‘‘अम्मी, मैं शादी करना चाहती हूँ‘‘

‘‘क्या कहा, शादी…?‘‘-आल्मारी में कपड़े सम्भालती अम्मी ने चौंकते हुए उसे मुड़ कर देखा और फिर उसी के पास सोफे पर आ कर बैठ गईं और उसे घूरती हुई बोलीं-

‘‘..इत्ते दिनों से पढ़ाई के लिए जिद किए थीं। लड़कों को डांट-डपट कर तुम्हारा दाखिला करवाया। और दूसरे, अब…अभी एक ज़ख्म भरा नहीं है और दूसरे का इन्तजाम कर रही हो‘‘

‘‘मेरा ज़ख्म भर चुका है अम्मी‘‘

‘‘..चलो ठीक है, अगर ऐसा है तो अच्छी बात है। खुदा का शुक्र है, अब हम लोग कोई मार्के का लड़का तलाशेंगे। मगर यहाँ तो एक दाग़ भी है तलाकशुदा होने का। अब तो दोहले तेहले ही मिलेंगे कुंवारे तो बिल्कूल नहीं‘‘-कह के अम्मी ने एक गहरी सांस खींची।

‘‘..अगर कंुवारा ही मिल जाए तो..?‘‘

‘‘..बहुत मुश्किल है बेटी..बल्कि नामुमकिन है…लौंडे वालों के दिमाग बड़े उरूज़ पर होते हैं क्या कमी थी तुझमें, कि धक्के मार कर निकाल दिया गया।…सिरफ इतनी सी बात कि वह कहीं और लग-फंस गया। तेरा क्या कसूर था?‘‘

‘‘उफ्! अब उन सब बातों को भूल जाईए। मैं भी भूल चुकी हूॅँ कहा ना-जख़्म भर चुका है‘‘

‘‘ठीक है मैं लड़कों से बात करती हूँ देखें कोई लड़का..‘‘-कहती हुई वह उठने को हुईं कि केसर की अगली खबर ने उन्हें चौंका दिया-

‘‘..उसकी फिक्र ना करें, मैने तलाश लिया है सिर्फ तुम्हारी मर्जी चाहिए‘‘

‘‘…क्या मतलब.. कहाँ देखा है, कौन है वह, उसकी जात-बिरादरी मालूम है ?-अम्मी दोबारा वहीं बैठ गईं। वह दिल को काबू करते हुए बोली-

‘‘उसका कौशल नाम है अम्मी..ग़ैर-मुस्लिम है और हमारे काॅलेज का प्रसेफेसर है…कलकत्ते का है।‘‘

‘‘..कैसर जहाँ, होश में आओ..जानती हो ये क्या कह रही हो…?‘‘

‘‘..मैं होश में आ चुकी हूँ अम्मी।…पहले ज़रूर होश में नहीं थी‘‘-अम्मी झटके से उठीं पर लहराती हुई गिरने लगीें कि केसर ने थाम लिया, मगर अम्मी ने हाथ झिटक दिया-

‘‘…मत छूना मुझे,नजिश हो गई है तू…‘‘

वह चुप-चाप उठी और अपने कमरे में चली गई।

……शाम का वक्त था। तीन दिन बाद आज कैसर जहाँ अम्मी के सामने थी। अम्मी ने उसके लिए काॅलेज ले जाने के लिए कुछ मिठाईयाँ बनाई थीं। डब्बे में भर कर लाईं थीं। कमरे में रख कर जाने लगीं तो केसर ने पुकार लिया-

‘‘…अम्मी…‘‘

‘‘बात मत कर मुझसे। तू इतना गिर गई कि अपने टीचर का भी नहीं लिहाज़़ नहीं किया। उस्ताद और शगिर्द के बीच तो माँ-बाप और औलाद का रिश्ता होता है‘‘

‘‘..ये जमाना कुछ और है अम्मी। आप लोगों ने पहले भी मुझे किसी के गले बांधा था। उसने मेरे साथ क्या किया? उसे मैं नहीं, मेरे नाम पर नोट चाहिए थे। देते रहते आप लोग।…क्यूँ मुझे छुड़ा लिया लिया। उसने कौन सी खुशी मुझको दी सिवाए जलालत के‘‘

‘‘…कुछ भी हो…एक जुआरी, शराबी, बदचलन, मुस्लिम अदमी, एक बहुत ही शरीफ, परहेजगार ,कमासुद, काफिर से लाख गुना ज्यादह बेहतर है।

केसर जहाँ को ऊपर लगी तो नीचे बुझी। चीख़ पड़ी-

‘‘…ये आपक फलसफा है मेरा नहीं। अपका मतलब है मंै एक शरीफ, पढ़े-लिखे, इज्जतदार इन्सान को छोड़ कर एक शराबी रिक्शे वाले से शादी कर लूं।‘‘

‘‘मैं नहीं जानती, जब तेरे भाईयों को पता चलेगा तब कायदे से  लेंगे तेरी खबर…वह लोग तो मना कर ही रहे थे हमने ही नाहक जबरदस्ती तेरा दाखलिा करवायां। अब वह सारे मुझे ही तो कहेंगे।‘‘-अम्मी की इस मलामत पर वह जैसे भीतर तक चटख गई। आँखें बरबस भींग गईं। चुपचाप टी.वी. पर आँखें जमा दीं।

           ………………………………………………………………………………………………………………..

दो दिन बाद वह हाॅस्टल वापस लौट गई, मगर अम्मी को शाॅक सा लग चुका था। ख्वाबों में वह शौहर का चेहरा तलाशतीं और घण्टों बतियातीं-

‘‘..मैं क्या करती मुन्नन के अब्बा, मैंने सोंचा कि नहीं पढ़ाऊँगी उसे तो वह दिल पर ले लेगी। सोंचेगी बाप नहीं हैं तो….मैं क्या जानती थी कि वह….‘‘

फिर उनकी कैफियत अक्सर ऐसी ही रहने लगी। अन्दर-अन्दर घुटती रहतीं। बहुओं से किस मुँह से कहतीं। बात का बतंगड़ बन जाता। खानदान भर में शोर मचातीं सो अलग। बेटों से कहें तो फौरन केसर की पढ़ाई पर ही आई-गई हो जाए। इसलिए भीतर-भीतर घुटती रहतीं और घुटते-घुटते कुछ ही महीनों में सूख कर कांटा हो गईं। आखिर बहुवों ने बेटों को बुलवा लिया। बेटे अम्मी की बीमारी की खबर सुन कर फौरन घर आ पहुंचे। आए तो अम्मी की हालत बेहद संगीन पाया। तय किया गया कि घर की अन्तिम शादी भी लगेहाथ निबटा दी जाए अम्मा की आंखों के सामने ही। कैसर जहाँ को फोन पर फौरन घर लौट आने की ताकी़द कर दी गई।

           ………………………………………………………………………………………………………………..

