लगातर पानी बहने से लान से होकर सड़क पर पानी रेला सा बह आया था | वे बेचैनी हो उठीं | उठकर उनके गेट तक गयीं | भीतर झाँक कर देखा कोई सुगबुग दिखे तो बता दे कि…..मगर भीतर कोई हलचल नहीं | हार कर लौट आई ;मगर पानी का बहना उन्हें इस कदर बेचैन कर रहा था कि फिर बाहर आ गयी | उस घर के सामने देर तक टहलती रही | फिर घंटी बजाई और इंतजार करती रहीं कि कोई बाहर आये ;मगर कोई नहीं आया | आता भी कैसे | वह एक अति आधुनिक परिवार था , जिसकी सुबह दोपहर बाद हुआ करती थी | सो वे प्रतीक्षा करती रहीं कि कोई इधर से गुजरे तो उससे ही वाल्व बंद करने को कहें | कुछ देर बाद चौकीदार दिखा | “सुनों ! जरा वो वाल्ब बंद कर दो | “
“ पर गेट में लाक है ? “
“हाँ तभी तो तुमसे कह रही हूँ | वरना मैं खुद बंद कर देती | “
“क्या मैडम ? आप भी न ? पानी ही तो है | कउनो आगि तो लाग नहीं है कि हम किसी के घर म कूद जाएँ | ”वह चलता बना |
वे उसे और उसकी उस बेपरवाही को देखती रह गयीं | ऐसे कह गया ‘पानी ही तो है , जैसे पानी कुछ है ही नहीं !
जब पानी का रेला और दूर तक बह चला ,तो उनकी बेचैनी और बढ़ गयी ;मगर उपाय कुछ न था | गेट इतना ऊँचा था कि उनके लिए उसे फाँदना भी संभव न था |
‘ शायद कलोनी के गेट पर कोई मिल जाय | ‘ सोचकर वे कालोनी के गेट की ओर बढ़ीं , मगर ऐसा कोई नजर नहीं आया जिससे ….| उन्हें अपनी असमर्थता पर हताशा हुई ,तभी अखबार वाला लड़का नजर आया | उसने उन्हें नमस्ते किया |
“सुनो ! “
“जी मैडम | “
“एक काम है | करोगे क्या ? “चौकीदार के उस जवाब से उनके स्वर में झिझक सी उतर आई थी |
“जरूर मैडम | कहिये न क्या करना है ? “
वो क्या है सामने वाले घर की टंकी बड़ी देर से ओवरफ्लो हो रही है | पानी की यूँ बर्बादी ….| सो उसे तुम बंद ..?” झिझकते हुए कहा |
“जी जरूर !” वह तत्काल उनके साथ चल पड़ा |
“उफ़ ! पानी की ऐसी बर्बादी ! ”सड़क पर बहते पनाले को देख उसने अफसोस किया और गेट फांदकर वाल्ब बंद कर दिया |
“थैंक्यू बेटा |”
“ थैंक्स तो आपको देना चाहिए | कम से कम आपने इतना सोचा तो ,वरना लोग पानी की कदर ही कहाँ करते हैं | वो देखिये कितना मोटा पाईप लगाकर गाड़ी धोयी जा रही है | जो काम आधी बाल्टी पानी में हो जाता ,उसके लिए पचासों बाल्टी का खर्च ? पानी की कीमत तो हम झुग्गी वाले जानते हैं | चौबीस घंटे में एक बार आता है नल ;वो भी सिर्फ एक घंटे के लिए | उसी एक घंटे में पूरी झुग्गी को पानी भरना होता है | दो बजे रात को उठकर अपनी ओसरी ( अपना बर्तन रखकर नम्बर लगाना ) लगाना | फिर बर्तन की रखवाली में अधरतिया से जागरण करना | “बिन पानी सब सून |”हम जानते हैं इसका मर्म | आप भी समझती हैं | सो आपको थैंक्स| “
