Tuesday, October 8, 2024
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डॉ. एस. डी. वैष्णव की कहानी – रेल की रात

कोटा जाने के लिए चार दिन पहले टिकट बुक करवाया तब थर्टी नाइन की वेटिंग चल रही थी, लिहाजा पलाश को लग नहीं रहा था कि सीट कंफर्म हो पाएगी! उसे उम्मीद भी थी और संशय भी, परंतु उसने मन में ठान रखी थी कि जाऊँगा तो ट्रेन से ही। इसी उधेड़बुन के बीच नियत तिथि पर यात्रा से तीन घंटे पूर्व उसके मोबाइल पर मैसेज बजा– “योर सीट हैस बीन कंफर्म्ड..क्लास स्लीपर..वगैरहवगैरह।” मैसेज देखते ही उसने राहत की साँस ली और ट्रेन की रवानगी से आधे घंटे पहले ही स्टेशन पहुँच गया।
ट्रेन आने में अभी वक्त था। उसने मैसेज में बताए गए बोगी नंबर के बाहर स्टेशन पर लगी बेंच पर अपना बैग रखा और पैर पसार कर बैठ गया। 
यह उदयपुर का राणा प्रताप नगर उर्फ़ ठोकर स्टेशन था। इस स्टेशन को हाईटेक स्टेशन में तब्दील किया जा रहा था। पलाश बैठा-बैठा सोच रहा था कि जब यहाँ से होकर ‘वंदे भारत ट्रेन’ दिल्लीमुंबई के बीच चलने लगेगी, तब सफर कितना आसान हो जाएगा! सोच कर ही उसके हृदय में उल्लास जग रहा था।
माइक पर कोई युवती अपनी मधुर आवाज में रेलगाड़ियों के आने-जाने के विवरण को दोतीन भाषाओं में बार-बार यात्रियों के साथ साझा कर रही थी- “यात्रीगण कृपया ध्यान दें, उदयपुर से चलकर वाया चित्तौड़गढ़, कोटा होते हुए दिल्ली जाने वाली मेवाड़ एक्सप्रेस, गाड़ी संख्या 12964 अपने निर्धारित समय से दस मिनट लेट चल रही है। धन्यवाद!”
उसने इसी मैसेज को थोड़ी देर बाद अंग्रेजी में पुनः दोहराया। अनाउंस करने वाली उस युवती की आवाज में इतनी मिठास थी कि जिन यात्रियों की सीट कंफर्म नहीं हुई थी, उन्हें भी उसकी आवाज से राहत महसूस हो रही थी और लग रहा था कि कैसे भी सीट का जुगाड़ तो हो ही जाएगा।
ट्रेन आने का समय हुआ। युवती ने फिर अनाउंस किया, “यात्रीगण कृपया ध्यान दें, दिल्ली जाने वाली मेवाड़ एक्सप्रेस प्लेटफार्म क्रमांक नंबर दो पर आ रही है। कृपया प्लेटफार्म से उचित दूरी बनाए रखें। धन्यवाद!” 
सूचना के साथ ही जो यात्री लेटलतीफी में स्टेशन पहुँच रहे थे उन्होंने भी जल्दी-जल्दी प्लेटफार्म और गाड़ी नंबर चेक किया, आश्वस्त होने पर सामान लेकर अपनी-अपनी बोगी के बाहर खड़े हो गए। 
गाड़ी आने पर, बिना रिजर्वेशन वाले कुछ यात्री लोकल डिब्बे में बैठने की खातिर आगेपीछे भागते नजर आए। कुछ संभ्रांत दिखती लड़कियाँ अपने ट्रॉली बैग को घसीटते हुए दौड़ी चली आ रही थी। एक्सक्यूज मी.. एक्सक्यूज मी कहते हुए, अपने महिला होने का फायदा उठाते हुए, बोगी में पहले घुसने का प्रयास कर रही थी। कमर में बंदूक लटकाए, रेलवे पुलिस के जवान प्लेटफार्म पर टहलते हुए दिख रहे थे। कुछ यात्री अपने सगेसंबंधियों को पहुँचाने बिना टिकट प्लेटफार्म तक पहुँच गए थे, चेकिंग इंस्पेक्टर एक कोने में ले जाकर उनकी टोह ले रहा था। पलाश ने भी अपना बैग उठाया और बोगी में चढ़ गया।
“आप कहाँ तक जा रहे हैं?” बोगी नंबर एस-थ्री, जिसमें सीट नंबर सत्रह के सामने वाली बीस नंबर सीट पर बैठी लड़की ने पलाश से पूछा।
“कोटा तक।” उसने जवाब दिया।
“और आप कहाँ तक जा रही हैं।” पलाश ने पूछा।
“दिल्ली जा रही हूँ।” उसने जवाब दिया।
“आप दिल्ली की रहने वाली हैं?” 
पलाश के इस प्रश्न पर उसने सोचा, लड़का क्लोज होने की कोशिश कर रहा है, लेकिन सहयात्री होने के नाते उसने जवाब दिया, “नहीं, रहने वाली तो उदयपुर की ही हूँ। दिल्ली तो वर्ल्ड बुक फेयर में जा रही हूँ।”
अरे वाह! पुस्तक प्रेमी है आप!” पलाश ने बात आगे बढ़ाई।
“ऐसा कुछ नहीं, थोड़ाबहुत पढ़ने का शौक रखती हूँ। कोविड महामारी के चलते दो साल से बुक फेयर लगा नहीं था, इस बार लगा है, तो जा रही हूँ। कुछ किताबें पसंद आ गई, तो उठा लाऊँगी।”
“अच्छा, अभी तक आपने किताबों की लिस्ट बनाई नहीं है?”
पलाश की बात सुनकर उसने सोचा कि यह पूछ तो ऐसे रहा है जैसे इसने बहुत सारी किताबें पढ़ रखी हैं और उन सब के बारे में जानता है! अभी एक किताब के बारे में पूछ लूँगी, तो टाँय-टाँय फिस हो जाएगी। फिर आगे सोचा, शायद पढ़ भी रखी हों, क्या पता! मैं भी कोई प्रगति मैदान की खाक छानने नहीं जा रही हूँ। उसने बहस करने के बजाय स्थिर जवाब दिया, “लिस्ट भी बना रखी है। उनके सिवाय यदि और कोई पसंद आई, तो ले आऊँगी।”
“सोशल मीडिया के इस दौर में जब लोग रील बनाने में व्यस्त हैं, ऐसे में आप जैसे पाठक मिलना बहुत बड़ी बात है।” पलाश ने सोचा, उसे बता दें कि वह स्वयं भी लेखक है, लेकिन इस बात को उसने अपने भीतर ही दबाए रखा। स्वयं की पीठ थपथपाना कहाँ तक उचित है!