       कैसर जहाँ का तअल्लुक कानपुर के एक बड़े सम्मानीय घराने से था। इस घराने को पूरे शहर के लोग बड़े सम्मान व एहतराम से देखते थे। सूफी़ घराने के नाम से ख्यातिलब्ध ये घराना अपने आप में मिसाल था। शहर के मुस्लिम घरानों से सम्बन्धित तमाम मसाइल यहीं लाए जाते थे। जब सूफी़ साहब जीवित थे। किन्हीं-किन्ही अहम मौकों पर यहाँ से फतवे तक निकाल  दिए जाते थे। मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड के सदस्य भी थे वह। इसलिए कानपुर सहित उ0प्र0 के अधिकतर मुस्लिम इलाकों में उनका दबदबा था। किन्तु जबसे सूफी साहब का इन्तकाल हुआ, वह ख्याति स्वतः गायब हो गई। बाहरी इलाकों में ये परिवार शक्तिहीन हो गया।

मगर घर में वही दबदबा कायम रहा। बहुओं ने आज तक बाहर की दुनिया देखी ही नहीं। कपड़े, चूड़ी, चप्पल वाले खुद उल्टे ही उनके वहाँ अपनी दुकान समेट लाते।े वे घर में ही सारी  खरीदारी कर लेतीैं। गरज ये कि बेटों नें बाप की रिवायतें क़ायम रखीं। नया सिर्फ इतना हुआ कि माँ के तमाम इसरार पर कैसर जहाँ को बाहर पढ़ने भेज दिया गया। लेकिन उन लोगों ने अपनी बेटियों को ये छूट ना दी। जहाँ बेटियाँ बारह साल की हुईं,उन्हें बुर्क़ा पहना दिया गया। खुद कैसर जहाँ भी बुर्क़ा पहनती थी। ये और बात है, ट्रेन में बैठते ही बुर्क़ा लपेट कर झोले में डाल लेती। यही काम आते वक्त भी करती। वहाँ से बगैर बुर्क़ा के ही चलती। और कानपुर स्टेशन पर गाड़ी रूकते ही बुर्क़ा पोश बन जाती।

            ………………………………………………………………………………………………………………..

    जब कैसर जहाँ घर पहुँचीं, सारा परिवार इकटठा था। सारे भाई-बहन वगैरह। वह देख कर हक् से रह गई। हालाँकि उसे ये तो पता था कि अम्मी को इस हालत तक उसने ही पहुँचाया है। पर करती क्या?….एक दो दिन बीते कि बड़ी बहन ने उसे खबर दी-

‘‘अम्मी का कुछ भरोसा नहीं, इसलिए तुम्हारी शादी का इन्तजाम किया जा रहा है।‘‘

वह चैंक पड़ी।फिर दन से खड़ी हो गई-

‘‘..ये कैसे हो सकता है, बगैर मेरी मर्जी के…‘‘

‘‘…वह लोग जो भी करेंगे अच्छा ही करेंगे। दुश्मन थोड़े ही हैं‘‘

‘‘…आपा, पिछली दफा़ भी शादी इन्हीं मेहरबानों की मर्जी से हुई थी। मैं ये शादी नहीं करूंगी।‘‘

‘‘..हमारे रसूल का फरमान है, किसी औरत या मर्द को तन्हा नहीं रहना चाहिएं‘‘

‘‘…अपने रसूल की  तो मत कहिए, उन्हंोने ही तो इन मुस्लिम मर्दों के लिए ऐययाशी करने के दरवाजे खोल दिये हैं। कोई भी मुस्लिम मर्द दो से कम बीबियों पर राजी ही नहीं रह पाता। अगर किसी मर्द को इस काम से रोकना चाहो तो वह फौरन ऐसी ही दलीलें सामने रखता है कि चार बीबी रखना तो हमारे यहाँ सुन्नत है वगैरह वगैरह और हम ला-जवाब हो जाते हैं…और मैं ये भी नहीं समझ पा रही कि चालीस साल की उम्र में सिर्फ सात साल की बच्ची से निकाह करके या ढेरों शादियाँ करके उन्होंने अपनी उम्मत के सामने कौन सी नजी़र पेश की या कौन सा रश्क का काम कर दिया है? अगर आज के दौर में यही काम कोई आम अदमी कर दे तो उसे क्या कहा जाएगा बताओ तो जरा। यही वजह है कि लाखों मुस्लिम लड़कियाँ मेरी तरह तलाकशुदा होने का तमगा गले में लटकाए घूम रही हैं और ऐसी ही लाखों लड़कियाँ सौतिया डाह में झुलस रही हैं। इसका जिम्मेदार कौन है..? सिर्फ हमारी शरीययत।…आज हमारी कौम की औरतों को किसी पैगम्बर की ज़रूरत नहीं, उसे कोई राजा राम मोहन राय सरीखी शख्सियत चाहिए जो हमारे मअशरे की औरतों को तलाक और सौतिया-डाह की दोजख़ से बचा सके…जैसे उन्हांेने अपनी औरतों को सती की दोजख से बचाया।‘‘

‘‘..या..ल्..ला…ह.माफ़ कर क्या कुफ्र बोले जा रही है, सुनने वाले को भी गुनहगार बना रही है..‘‘

‘‘…हुँ…ह…कौन सा गुनाह…., जब गुनाह नहीं किए थे तब कौन सी जन्नत भोग रही थी।‘‘

‘‘..तौबा वस्तगफिरूल्लाह…तुम आपकी बराबरी एक काफिर से करती हो….जाने क्या मसलहत रही हो इसके पीछे…‘‘

चारपाई पर बैठी कैसर फैलती हूई बोली-

‘‘…बस रहने दो…आदमी फरिश्ता अपने अमाल से बनता है। अगर किसी ने अपनी औरतों को जीते जी दोजख में भस्म होने की रिवायतों से आजाद किया है तो वह किसी फरिश्ते या पैगम्बर से रत्ती भर भी कम नहीं।…रही मसलहत की बात तो जाने दो अब मुँह ना खुलवाओ। वर्ना फिर कहोगी कि गुनाहगार बना रही हो…‘‘

