उनके दर्द और वजूद से भी ज्यादा भारी थी। 
याद है उसे आज भी वो दिन उस दिन बाजार से गुजरते वक्त जब उसकी आँखें पहली मंजिल के उस छज्जे पर पड़ी थी,नक्काशीदार जालियों के दोनों ओर लकड़ी के खम्बे और उसके ऊपर मेहराब को देख वह मंत्र-मुग्ध थी।जिसने जीवन भर कंक्रीटों के जंगलों के बीच जीवन काटा हो उन आँखों को मानव की यह कलाकृति सहज रूप से सुकून दे गई थी।अनायास ही उसके मुँह से निकला
” कितना सुंदर घर है ? किसका है ?”
गाड़ी कुछ आगे बढ़ी ही थी कि धूल से भरी सफेद संगमरमरी सीढ़ियाँ दिखाई दी थी।ऊपर जाती सीढ़ियाँ…
उसके एक साधारण से प्रश्न पर उसका पति विक्रम अचकचा से गए थे
“घर चलो बताऊँगा।”
विक्रम ने बस कह दिया कि घर चलो बताऊँगा पर वो प्रश्न और उस प्रश्न के साथ विक्रम की छटपटाहट रास्ते भर उसका पीछा करती रही थी।वो समझ चुकी थी कि ऐसा कुछ है जो विक्रम को अनमना कर गया।घर पहुँचकर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा था,शायद ये प्रश्न उतना जरूरी न रहा हो या फिर वह जवाब देने से बच रहे हो।उसने धीरे से कहा
“आपने बताया नहीं !”
वह जानना चाहती थी कि ऐसा क्या था उन खूबसूरत मेहराबों के पीछे जिसका जवाब देने पर उनकी ज़बान हिचकिचा रही थी। शायद पीछे की दुनिया इतनी काली थी कि दिन के उजाले में पूछे गए सवाल भी उसका साफ और स्पष्ट जवाब नहीं दे सकते थे।
 “तुम भी न किसी चीज़ के पीछे ही पड़ जाती हो।”
विक्रम ने चिढ़ कर कहा था
“ऐसा क्या पूछ लिया मैंने…आप भी न…नहीं बताना चाहते तो कोई बात नहीं।”
वह मुँह फुला कर बैठ गई,
“अरे यार तुम भी न…वहाँ वो सब रहा करती थी।”
“वो सब मतलब…?”
विक्रम का स्वर अचानक से धीमा पड़ गया,
“अरे वही नाचने-गाने$$…!”
विक्रम के स्वर गले मे अटक गए थे,एक शरीफ आदमी के लिए इस तरह के शब्द अपनी पत्नी के आगे कहना कहीं न कहीं कठिन था।उसकी आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गई थी।
“क्या आज भी…!”
वह चाहकर भी चुप नहीं रह पाई थी।
“नहीं-नहीं…अब नहीं काफी समय हो गया,वे सब बेच-बचाकर दूसरी जगह चले गए।”
“क्यों ?”
“काम की तलाश में यहाँ उन्हें कौन काम देता।”
“पर वह ऐसा काम क्यों करती थी ?’
उसके सवाल खत्म नहीं हो रहे थे,
“तब टी वी,सिनेमा मोबाइल नहीं होता था न…तब मनोरंजन का यही सब साधन था।”
“मनोरंजन का साधन…?”
उसका मन न जाने क्यों कड़वा हो गया,
“अब सचमुच वहाँ कोई नहीं रहता?”
“सुना तो था बस एक है जो आज भी शहर के बाहर किसी किराए के मकान में रहती हैं।”
उस रात न जाने क्यों नींद नहीं आई।वह सीढ़ियाँ बार-बार आँखों के सामने से गुजरती रही ,जो सीढ़ियाँ गवाह थी सफेदपोशों के काले कारनामों की,अनकहे दर्द की…जिसने पनाह दी बिना किसी भेदभाव की आज उसके लिए इस शहर में जगह नहीं…? अब वह जब भी उस सड़क से गुजरती तो अनायास ही उसकी नजर उस छज्जे की ओर उठ जाती। उसे लगता मानो यह छज्जा वह सीढ़ियाँ बहुत कुछ उससे कहना चाहती है पर उस दर्द को समझने वाला कोई नहीं है।
आज बृहस्पतिवार था,माँ का दिन काली जी के मंदिर पर बहुत भीड़ थी। भक्तों की भीड़ अपने इष्ट के दर्शन के लिए लाइन लगाए खड़ी थी। मंदिर की सीढ़ियों के एक तरफ एक छोटी सी दुकान थी, दुकानदार तेजी से हाथ चला रहा था।
“भैया वो एक सौ एक रुपये वाला प्रसाद बना दो।”
“बहनजी! एक सौ इक्यावन वाला ले लीजिए, नारियल और घी का दीया भी उसके साथ है।”
“चलो ठीक है वही दे दो।”
“भैया मेरा भी बना दो एक सौ इक्यावन वाला…!”
पीछे से किसी ने आवाज लगाई,
“जरा जल्दी कर दो,बहुत सारे काम है।”
पहली वाली भक्त ने कहा ,उसने पलटकर उसे देखा और मुस्कुरा दी। ईश्वर से भी ज्यादा जरूरी…!दुकानदार  ने तेजी से अपने हाथ बढ़ाए और चुनरी प्रिंट के सूती रूमाल पर गुड़हल की माला, नारियल, नींबू और इलायची दाने का पैकेट और एक पत्ते पर टिन की डिब्बी से लाल सिंदूर छिड़का …कितने अभ्यस्त हाथ थे उसके ,होने भी चाहिए रोज का ही काम था उनका…
“जय माता दी ।”
उसके चेहरे पर एक सहज मुस्कान थी,महिला ने अपने पर्स से मुड़ा-तूमड़ा दो सौ का नोट उसकी ओर बढ़ा दिया,दुकानदार ने अपनी लकड़ी की बकसिया के ऊपरी भाग से नोट को छुआया और माथे से लगा कर बकसिया में डाल दिया।छोटे-बड़े नोट और ढेर सारे सिक्के…
“भैया सिक्के नहीं नोट ही देना।”
उस महिला ने दोहराया
“बहन जी आप ही लोग तो देती है फिर हम कहाँ चलाने जाए।चलिए ठीक है ये लीजिए।”
दुकानदार ने पच्चास का नोट उसे पकड़ा दिया,
“जय माता दी।”