उसने सोचा, कोटा जंक्शन आने तक नींद तो आएगी नहीं, क्या करें? बात आगे बढ़ाने के लिए उसने एक और पंच मारा, “वैसे किस तरह का लेखन पसंद है आपको?”  
इस बार युवती को थोड़ा संशय हुआ कि लड़का थोड़ा जानकार अवश्य है। इसीलिए रहरहकर मुझे कुरेद रहा है। उसने जवाब दिया, “फिक्शन।”
किसका लिखा पसंद है, कोई नाम है आपकी जुबां पर?” इस प्रश्न के साथ पलाश ने ताबूत में आखिरी कील ठोक दी। और उसने सोचा कि वह उसका भी नाम लेंगी, लेकिन उसकी जुबां पर किसी का नाम नहीं था।
“बहुतों को पढ़ा है, कई युवा अच्छा लिख रहे हैं, लेकिन कोई स्पेशल नहीं बनाया।” 
मावली जंक्शन आया, ट्रेन थोड़ी देर ठहरी। तब युवती ने कहा, “क्या आप मेरे बैग का ध्यान रखेंगे? मैं वापस आती हूँ।” उसने पलाश के उत्तर का इंतजार भी नहीं किया और टॉयलेट की ओर चल पड़ी। वह उसे जाते हुए देखता रह गया।
मावली से ट्रेन ने लंबी सिटी बजाई। वह युवती तो सीट पर नहीं आई, परंतु सीट नंबर बीस पर एक दूसरा यात्री आ धमका। वह उस सीट पर अपना अधिकार जताने लगा, जहाँ पहले से उस युवती का बैग रखा हुआ था।
“यहाँ पर ऑलरेडी कोई बैठा हुआ है।” पलाश ने उस व्यक्ति से कहा।
इस पर उस व्यक्ति ने वह सीट उसके नाम पर आरक्षित होने वाला टिकट पलाश की ओर बढ़ाया तो पलाश ने बिना कुछ कहे उस लड़की का बैग उठाकर अपनी सीट पर रख लिया। 
ट्रेन की तूफानी रफ्तार के साथ फतहनगर और कपासन स्टेशन भी गुजर गए। धीरे-धीरे रात बढ़ती जा रही थी। पलाश को चाय की तलब लगी थी। वह चित्तौड़गढ़ स्टेशन आने का इंतजार कर रहा था, जहाँ स्टेशन पर शहर के जाने-माने वकील ठाकुर प्रसाद जी उसका इंतजार कर रहे थे। उन्होंने वादा किया था कि स्टेशन पर चाय साथ में पिएँगे।
ठोकर स्टेशन से जब ट्रेन चली थी तब बोगी में गिनती के दस लोग थे, लेकिन जैसे-जैसे स्टेशन गुजरते जा रहे थे, यात्रियों की तादाद बढ़ती जा रही थी।
चित्तौड़गढ़ स्टेशन आ चुका था। यहाँ पर ट्रेन आधा घंटा रुकी रही। पलाश ने वकील साहब के साथ स्टेशन पर बोगी की खिड़की के बाहर खड़े-खड़े चाय पीते हुए ढेर सारी बातें की। बातें करते हुए भी पलाश को एक बात खाए जा रही थी कि वह कहाँ गई, अब तक वापस क्यों नहीं आई?
चित्तौड़गढ़ स्टेशन से भी ट्रेन ने रवानगी की घोषणा कर दी थी, लेकिन अब तक उस युवती का कोई ठिकाना नहीं था। पलाश उसकी चिंता में डूबा था। लेकिन चंदेरिया स्टेशन निकलते ही वह आ निकली तब पलाश ने राहत की साँस ली।
उसने सीट नंबर बीस पर तोंद फैलाए सोए हुए आदमी को देखा तो पलाश की सीट से अपना बैग उठाते हुए कहा, “मेरी बर्थ इक्कीस नंबर है, क्या आप इसे खोल देंगे?”
“हाँ, क्यों नहीं।” कहते हुए उसने बीस नंबर सीट पर सोए पड़े उस मोटेसे आदमी को झकझोरा और उस युवती के लिए सीट खोल दी।
उसने अपना बैग बीच वाली सीट नंबर इक्कीस पर रखा फिर ऊपर सीट पर जाकर बैग को सिरहाने रखा और कानों में ईयरफोन डालकर अपने आप में खो-सी गई। पलाश सोच रहा था कि कितनी बेपरवाह लड़की है, जिसे अपने सामान की भी परवाह नहीं है। ऊपर से धन्यवाद तक नहीं कहा।
वह उसी के हमवय थी, यही कोई सत्ताईस वर्ष के करीब। गौरवर्ण, जींसटीशर्ट पहने हुए, आँखों पर नंबरी चश्मा चढ़ा हुआ था। चश्मे के भीतर से उसके मदमस्त कटीले नैन रह-रहकर पलाश की ओर झांक रहे थे। 
सर्द हवाएँ धीरेधीरे कोहराम मचाने लगी थीं। करीब 11 बजे होंगे, तभी टीसी महोदय निकले। कुछ सीटों पर वे अपना तालमेल बिठाते हुए नजर आए। रिजर्वेशन चार्ट देखते हुए उन्होंने ने कहा, सीट नंबर सत्रह.. तुम्हारा टिकट बताओ टीसी के कहने पर पलाश ने अपने मोबाइल में सीट कंफर्म होने का मैसेज बताया।
टीसी महोदय उस युवती की तरफ इशारा करते, उससे पहले उसने कानों से ईयरफोन निकालते हुए जवाब दिया, “हर्षिता। 
चार्ट देखते हुए टीसी महोदय ने सरनेम भी साथ लगाकर उसका नाम पूरा कर दिया- “हर्षिता शर्मा?”