आपा को काटो तो खून नहीं। चुपचाप उठीं और अम्मी के कमरे में चली गईं।

        धीरे-धीरे ये बात पूरे घर में फैल गई। फिर जब अधिक दबाव बनाया जाने लगा तो उसने वास्तविका पर से पर्दा उठाया-

‘‘……मैं कौशल से शादी करूंगी…‘‘

कहना था कि जैसे बम फट गया। बड़े भाई ने झपट कर उसे जोरदार थप्पड़ जड़ा और उसका गला दबाने लगे। दूसरे भाईयों ने मिल कर छुड़ाया। भाभियाँ मुँह में दुपट्टा दबाए खिसक लीं। बहन सिर पकड़ कर बैठ गई। सभी शाॅक्ड हो गए थे।

       उस दिन से घर के लोगांें का खाना-पीना सब छूट गया। जिन भाभियों की तरफ से वह भाईयों से तकरार तक कर लेती थी, अब वे इकटठी बैठ कर उसी के कीड़े बीनती रहतीं-

‘‘..हुॅ…ह..बहुत पढ़ी-लिखी बनती थी। हम लोगों को कितना भड़काती थी।..तुम लोग दब कर क्यूँ रहती हो।…शौहरों की बांदी क्यूँ बनी हो..?…बाहर निकला करो, अपनी जिन्दगी जिया करो..ख्वाहमख्वाह हम लोग इसके कहने में पड़े रहते थे।…और खुद वहाँ क्या-क्या गुल खिलाती रही….‘‘

‘‘…और नहीं तो क्या, मैं तो सोंच रही थी इनसे ज़िद करके अपनी बेटियों को खूब पढ़ाऊँगी। मगर अब तौबा। मेरे बाप की तौबा। इसी साल से उनका नाम कटवा दूंगी। जमाना बड़ा खराब है।‘‘ 

‘‘…और फिर जब घर में ये माहौल देखेंगी तो और बिगड़ेंगी।‘‘-इस तरह भाभियाँ एक निष्कर्ष पर पहुँचीं। मगर कैसर जहाँ टस से मस नहीं हुई। बहन समझा-समझा के थक गईं। बड़ी भतीजी ने दबी जुबान में कैसर जहाँ के सामने अपनी बात रखी-

‘‘…फूफी, तुम ऐसा करोगी तो हम सबकी पढ़ाई बंद हो जाएगी…‘‘

‘‘क्यूँ बंद हो जाएगी, तुम भी हमारी तरह ग़लत चीजों की मुखालफत करना सीखो‘‘

भतीजी खामोश हो गई।

एक दिन बहन से काफी बहस हो गई-

‘‘…आखिर इत्ती बड़ी दुनिया में तुमने एक क़ाफिर का ही इन्तखाब क्यूँ किया?

‘‘…क्योंकि ये तलाक…तलाक….तलाक..उनके मअशरे में रचा-बसा नहीं होता। इसलिए वो इसके आदी भी नहीं होते। और फिर…मुहब्बत ये सब कहाँ देखती है…?

बहन चुप हो गई।

मुआमला खींचते-खिंचते दूसरे महीने तक चला गया। बड़े भाई ने ताक़ीद कर दी-

‘‘अब तुम काॅलेज नहीं जाओगी…‘‘-बड़ा भाई बाप के दाखिल। फिलहाल तो हुक्म मानना ही मानना था। हाँ, शादी वाली बात आगे नहीं बढ़ रही थी। अम्मा भी उसे समझातीं, पर नहीं। भाई परदेसी थे अपना कारोबार छोड़ के आए थे। उन्हे जाना भी था। कैसर अपनी जिद पर अड़ी थी। एक बचपन की जिद्दी कैसर जहाँ। एक दिन  बडे भाई मुन्नन भाई ने उसे अपने कमरे में बुलाया। वह गई, मुन्नन भाई ने उसे सोफे पर अपने बगल बैठा लिया और बोले-

‘‘..तू क्यूँ हमारी इज्जत उतारने पर उतारू है., आखिर चाहती क्या है तू…?

‘‘..मैं सिर्फ अपनी जिन्दगी अपनी तरह गुजारना चाहती हूँ भाईजान…एक जिन्दगी आप लोगों के मुताबिक गुजार ली, नाक़ाम रही। अब दूसरी जिन्दगी अपनी तरह गुजारना चाहती हूँ..अगर इस जिन्दगी को पार लगाने वाला कोई गैर-मुस्लिम ही मिला है तो मैं क्या करूं?े सिर्फ इतनी सी ख़ामी की वजह से किसी इन्सान के पूरे वजूद को तो नहीं नकारा जा सकता। जो खुसूसियात कौशल में हैं, क्या कोई मुस्लिम घराने का इतनी ही खूबियाँ रखने वाला लड़का मुझ तलाक़शुदा लड़की को अपना सकता है? मुझे आप सबकी इज्जत की परवाह है भाईजान, मगर मुझे अपनी जिन्दगी को भी तो किसी ठौर लगाना है। आप ये भी जानते हैं कि किसी बाल-बच्चे दार आदमी के साथ मेरा गुजारा नामुमकिन है।…….मैं क्या करूं?

..कुछ देर खमोशी छाई रही। भाईजान खामोश सिगरेट फूंकते रहे। ऐश ट्रे में राख झाड़ते रहे फिर जैसे किसी फैसले पर पहुँचते हुए बोले-

‘‘एक काम कर सकती हो..?‘‘

‘‘….जी..बताईए,‘‘

‘‘..उसे इस्लाम अपनाने के लिए राजी कर लो..तो दोनों काम हो जाएं। तुम्हारी भी रह जाए, हमारी भी रह जाए…‘‘

‘‘..मैं कोशिश करूंगी भाईजान…‘‘

                     …………….     …………. ………….      ……….. ……………      

कैसर ने फौरन कौशल को फोन लगाया और सारी सूरत-ए-हाल कह सुनाई। कौशल एकदम से घबरा ही गया-

‘‘….ये तुम क्या बक रही हो। तुम्हें पता है मेरी धर्मों में कोई आस्था नहीं। मैं इन पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता…‘‘

‘‘मैं तुमसे कब कह रही हूँ कि तुम किसी धर्म-वर्म के पचड़े में पड़ो। बस, हमारा काम आसान हो जाए इसलिए तुम केवल कनवर्ट करने का ढोंग कर लो। लोगों की निंगाह में तो इस रूप में आ जाओगे। कौन तुम्हें आलिम बना रहा है ?