वे भीतर जाने को मुड़ीं | कुछ शब्द उछल कर कानों के भीतर जा पहुँचे चौकीदार सबेरे की पाली वाले गार्ड से कह रहा था –
“ ई देखो ! ई पानी जैसी चीज के लिए किस कदर परेशान थीं कि दूसरा के घरवा में आदमी कुदाय दिया | ”
वे घर के भीतर घुस ही रही थीं कि –”पगला गयी हैं शाईद | “
यह वाक्य उनकी पीठ पर धप्प से लगा | फिर उन दोनों की हँसी का समवेत स्वर | उनकी हँसी कानों में ठहर गयी ‘ ये इलाहाबाद से हैं | वहाँ गंगा और यमुना का असीम जल है | सो ये क्या जानें कि पानी क्या है ? पहले मैं भी कहाँ जानती थीं ,तभी तो अम्मा से कुतर्क करती | ’
“पानी बहाये से धन कय नास होत है | दारिद्र आता है |“ वे कहतीं |
“का अम्मा तुम भी न ? पानी और धन का कोई मेल है क्या ? पानी से धन मिलता है भला ? “
तब पानी का बाजार नहीं पनपा था और पानी सहज सुलभ था | अम्मा पढ़ी लिखी नहीं थीं | उनके पास विज्ञान आधारित तर्क नहीं थे ;मगर अनुभव की थाती थी ? उन्होंने बाढ़ – सूखा सब देखा था | पानी की अहमियत जानती थीं | ‘ अब ? अब तो वक्त ने मुझे भी समझा दिया है कि पानी क्या है ? इसी पानी की खातिर तो …और उनकी आँखों में बीस साल पहले के दृश्य उतर आये ………..
पहली पोस्टिंग थी | महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की सीमा से सटा गाँव निपनिया | उस गाँव के आस – पास का इलाका बहुत पथरीला था और वैसे ही पथरीले थे वहाँ के लोग | उसी गाँव में एक पहाड़ी पर बना था उनका स्कूल | स्कूल भवन तो था ;मगर बच्चे नदारद ? गाँव के लड़के दिनभर रेलवे लाइन के किनारे भटकते कि कोई माल गाड़ी रुके, तो माल चुराएँ और लडकियाँ ? या तो छोटे भाई बहनों को पोसने में जुटी रहतीं या माँ के साथ पानी जुगाड़तीं | फिर भी उन्होंने कोशिश की | गाँव में जाकर उनके माँ बाप से मिलीं ;पर किसी ने सीधे मुँह बात नहीं की | एक ने जवाब दिया –
“हो मी पढ़ने को भेजेगी | फेर मेरा घर वास्ते पानी तेरे कू लाना होयेगा | बोल लाएगी ? ”
वे चकित ! लोगों ने गाँव की सारी कल्पनाएँ ही ध्वस्त कर दीं | उस गाँव से दूर एक कस्बे में रहती थीं वे | सो उन्हें स्थितियों का अंदाजा ही नहीं था | अंदाजा होता भी नहीं ,अगर भास्कर से मुलाकात न होती –
ब्लाक आफिसर भास्कर | वह गाँव भी उनके एरिया में आता था | सो अक्सर उनसे मुलाकत हो जाती | बाद में तो वे साथ आने जाने लगे थे |
“ मैं सोच रही हूँ अपना तबादला करवा लूँ | ” उनकी नजरें शहर को जाती पगडंडी पर जा टिकीं |
“क्यों ?”