“जी सर।” उसने जवाब दिया और बैग से बेडशीट निकालकर अपने ऊपर तानते हुए पलाश से कहा, “हेलो, लाइट ऑफ कर देना। लाइट में मुझे नींद नहीं आती।”
इस वाक्य में निवेदन कहीं नहीं था, सिर्फ आदेश था जिसकी पालना पलाश को करनी ही थी। क्योंकि लाइट का स्विच उसी की सीट के पास था।
अब वह अजगर की तरह गेंडुलिया मारे निश्चिंत पड़ी थी। शायद इस अवस्था में भी उसने अपनी और अपने बैग की जिम्मेदारी पलाश को सौंप रखी थी। कभी-कभी सिरहाने रखा उसका फोन बजता, तो वह बात कर लेती थी। 
इधर पलाश को लग रहा था कि आज वह ट्रेन में यात्री की भूमिका में है अथवा चौकीदार की! लेकिन वह पूरे माहौल को ऑब्जर्व कर रहा था। एक दास्तान बन रही थी और उसके दिमाग का सॉफ्टवेयर कोई कहानी तसनीफ़ कर रहा था।
कोटा जंक्शन आ चुका था। उसने अपना बैग कंधे पर टाँगा। हर्षिता की ओर देखा, वह गहरी नींद में थी। उसका मन तो हुआ कि उसे जगाए और चाय के लिए पूछे, लेकिन ट्रेन के पास वक्त नहीं था वह गाड़ी से नीचे उतर आया, लेकिन उसका मन वहीं अटका पड़ा था कि वह सहीसलामत दिल्ली पहुँच जाए। पल भर वह ट्रेन को जाते हुए देखता रहा।
सुबह वर्ल्ड बुक फेयर में जब उसने अलग-अलग प्रकाशकों के स्टॉल्स पर किताबें टटोलनी शुरू की, तो सहसा उसके हाथ पलाश का लिखा नॉवेल ‘आधे मौसम’ आया, जिसके पीछे कवर पृष्ठ पर पलाश की फोटो लगी हुई थी। किताब और फोटो देखकर उसे आश्चर्य हुआ कि यह तो वही शख्स है जिससे ट्रेन में मुलाकात हुई थी। काश! पहले मालूम होता तो उससे ढेर सारी बातें करती! पर उसने बताया क्यों नहीं कि वह लेखक है! ..और वह फ्लैशबैक में चली गई। उसे ट्रेन की सारी बातें याद आने लगीं।
उसी दिन शाम को पलाश ने फेसबुक मैसेंजर पर पढ़ा, “हाय! हर्षिता हियर। आपका नॉवेल खरीद लिया है, पढ़ना बाकी है। ट्रेन के सफर में आपने बताया नहीं कि आप लेखक हैं! मुझे नहीं मालूम कि आप मेरे बारे में क्या सोच रहे होंगे! आप वापस कब आएँगे, क्या वापसी में आपसे मुलाकात हो सकती हैं..?” हर्षिता ने मैसेंजर पर एक साथ कई प्रश्नों की लिस्ट चस्पा कर दी। 
मैसेज पढ़कर पलाश के होंठों पर हल्की मुस्कान तैर आयी। जंगल में छितराए पलाश की भाँति उसके भीतर भी कई पलाश एक साथ दहक उठे, लेकिन उसने तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उसने एक लंबी साँस ली। क्षितिज में देखा, प्रभाकर का शोण प्रभाव छिटक रहा था।
हर्षिता ने देखा, पलाश ने मैसेज पढ़ लिया है, पर अभी कोई जवाब नहीं दिया था। उसने रात भर इंतजार किया। सुबह होने तक उसके सब्र का बांध टूट गया। उसने फिर मैसेज लिखा, “मेरे जैसे कई पाठक आपसे रोज मिलते होंगे और कई सफर में ऐसे ही टकराते होंगे, शायद इसलिए आप मुझे इग्नोर कर रहे हैं। आज शाम की ट्रेन से वापसी है। उम्मीद है, फिर कभी आपसे मुलाकात होगीशुक्रिया!
पलाश दो दिन के लिए कोटा किसी सेमिनार में आया था और वापसी के लिए उसने ट्रेन में रिजर्वेशन पहले से ही करवा रखा था। हर्षिता से फिर से मिलने की उसकी भी उत्कंठा बढ़ती जा रही थी वह सोच रहा था कि जितनी धरती तपेगी, उतनी ही ज्यादा बारिश होगी! लेकिन एक कोमलांगी को इतना अधीर करना भी कहाँ तक उचित है? यही सोचकर उसने अपना जवाब लिखा, “आप जैसे पाठकों से ही तो साहित्य जिंदा है। और फिर आप तो बहुमूल्य पाठक हैं। बोगी नंबर बता दीजिएगा। और हाँ, गाड़ी रात साढ़े बारह बजे कोटा स्टेशन पहुँचती है, यदि आप सो गई, तो मैं उठाऊँगा नहीं।”
उधर मैसेज प्राप्त करते ही वह उछल पड़ी। उसके लिए तो जैसे तपती हुई धरती पर बारिश की बूंदें गिरना शुरू हो गई थीं। एक सौंधीसी महक उसके आसपास से उठने लगी थी। जिस लेखक की रचनाओं को वह अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में कुछ सालों से पढ़ती आ रही थी और हर रचना को पढ़कर लेखक का एक बिम्ब वह अपने दिलो-दिमाग में बनाती रही, उसी लेखक से आज उसकी मुलाकात होने वाली थी। पहली मुलाकात अलग तरह की थी, दूसरी मुलाकात अलग तरह की होगी! यही सोचकर वह थोड़ी असहज भी हुई जा रही थी। उसे अफसोस भी था कि वह उसी के शहर का युवा लेखक था और वह कभी उससे मुलाकात नहीं कर पायी! खैर, देर आए दुरुस्त आए।