‘‘..लेकिन इतना आसान भी नहीं है‘‘

‘‘…तुम कर रहे हो ना….प्लीज मेरे लिए…‘‘

‘‘…..उफ्! चलो…जैसी उन सालों की मर्जी…‘‘

‘‘ क्या कहा…?‘‘ –वह चिल्ला पड़ी।

‘‘…अब चीखती क्यूँ हो..सालों को साले ना कहूँ तो क्या कहूँ..‘‘-और फिर ठठा पड़ा।

‘‘..ठीक है अब तुम फटाफट कानपुर आ जाओ।‘‘

              ………………..     …………………….        …………………….. ……………….

      कौशल चौथे दिन ही दिल्ली से कानपुर आ गया। कैसर के भाईयों से मुलाकात की। उनकी तमाम बातें उसे माननी पड़ीं। जिनमें तमाम बातें ऐसी भी थीं जिन्हें मानते हुए उसका जी वितृष्णा और आत्महीनता से भर उठा था। मगर कैसर का मुँह देख कर सारा ज़हर अमृत की तरह पी गया था। तमाम जानकारियाँ हासिल करने के बाद भाईयों ने उसका धर्मान्तरण करवा के एक सादे से समारोह में कैसर जहाँ से उसका निकाह करवा दिया। अब कौशल, कौशल प्रताप सिंह नहीं मोहम्मद क़ादिर हो गए थे। इस अवसर पर कौशल की तरफ से सिर्फ उसकी बड़ी बहन ही शिरकत करने आईं। कौशल क़रीब एक सप्ताह कानपुर रहा। फिर चला आया। कहते हैं इश्क-मुश्क छुपाए नहीं छुपते। कौशल के आने से पहले कौशल की खबर दिल्ली आ पहुँची थी। कैम्पस में अजीब खा जाने वाला माहैाल। लोग अजीब खा जाने वाली निंगाहों से देखते उसको। अलबत्ता स्टाफ़ के ही एक प्रो0 इमरान कुरैशी ने बड़े जोशो-खरोश से उसको बाँहों में भर लिया-

‘‘ आईए..आईए डाॅ0 क़दिर शेख़..अब तो आप हमारी जमात में शामिल हो गए‘‘

कौशल जैसे झेंप गया। इधर-उधर चोर निंगाहों से देखा। सभी पण्डित-वण्डित, इसरा-मिसरा उसे लताड़ने वाली निंगाहों से देखे जा रहे थे। कौशल ने फिर नज़र उठाई ही नहीं। जल्दी-जल्दी क्लास की। -कौशल का जिस्म निचुड़ गया जैसे। धर्मों को धता बताने वाले जो तर्क पहले कौशल रखा करता था और अपने नास्तिक होने का जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया करता था, आज उसी कौशल की जुबान को ताले लग गए थे। किसी रोज मिश्रा जी ने उसे अकेले में झिड़का था-‘‘….यार अजीब हो…तुम्हें लड.कियों का काल था क्या…?‘‘

        वह सकपकाता हुआ तेजी से क्लास की ओर बढ़ गया। एम00 फस्र्ट सेमेस्टर के बच्चे। उसके क्लास में आते ही एक अर्थपूर्ण निंगाह से एक-दूसरे को देख मुस्काने लगे। ये मुस्कानें कौशल को सूईयाँ सी चुभती हुई महसूस हुईं। उसने बेमन से एक चैप्टर पढ़ाया और बाहर निकल आया। अभी वह कारीडोर की तरफ बढ़ ही रहो था कि बगल से गुजरते हुए शुक्ला जी ने गुहार लगाई-

‘‘ …और मौलाना साहब…! आपने तो हमारे समाज में एक हिन्दू कम कर दिया और वहाँ एक मुसलमान बढ.ा आए…‘‘  

         कौशल जैसे सारे तर्क भूल चुका था। चुपचाप वह पी लेता। कहाँ कि वह बात-बात पर तर्क करता था। जोर-शोर से अपना पक्ष रखता था, कहाँ कि वह मूक ही हो गया। जब वह कैसर जहाँ के साथ बाहर निकलता तो बहुत सतर्क रहता। कैसर जहाँ ठहरी ठेठ-कट्टर मुस्लिम परिवेश से। परिवेश का प्रभाव व्यक्ति पर सारी उम्र हावी रहता है। वह कितना भी प्रगतिशील या परिवर्तनशील हो। इस प्रभाव ने ना कौशल का पीछा छोड़ा और ना ही कैसर का। पर कैसर जहाँ को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वह तो अपनी ही जनित मौलिक फ़जाओं में सांस ले रही थी। फर्क़ तो कौशल को पड़ा। वह तो प्रेम में दोनों जहान हार चुका था। घर के लोगों नें भी किनारा-कस्ती कर ली। उसके समाज ने भी उसे बहिस्कृत कर दिया। बाहर निकलता तो लोग उसे अजीब-अजीब नज़रों से घूरते। वह सिहर जाता।  अजीब से अपराध-बोध का आभाष होता।

       एक दिन अंतरंग मि़त्र रोहिताश ने कहा था-

‘‘..क्यूँ बे तू तो बहुत प्रगतिशील और बड़ा वाला नास्तिक बनता था। अब क्या हुआ ये कटुए बहुत पसंद आ गए क्या ?‘‘

कौशल को काटो तो खून नहीं। प्रेम में कौशल ने सफलता भले ही पा ली थी, किन्तु भीतर-भीतर उसे कुछ कचोटता रहता। एक भ्रम। वह सफल हुआ हैं या विफल? भीतर कोई सवाल उठाता-

‘‘ अपने उसूलों को रहन रख के पाया तो क्या पाया..?‘‘-और वह सारे तर्क भूल जाता। ऐसे तमाम सवाल उसके भीतर घुमड़ते रहते। सयास ग्लानि से सन उठा था वह। प्रेम की परिणति जिस रूप में हुई थी वह असह्य थी। अन्तस में एक विशाल सन्नाटा भर गया था। जब वह बाहर निकलता, तो सड़कों के किनारे बने मन्दिरों को देख सयास उसका सिर झुक जाता था। कहाँ कि कभी बड़ी आराम से वह उन मन्दिरों को ठेंगा दिखाता निकल लेता था। ..किन्तु अब…जाने क्यूँ एक अपराध बोध घर कर गया था, जिसका प्रायश्चित वह अनजाने ही करने लगा था। किन्तु अगर उस समय साथ में कैसर होती तो फ़ौरन झिड़क देती-

