Saturday, July 27, 2024
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हरदीप सबरवाल की कहानी – इमेज ऑफ ए ट्यूटर

“ मनी तेरा मास्टर आ गया”, छोटी लड़की ऊंची आवाज में चिल्ला उठी। आवाज लगातार गुंजायमान हो रही थी,
एक आवाज जिसमें उत्साह था, कुछ नया देखने की आकांक्षा, कुछ विविध तलाश, मानों जीवन के सबसे रोमांचकारी पलों की ओर अग्रसर पर साथ ही हल्की सी हताशा भी जैसे आवाज को पता ही हो कि उत्कर्ष पर क्या होगा। तीखी किलकारी भरी आवाज जो नन्ही होकर भी वीभत्स थी। किलकारी का वीभत्सता से रिश्ता कितना गहन हो सकता ये कोई ऐसे पल में पहुंच कर ही समझ सकता है। सामने छोटा सा पार्क, , जिसकी आयताकार चारदीवारी के चारो ओर तेज भागता मनी और उसके पीछे चिल्लाती, लगभग हांफती सी उसकी मां ।  मनी की गति लगभग दुगुनी, मां अपने थुलथुल शरीर के साथ अपना वजन और गति दोनों को संभालने की जद्दोजहद में, इस तरफ दरवाजे के पास अवांछित सा खड़ा ट्यूटर यानी मैं। आवाज पिघले हुए सीसे सी कानों में गिरती ही जा रही थी। लगातार…..
“मनी तेरा मास्टर आ गया”
     उस वक़्त वह छोटा सा पार्क, पार्क ना होकर पूरी दुनियां हो गया हो जैसे जिसके चारों तरफ सब चक्कर काट रहे, सब घूम रहे गोल गोल, मानों इंसान ना होकर आकाशीय पिंड हो, जिनकी तय दिनचर्या का हिस्सा बन गया है घूमना, सामने देखता हूं तो खुद को उसी भागम भाग में शामिल देखता हूं, अपनी ढेर सारी इच्छाओं के पीछे, मेरे आगे पीछे कई लोग है, सब अपनी इच्छाओं के पीछे भागते हुए, पर साथ में उन सब के हाथों में रस्सियां भी है जैसे, किसी और को, किसी और की इच्छा को बांध लेना चाहते हो, उन्हें अपने नियंत्रण में रखना चाहते हो, यूं कहने भर को कोई कह सकता है कि ये रस्सियां कितनी एक जैसी है, पर हर रस्सी एक छवि को निर्धारित करती हो जैसे, अलग अलग वक़्त पे अलग अलग छवियों को थोपती, परिभाषित करती, मेरे पीछे कई लोग है उनमें से एक मेरे पिता हैं, जो मुझे रस्सी से बांंध कर पकड़ना चाहते, रस्सी की ढील उतनी ही जितनी वो चाहते, चाल तेज हो तो रस्सी कस दी जाए । इस सब के बावजूद भी मेरी आकांक्षाएं तो मनी की तेज रफ्तार की तरह बढ़ती ही जा रही और उस सब में दरक रही जाने किस की, कौन कौन सी इमेज, यूं इच्छाएं तो पिता की अपनी भी होंगी, मगर आगे दौड़ रहे को पीछे पकड़ने वाले से पकड़े जाने का भय ही दिखता है, कुछ और नहीं, जैसे उसके वजूद में कोई और बात हो ही ना ।
“ मैं इस बार दिल्ली चला जाऊं, वहां शादी में बुआ और उसका परिवार भी जा रहा”
“इस हुलिए के साथ तो मत ही जा, बिल्कुल लोफर लग रहा है, और सब रिश्तेदार क्या कहेंगे, मैंने यही संस्कार दिए मैंने बच्चों को”, पिता पर एक आदर्श पिता की छवि छा गई।
“आजकल का फैशन है ये तो, बुआ के बेटे भी यही सब पहनते…,_” फैशन आदर्श के आगे गिड़गिड़ा उठा।
“बस रहने दे”, आदर्श टस से मस नहीं हुआ ।
     आखिर दिल्ली देखने की चाह के आगे फ़ैशन ने घुटने टेक दिए, और पिता के आदर्शो की छवि मेरे सर पर एक अदृश्य हवा के सिलिंडर की तरह आ गई जो वायुमंडल के भार के रूप में हम सब के ऊपर एक प्रेशर तो रखती है, पर अपनी शारीरिक बनावट की वजह से हम उसे झेल लेते हैं,
“ ठीक है, जैसा आप कहो वैसा ही”, रस्सी में बंध बुरी तरह छटपटाते हुए मैंने कहा।
दिल्ली पहुंच कर देखता हूं तो हैरान रह जाता हूं, पिता के भाई बहनों, उनके बच्चों और उनके सुसंस्कार देख। पर अगले ही दिन जैसे वहां के सारे रस्सा कसने वाले अपने बच्चों को उदाहरण देने लगे। उन सब में मैं एक अच्छा उदाहरण जो असल में एक बुरा उदाहरण था।
पर वो सब मुझसे कहीं अधिक निडर निकले, सबने उस उदाहरण की रस्सी को एक झटके में काट दिया और अपनी इच्छाओं के साथ और तीव्र गति से आगे बढ़ गए। मुझे ईर्ष्या हुई उन सब के चाकुओं की ताकत से, सबसे पिछड़ने का रंज भी। ऐसा नहीं कि चाकू से सिर्फ रस्से ही कटते हो, इतना आसान कहां सब कुछ, कई बार रस्से वाले का हाथ कट जाता और कई बार जिसके गले में फंदा उसकी गर्दन, और फिर उनमें से धीरे धीरे खून रिसता रहता, वक़्त निश्चित नहीं कि कब तक रिसेगा, कई बार तो सारी उम्र ही, जैसे सांस लेने की क्रिया से जुड़ा हो, लगातार चलता हुआ ।
“तू क्या पढ़ रहा?” एक ने पूछा।
“साइंस”, मैंने दंभ भरते हुए कहा।
“अच्छा, ये भी”, उसने दूसरे की तरफ इशारा किया और पूछा, “ क्या अच्छा लगता तुझे?”
