Saturday, July 27, 2024
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डाॅ. सुनीता मंजू की कहानी – पुनः मृतकभोज

रामदास श्रीवास्तव  इमरजेंसी वार्ड के बेड नंबर 201 पर पड़े आहें भर रहे थे।  पत्नी हाथों में हाथ लेकर बैठी थी। “सुशी,  जरा मोनू और रिया को बुला दो। कहाँ हैं दोनों?”
 “उन्हें तो मैंने पड़ोस में रेखा चाची के यहाँ छोड़ा है।  उन्हें खिला पिलाकर अभी लेकर आ जाएँगी। जब से उनके बहू बेटे चल बसे, तब से एकदम अकेली हो गई हैं। मोनू और रिया में तो उनकी जान बसती है।”
” सोचता हूं सुशी कि तुम्हें जीवन का कौन सा सुख दे सका? रियल एस्टेट एजेंट की जबान ही उसकी आमदनी है। जबान बंद, धंधा बंद। इस काम के पीछे दिन रात लगा रहा। ना बच्चों को प्यार किया, ना तुम्हें समय दिया। सोचा था जब तक जवानी है पैसा बना लो। बाद में आराम ही आराम है। यह कहाँ पता था, कि सारा पैसा बिमारी में जाएगा। लेकिन तुम चिंता मत करो , बीमा के रुपए से तुम्हारा जीवन चलने का कोई ना कोई उपाय हो जाएगा।”
 तभी मोनू और रिया आ गए। श्रीवास्तव जी की आँखे चमक उठी। “आ गए बेटा! अरे तुम्हारे जेट एरोप्लेन का क्या हुआ?”
मोनू-  “वह तो टूट गया पापा।”
 रिया ने शिकायत लगाते हुए कहा- “टूटेगा नहीं छत पर ले जाकर उड़ा रहा था यह मोनू!”
” अच्छा जाने दो मम्मा से कहना नया ऑर्डर कर देंगी।”
मोनू मायूस होकर बोला -“नहीं पापा! आप ठीक हो जाइए तब आपके साथ मार्ट में जाकर लूंगा।”
 श्रीवास्तव जी बच्चे का प्रेम देखकर रोने लगे।
 आज छठा दिन है। सुशीला को डेड बॉडी सौंप दी गई है। घर में जितना नकद था, सब बिल की भेंट चढ़ गया है। मोनू और रिया ने मिलकर मुखाग्नि दी। घर जाकर सुशीला निढाल पड़ी थी। आसपास की महिलाएँ सांत्वना दे रही थी।  पुरुष भी थे। मृतक भोज पर चर्चा चल रही थी। गाँव से भी जाति बिरादरी, पट्टीदारी  के लोग आए थे। पट्टीदारी के लोग बोल रहे थे, साठ- सत्तर हजार से कम नहीं लगेंगे भोज में। दान पुण्य का अलग। बड़े चाचाजी ने पूछा –  “क्यों बहू! क्या सोचा है आगे के लिए।”
 सुशीला तो गम से बेहाल थी। बोली – “जो करना है, कीजिए। मैं क्या कहूँ ।”
 सभी को मालूम था श्रीवास्तव ने दौलत नहीं जोड़ी लेकिन दो लाख का बीमा लिया है।  आज नहीं तो कल बीमा की रकम मिल ही जाएगी। अभी नया घाव है। रुपए पैसे की बात करना उचित नहीं। पट्टीदारों ने,  गाँव वालों ने सारी जिम्मेदारी उठा ली। सारी दौड़ धूप की। तेरहवें दिन शानदार भोज हुआ। ब्राह्मणों को दान करने के लिए पलंग, बिस्तर बर्तन, छाता, छड़ी इत्यादि। किसी चीज की कमी नहीं थी। 
एक महीना बीत गया। बच्चों के स्कूल से फीस के, फ्लैट के किराए के, बिजली के बिल के, रिमाइंडर आने लगे तब सुशीला को होश आया। बीमा एजेंट मिश्रा जी को बुलाया। सारी कागजी कार्यवाही पूरी की। मिश्रा जी ने भरोसा दिलाया- “भाभी जी! आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए। श्रीवास्तव मेरे भाई जैसा था। दस दिनों में पूरा पैसा आपके अकाउंट में आ जाएगा।”  सुशीला की आँखें नम हो आईं। बच्चों को एक-एक चॉकलेट देकर मिश्रा जी चले गए।  बीमा की रकम मिलने पर सुशीला को बहुत सहारा मिला। पता नहीं कैसे बात गाँव वालों, पट्टीदारों तक पहुंच गई। अगले दिन ही छड़ी डुलाते  बड़े चाचा जी, उनके दोनों बेटे, मोहल्ले के कई लोगों को लेकर आ गए। सुशीला ने सबका आदर सत्कार किया। बोली –  “अच्छा है ! जो आप लोग आ गए। इस भरी दुनिया में, मैं तो अकेली हो गई हूँ। बच्चे भी छोटे हैं। मैं सोच रही थी बीमा की रकम से कोई छोटा-मोटा काम शुरू कर दूँ। जिससे कि जीवन यापन हो सके।”
 बड़े चाचा जी बोले – “अरे बहू! तुम फिकर काहे करती हो। हम लोग हैं ना। पहले यह सब भोज के खर्चे के बिल हैं, वह सब चुकता हो जाए। तब आगे सोचेंगे।” यह कहते हुए एक फाइल चाचा जी ने सुशीला को पकड़ाई।  सुशीला ने देखा तो आँखें फटी की फटी रह गई। “अरे यह तो अस्सी – नब्बे हज़ार होंगे। “
 चाचा जी- “हाँ भाई ! अब इस महंगाई में भोज करना कोई ठट्टा है।  इतना तो लग ही जाता है। हलवाई का अलग, कैटरिंग का अलग,  टेंट का अलग, दान देने वाले सामानों का अलग। वो तो मेरा मुँह देखकर एक महीना सबर कर गये सब। गाँव- घर का समझ कर। वरना आजकल तो नकद ही सारा काम होता है।”
 सुशीला- “लेकिन चाचा जी! इतना खर्च करने की क्या जरूरत थी। आपको तो पता ही है हमारी हालत। आपसे क्या छुपा है?”