“ इस गाँव में रहने से कोई फायदा नहीं | इतनी कोशिश की ;मगर.. ? यहाँ के लोगों को पढ़ाई लिखाई से कोई वास्ता ही नहीं | लडकियाँ सारे दिन पानी ही भरती रहती हैं और लडके ? रेल लाइन के किनारे डोलते रहते हैं | “
“ आपको क्या लगता है ? पानी जरूरी नहीं है ? “
“जरूरी है ; मगर सारा दिन उसी के लिए ! “
वे उसे समझाना चाहते थे कि दो पहाड़ियों के बीच बसे इस गाँव का नाम यूँ ही निपनिया नहीं है | पानी का ऐसा आभाव है यहाँ कि आभाव शब्द भी बेमानी हो उठता है | जब जीवन का आधार पानी न मिले ,तब जीवन जीने के और साधन भी कहाँ मिलते हैं | सो इस गाँव में न तो खाने के लिए अन्न है और न पीने को पानी | फिर भी जी रहे हैं लोग | अगर वे यह सब उनसे कहते, तो उन्हें यकीन ही नहीं होता | सो –
“आप जानती हैं ये पानी कहाँ से लाती हैं ? नहीं न | चलिए मैं आपको दिखाता हूँ |”
मीलों मील पैदल चढ़ाई के बाद वे एक ऊँची पहाड़ी पर पहुँचे | वहाँ पहाड़ी से नीचे रेत की एक पतली सी रेखा नजर आ रही थी | वहाँ तक जाने के लिए कोई रास्ता नहीं था | फिर भी वहाँ भीड़ सी लगी थी | उस खड़ी उतराई से नीचे जाने की हिम्मत नहीं थी उनमें | सो वहीं ठिठक गयीं |
“क्यों हिम्मत पस्त हो गयी ? आप देख रहीं हैं न ? न तो यह उतराई आसान है ओर न ही चढ़ाई | और नीचे उतर कर भी पानी मिल ही जाय ये जरूरी नहीं है | यह एक बरसाती नदी है | साल में कुछ दिन ही पानी रहता है इसमें | बाकी समय रेत से पानी ओगारना होता है | आसान नहीं है रेत से पानी ओगारना ;मगर ये ओगारती हैं ,इस नदी में छोटे छोटे गड्ढे खोदकर | फिर कटोरी और कभी कभी तो चम्मच से उस पानी को मटकी में सहेजती हैं | फिर मटकी लेकर यह खड़ी चढ़ाई चढ़ना ? कई बार पानी ओगरने के इंतजार में यहीं रात बीतती है | बहुत सी लडकियाँ जानवरों का ग्रास भी बन जाती हैं और आप कहती हैं ….? “
“ सॉरी | मैंने तो कल्पना भी नहीं की थी कि पानी के लिए इतनी जद्दो जहद कि जिन्दगी तक दाँव पर ….| “
फिर गाँव के लोगों से उन्हें कोई शिकायत नहीं रह गयी | ऐसा नहीं था कि गाँव लोग बदल गये थे | वे अभी वैसे ही थे | उतने ही पथरीले ;मगर अब उनका नजरिया बदल गया था और बदल गया था तबादले का फैसला | उन्होंने नये सिरे से कोशिश शुरू की | अब दिन की जगह शाम को गाँव आतीं | रात को सब अपने अपने काम से निपट लेते , तब लोगों के घर जातीं ;मगर उनसे पढ़ाई की बात न करके, उनके सुख दुःख पूछतीं | धीरे धीरे मन की गाँठें खुलने लगीं | फिर उन्होंने पढ़ाई का महत्व समझाया | बताया पढ़ना भी जरूरी है | विश्वास दिलाया इसमें काम का अकाज नहीं होगा | वे बच्चों को रात में पढ़ायेंगी | बात समझ में आयी | वे राजी हो गये | रात को निर्जन पहाड़ी पर जाकर पढ़ाना तो संभव नहीं था | सो मुखिया की परछी (बरामदे )में क्लास लगने लगी |
वे खुश थीं | बच्चे स्कूल आने लगे थे | एक सपना सा पलने था उनकी आँखों में | उस सपने में था निपनिया गाँव | भास्कर का सपना भी तो यही था | सो उनके सपने करीब आते गये और वे भी | अपने सपने की चाँदनी में विचरते वे ,कहाँ जानते थे कि राहू ‘ काला बुखार ’का रूप धर उनके सपने को ऐसे ग्रसेगा कि …..