‘‘..ये क्या पागलपन है, मुर्दों और शिलाओं के सामने झुकते रहते हो। ये क्यँू भूल जाते हो कि अब तुम मुसलमान हो चुके हो। अब इनसे तुम्हारा कोई वास्ता नहीं। अब तुम क़फिर नहीं रहे।‘‘-कौशल का जी भर आता। अन्दर कहीं कुछ टूट जाता। कहीं कोई हवा में फुसफुसाता-

‘‘…समथिंग इज़ रांग…‘‘

       जब कैसर नमाज़ पढ़ रही होती तो उसके जी पे सांप लोटने लगते। उसे अपने अस्सी-पिचासी करोड़ भगवान बेहिसाब याद आते। भले ही जब वह नास्तिक था तो सारे देवताओं को पानी पी-पी के गरियाता रहता था। किन्तु यहाँ भाव दूसरे थे। स्वसे छूट जाने का भाव-‘‘..क्या कैसर बगैर उसके धर्म-परिवर्तन किए उसे नहीं अपना सकती थी..? मैने तो उसे अपना हंड्रेड प्रसेंट दिया। उसने क्या दिया? तो क्या इस प्रेम में सबकुछ एकतरफा था। समर्पण भी एकतरफा। क्या मेरी तरह वह भी न्यूट्रल नहीं हो सकती थी? क्या रक्खा है इन धर्मों के जंगल में। या फिर वह, वह रहती। मैं, मैं ही रहता। जोधाबाई क्या मुसलमान हुई, अपना नाम रजिया सुल्तान रखा? या अकबर बादशाह क्या हिन्दू बना, अपना नाम महाराणा प्रताप रखा? फिर भी वे एक-दूसरे को प्रेम करते थे। एक-दूसरे के धर्म का सम्मान करते थे। बाकी मैने तो धर्म नाम की संस्था का ही बहिष्कार किया था और कहाँ एक धर्म को अपमानित करके दूसरे को महिमा-मण्डित करने बैठ गया हूॅ।…स्…साला..कहाँ घुस गई मेरी प्रगतिशीलता। प्रगतिशील बनते-बनते विमूढ़ कैसे हो गया। अगर प्रगतिशील-जीवियों में खुद का शुमार करता हूँ तो मेरी पत्नी को भी तो उतना ही प्रोग्रेसिव होना चाहिए था? क्या धर्म परिवर्तन करने से हृदय-परिवर्तन भी हो जाता है?….नहीं, कभी नहीं। धर्म मिथ्या है। भ्रम है। मैं किसी भी धर्म का पैरोकार नहीं हो सकता। कौशल मेरे माता-पिता का दिया गया एक स्नेहपूर्ण सम्बोधन मात्र है। न कि कोई हिन्दू या मुसलमान। मैं इस स्नेहिल सम्बोधन को किसी कादिर में नहीं विलय कर सकता। मैं अपने माता-पिता, भाई-बहन, रिश्तेदारों और मित्रों आदि को मुझे कौशल पुकारने से नहीं रोक सकता। उन्हें कादिर कहने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।

        ऐसे ही कितने ही सवाल उसे घोंटते रहते। वह प्रायः तन्हा बैठ कर आत्मवंचना करता रहता। प्रत्यक्ष वह जितना गुमसुम, खोया-खोया रहता भीतर-भीतर वह उतनी ही गहरी मंत्रणा में उलझा होता। उसका जेहन फटने लगता। कहाॅ कि वह अपने नास्तिक होने पर गर्व किया करता था। कहाँ कि वह एक अनन्य धर्म के अधीन हो के मानसिक रूप से पंगु होने लगा था। अजीब बिखरा-बिखरा, सहमा-सहमा। खैर, तीसरे माह फिर वे मई-जून की छुट्टियाॅ बिताने कानपुर चले आए। अब कैसर के वहाँ स्थिति सामान्य थी। पर औरतों के बीच अजब खुसर-पुसर चलती रहती। भावजें प्रायः कौशल से पर्दा करतीं। इससे उसे कोफ्त होती। पर कहता कुछ नहीं। या कभी कोई बुलाता-

‘‘…..और कादिर साहब….अपनी सुनाएं…‘‘-वह अनसुना सा बैठा रहता। दोबारा कोई झिड़कता-

‘‘..अमां..तुमसे ही कह रहे हैं‘‘-उसके कान तो कौशलसुनने के अभ्यस्त हैं। कादिरध्यान से उतर जाता। घर में आने-जाने वालों के लिए उसके मुँह से अस्सलामोअलैकुमबड़ी मुश्किल से निकल पाता। भावजों ने उसके खाने के बर्तन तक अलग कर रखे थे। कैसर ये बर्ताव देख काफी क्षुब्ध होती। कहती-

‘‘..क्या भाभी, आप लोग भी..हमारी आपकी तरह वह भी तो एक इन्सान ही हैं। फिर अब हममें शामिल हो गए हैं‘‘

‘‘..ना भई ना..काफिर तो काफिर है। उसके बर्तन में खाते हुए कराहियत होती है।‘‘-मगर अम्मी कहतीं-‘‘..इसमें ग़लत क्या है, आखिर हमने एक काफिर को इस्लाम से जोड़ा है। इससे बढ़ कर सवाब का काम क्या हो सकता है? हल्की-फुल्की सुनगुनी कौशल पाता तो झुंझला जाता। दिमाग की नसें फटनें लगतीं। एक टीस सी उठती रीढ़ की हड्डियों में।

                  …………..     ………….. ……………..       ………………… ……………….