चाचा जी- “अरे, तुमसे पूछा तो था कि कैसे क्या करना है। तुमने कहा कि आप लोग देख लीजिए। बताओ! अब हवन करते भी हाथ जलते हैं। इतनी मेहनत की, दौड़ धूप की, मैं और मेरे दोनों लड़के रात-रात भर जागे। और उसका यह फल मिल रहा है।”
सुशीला- “लेकिन कुल डेढ़ लाख रुपए बचे हैं। बाकी बच्चों की फीस, घर का राशन, किराया इत्यादि में निकल गए। यह सब दे दूँगी, तो पचास हज़ार में क्या होगा? कोई भी काम शुरू होते ही तो आमदनी नहीं होगी। एक दो महीने घर का खर्च भी चलाना है।”
चाचा जी- “अरे तुम फिकर काहे करती हो। सारे बिल चुका दो। पचास हज़ार पिंटू को दे दो।  अपनी दुकान में ही पैसा लगा देगा। गाँव चलो। तुम सब की परवरिश होती रहेगी। मोनू, रिया वहीं सरकारी विद्यालय में पढ़ेंगे। जब मोनू बड़ा हो जाएगा, तो वह भी दुकान पर आ जाएगा। आखिर एक दो लड़के तो रखने ही पड़ते हैं पिंटु को।”
 सुशीला सब  सुनकर स्तब्ध हो गयी। आज उसे समझ आया, कि गम में होश गंवाने का कितना नुकसान हो चुका है। अगर अभी भी जीवन की बागडोर स्वयं नहीं संभाली, तो यह सब उसको और उसके बाल बच्चों को नौकर बनाकर छोड़ेंगे। सुशीला ने तुरंत चेक काट कर दे दिया। फिर हाथ जोड़कर बोली-  “आप लोगों ने मेरी बहुत सहायता की। इसके लिए धन्यवाद। परंतु अब आप लोगों को परेशान होने की कोई जरूरत नहीं। मैं अपना और बच्चों का ख्याल रख लूंगी। आप लोग कृपया तशरीफ ले जाएं।” ऐसी कठोर बातें सुनकर सारे गाँव – बिरादरी वाले उठकर बाहर आ गए। बड़े चाचा जी बुदबुदाये “रुपए का घमंड हो गया है।”  पिंटू मन में अफसोस कर रहा था कि बिल पूरे एक लाख का क्यों नहीं बनवाया। और सुशीला दोनों बच्चों का हाथ पकड़े दृढ़ता से खड़ी थी।
पड़ोस की रेखा चाची एक छोटी सी परचून की दुकान चलाती थी। वही सुशीला का सहारा बनी। दौड़ धूप करके अपने खोखे के बगल में स्टेशनरी के सामानों का एक खोखा खुलवा दिया। शुरू में तो सुशीला  ने एक लड़के को दुकान पर रखा। पर पहले ही महीने में आमदनी से ज्यादा खर्च हो गया। तब सुशीला की सारी झिझक,  सारा संकोच कपूर की तरह उड़ गया। वह दुकान पर बैठने लगी। सुबह नाश्ता बना कर, बच्चों को स्कूल भेज कर, स्वयं नहा धोकर नाश्ता करके नौ बजे दुकान पर चली जाती। एक बजे बच्चे आते तो रेखा चाची पर दुकान को छोड़कर घर आती। बच्चों को खिला पिला कर, आराम करने की हिदायत देकर फिर तीन बजे दुकान पर चली जाती।  आठ  बजे तक बच्चे अकेले ही रहते। उसे बच्चों की फिक्र भी होती  पर क्या करती मजबूरी थी। आठ बजे वापस आकर रात का खाना बनाती।रिया और मोनू को उसने समझा रखा था।  कोई भी आए दरवाजा मत खोलना।
 दस वर्ष बीत गए। अब मोनू चौदह एवं रिया सत्रह वर्ष की थी। सुशीला की मेहनत रंग ला रही थी। धीरे-धीरे जीवन व्यवस्थित हो रहा था। तभी एक दिन मोनू की तबियत खराब हो गई।  स्कूल में प्रार्थना के समय ही चक्कर खाकर गिर पड़ा। सुशीला के प्राण नखों में समा गए।  वही इमरजेंसी वार्ड। सुशीला ने डॉक्टर के पैर पकड़ लिए। “डॉक्टर साहब किसी तरह मेरे लाल को ठीक कर दीजिए।”