उसे विचार आया, क्यूँ न फोन नंबर माँग लिया जाए ताकि बात करने में आसानी रहेगी! उसने मैसेंजर पर एक मैसेज और छोड़ा, “यदि आपके फोन नंबर मिल जाते तो…!” उसे लगता था कि किसी लेखक की एक-दो किताबें चर्चा में आने के बाद उसके हाव-भाव बदल जाते हैं। थोड़ा ऐंठ और रोब से चलने लगता है। पलाश युवा होने के बावजूद खूब चर्चित है। क्या पता उसका स्वभाव भी दूसरे लोगों की तरह ऐब से भरा हुआ निकला तो! वैसे लेखन में तो वह कभी ऐसा लगा नहीं, परंतु कहनी और करनी में तो फर्क हो ही सकता है! लेकिन मैं क्यों इतना पूर्वानुमान लगा रही हूँ! कुछ भी हो, वह लिखता तो अच्छा ही है, बाकी सबका अपनाअपना व्यक्तिगत जीवन है।
वह शाम पाँच बजे हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुँच गई थी। चाय वाले से चाय लेकर एक बेंच पर बैठ गई। चाय के एक-एक घूँट के साथ उसका दिल भी एक उत्कंठ कामना के साथ तेजी से धड़क भी रहा था। समय बीत रहा था, लेकिन समय के बीतने का उसे अहसास तक नहीं हो रहा था। 
विचारों का जाल उसे आवृत कर रहा था और एक सन्नाटा उसके इर्द-गिर्द छा- सा गया था। उस सन्नाटे को मैसेंजर पर आए मैसेज ने दूर किया। उसने देखा, पलाश ने मोबाइल नंबर भेज दिए थे। मोबाइल नंबर मिलते ही उसने अपनी ट्रेन की सारी इनफॉर्मेशन उसके नंबर पर भेज दी।
दिन ढल रहा था। गाड़ी अभी प्लेटफार्म पर लगी नहीं थी। वह इंतजार कर रही थी। इतने में अचानक मौसम ने करवट ली। तेज गति से हवाएँ चलने लगी। और हवाओं के साथ बूंदाबांदी भी होने लगी थी। मौसम में ठिठुरन बढ़ने लगी, तो उसने बैग से रंगबिरंगी मुलायम पश्मीना शॉल निकाली, उसे ओढ़कर, गठरीसी गुड़मुड़ होकर बेंच पर बैठ गई। उसके चश्मे पर पानी की कुछ बूंदें गिर गई थीं। उन्हें साफ करते हुए, चाय वाले को आवाज लगाई, “भैय्या एक चाय भेज देना।”
एक भिखारी जो मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए था और जिसके बालों से लग रहा था कि, कई दिनों से वह नहाया नहीं है, उसके पास आकर चा..चा.. की याचना करने लगा। याचना करते वक्त उसके मुँह से लार टपक रही थी और उसकी मुँह से झाँकती पीली दंत पंक्तियाँ बता रही थीं कि सालों से उन पर ब्रश नहीं चला है। उसे देखकर उसका मन द्रवित हो उठा। उसने चाय वाले को फिर आवाज लगाई,“ भैय्या एक चाय इन्हें भी दे देना।”
चाय हाथ में लेकर, बाल खूजाते हुए, भिखारी उसकी ओर फिर याचना भरी दृष्टि से देखने लगा।
“कुछ खाना भी है क्या?” उसकी मनोस्थिति देखकर उसने पूछा।
हर्षिता के प्रश्न का उसने कोई जवाब तो नहीं दिया, लेकिन उसकी तरफ देखकर मुस्कुराता रहा। उसके चेहरे के हावभाव बता रहे थे कि उसे कुछ खाना है।
उसने चाय वाले को फिर आवाज लगाई, “भैय्या एक बिस्किट का पैकेट भी इन्हें दे देना।”
चाय और बिस्किट का पैकेट लेकर वह टीस्टॉल के पीछे स्टेशन पर पड़ी गेहूँ की बोरियों के ऊपर जाकर बैठ गया। टीस्टॉल वाले ने उसे वहाँ से दूर भगा दिया। हल्की बूंदाबांदी के बीच वह स्टेशन से बाहर निकल गया। जाते हुए उसके चेहरे पर मुस्कान थिरक रही थी। 
हवाएँ अभी तक उसी गति से चल रही थी। पेड़ों से सरसर की ध्वनि आ रही थी। स्टेशन पर लगे कॉंसे के सजावटी स्पिरिट वाले लैम्पों से रोशनी भी हिलतेडूलते निकल रही थी। उसने दूर देखा, एंटीचैंबर्स पर मशाल की मानिंद कोई लाल रोशनी चमक रही थी। 
स्टेशन ने जैसे ही अंधेरा ओढ़ा, सहसा ‘एयरपोर्ट लेबिल लाइटों’ के दुग्धधवल प्रकाश में नहा उठा। 
एक लंबा हॉर्न मारते हुए, ट्रेन प्लेटफार्म पर आकर खड़ी हो गई। युवती ने माइक पर अनाउंस किया, “यात्रीगण कृपया ध्यान दें, दिल्ली से होकर वाया मथुरा, बयाना, सवाई माधोपुर, कोटा, चित्तौड़गढ़ होते हुए उदयपुर को जाने वाली मेवाड़ एक्सप्रेस, गाड़ी संख्या 12963 प्लेटफार्म क्रमांक पाँच पर लग चुकी है। धन्यवाद!”