      उस दिन फ़ज्र का वक्त था। अभी मुर्गा बांग ही दे रहा था कि सबसे छोटी भावज को प्रसव का दर्द शुरू हो गया। इतनी सुबह-सुबह भला कहाँ लिवा जाया जाए। बेपर्दगी हो सो अलग। बड़े भाई साब ने इजाजत ही नहीं दी-‘‘जिसको बुलाना हो यहीं बुलवा भेजो …..‘‘

    आखिर आस पड़ोस की ही एक दाई और एन0एम0 को बुलवा लिया गया। जच्चा प्रसव-वेदना से तड़प रही थी। चार-पाँच औरतें घेरे बैठी थीं। अल्लाह-अल्लाह करके बच्चे ने जन्म ले लिया। जच्चा को निजात मिली। अब वह प्यास से तड़प रही पानी….पानी….की रट लगाए थी। एन0एम0 ने मना किया-

‘‘…….नहीं, पानी बिल्कुल नहीं। ज़हर बन जाएगा।‘‘

        बाकी बैठी औरतें एक-दूसरे का मँुह तकने लगीं। जच्चा छटपटा रही थी प्यास के मारे। इसी बीच एन0एम0 दाई को साथ ले कर कमरे से बाहर  चली गई फ्रेश होने। बड़ी भावज से जच्चा की पानी की तड़प देखी नहीं गई। मंझली वाली के कान में धीमे से फुसफुसाईं-

‘‘..जहीर की दुल्हन, इसकी तड़प देखी नहीं जा रही। कहीं कुछ ऐसा वैसा ना हो जाए…सुनो…वो जो आब-ए-जमजम का पानी रखा है उसे पिला देते हैं। मुक़द्दस जगह का पानी है, वह तो फायदा ही करेगा।‘‘

     मंझली भावज ने सहमति में सिर हिलाया और जा कर आब ए जमजम की शीशी उठा लाईं। बड़ी वाली ने झट ढक्कन खोल कर कुछ पानी जच्चा के मुँह में उंडेल दिया और मंझली के हाथ शीशी रखवा दी। तब तक एन0एम0 वापस लौट आई। और ठीक उसी वक्त छोटी भावज यानि जच्चा को जोर की हिचकी आई।..और उस हिचकी के साथ ही उनके प्राण पखेरू उड़ गए। एन0एम0 हक् से रह गई। दाई चिल्लाई-‘‘…आखिर कर ली ना आप लोगों ने अपनी मर्जी की..‘‘-तो बड़ी भावज ने उल्टे ही रद्दा रक्खा-

‘‘..हमें क्या कहती हो..खुद को तो ढंग की डाक्टरी आती नहीं है।‘‘-संझली बहू से बर्दाश्त नहीं हुआ तो वह तड़ से बोली-‘‘…झूठ क्यूँ बोलती हो भाभी, तुमने ही तो छोटी बहू को पानी पिलाया है..‘‘ –एन0एम0 सिर पकड़ के बैठ गई। दाई सामान समेटने लगी। कैसर शोर सुन कर कमरे में गई तो उल्टे पाँव चीखती हुई भाईयों के कमरों की तरफ भागी। खुशी ग़म में तब्दील हो चुकी थी। अन्ततः कफन दफन कर दिया गया। अम्मी सक़ते में थीं। उनके घरौंदे को किसकी नज़र लग गई? और बड़ी बहू समझा रही थीं-

‘‘…कुछ नहीं अम्मा, हमारे घर पे अजाब ए इलाही नाज़िल हुआ है। हमने एक काफिर को अपना दामाद जो बना लिया है।..वर्ना आप ही सोंचो जो आब का सोता हज़रत इस्माईल अलैह0 की एड़ियों से फूटा वह जहरीला हो सकता है..तौबा-तौबा। और फिर ये भी तो है, इस हालत में अगर औरत फौत हो जाए तो उसे शहादत का दर्जा मिलता -अम्मी ने कुछ सोंचते हुए उनकी सहमति में धीमे-धीमे सिर हिलाया कि कमरे में दाखिल होती कैसर चिल्लाई-

‘‘…ये क्या जाहिलों वाली बकवास छेड़ रखी है आप लोगों ने? खुद ग़लतियाँ करोगी और तोहमतें दूसरों के सिर…..एक तो पढ़ी-लिखी हो नहीं, ना तो घर से बाहर निकल कर केाई ढंग की सोसाईटी ज्वाईन करोगी कि थोड़ा जेहन खुले। कुछ सलीका आए। जिस्म ओ जेहन से कैद कर ली गई हो। मर्दों ने पिंजडे़ की मैना बना के रख दिया है़। वो बेचारी तो अपनी जान से गई, और तुम उसे शहादत का दर्जा दिलवा रही हो। तुम औरतें इसी दोजख-जन्नत और शहादत के नाम पर अपनी दुर्गति करवाती हो‘‘-बड़ी भावज सकपका गईं। सन्नाटा छा गया और फिर बात आई-गई हो गई।

                  ………….     …………. ………..       ……… ………. ……….

    एक दिन कैसर जहाँ अपने कमरे में लेटी कोई मैगजीन पलट रही थी कि 20 साल की भतीजी कमरे में आई और उसके बाजू में लेटती हुई बोली-

‘‘…और फुफी, फूफा कहाँ गए..?‘‘

‘‘..जाएंगे कहाँ, उपर टी0वी0 हाॅल में होंगे।‘‘

‘‘….ओह… फूफी एक बात कहूँ…खफ़ा तो नहीं होँगी?‘‘

‘‘..नहीं..बोल…‘‘-कैसर ने प़ित्रका पर निंगाह टिकाए हुए ही कहा।

‘‘….अम्मी कह रही थीं फूफा मुसलमान हुए ही कहाँ, बच्चा तब तक मुसलमान नहीं होता जब तक उसका ख़तना नहीं हो जाता..तो फिर फूफा कैसे मुसलमान माने जा सकते हैं…यह बात वह अब्बू से कह रही थीं।‘‘

‘‘…उफ् तू भी ना…….सब हो जाएगा‘‘-कैसर ने पत्रिका पटकी उधर और पलटी। मगर चैंक पड़ी। ठीक पीछे कौशल खड़ा था। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था जिससे जाहिर होता था वह सब कुछ सुन चुका है। शरीर जैसे पूरी तरह प्राणहीन हो गया था। कैसर ने भतीजी को डपटा-‘‘…अब तू जाती है यहाँ से या…‘‘

‘‘….जा रही हूँ ना…‘‘-और एक गहरी तल्ख निंगाहों से कौशल को घूरती हुई बाहर चली गई। जाने क्या था उसकी कंटीली निंगाहों में कि वह भीतर तक कांप गया। उसके जाते ही वह बिस्तर पर निढ़ाल सा गिर गया। कैसर उसकी मनःस्थिति भांप गई। वह उसे संभालती सी बोली-