“जीव विज्ञान, और तुम्हें”, मैंने दूसरे से पूछा।
वो कुछ बोला ही नहीं, पहला ही बोला,
“इसे तो पेंटिंग करनी अच्छी लगती, पर इसके पापा कहते कि “बनेगा क्या उससे”, कोई अच्छा कैरियर चुन जिंदगी में”
     धीरे धीरे वहां के रस्से नजर आने लगे, अदृश्य, वायुमंडलीय दबाव की तरह, पर सार्वभौमिक, हर जगह व्यापक।
   अपने सहपाठी व्योम की याद उसी क्षण याद आई, हर रोज सुबह पहले पीरियड में और ठीक छुट्टी से पहले उसका वो नियमित डायलॉग, “यार, मैं तो फंस ही गया”
हम सब के ठहाके का हिस्सा बनती उसकी छटपटाहट, उसका वो फंस जाना कोई एक दिन की क्रिया नहीं थी, न्यूक्लियर रिएक्टर में चलने वाली असीमित सी क्रिया, अंतहीन सिलसिला, कभी सोचता हूं कि अंतहीन शब्द किसने खोजा होगा, खासकर तब, जब हर चीज का अंत निश्चित है, ऐसा लगता है एक रस्सा है जिसने अंत को अंतहीन से जोड़े रखा।
      व्योम को उस फंसने से निकलने का रास्ता नामालूम था, उस अभिमन्यु की तरह जो चक्रव्यूह में जा तो सकता था पर बाहर नहीं आ सकता, पर यहां भी एक बड़ा अंतर था, अंत और अंतहीन के अंतर जैसा, एक का चक्रव्यूह में जाना था अपनी मर्जी से था, दूसरे का धकेला जाना, हालांकि दोनों के लिए इस अंतहीन से मुक्ति का रास्ता खुद का अंत ही होगा, इस असमानता में गहरी समानता है, या कहो कि समानता में गहरी असमानता।
“किसी से प्यार हुआ तुझे कभी”, पहले ने विषयांतर करते हुए कहा, बोझिल बातों का अंत प्यार की शुरुआत से हो तो सुखद पलों की शुरुआत होती। मेरे चेहरे पर लालिमा छा गई।
“अच्छा तो ये बात, तुम तो छुपे रुस्तम निकले”, मेरी आदर्श पुत्र की छवि पर अचरज करते हुए वो बोले। “कौन है वो भाई”
      हालांकि प्रेम कहानी जब दोस्तों के आगे सुनाई जाती तो उनमें सच के रसगुल्ले पर झूठ की चाशनी लबालब होती, और किसी को भी बिना चाशनी के रसगुल्ला पसंद कहां आता।
सीरत शुरू से ही मेरी क्लास में थी, बातें तो बेहिसाब होती ही रहती, स्कूल के लंच में खाना भी शेयर होता, नोट्स भी। उसकी तरफ कब आकर्षित हुआ पता नहीं, पर लगता था ईश्वर मेहरबान है, हम दोनों के धर्म एक, जाति एक यानि रास्ते का रोड़ा तो कुछ था ही नहीं।
थर थर कांपते हुए एक दिन मैंने उस से कह ही दिया।
उसकी सहेली भी उसके साथ थी, मेरा दोस्त भी, हम सब एक दूसरे को बचपन से जानते थे।
“नहीं मैं नहीं कर सकती, उसने धीमे से कहा।
“मैं अच्छा नहीं लगता क्या?” एक दम से सारा कॉन्फिडेंस डगमगाया।
“ऐसा कुछ नहीं, पर मेरी मजबूरी है बस, मैं नहीं कर सकती”
“क्या मजबूरी है”, उसकी सहेली ने हंस कर उसे छेड़ा।
मेरा दोस्त भी ठिठोली में शामिल हुआ। कुछ देर तक वो भी उस हंसी में शामिल हुई , फिर एक दम से गंभीरता पहन ली।
“नहीं कर सकती ना, मेरी दीदी ने भी घर से भाग के शादी की, मैंने देखा है अपने माता पिता का दुख, और फिर लोग क्या कहेंगे, इनके घर की बेटियां सब की सब ऐसी, यही संस्कार दिए मां बाप ने”, उसने आदर्श बेटी की छवि का रस्सा खुद ही कस के अपने गले में डाल लिया।