सर्दियों में सब ठीक ही रहता था | पानी की कठिनाई होती थी ;मगर काम चल जाता था ; पर गर्मी ? गर्मी आते ही कर्क रेखी सूरज ऐसा तपता कि ताप भी त्राही त्राही कर उठता | सो भास्कर ने कोशिश की कि पहाड़ी काटकर उस पार वाली नदी का पानी गाँव में लाया जाय ; मगर कामयाबी नहीं मिली | उनकी कोशिशें दो प्रान्तों के दफ्तरों में उलझकर रह गयीं | तब भास्कर ने योजना बनाई पहाड़ी के पास एक कुआँ खोदा जाय | उस पार बहती नदी ने उनका विश्वास बढ़ाया ,पर इसके लिए श्रम और पैसे दोनों की जरूरत थी | पैसे तो उन्हें जुगाड़ना था ;मगर श्रम ? सो उन्होंने गाँव वालों से बात की |
“का बाबू ! तू फत्थर से पानी निथारने का सपना देखता | ये सुक्खा पहाड़ में पानी है कहाँ |” सुखु बाई के ससुर ने कहा |
“काकू सहीच बोलता | ये पत्थर में पानी ? नको | हम लोग कितना दफा कोसिस किया | फेर सब ? “सखाराम ने कहा |
सखाराम गाँव का नेता जैसा था | सो सबने उसका समर्थन किया ; मगर नाउम्मीदी में उम्मीद भर देने का नाम ही तो भास्कर था | सो –
“ पहाड़ी के उस पार नदी है न ? “
“हव ! नदीं तो है | “
“नदी के तीर तखार की जमीन में पानी होता है न |”
सब ने हाँ में सर हिलाया | “ फिर पानी क्यों नहीं निकलेगा ? पानी जरूर निकलेगा | इस काम में जो भी पैसा लगेगा मैं लगाऊँगा और मेहनत हम सब करेंगे | ठीक है न ? “
नाउम्मीदी के अँधेरे में उम्मीद की एक किरण दिखी ,तो सबने हामी भर ली | पर उस बरस बरसात हुई ही नहीं | सो सर्दियों की जगह बरसात में ही काम शुरू कर लिया | गाँव के सब माई पिला पूरे उत्साह से जुट गये ,पर काम उतना आसान नहीं था ,जितना लगा था | पथरीली जमीन सब्बल और कुदाल की नोक को टेढ़ा कर उसे बेकार देती | फिर नयी कुदाल और सब्बल लाये जाते | काम अनुमान से बहुत अधिक खर्चीला हो उठा | भास्कर ने अपना पूरा पी. एफ. लगा दिया |
कई महीने की मेहनत के बाद कुछ नम मिटटी मिली, तो लगा कि अब मंजिल करीब है | सचमुच मंजिल करीब ही थी | कुछ दिन के बाद गीली मिटटी निकलने लगी | फिर एकदिन मिटटी के साथ कुछ पानी भी ओगरा ,तो लोग खुशी से नाच ही उठे | वह दिन एक उत्सव जैसा हो गया था | बिलकुल होली सा माहौल | लोग देर तक मटमैले जल को एक दूसरे पर उलीचते रहे | अब उनके दुःख के दिन दूर हो जायेंगे ,इस सोच ने उनमें एक नई शक्ति भर दी और वे दुगने उत्साह से खुदाई में जुट गये; मगर नियति ने तो कुछ और ही सोच रखा था | सो उसने भेजा – काला बुखार |
अस्पताल ,सड़क और पानी रहित गाँव के लिए, वह बुखार किसी महामारी से कम नहीं था ,उधर सूरज की तपिश ने गाँव का बचा कुचा पानी भी सोंख लिया | सो मृत्यु का ऐसा तांडव शुरू हुआ कि लगा मानों यमराज ने वहीं डेरा डाल लिया हो | भास्कर ने अपनी सारी ताकत झोंक कर दवाई की व्यवस्था की ;मगर उन लोगों को के लिए दवा से ज्यादा जरूरी था पानी | भास्कर ने पानी के सैकड़ों कैन खरीदे ; मगर प्यास तो सुरसा हो गयी थी | सुबह से शाम तक गाँव और कस्बे के बीच चकरघिन्नी सा चक्कर मारते रहे वे ;मगर बुखार से तपते लोगों की प्यास नहीं बुझी और काला बुखार लोगों को निगलता चला गया | सबसे त्रासद तो था वह क्षण जब सुखु बाई ने अपने ससुर को ….