‘‘…क्या हुआ तुम्हें, तुम टेंशन मत लो..सबको बकने दो, ऐसा कुछ नहीं होगा‘‘

मगर कौशल के हाथ के तोते उड़ चुके थे। कैसर के लाख मान-मनुहार करने के बाद भी वह सामान्य नहीं हो पाया। उसका खोया हुआ आत्मविश्वास लौटा नहीं। बिस्तर पर जाने कब तक यूँ ही पड़ा रहा कि नींद आ गई। किन्तु जल्दी ही किसी दुःस्वप्न से आँख खुल गई। इसी मनःस्थिति में उसे कितने ही दिन बीत गए। कैसर समझा-समझा के हार गई पर सब व्यर्थ। अब उसे बाहर निकलते हुए भी भय लगता। कमरे में ही घुसा रहता।-‘‘ इत्ते सारे दंश..ओह..माई गाॅड..!‘‘

    अगर परिवार के दो तीन जन इकट्ठा बैठे धीरे-धीरे आपस में बात कर रहे होते तो उसे लगता कि उसके खिलाफ़ कोई साजिश रची जा रही है। मन ही मन प्लान करता-‘‘…अगर ऐसी स्थिति दर-पेश आई तो क्या करना है। वह चुपके से भाग खड़ा होगा। मगर कैसर को क्या जवाब देगा?…नहीं कैसर को भी लेता जाएगा। तो क्या कैसर चलने को तैयार हो जाएगी? रूढ़ता में वह अपने भाईयों से कम है क्या? जेहन पथरा सा जाता।…..हे….ईश्वर…….नहीं…नहीं…हे…..अल्लाह………क्या करूँ…फिर स्वयं पर ही क्षुब्ध हो जाता। यार कहाँ-कहाँ भ्रम है।……..ये कब तक ईश्वर की जगह अल्लाह..कहने का अभ्यास करता रहूँगा। रात को सोता तो स्वप्न भी अजीब आते। कोई सफेद बुर्राक परछांईं पैंताने छुरा निकाले बैठी है। वह चीख़ कर उठ बैठता। पसीने-पसीने। जल्दी से उठ कर सब खिड़की दरवाजे चैक करता, सब लाॅक तो है ना। कैसर उसकी अजीबो गरीब हरकतें देखती रह जाती और गुहारती-‘‘या अल्लाह रहम कर….‘‘

     एक रात वे सोने की तैयारी कर रहे थे कि दरवाजे पर दस्तक हुई-

‘‘कैसर दरवाजा खोलो जल्दी‘‘-कैसर के भाई थे। कौशल अभी लेटा ही था कि उचक कर खड़ा हो गया और कैसर को बाँहों में भींच लिया-

‘‘नहीं कैसर मत खोलना…वह लोग साजिशन आए हैं‘‘

‘‘…उफ्! छोड़ो भी…भाईजान हैं‘‘

‘‘…नहीं, कोई भी हो‘‘- मगर कैसर जहाँ ने एक झटका मारा, खुद को आजाद किया और जाकर दरवाजा खोल दिया-

‘‘….ये लो..तुम्हारा मसूरी जाने का टिकट करवा दिया है। तुम दोनों का है, ये कादिर को क्या हो गया है ?‘‘

      उन्होंने भीतर देखते हुए कहा। कैसर ने भी पीछे मुड़ कर देखा वह दोनों घुटनों को सिकोड़े बाहों में भरे विचित्र मुद्रा में बैठा था। वह कुछ नहीं बोली। भाईजान चले गए तो वह दरवाजा बंद करके आई और उसे जोर का झटका दिया-

‘‘…ये क्या बद्तमीजी हैकैसे बैठे हो…क्या सोंचा होगा भाईजान नें…छीः..‘‘

      वह कुछ न बोला। चुपचाप लेट रहा। कौशल की इस तरह की विक्षिप्त मनोदशा देख वह बेहद सहम गई। कौशल उधर मानसिक संत्रास से इस कदर जूझ रहा था कि दिन ब दिन उसकी मानसिक अवस्था तथा दिनचर्या गड़बड़ाती जा रही थी। देर रात तक जागना और सुबह देर से उठना फिर गुमसुम यहाँ-वहाँ घुसे पड़े रहना, यही हो गया था उसका रूटीन। दीन-दुनिया सबसे मोह भंग हो चुका था। कैसर से जिस्मानी-राबता भी लगभग खत्म हो चुका था। एक रोज गई रात को सोते समय नींद में ही कैसर का हाथ उसके पेट पर पड़ गया तो वह चीख़ कर उठ बैठा-

‘‘…नहीं…..नहीं…….नहीं…….‘‘-और उठ बैठा। कैसर ने उठ कर लाइट आॅन कर दी। उसे पानी पिलाया। वह कुछ सामान्य हुआ। अचेत-निंगाहों से हर तरफ देखता रहा। हर ओर दीवारों पर भयभीत कर देने वाले दृश्य चिपके हुए हैं।

                   ……………..             ……………………….           ………………………

     अभी सुबह का झुटपुटा था कि कौशल का फोन बज उठा। उधर रोहिताश था। छूटते ही बोला-

‘‘….क्यूँ बे कटुए, हमको भी भूल गया‘‘

‘‘खामोश…खबरदार…मैं…कौशल हूँ…कौशल…..कौशल प्रताप सिंह……‘‘

       इस तरह चीखते देख कैसर दौड़ कर समीप आई-‘‘क्या बात है, क्यूँ चिल्लाए जा रहे हो। तुम्हें हो क्या गया है? पागल हो गए हो क्या….अभी भाईजान सुन लेंगें तो…?‘‘

‘‘….हाँ…हाँ…सुन लेने दो..साला कायरों की तरह जी रहा हूँ।…तुम सब हत्यारे हो…तुम लागों ने हत्या की है मेरी।….कभी माफ नहीं करूंगा मैं तुम लोगों को….‘‘

        तेज आवाजें सुन कर घर के दूसरे लोग भी कमरे के बाहर इकट्ठा हो गए। भाभियों की खुसर-फुसर शुरू हो गई। भाई नहीं आए। बच्चे भीड़ जमाए अलग खडे़ हो गए। कैसर ने कौशल से मोबाइल ले कर डिस्कनेक्ट कर दिया। वह कुछ नाॅर्मल हुआ और सोफे पर ढह गया। कैसर जहाँ का जी बुरी तरह से हौल रहा था-‘‘…या अल्लाह….ये क्या हो रहा है…बाज़ आई ऐसी मुहब्बत करके। करीब एक घण्टा बाद उसने कुछ सोंच कर अपनी सखी सुमैया को फोन किया-‘‘…घर चली आ…बहुत उलझन में हूँ….‘‘

दोपहर करीब एक बजे सुमैया आई। कौशल खा-पी कर अपने कमरे में आराम करने चला गया। कैसर सुमैया को ले कर टी0वी0 रूम में चली गई। दोनों दीवान पर आमने-सामने लेट रहीं-