      इच्छाओं की गति रुके या चले, जीवन उस से बेखबर अपनी चाल चलता रहता। वैसे ही समय भी,  कई बार सोचता हूं कि इस समय के गले में डालने वाला रस्सा किसी के पास क्यूं नहीं हुआ।
       और इस बहती समय की धारा के अनगिनत थपेड़े सहते हुए कुछ दो एक साल से आगे उच्च शिक्षा का खर्चा खुद उठाने के लिए मैंने एक नई छवि ओढ़ ली, घर जाकर ट्यूशन पढ़ाने की, इमेज ऑफ ए ट्यूटर,
“अरे नया गाना सुना तुमने, क्या जबरदस्त डांस है, और बीट्स तो लाजवाब”, दोस्त ने कहा, हम दोनों के फेवरेट पॉप स्टार का नया गाना आया है।
“शानदार, एक दम दिल में बसने वाला, उसके बाल देखे, लाल रंग करवाया उसने, मैं सोच रहा कि उसके जैसे लंबे बाल रख के वैसे ही कलर करवा लू, मेरी तो फेस कटिंग भी उस से मिलती जुलती”, मैंने अपनी बात कही।
“हम्म, हो तो सकता है, लेकिन अगर तू होम ट्यूटर की जगह कोई डांस टीचर होता, अब होम ट्यूशन टीचर ऐसा हुलिया रखेगा तो कौन मां बाप अपने बच्चों को उससे पढ़ने देगा”, इस बार का रस्सा जरा तेजी से खिच गया। और बेहद आसानी से। आर्थिक रस्से ज्यादा ताकतवर होते। उनके जोर के आगे बड़ी से बड़ी इच्छाएं भी घुटने टेक देती।
नन्ही लड़की ने आखिरी चीख मारी, आखिरी का अहसास उस पल हुआ जब उसकी चीख अधूरी रह गई, ध्यान उधर गया तो देखा मनी पकड़ा जा चुका था। मनी की तरह ही इच्छाएं तीव्र गति तो रखती है, पर उस गति को देर तक बरकरार नहीं रख पाती, जंगल में शिकारी शेर के आगे भागते किसी हिरण की तरह, और आखिर कस दी जाती है ताकतवर रस्सी से।
       नन्ही लड़की ने मुस्कुराकर मनी की तरफ देखा, मुस्कान उपहास मिश्रित थी, उकसावे भरी भी, जो शायद  अगले दिन की बगावत का रास्ता बना रही थी।
मैंने फटाफट अपनी टीचर की इमेज पहन ली और चेहरे पर एक सभ्य मुस्कान पहन कर मनी से कहा, ” मनी बेटा, ऐसे नहीं करते। आप तो अच्छे बच्चे हो ना”, एक छवि जबरन उसे पहनाने की कोशिश करते हुए मुझे जरा भी अजीब या बुरा नहीं लगा।
     और किसी को भी अजीब लगे, ऐसी इसमें कोई बात है ही नहीं। चाहे पिछली रस्सियों से हम कितने भी त्रस्त रहे हो, वही रस्सियां अपने हाथो में थाम अपने से आगे वालो को बांधना हमें न्याय संगत लगता है।
मेरी मुस्कुराहट ने नन्ही लड़की की तरफ कदम बढ़ाए ।
नन्ही लड़की ने मेरी तरफ देखा, जैसे कह रही हो कि आज ये मनी पकड़ा गया तो क्या, कल कोई और मनी फिर से भागेगा और मैं फिर से चिल्ला उठूंगी,
एक किलकारी, एक वीभत्स किलकारी।
      इतने में अपने वजन और गोल शरीर को संभालती मनी की मां ने नन्ही लड़की का हाथ पकड़ा और मुझसे मुखातिब होते हुए कहा, “आज से ये भी पढ़ेगी मनी के साथ ही”,
नन्ही लड़की और मनी के चेहरे के भाव अब बदल गए, मनी के चेहरे पर उपहास मिश्रित मुस्कान आ गई और नन्ही लड़की के चेहरे पर पकड़े जाने की टीस।
      मुझे लगा समय कभी आगे बढ़ा ही नहीं , वहीं थम गया है।
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