अभी फागुन बीता भी नहीं था ;मगर सूरज की तपिश जेठ को मात कर रही थी | उसने कुँए का पानी सोंख कर उसे कीचड़ में बदल दिया था | दोपहर से पहले ही लू के थपेड़े चलने लगते | ऐसे में आदमी को भोजन भले न मिले ;मगर पानी ? पर पानी ? सो दोहरे ताप से तपते मरीजों की जुबान पर बस एक ही शब्द उभरता –पानी – पानी – पानी | सुखु बाई के ससुर की जुबाँ भी यही रट लगाये हुए थी |
“हव ! मी देती | अब्भी देती | “सुखु बाई ने कहा और उसकी नजरें ,शहर वाली पगडंडी पर जा ठहरीं |
पर पगडंडी तो सूनी थी | भास्कर पानी जुगाड़ने गये थे ;मगर कस्बे की दुकानों पर तो ताला लटका हुआ था | उस दिन कोई हड़ताल नहीं थी और न ही बंद का कोई एलान था | फिर भी पूरा कस्बा बंद था | कारण कोई बाबा आये हुए थे | सो कुछ ने अपनी मर्जी से दुकान बंद कर ली ,बाकी दुकानें बाबा के चेलों ने बंद करवा दीं | वे टोला मोहल्ला के सबको सकेल ले गये | ऐसे माँहौल में वे पानी कहाँ से खरीदते | सो बहुत भटकते के बाद एक घरनुमा दुकान से दो बाटल पानी मिला | फिर तो उनकी मोटर सायकल दौड़ पड़ी | उस बीहड़ की पथरीली राह पर भी उसकी रफ्तार लगातार बढ़ती जा रही थी ;मगर मौत ? मौत से आगे भला कौन निकल पाया है | वे पानी लेकर पहुँच पाते ,उससे पहले ही मौत आ पहुँची |
“पानी – पानी |”रटती जुबाँ के साथ जब आँख्ने पलटने लगीं ,तो सुखु से रहा नहीं गया और वह उस लोटे को उठा लाई | उसने लोटा टेढ़ा करके ससुर के मुँह से सटा दिया –“ घेव गंगाजल घेव | यहीच हमारा गंगाजल है | “
जब मुँह से लोटा हटाया , उन्हें मोक्ष मिल चुका था | अब सब कुछ शांत था | कोई प्यास नहीं ,कोई आवाज नहीं | सुखु बाई ने ओंठ के कोर तक पसर आये कीचड़ को पोछा और दहाड़ मार कर रो पड़ी |
उन्हें जोखू याद हो आया | ठाकुर का कुंआ वाला जोखू | सदियों का फासला ;मगर स्थितियाँ वैसी की वैसी | जोखू ने भी तो गंदा पानी पीकर जान गँवाई थी | उन्होंने भीगी आँखों से बाहर देखा ,झोपड़ी के द्वार पर भास्कर खड़े थे | उनकी आँखों में हताशा की राख थी |
उस अजार ने गाँव को लगभग खाली ही कर दिया | भास्कर ने फिर भी अपना हौसला नहीं छोड़ा | बचे हुए लोग और बचे हुए पैसे से फिर अपनी मुहीम में जुटे गये | पैसा कम पड़ा ,तो भास्कर ने कस्बे अपना वाला प्लाट बेच दिया | यह प्लाट अब मात्र जमीन का टुकड़ा ही नहीं था | उनके सपनों का आधार भी था | उसी प्लाट पर तो उनका स्वप्न नीड़ बनने वाला था ; मगर गाँव का यह सपना भी तो ,उन्होंने ही देखा था |
बहुत मशक्कत के बाद कुँए में पानी आया ; मगर कुआँ इतना गहरा हो चुका था कि उसे पक्का करना जरूरी था और करने के लिए लाखों रूपये की जरूरत थी | ये रूपये कहाँ से आयें ,यह एक बड़ी समस्या थी | सो अब उनकी बारी थी | उन्होंने अपना पी. एफ. निकालकर भास्कर को सौंप दिया | पैसे फिर भी पूरे नहीं हुए, तो भास्कर ने कसबे में जाकर चंदा माँगा | घड़ी ने टन्न टन्न टन्न , घंटा बजाया ,तो उनकी तंद्रा टूटी | तीन बज गये थे | नजरें घड़ी पर रहीं ,मगर मन ? वह फिर उसी गाँव में जा पहुँचा ……..