स्टेशन पर लोगों की इतनी भीड़भाड़! कुली यात्रियों के सामान कभी सिर पर, कभी लोरी पर लादे हुए, इधर-उधर दौड़ रहे हैं। जूते पॉलिश करने वाला ब्रिज की सीढ़ियों के पास में बैठा ठक-ठक कर रहा है। कोई सीधा खड़ाखड़ा जूता उसके सामने रख रहा है, और हाथ में छोटासा सूटकेस लेकर खड़ा अपना एटीट्यूड भी दिखा रहा है, तो कई लोग जूते खोलकर उसके पास रख रहे हैं। बेंच पर बैठकर जूते पॉलिश होने का इंतजार कर रहे हैं। कई पढ़ने-लिखने वाले बच्चे जो अपने सपने लिए यहाँ आते हैं, वे भी अपने बोरीबिस्तर लिए आतेजाते दिखाई दे रहे हैं। 
कई ट्रेनों की वातानुकूलित बोगी से सफेद लिबास वाले भी उतरतेचढ़ते दिखाई दे रहे हैं। उनके चाहने वाले उन्हें फूलमालाओं से लाद रहे हैं। थोड़ी देर बाद वही फूल-मालाएँ स्टेशन पर पैरों तले रौंदी जा रही हैं। हर्षिता के जेहन में बैठे चतुर्वेदी जी कह रहे हैं, ‘मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथपर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें, वीर अनेक।’
ब्रिज पर लोग चढ़ रहे हैं, उतर रहे हैं। एक तरह से रेलमपेल मची हुई है। यह सब देखकर हर्षिता को लग रहा था कि जिंदगी का रेला भी इसी तरह चलता रहता है। लोग आते जाते रहते हैं। 
कुछ भी हो! ठीक ही कहा है- 
दिल्ली दिल वालों की। और मायानगरी पैसे वालों की। 
बोगी में चढ़ने से पहले उसने पानी की बोतल, दो पैकेट वेफर्स, सिंगदाने और कुछ चॉकलेट आदि खरीद कर बैग में ठूंस लिए। 
इस बार उसे लोअर बर्थ नसीब हुई थी। चढ़नेउतरने का झंझट तो नहीं रहेगा! उसने अपना बैग सीट पर रखा, जिसमें इस बार किताबों की वजह से थोड़ा वजन ज्यादा होने के कारण उसके कंधों पर भार बढ़ गया था। चेहरे पर बिखरे बालों को दोनों हाथों से पीछे करते हुए, उसने एक लंबी साँस ली और अपनी सीट पर बैठ गई। 
उसके मोबाइल की बैटरी भी लो हो गई थी। चार्जर को चार्जिंग पॉइंट में डाला और मोबाइल को कनेक्ट करके सीट पर रख दिया। इधर ट्रेन ने एक लंबा हॉर्न मारा और झटके के साथ आगे बढ़ गई।
ट्रेन के रवाना होते ही उसने पलाश को व्हाट्सअप किया, “गाड़ी यहाँ से निकल गई है। रात को साढ़े बारह बजे तक कोटा स्टेशन पहुँच जाना।” मैसेज करने के साथ ही उसने रात बारह बजे का अलार्म भी मोबाइल में सेट कर लिया। 
ठटर-ठटर..ठटर-ठटर.. की ध्वनि के साथ, देखते ही देखते ट्रेन हिचकोले खाती हुई, अपनी स्वाभाविक लय में चलने लगी। कंपार्टमेंट में एक तरफ वाली सीट पर बैठे दो मुसाफिरों ने बीड़ी सुलगाई। यात्रियों के भय से वे धुआँ खिड़की से बाहर की ओर छोड़ रहे थे, लेकिन हवा के रुख से कुछ धुआँ कंपार्टमेंट में ही फैलने लगा था। बीड़ी पीते हुए वे खाँसते भी जा रहे थे। कोरोना का भय तो अब लोगों में रहा नहीं, इसलिए मास्क किसी के मुँह पर लगा हुआ नहीं था।
हर्षिता के सामने वाली लोअर बर्थ पर एक महिला बैठी हुई थी। वेशभूषा से वह मेवाड़ की लग रही थी। अपर बर्थ पर कोई हरियाणवी लड़का बैठा हुआ था। उसकी भाषा के लहजे से लग रहा था कि वह हरियाणवी है। वह काले रंग का कोई पेय पदार्थ पी रहा था। हल्की-हल्की स्मेल आ रही थी, जिससे लग रहा था कि उसने पेय के साथ किसी किस्म की शराब मिला रखी है। लेकिन वह अपने आप को नियंत्रित किए हुए था।
बल्लभगढ़ स्टेशन से जब टीसी महोदय बोगी में चढ़े तब उससे पूछा, तो पता चला कि रेलवे कोटे में उसने मिडिल बर्थ भी अपनी पत्नी के नाम पर आरक्षित करवा रखी थी, लेकिन उसकी पत्नी साथ नहीं आयी, इसलिए मिडिल बर्थ खाली पड़ी थी। 
इधर आप देखिए कि भरतपुर तक यात्रा करने वाला एक दंपती जिनकी सीट कंफर्म नहीं हुई थी, बोगी में इधर-उधर चक्कर काट रहे थे। उनके पास उनका छोटा बेटा भी था जो बार-बार रो रहा था। दंपती में से पति निकालने पर जो पत्नी बचती है, संयोग से उसका नाम भी वही था जिस नाम से उस हरियाणवी लड़के ने अपनी पत्नी के लिए मिडिल बर्थ आरक्षित करवा रखी थी। अब आगे हुकुम का इक्का किसके हाथ में रहेगा, यह बताने की जरूरत नहीं है।
इस तरह की स्थितियों से कई बार यात्रियों को तो सुविधा मिल जाती है, लेकिन रेलवे को तो नुकसान उठाना ही पड़ता है। यहाँ कौन पूछने वाला! अपनी अपनी डफली, अपना अपना  राग।
हर्षिता और बोगी में बैठे दूसरे यात्री भी यह नजारा देख रहे थे। इस तरह का अनुभव उन सब के लिए पहली बार था। सबके चेहरे पर अलग-अलग तरह के भावों की रेखाएँ उभर आई थीं। सब एक दूसरे को ताक रहे थे।
ट्रेन अपनी पूरी रफ्तार पर थी। दिग्- दिगंत में अंधेरा उधम मचाने लगा था। खिड़की से अंदर आती सर्द हवाओं ने बोगी में ठंडक घोलनी शुरू की, तो सभी ने अपनी-अपनी खिड़कियाँ बंद कर दी।
रात दस बजे के करीब हर्षिता के सामने बैठी महिला ने भोजन के लिए अपने बैग से एक थैली निकाली। उसमें से दो परांठे और अचार निकाला फिर सीट पर अखबार फैलाकर उस पर रखकर खाने लगी। आम के अचार की खुशबू कंपार्टमेंट में फैलने लगी थी।
खाने के बाद उसे लगा कि अचार थोड़ा तेज था। उसका मुँह जल रहा था। उसने पानी पिया। लेकिन उसके बाद भी जलन के मारे वह सू-सू कर रही थी। उसे देखकर हर्षिता ने अपने बैग से एक चॉकलेट निकाली और उसकी ओर बढ़ाई। 
चॉकलेट देखकर महिला को सहसा याद आया कि जब वह दिल्ली से चली थी तब उसके बेटे ने कहा था कि रास्ते में किसी भी अनजान व्यक्ति से खानेपीने की कोई चीज मत लेना। बात याद आते ही उसने हर्षिता की ओर ना में सिर हिलाते हुए कहा, “उं हूं..ये तो मूं खाउं नी।”
हर्षिता ने कहा, “कोई बात नहीं!” लेकिन कहीं न कहीं उसे लगा कि चॉकलेट के लिए पूछ कर उसने जैसे कोई अपराध कर दिया हो। चॉकलेट का कवर फाड़कर वह खुद ही चॉकलेट खाने लग गई ताकि उस महिला को लगे कि वह गलत नहीं है।
उसी वक्त महिला के बेटे का फोन आया। उसने अपने ब्लाउज में फँसा कर रखे कीपैड वाले छोटे-से मोबाइल को निकाला और बात करने लगी। उसने अपने बेटे को बताया कि उसने खाना खा लिया है और अब सोएगी। कीपैड वाले उस छोटे से मोबाइल पर बात करते हुए भी उसे एंड्राइड मोबाइल जैसा आनंद मिल रहा था। नेटवर्क कमज्यादा होने के कारण कई बार वह जोर-जोर से भी बोल रही थी। बात पूरी होने के बाद उसने मोबाइल को पुनः ब्लाउज में ठूंस दिया। ब्लाउज में रखने से पूर्व उसने हर्षिता को बताया कि उसके बेटे ने उसे नया दिलाया है। 
“वैसे माजी कहाँ तक जा रही हैं?” हर्षिता ने उस महिला से पूछा।
“उदेपर तक।”  उसने जवाब दिया।
“दिल्ली घूमने आए थे?”