‘‘….अब बता कैसर क्या चल रहा है…?‘‘-वह ठण्डी सांस ले कर रह गई।

‘‘…कुछ बता ना…कोई प्राब्लेम है?‘‘-और फिर कैसर ने सारी सूरत ए हाल कह सुनाई। सब सुन कर सुमैया ने गहरी सांस खींची, कुछ देर खमोश सोंचती रही फिर बोली- 

‘‘….देख कैसर इन हालात की जिम्मेदार तू खुद है।…ये रिश्ते मरने वाले रिश्ते होते हैं। मरने वाले रिश्ते बड़े ही काॅम्प्लीकेटेड होते हैं, इन्हे भर-नजा़क़त से सम्भाल कर रखना पड़ता है। बाकी, ये धर्म, संस्कृति और सभ्यता ऐसी चीजें हैं जो किसी पर थोपे नहीं जा सकते। जब तक कि आदमी राजी-खुशी से इसे ना अपनाए। या अपने दिल की आवाज पर ना कुबूल करे। कौशल ने मुहब्बत तुझसे की थी तेरे धर्म से नहीं। अपना मजहब तो तुने उस पर जबरन थेापा है। उसने कितनी जद्दोजहद करते हुए खुद को भीड़ से अलग किया होगा। अपने उसूलांे को पैदा किया। उन्हे अमल में लाया होगा। उसने धर्म की परिकल्पना को ही रिजेक्ट कर दिया। और कहाँ कि तूने उसे उसी बन्धन में जकड़ दिया। उसके माक्र्सवादी सिद्वान्तों को तेरे प्रेम का ग्रहण लग गया है। ऐसे वह कहाँ जी पाएगा। वह कोई कुंद-बुद्वि का मूढ़ इन्सान तो है नहीं। उसकी अपनी पहचान थी। मेरी बात पर ध्यान दो, ‘थी‘….‘हैैनहीं। इस थीऔर हैके बीच में वह पिस रहा है। अपनी आईडेंटिटी खो कर जी पाना बहुत कठिन होता है कै़सर…मैं नहीं जी सकती, तुम भी नहीं जी सकतीं। इसलिए हमें किसी की आईडेंटिटी छीनने का कोई हक़ नहीं। हमसे हमारा परिवेश कभी नहीं छूटता। फिर, इस मुहब्बत के इम्तेहान में सिर्फ उसी की  आजमाईश क्यूँ हुई? उसने सब कुछ खो दिया, पर तुमने क्या खोया है। तुम्हें तुम्हारा धर्म प्यारा था, तुम उसे ले के रहतीं। उसे उसकी तरह जीने देतीं। मगर यहाँ तो सब कुछ एक तरफा ही रहा।…….तुमने सबकुछ पा लिया, उसने सब कुछ खो दिया।..तुम इतनी सेल्फिश कैसे हो सकती हो?….कभी उसका दर्द खुद जीने की कोशिश की तुमने………..‘‘

      इतनी देर में कैसर का चेहरा आँसुओं से सन गया था। जुबां पे ताले लग गए थे। अब उसे अपनी ज्यादतियों का ख्याल आ रहा था। सच है उसके दम्भ और ज़िद के आगे वह हमेशा झुकता ही रहा है। अज़ीम है तभी तो। कुछ देर सन्नाटा छाया रहा फिर सुमैया ने ही सन्नाटा तोड़ा-

‘‘…कै़सर, ये ज़हीन लोग जज़्बाती भले ही हो जाएं मगर कोई भी बात बगैर किसी दलील के कुबूल नहीं करते। कभी खुदा ना ख्वास्ता दिल के हाथों मजबूर हो के ऐसा कर भी लिया तो भी इनकी बौद्विक और तार्किक चेतना उन्हें चैन से बैठने नहीं देती। यही हादसा हुआ है बेचारे कौशल के साथ। जज़्बात में आ कर उसने ये क़दम उठा तो लिया पर इसे दिल से कुबूल ना कर सका। कैसे कुबूल कर सकता है जबकि वह धर्म की संस्था को ही नकार चुका है। उसके संग नाइंसाफी हुई है इसे कोई भी नहीं सह सकता। एक ही रास्ता है, उसे इन झूठी रिवायतों की बेड़ियों से मुक्त कर दो..‘‘-कैसर को अपने किए पर बड़ा पछतावा हो रहा था। वह मन ही मन निर्णय ले चुकी थी कि आज ही वह कौशल को कादिरके पिंजड़े से मुक्त कर किसी कबूतर की तरह आकाश में उछाल देगी।-इन्हीं बातों में शाम के छः बज चुके थे। सुमैया को अब लौटना भी था। दोनों टी0वी0 रूम से नीचे आईं। कैसर उसको बाहरी गेट तक छोड़ कर वपस लौट आई। सोंचती हुई कमरे की तरफ जा रही थी कि-‘‘…आज वह कौशल को सारी शर्तों और रूढ़ रिवायतों से मुक्त कर देगी। और कल हीे दिल्ली वापस लौट जाएगी। अपने वास्तविक वजूद में रह कर ही हम एक-दूसरे को प्यार करेंगे। कौशल, कौशल ही रहेगा। कैसर, कैसर ही रहेगी।‘‘

   और कमरे में दाखिल हुई। कौशल था नहीं। वह उसी के बेड पर लेट गई और कौशल के तकिए को उठा के सीने से लगा लिया। तभी देखा उसी जगह पर एक कागज़ फोल्ड किया हुआ रक्खा है। फौरन उठा कर पढ़ने लगी-

‘‘….केसर, बहुत प्रयास करने के बाद भी कौशल, कादिर बनने में नाकाम रहा। मैं कादिर नहीं बन सका। तुमने प्रेम कौशल से किया था कादिर से नहीं। पर आज तुम्हें कौशल नहीं कादिर चाहिए। इसलिए कौशल को तुम्हारे जीवन से दूर लिए जा रहा हूँ। हमेशा के लिए। मुझे ढूंढ़ने का प्रयास मत करना…बस्स….दुआ में याद रखना…..‘‘

                                                  कौशल

इतना पढ़ते ही कैसर चीख़ मार कर बेहोश हो गई।

हुस्न तबस्सुम निहां युवा लेखिका हैं. आधा दर्जन के लगभग कहानी-कविता-आलेख आदि की पुस्तकें प्रकाशित. संपर्क - nihan073@gmail.com

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.