महिला ने हौले से कहा और सीढ़ियों की ओर बढ़ गई। एक…दो…तीन…चार…और पाँच।सीढ़ियों पर पैर रखने से पहले उसने अपनी साड़ी के पल्लू को सर पर खिंचा और घुमाकर कसकर बायीं बाँह के नीचे दबा लिया।पहली सीढ़ी को छू  उसने हाथ को माथे पर लगाकर फिर सीने को छू मन ही मन कुछ बुदबुदाया।कभी-कभी कुछ अनकहा होकर भी बहुत कुछ कह जाता है ,जैसे भक्त और ईश्वर के बीच का संवाद…
तभी जोर से धक्का लगा और एक महिला गिरते-गिरते बची।
“अरे भाई आराम से,अभी माता जी को चोट लग जाती।”
किसी पुरूष की आवाज हवा में लहराई,नई डिजाइन की साड़ी और बालों में कलर लगाई उस भद्र महिला ने अपने से मुश्किल से दस साल छोटे सज्जन पुरूष को कुछ ऐसे देखा कि लगा मानो खड़े-खड़े ही भस्म कर देंगी।
तभी कोई सुरीली आवाज मंदिर में गूंजी
“जयकारा शेरावाली का!”
मंदिर के एक कोने में एक महिला को भक्त घेर कर बैठे थे।महिला का सुरीला स्वर मंदिर के वातावरण में तैर रहा था,ढोलक की तेज थाप और भक्तों की तालियों से मंदिर गुंजायमान था। माथे पर चंदन का टीका, हाथों में काँच की चूड़ियाँ,पैरों में पतली सी चांदी की पायल, नाक में लौंग जिसका मीना दूर से ही चमक रहा था,छींटदार शिफॉन की साड़ी को तन से लपेटे आँखें मूदे अपने इष्ट को याद कर रही थी।
“ईश्वर ने कितना मधुर कंठ दिया है मानों साक्षात सरस्वती जी उतर आई हो।”
उसके आगे खड़ी किसी महिला ने कहा,
“सच कह रही हो बहन।”
“कौन हैं? कहाँ रहती हैं?”
“वही पुराने टोले के पास!”
“पुराने टोले वहाँ तो…?”
“सही समझ रही हो तुम,पहले यही काम था इनका।माँ-मौसी पीढ़ियों से यही धंधा कर रही थी।”
“धंधा?”
उसे लगा मानो किसी ने उसके कानों में पिघलता हुआ शीशा उड़ेल दिया हो।
“यही रानी सिंह है?नाम सुना-सुना लग रहा था।
रानी सिंह…सिंह क्या ये ?सुना था इनकी माँओं के अलावा किसी को ये पता नहीं होता कि उनके पिता कौन है फिर…! क्या इन्हें पता है? या फिर तथाकथित समाज के ढकोसले का वह निर्वाह कर रही थी।उसने विक्रम की तरफ देखा, उसकी आँखों में प्रश्न तैर रहे थे।
“ठीक पहचाना वही हैं।तुम्हें बताया था न पुश्तैनी काम छोड़ दिया था। अब मंदिर-मंदिर भजन-कीर्तन करती हैं।”
तभी आगे खड़ी महिला ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा
“कोयले को कितना भी रगड़ा जाए काला ही रहेगा।अब यही रह गया है, भगवान के दरबार को भी नहीं छोड़ा इन लोगों ने…छिः कैसे-कैसे लोग हैं,यहाँ भी गंदगी फैलाने आ गए?”
उसने उन्हें पलटकर देखा हीरे-जवाहरात और महंगे कपड़ों से ढका रहने वाला इंसान आज दो वक्त की रोटी के लिए दर-दर भटक रहा था। मन न जाने क्यों अजीब सा हो गया।
वह औरत अपने मन की कड़वाहट और दिमाग की गंदगी को भगवान के दर पर उलीच कर चली गई और ईश्वर उन्हें चुपचाप देखता रहा और सोचता रहा।सचमुच दुनिया में कैसे-कैसे लोग हैं?अपने दिमाग की गंदगी यहाँ भी फैला गए और मैं यह सोचती रही।वे अपना अतीत छोड़ आए थे पर अतीत ने उनका साथ नहीं छोड़ा था।हर सीढ़ियों का भाग्य एक जैसा नहीं होता।उसके आँखों के सामने बाजार की वो सीढ़ियाँ घूम गई, वह संगमरमरी सीढ़ियाँ ऊपर तो जाती थी पर नीचे कभी नहीं लौट कर आती थी।
लेखिका का परिचय
डॉ. रंजना जायसवाल
लाल बाग कॉलोनी
छोटी बसही
मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश
पिन कोड 231001
मोबाइल नंबर- 9415479796
Email address- ranjana1mzp@gmail.com
विधायें – लेख,लघु कथा,कहानी,बाल कहानी,कविता,संस्मरण और व्यंग्य
पुरस्कार- साहित्य अकादमी द्वारा आजादी के अमृत महोत्सव कार्यक्रम में निर्णायक मंडल के रूप में चयनित
राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका गृह लक्ष्मी के कवर पेज पर प्रकाशित होने का अवसर, प्रसिद्ध कहानीकार नीलेश मिश्रा की मंडली में कहानीकार के तौर पर लेखन.
अरुणोदय साहित्य मंच से प्रेमचंद पुरस्कार. भारत उत्थान न्यास मंच से विशिष्ट वक्ता पुरस्कार, हिन्दू युवावाहिनी द्वारा नारी गौरव का सम्मान आदि.
अनुवाद-कई कहानियों का उर्दू, अंग्रेजी,मराठी,पंजाबी और उड़िया में अनुवाद
दिल्ली एफ एम गोल्ड ,आकाशवाणी वाराणसी,रेडियो जक्शन और आकाशवाणी मुंबई संवादिता से लेख और कहानियों का नियमित प्रकाशन,
पुरवाई (ब्रिटेन),लेखनी(ब्रिटेन),सहित्यकी डॉट कॉम, साहित्य कुंज (कनाडा), मोमसप्रेशो,सिंगापुर संगम(सिंगापुर),सेतु (पीटर्सबर्ग),दृष्टि (अमेरिका) अटूट बन्धन,परिवर्तन,हॉट लाइन,मातृभारती और प्रतिलिपि जैसी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ऐप पर कविताओं और कहानियों का प्रकाशन.