“हाँ। मारो मोटो बेटो अटिस काम करे। घूमवा ने बलाई जो आई गी।”
“अरे वाह! क्या बात है! मेट्रो में बैठे या नहीं?”
“मेटरो! वा ऊपरेऊपरे साले ज्या ट्रेन?”
“हाँ, उसी में। बैठे हो?”
“वनी में तो एकदाण ईस बैटा। ऊँसो सढ़णो पड़े, दरपणी लागे, रपटी जऊँ तो! हात-पग दूजारां देकणां पड़े।”
उसकी बात सुनकर हर्षिता को भी हँसी आने लगी। उसने कहा, “अच्छा ठीक है! रास्ते में अगर मुझे नींद आ जाए, तो कोटा स्टेशन पर उठा देना।”
“कोटा टेशण कतरी वज्यां आवेला?”
“ओह! आपको मालूम नहीं, रात को साढ़े बारह बजे आएगा।”
अतरी मोड़ी तो मने नींद अई जावेला।” महिला ने जवाब दिया।
हर्षिता को भरोसे की भैंस पानी में बैठती नजर आयी। उस महिला की ओर से असमर्थता जताने पर उसने कहा, “ठीक है, कोई बात नहीं! आप सो जाइएगा, मैं अपने आप उठ जाऊँगी।”
रेलवे कोटे वाली मिडिल बर्थ पर भरतपुर तक जाने वाले दंपती अपने बेटे के साथ एडजस्ट हो गए। कंपार्टमेंट में जैसे ही लाइट बंद हुई, रात्रि की निरवता में सभी को ऊँघ आने लगी थी। हर्षिता भी दिन भर की थकान में चूर थी। उसने भी बेडशीट अपने ऊपर तान ली। बोगी में पीछे कंपार्टमेंट में कोई ठरकी किस्म का युवा जिसे अभी तक नींद नहीं आ रही थी, ट्रेन की छत पर मल्लिका को डांस करवा रहा था- ‘चल छैया छैया छैया छैया, चल छैया छैया छैया..।’
एक सिपाही कमर में बंदूक टांगे एक बोगी से दूसरी बोगी में चक्कर काट रहा था। उसने मल्लिका का नाचना बंद करवाया। और उस युवा को सो जाने के लिए कहा, क्योंकि मल्लिका का लटकाझटका सबकी नींद में व्यवधान पैदा कर रहा था। एक यात्री को झंडू बाम तक लगाने की नौबत आ गई थी। उसे यात्रा में सिर दर्द की तकलीफ रहती थी। इसलिए वह झंडू बाम और डिस्प्रिन साथ में लेकर चलता था।
इंजन के आगे आँख के रूप में लगी हेड लाइट के तीव्र प्रकाश में रेल तिमिर को चीरते हुए, तेजी से भागी जा रही थी। बीच-बीच में तेज हॉर्न की आवाज यात्रियों के कानों में गूँजने लगती थी। जैसे ही कोई अगला स्टेशन आता, चायचाय, पानीपानी की कई आवाजें एक साथ सुनाई पड़ती थीं। ऐसी स्थिति में यात्रियों को नींद तो मुनासिब हो ही नहीं सकती, इसलिए वे अपने सहयात्रियों से पूछते रहते हैं कि कौनसा स्टेशन आया है? 
इधर पलाश जब स्टेशन पहुँचा तब स्टेशन के बाहर मुख्य गेट पर दीवार पर लगी बड़ी-सी घड़ी ग्यारह बजा रही थी। वह थोड़ी देर स्टेशन पर इधर-उधर टहलते रहा, फिर कोटा स्टोन के स्क्रैप से बनी एक मूर्ति के पास लगी बेंच पर बैठ गया। उस वक्त उसने राख के रंग का ओवरकोट और गोलाकार हेड कैप लगा रखी थी। एकदम जेंटलमैन लग रहा था। इस तरह के परिधान यूरोपीय देशों में अधिकतर पहने जाते हैं।
ट्रेनों का लगातार आवागमन जारी था। उसे इंतजार था मेवाड़ एक्सप्रेस के आने का। बेंच पर बैठे-बैठे उसे कमर में ऐंठन महसूस होने लगी, तो वह स्टेशन के बाहर निकल आया। पल भर दीवार पर लगी प्राचीन महान विभूतियों के पोर्ट्रेट देखने लगा जो शौर्य की गाथाएँ सुना रहे थे, तो कोटा अभ्यारण में विचरण करने वाले दुर्लभ पक्षियों के चित्र जो उसने पहली बार देखे थे, उसे आकर्षित कर रहे थे।
पलाश ने देखा, स्टेशन के बाहर इतनी रात गए भी ऑटो वालों का जमघट लगा हुआ था। वे सवारी की ताक में रहते हैं कि देर रात भी उन्हें कोई सवारी मिल जाए, तो हाथ खर्च निकल जाए। घर जाकर सोना ही तो है! हाँ साहब.. हाँ मैडम.. कहाँ जाना है? दादाबाड़ी.. रंगबाड़ी.. कोटा हॉस्पिटलयूनिवर्सिटी, कोचिंग हॉस्टल, सेवन वंडर्स पार्क, महावीर नगर ? आइए..इधर आइए.. मेरा ऑटो तैयार है.. बैठिए। कई बार तो वे सवारी को आता देख, उसकी ओर दौड़ रहे थे और उनके हाथ से बैग लेने का प्रयास भी कर रहे थे। इस तरह का माहौल हर रेलवे स्टेशन के बाहर आम बात होती है।
पलाश का वक्त धीरे-धीरे कट रहा था। अभी भी ट्रेन आने में आधा घंटा शेष था। पलाश की वेशभूषा को देखकर एक महिला उसके पास आकर हाथ फैलाने लगी। वह पेट से भी थी और एक रहस्यमयी मुस्कान ओढ़ रखी थी। आँखें कुछ मोटी और बाल बिखरे हुए तन ढकने के नाम पर ऊपर ब्लाउज और नीचे मटमैला फटासा घाघरा, जो लगभग चिथड़े-चिथड़े हो चुका था।