पैसे की व्यबस्था हुई ,तो काम ने फिर गति पकड़ी | उन्होंने अपना पैसा लगाया था ,तो गाँव वालों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी | उन लोगों ने भी अपनी पूरी शक्ति झोंक दी | सो कामयाबी तो मिलनी ही थी | वह मिली मगर ….
अगले दिन कुँए की पूजा होनी थी | उस गाँव में पूजा की सामग्री तो थी ही नहीं | वे उसे जुटाने गयी थीं | लौटकर आयीं ,तो कुँए के इर्द गिर्द भीड़ देख उन्हें लगा कि लोग पूजा के लिए इक्कठे हैं ;मगर सुखु बाई दौडकर आयी और –
“ये गो ताई सब्ब खतम हो गया रे | ये पापी कुँआ सब्ब लील गया रे | ”सुखू बाई बुक्का फाड़कर रो पड़ी |
सुखू बाई के रुदन के साथ ही औरतों का ऐसा रुदन उठा कि वे उधर देख न सकीं | उन्होंने तत्काल अपनी नजरें फेर लीं और भीड़ में भास्कर को तलाशने लगीं | वे दौडकर उनसे लिपट जाना चाहती थीं कि उनकी पीड़ा को उनका कँधा मिल जाय | उन्हें कहाँ मालूम था कि काँधा तो अब… | सो उनकी नजरें देर तक उन्हें तलाशती रहीं |फिर सोचा – ‘ वे कहीं गये होंगे | शायद कसबे तक | इस विपदा से निपटना भी तो उन्हें ही पड़ेगा |’ सोचा फिर मन कड़ा करके उस ओर देखा तो काठ ही मार गया | कठुआयी नजरों से देखती रहीं सब | पुलिस आई | फालिज के मारे सत्या ने पुलिस को बताया |
कुँए का काम पूरा हो चुका था | बस नीचे की तरफ का हिस्सा ही छूट गया था | उसके लिए चार लोग कुँए में उतरे थे | अब तक पानी का सोता भी अपनी पूरी गति पकड़ चुका था | सो उन्हें कामयाबी नहीं मिल रही थी | भास्कर ने समझाया कि इंटों का एंगल बदल लें ; मगर कुँए कि गहराई इतनी अधिक थी कि उनकी आवाज उन तक पहुँची ही नहीं | उस हिस्से में ईंटो को फंसाना जरूरी था | सो भास्कर कुँए में उतरे | उन्होंने इंटों को वांछित एंगल में फँसा दिया | काम पूरा हुआ | अब उन्हें रस्से के सहारे बाहर आना था | लोग चाह रहे थे कि पहले भास्कर को बाहर भेजें ;मगर भास्कर ने देखा पानी में डूबे रहने से तुका का हाल बेहाल हो रहा था | सो उन्होंने उसे पहले ऊपर भेजा | रस्से के सहारे वह ऊपर आने जाने लगा | ऊपर खड़े लोग उसका हौसला बढ़ाते रहे | तुका ऊपर पहुँचने ही वाला था कि दूसरे के छोर वाला हिस्सा भराकर नीचे गिरा और….. देखते ही देखते वे सब कुँए में बिला गये | लोगों ने काँटा डालकर कुँए को थहाया ; मगर किसी का कोई पता नहीं चला | उस गाँव में कोई भी ऐसा नहीं बचा था ,जो कसबे तक जाकर कोई और मदद ला पाता जिससे …|
पुलिस ने शवों का पंचनामा कर लिया | उनके कान सब सुन रहे थे ;मगर देह ? देह वैसी ही कठुआई सी खड़ी रही | लाशें पानी में फूल गयी थीं | सो जल्दी ही दफ़न कफन करना था | लोग शवों को गाँव ले गये | लोग भी चले गये ;मगर वे वैसी ही खड़ी थीं |