4 टिप्पणी

  1. आपने अपनी कहानी में कोठे और उसकी भूख के साथ कोठे की पायल और उसके भयावह सन्नाटे का जिस तरह जिक्र किया है उससे उस कोठे की सीढ़ियां जैसे सिसक उठी हो,,,,,,
    सच आपने कोठे के जिस्मानी दर्द के साथ ही उनके अंदर की पीड़ा को जिस तरह से उतारा है,,,, उसके आधार पर अगर मैं आपको आज की सदाअत हसन मंटो लिखो तो कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होगी ✍️✍️

  2. आपने अपनी कहानी में कोठे और उसकी भूख के साथ कोठे की पायल और उसके भयावह सन्नाटे का जिस तरह जिक्र किया है उससे उस कोठे की सीढ़ियां जैसे सिसक उठी हो,,,,,,
    सच आपने कोठे के जिस्मानी दर्द के साथ ही उनके अंदर की पीड़ा को जिस तरह से उतारा है,,,, उसके आधार पर अगर मैं आपको आज की सदाअत हसन मंटो लिखो तो कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होगी ✍️✍️

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  3. ऊपर जाती हुई सीढ़ियां पीड़ा का गहन आख्यान है जो मन को छूता है और मस्तिष्क को अनेक सारे सवालों से जूझने के लिए उद्वेलित करता है ,बहुत बधाई लेखिका को

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