उसे देखकर पलाश समझ गया कि अवश्य वह मानसिक रूप से अस्वस्थ है। काश! दिन का वक्त होता, तो लगे हाथ उसे अच्छे कपड़े तो दिला ही देता। इस वक्त उसने सौ की एक नोट उसकी ओर बढ़ा दी।
जब हम किसी नेक कार्य के लिए सोचते हैं.. किसी गरीब, असहाय की मदद करने की सोचते हैं..फिर आप देखिए, जब तक वह कार्य पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक हमारी धड़कनों में एक तरह का स्पार्क होता रहता है कि मुझे वह कार्य करना है। ऐसी स्थितियों में ईश्वर की एक अदृश्य सत्ता हमारे आसपास कार्य करती हैं, जिसे हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं।
ऐसी दीन-हीन अवस्था में उस महिला को देखकर, पलाश को याद आया, उसने स्टेशन पर कोटा डोरिया साड़ियों का एक शो रूम देखा था। वह भागाभागा अंदर गया और एक साड़ी खरीद लाया। 
उसे मालूम था कि इस महिला के लिए इस साड़ी का कोई मोल नहीं है, इसे भी गंदा कर देगी, लेकिन साड़ी उसके हाथ में थमाते वक्त उसे जो सुकून मिल रहा था, उसके सामने करोड़ों की संपत्ति भी उसे तुच्छ नजर आ रही थी। वह सोच रहा था कि इस दुनियाजहान में ऊँचे मुकाम पर पहुँचकर भी अगर हम किसी गरीब-असहाय की तरफ हाथ नहीं बढ़ा सके, जिंदगी भर सिर्फ व्यर्थ का दंभ भरते रहे, खाखाकर तोंद बढ़ाते रहे, तो फिर जीवन जीने का औचित्य ही क्या रह जाता है? 
जब वह कॉलेज में पढ़ता था तब हिंदी के प्रोफेसर कुमार साहब ने उसे सिखाया था कि मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है औदात्य। आप अपने विचारों से महान बनिए। और यदि आप दयालु हैं, तो थोड़े और दयालु हो जाइए। औदात्य के स्पर्श मात्र से मनुष्य की आत्मा उत्कर्ष के उस धरातल को प्राप्त करती है, जहाँ आनंद और उल्लास का सागर लबालब भरा हुआ नजर आता है। ऐसा ही कुछ पलाश इस वक्त महसूस कर रहा था।
स्टेशन से युवती के द्वारा अनाउंस करने की ध्वनि पलाश के कानों तक आ रही थी- “यात्रीगण कृपया ध्यान दें, चित्तौड़गढ़ होते हुए, उदयपुर को जाने वाली मेवाड़ एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय पर प्लेटफार्म क्रमांक तीन पर पहुँच रही है। धन्यवाद!” युवती के द्वारा दिए जा रहे निर्देशों की पालना के क्रम में पलाश स्टेशन की ओर बढ़ गया।
उसने एक बार फिर व्हाट्सएप पर मैसेज चेक किया- बोगी नंबर एसवन। उसने पीछे की ओर देखा, एसवन लिखा हुआ बॉक्स दूर से चमक रहा था। वह उसके पास जाकर खड़ा हो गया। 
साढ़े बारह बजते ही एक लंबा हॉर्न मारती हुई, गाड़ी प्लेटफार्म क्रमांक तीन पर आकर रुक गई। कई यात्री हड़बड़ी में उतर-चढ़ रहे थे। पलाश अपना बैग लिए सफेद रोशनी बिखेर रही ट्यूबलाइट के नीचे चुपचाप खड़ा था। इस भीड़भाड़ में उसकी निगाहें हर्षिता को खोज रही थी। 
किसी हिंदी फिल्म की मानिंद जैसे ही हर्षिता बोगी के गेट पर आयी, एकबारगी तो वह पलाश को इस तरह के लिबास में पहचान ही नहीं पायी, लेकिन उसने तुरंत उसे पहचान लिया। दूसरी मुलाकात में पलाश को एक लेखक के रूप में देखकर उसके चेहरे की हवाइयाँ उड़ गई थीं। शर्म और हया का रंग उसे एक साथ भीगो रहा था। उसने मुस्कुराते हुए हाथ आगे बढ़ाया- हर्षिता। 
दोनों ने कसकर एक दूसरे के हाथ को भींच लिया। हर्षिता ने पहली बार पलाश को इतना करीब से देखा था। उसके भीतर झुनझुनी छूट रही थी। कुछ कहते बन नहीं रहा था। जो रोज शब्दों के रूप में विचारों का सागर डायरी के सफेद पृष्ठों पर अंकित करता है, उससे क्या बात करे, क्या नहीं! उसका जेहन एक अजीबसी उलझन में था।
ट्रेन ने फिर रवानगी की घोषणा की। पलाश बाहर ही खड़ा था। हर्षिता ने कहा, “चलो अंदर।” 
उसने कहा, मेरा तो एसफॉर है। 
अब ज्यादा बहाने मत बनाओ। मैं सब देख लूँगी।” कहते हुए उसने पलाश को बोगी में खींच लिया। 
दोनों हर्षिता की सीट पर जाकर बैठ गए। जब एक दूसरे से बात करने का मौका आया तब पलाश की आँखों में नींद भरने लगी थी। एक चाय वाला चाय की केतली हाथ में लिए चाय गरम, चाय गरम करता हुआ बोगी में घूम रहा था। पलाश ने उससे दो चाय ली। चाय का घूँट भरते हुए हर्षिता ने कहा, “बड़े छुपे रुस्तम हो!”
“नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं है। तुमने बताने का मौका ही कहाँ दिया?”