 “अरे यह आप क्या कर रही हैं। हम अपनी पूरी कोशिश करेंगे।”
 लेकिन कोशिश कामयाब ना हो सकी। डॉक्टर का कहना था कि सिर में अंदरूनी चोट लग गयी है। वही घातक हो गयी। दस सालों की मेहनत बर्बाद हो गई। पति के बाद बच्चों को कितने जतन से सुशीला ने समेटा था। अब सब्र ना कर सकी। किशोर बेटे की लाश देखकर विक्षिप्त सी हो गई।  रिया का रोते-रोते बुरा हाल था। रेखा चाची ने माँ – बेटी को संभाला। फिर वही गाँव वाले,  पट्टीदार सब जुटे। इस बार जैसे तैसे संस्कार पूरे किए। इस बार चर्चा मृतकभोज  की  नहीं थी, इस बार चर्चा रिया की थी। सुशीला हर समय मोनू के तकिये को गोद में लिए रहती।  उसे चूमती, गले लगाती, कोई छीनता तो बुरी तरह चिल्लाने लगती। “मेरा मोनू! मेरा बच्चा मुझे दे दो! मेरा बच्चा!!”  स्थिति बद से बदतर होते जा रही थी। रिया का विचार था कि, माँ को दिल्ली ले जाकर मनोचिकित्सक से दिखाया जाए।  परंतु बड़े बाबा, दोनों चाचा,  गाँव के अन्य लोगों की राय थी कि, रिया और सुशीला गाँव चलकर रहें।  यहाँ की दुकान बंद करके उसकी पूंजी को पीताम्बर (पिंटू) के कपड़े की दुकान में लगा दिया जाए। अच्छा घर – वर मिलते ही रिया की शादी कर दी जाएगी। सुशीला की देखभाल घर के सभी सदस्य मिलकर कर लेंगे। रिया ने विरोध किया। परंतु बड़े लोगों के सामने उसकी एक न चली। सब लोग वापस चले गए। तय हुआ कि अगले सप्ताह आकर घर – दुकान सब खाली करके ले चलेंगे। सबके जाने के बाद रिया रात भर रोती रही। सुबह मुँहअंधेरे ही रेखा चाची के पास गई।  घर की, दुकान की चाभियाँ सौंपीं। जरूरी सामान एक सूटकेस में रखा। माँ को लेकर स्टेशन चली गई। ट्रेन के जनरल डिब्बे में माँ को गोद में सुलाये वो बाहर देख रही थी। सूरज की किरणें तेज होती जा रही थीं। उजाला फैल रहा था। रिया ने चैन से आँखें बंद कर लीं। उसके पास इंटर का प्रमाण पत्र था, सरकार से मिले दस हज़ार रुपये थे। विक्षिप्त माँ थी। रेखा चाची का सहारा था।  भाई की यादें थीं। और सबसे बढ़कर आत्मविश्वास था। उसे पूरा विश्वास था कि दिल्ली जाकर अपने जीवन का कुछ ना कुछ उपाय तो वह कर ही लेगी। वह अपने प्रिय कवि हरिवंशराय बच्चन की पँक्तियाँ गुनगुनाने लगी ” है अंधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है…..”.

डाॅ० सुनीता मंजू
शिक्षा:- एम०ए०(हिन्दी), बी० एड०, नेट, पीएच०डी० (हिन्दी)
प्रकाशन:- डाॅ० जयप्रकाश कर्दम सृजन, विमर्श एवं विचार (आलोचना)
विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं ( स्त्रीकाल, दलित साहित्य वार्षिकी, अपनी माटी, जानकीपुल, नागफनी, रचनाकार,सम्यक संवाद,साहित्य कुंज, समालोचना) में कहानियाँ, कविताएं एवं की शोधालेख प्रकाशित
रुचि:- साहित्यिक यात्राएं, लोकगीत एवं लोकसाहित्य,  समकालीन विमर्श (स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, किन्नर विमर्श, वृद्ध विमर्श)
सम्प्रति:- सहायक प्रोफेसर,  हिन्दी विभाग, राजा सिंह महाविद्यालय सीवान , बिहार
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