“ये बाई चल न | नइ तो दफन कफन को देरी होयेंगा |” सत्या की आजो ने कहा ;मगर वे वैसी ही खड़ी रहीं |
“ये पोरगी ?चल न रे ?”आजो ने उन्हें पकड़कर झिझोड़ा और जोर से रो पड़ीं |
उन्होंने उनकी ओर देखा | देर तक टकटकी लगाये उन्हें ही देखती रहीं | फिर रुदन का एक सोता सा फूटा और वे उनसे लिपट गयीं | उनका रुदन कलेजा चीरने लगा | भास्कर को पूरा गाँव चाहता था ;मगर आजो के लिए वे उनके सतिया से कम नहीं थे | बहुत चाहती थीं उन्हें | सो दोनों देर तक रोती रहीं | जी भर रो लेने के बाद वे गाँव पहुँची | गाँव वालों में शव को दफनाने की प्रथा थी | वहीं पास ही उनका कब्रिस्तान था | सो सबने तय किया पहले भास्कर की अंतयेष्ठी करके ,फिर बाकी शव दफनाये जाएँ | भास्कर की अर्थी तैयार थी | भास्कर का और कोई तो था नहीं | सो लोगों को उनकी ही प्रतीक्षा थी | उन्होंने देखा भास्कर के चेहरे पर गुलाल लगा हुआ था और उनके गले में पत्तियों की माला डली थी | यह इधर की परम्परा थी |
“सुनो ! हम अपना ब्याह इन्हीं तरह एकदम सादगी करेंगे | कोई ताम झाम नहीं | फूल की माला भी नहीं | बस सरइ (साल) के पत्तों की माला डाल कर एक दूसरे के हो जायेंगे | ”
“जब कोई ताम झाम नहीं करना है ,तो क्यों न आज ही…| ”
“चाहता तो मैं भी हूँ ;मगर पानी ? यह जिम्मेदारी …..? पर फिकर नको ? ये बरस सब हो जायेगा ? तुम देखना ये बरस सरइ में खूब हरियर पाना (पत्ते ) आयेगा | उससे मैं माला बनाऊंगा | दो माला समझी | ”
तभी लू का एक थपेड़ा लगा और यादों के शीतल झोंके बिखर गये | उनकी नजरें सत्या की दूवारी की ओर उठीं | देखा सरइ का पेड़ हरे हरे पत्तों से भरा हुआ था | मन में एक हूल सी उठी और आँखें बरस पड़ीं | फिर सरइ के मुलायम मुलायम पत्ते तोड़े | उन्हें आपस में गूँथकर माला बनाई और भास्कर के गले में डाल ,उनसे लिपट गयीं और बुक्का फाड़कर रो पड़ीं | आँसू रुक ही नहीं रहे थे ;मगर उन्हें बरबस रोका और उठकर अर्थी का एक बाँस थाम लिया |
अंत्येष्ठी के दसवें दिन ,उसी कुँए के किनारे नहान रखा गया | देखा पानी से भरे कई घड़े रखे थे | उन्होंने अंजली में जल भरा | उसे गंगाजल की तरह अपने उपर छिड़का और घड़े का सारा पानी कुँए में उड़ेल दिया था |
टन्न- टन्न घड़ी फिर बज उठी | उनकी नजरें भास्कर की तस्वीर पर जा ठहरीं ‘ पानी की कितनी बड़ी कीमत चुकाई है मैंने और लोग कहते हैं कि पानी जैसी चीज.. ! बदलनी ही होगी यह सोच | बदलने ही होंगे वो सारे मुहावरे जो पानी को यूँ ….| ’
बेहतरीन कहानी, बधाई उर्मिला जी