हूँ.. अरे हाँ, अगर नॉवेल पर तुम्हारी फोटो नहीं होती, तो मैं तुम्हें पहचान ही नहीं पाती!” कहते हुए उसने अपने बैग से पलाश का ‘आधे मौसम’ नॉवेल निकाला।
“पढ़कर बताना, कैसा लिखा है! क्योंकि लिखना तभी सार्थक है जब उसे अच्छे पाठक मिलें।” पलाश ने कहा। 
हाँ, क्यों नहीं! खबर लूँगी तुम्हारी। पन्नेपन्ने से गुजरने तो दो मुझे।”
“क्यों नहीं, अवश्य। यह तो पाठक का अधिकार है कि वह रचना का मूल्यांकन अपनी दृष्टि से करें।”
ट्रेन अपनी गति पर थी। हर्षिता के सामने वाली सीट पर महिला अपने घोड़े बेचकर चिर निंद्रा में लीन थी। भरतपुर तक यात्रा करने वाला दंपती और हरियाणा का युवा बीच में उतर चुके थे।
पूरी बोगी में लाइटें बंद हो चुकी थी, सिर्फ हर्षिता के कंपार्टमेंट में लाइट चालू थी। एक यात्री ने उससे कहा, “लाइट बंद कर दीजिए।”
हाँ, मुझे भी नींद आ रही है। सामने ऊपर वाली बर्थ खाली पड़ी है। मैं उस पर सो जाता हूँ, तुम भी सो जाओ।”
पलाश! मैं तुमसे बात करना चाहती हूँ और तुम्हें सोने की पड़ी है!”
“अच्छा ठीक है। पहले लाइट तो बंद कर दो, दूसरे यात्री परेशान हो रहे हैं।”
हर्षिता ने अपनी सीट के पास लगे स्विच को ऑफ करते हुए कहा, “अब तो ठीक है।”
“हाँ, वैसे तुम्हारा नाम बहुत सुंदर है- हर्षिता।” नाम के बहाने पलाश ने उसकी तारीफ करनी शुरू की।
“और मैं नहीं?” 
“अरे! मैंने ऐसा कब कहा? तुम भी बहुत सुंदर हो।”
“थैंक्यू! पता है मेरी नानी ने रखा था मेरा यह नाम।”
अरे वाह! पर नानी ने क्यों, नाम तो पंडित ने रखा होगा?”
“हाँ, पंडित को तो जो रखना था वो उसने रख लिया।”
“फिर नानी ने क्यों रखा अलग से?” पलाश के मन में जानने की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।
“तुम बड़े उत्सुक दिख रहे हो जानने को?” हर्षिता ने कहा।
“मैं तो सोने वाला था। तुम्हीं ने कहा कि मुझसे बातें करो। तुम्हें नहीं बताना तो कोई बात नहीं! मैं सो जाता हूँ।”
क्या सो जाता हूँ! अब ज्यादा भाव मत खाओ, बता रही हूँ।”
हाँ, ठीक है बताओ।”
नानाजी अपनी जवानी के दिनों में एक लड़की से प्रेम करते थे। जब उनके बीच गहरे संबंध बने, तो वह पेट से हो गई। लेकिन लोक-लाज के चलते नानाजी उससे शादी नहीं कर पाए। नानाजी के कदम पीछे खींचने का परिणाम यह हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली। इस बात की टीस नानाजी को ताउम्र सालती रही और वे पश्चाताप में जलते रहे। उसी लड़की का नाम था हर्षिता।”
ओह! काफी दुखद घटना है। लेकिन तुम तो बता रही थी कि तुम्हारा नाम तुम्हारी नानी ने रखा है?”
हाँ, उन्होंने ही रखा है। उनकी शादी के कई सालों बाद, जब मेरी माँ पन्द्रह साल की रही होगी, तब नानाजी ने नानी को यह सारी घटना बताई, तो नानी को बहुत दुख हुआ। तभी उन्होंने सोच लिया था कि उनकी बेटी के जो भी संतान होगी, उसका नाम हर्षिता ही रखूँगी ताकि नाना के जेहन में उस लड़की की सारी यादों को जिंदा रखा जा सके। अब समझ में आया तुम्हें कुछ?”
हाँ, सब कुछ समझ में आ गया। कहानी बड़ी दुखद भी है और इंटरेस्टिंग भी। कभी मौका मिला, तो इसे शब्दों का रूप दूँगा।”
क्यों अब तुम्हें नींद नहीं आ रही?” हर्षिता ने कहा।
“अंधेरा होने के बाद मुझे तो ज्यादा नींद आने लगती है। तुम भी लंबी यात्रा से आ रही हो, क्या तुम्हें नींद नहीं आ रही?”
पलाश! कुछ पल ऐसे होते हैं जो यादों में तब्दील हो, उससे पहले उन्हें जी लेना चाहिए।”
“मैं समझा नहीं, तुम क्या कहना चाहती हो?”
“यू रियली डोंट अंडरस्टैंड?”
“हाँ, सचमुच। मैं नहीं समझा! बताओ क्या बात है?”
“किताबों में तो बहुत कुछ लिख देते हो और यहाँ तुम्हें मेरी बात समझ में नहीं आ रही!”
वो लेखक का अपना नजरिया होता है। लेकिन अभी तुम्हारे जेहन में क्या चल रहा है, यह मैं कैसे बता सकता हूँ?”
“बड़े नादान बन रहे हो लेखक महोदय।” कहते हुए उसने पलाश की उम्मीदों के विपरित उसे अपने गले लगा लिया। 
पलाश की धड़कनें तेज हो गईं। उसने कहा, “ठीक से बैठो, कोई आ जाएगा।”
रात की खामोशी में उनके अधरों के बीच की दूरियाँ मिटती, एन वक्त पर पीछे कंपार्टमेंट में किसी ने लाइट ऑन कर दी। एक यात्री ने अपने सहयात्री से कहा, “अपना स्टेशन आ गया है, जूते पहन लो।”
सामने वाली सीट पर सोई हुई महिला की भी नींद खुल गई। उसने कहा, “कस्यो टेसण आयो? सित्तोड़ आई गय्यो देकां!” 
इधर हर्षिता के आलिंगन से पलाश के चेहरे पर पसीने की बूंदे तैर आईं। वह उठा, पानी पिया और अपना हुलिया दुरुस्त किया।
उसने निर्णय लिया, कल वह अपनी इस यात्रा को शब्दों का रूप देगा और यही प्रेम कहानी लिखेगारेल की रात।
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