Monday, May 20, 2024
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ज्योत्स्ना ‘कपिल‘ की कहानी – नारी मुक्ति

मैं आँख खोलकर देखता हूँ , स्थान कुछ पहचाना सा लग रहा है। नहीं… पहचाना नहीं, यह तो मेरा ही कमरा है। मैं यहाँ कैसे आ गया ?
       ” प्रवीन, तू कैसा महसूस कर रहा है बेटा ?” माँ पूछ रही हैं।
       ” मुझे क्या हुआ है ? मैं तो ठीक ही हूँ । ” धीमे से मेरी आवाज निकलती है। पर मेरी आवाज इतनी धीमी क्यों निकल रही है ? अपनी जबान पर भी मेरा नियंत्रण नहीं है। मैं ठीक से बोल नहीं पा रहा हूं।
       ” भूख लगी है ? कुछ खाएगा बेटा ?” माँ पूछ रही हैं।
        मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, कि मुझे भूख लगी है या नहीं? मैं इनकार में सिर हिला देता हूं। माँ चली जाती हैं। मेरी आँखों में एक चेहरा उभर रहा है, एक सुंदर लड़की का चेहरा। वह बहुत सुंदर है। एकदम गोरा रंग, कंजी आँखें, गुलाबी होंठ, चित्ताकर्षक मुस्कान। लग रहा है सारा वातावरण मनोरम हो उठा है। अरे! यह तो ऋचा है… मेरी ऋचा… मेरी पत्नी। बारह साल हो गए हमारी शादी को। इन बारह सालों में भी, उसकी सुंदरता पर कोई असर नहीं हुआ है।
        वैसा ही इकहरा शरीर, मादक अदाएं। आज भी मैं उसका उतना ही दीवाना हूं, जितना बारह साल पहले था। उसकी हर अदा, हर भंगिमा मुझे अभी भी उतनी ही तीव्रता से उसकी ओर खींचती है। पता नहीं वह स्त्री है या कोई मायावनी ! घर में सब उसे बुरा भला कहते हैं। माँ तो उसे नागिन कहकर पुकारती हैं। यह संबोधन मुझे बहुत बुरा लगता है। कई बार उन्हें मना किया है, पर वह मानती ही नहीं। ऋचा से मैंने दीवानों की तरह प्यार किया है। वह नित नवीन लगती है। और मैं ? सच तो यह है, कि मैं उसके लायक ही नहीं।
         मैं बारहवीं फेल, दुबला पतला, साधारण शक्ल सूरत का। उधर ऋचा एम ए पास, सुंदर, अक्लमंद, हर काम में होशियार।
    उसकी आवाज भी कितनी मीठी है! कई बार मुझे गुस्से में भी घूरती है, तो उसपर इतना प्यार आता है कि जी चाहता है, उसपर सारा संसार वार दूँ।मालूम है… पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता था। दो साल से लगातार बारहवीं में फेल हो रहा था। तब पापा ने मेरी पढ़ाई छुड़ाकर,मुझे अपने जनरल स्टोर में बैठने को कहा। मम्मी ने ही उनसे कहा था, कि मुझे काम से लगा दिया जाए, वरना मैं अपने आवारा दोस्तों की संगति में बिगड़ जाऊंगा।
         दोस्तों के साथ मैं सिगरेट और शराब पीना शुरू कर चुका था। ऐसे में मम्मी पापा को यही सूझा कि मुझे काम से लगा दिया जाए। मैं बहुत नाराज हुआ, खूब झगड़ा, पर मेरी किसी ने नहीं सुनी। जब पापा ने वार्निंग दी, कि अगर मैं स्टोर में न बैठा, तो वह मुझे एक पैसा भी नहीं देंगे, तो मुझे झुकना पड़ा। पैसे के बिना दुनिया में है ही क्या ? पापा ने वादा किया कि अगर मैं दुकान में बैठा तो वह एक निश्चित धनराशि मुझे मेहनताने के रूप में देंगे। प्रस्ताव आकर्षक था तो मैंने स्वीकार कर लिया।
         चौक में हमारा जनरल स्टोर है जो उस इलाके में सबसे ज्यादा चलता है। ग्राहकों की भीड़, पापा को दम लेने की फुरसत नहीं लेने देती। मेरे जाने से उन्हें बहुत सहारा मिला था। दो दिन मैं बहुत अनमने मन से स्टोर में गया। यह क्या मुसीबत आन पड़ी है ? मैं दिन भर नाराज़ सा बैठा रहता। तीसरा दिन था, एक मीठी आवाज़ सुनकर, मैंने उस दिशा में देखा, तो पाया एक सुंदर सी लड़की खड़ी है। उसे देखकर मेरा दिल दुगुने वेग से धड़कने लगा। मैं झट से आगे आया और जो सामान वह चाहती थी, उसे बिना देरी के उपलब्ध करवा दिया। उसने मुस्कुरा कर मुझे देखा, तो बस लगा कि मैं दिल हार गया हूं।
        उसके बाद, मैं बिना ऐतराज के स्टोर जाने लगा। वह अक्सर किसी न किसी सामान के लिए आती रहती थी। फिर हमदोनों के बीच मुस्कुराहटों का भी आदान प्रदान होने लगा। मेरे पूछने पर उसने अपना नाम ऋचा बताया। अब तक मेरी हिम्मत बढ़ गई थी। अगले दिन जब वह आई, तो मैंने सामान के साथ एक पर्ची भी उसे थमा दी, जिसमें उससे मुलाकात के विषय में पूछा था। शाम को वह पुनः आई और सबकी नजर बचाकर मेरे सामने अपनी हथेली फैला दी। उसपर शाम छः बजे नेहरू पार्क में मिलने के लिए लिखा था।
        यह देखकर मेरी धड़कनें तेज हो गईं। मैंने चुपके से उपहारस्वरूप एक चॉकलेट उसे पकड़ा दी। वह मीठी सी मुस्कान देकर चली गई। अब मेरा किसी काम में दिल नहीं लग रहा था। मुझे बेसब्री से शाम का इंतजार था। मैं समय से पंद्रह मिनट पहले ही वहाँ पहुँच गया। बड़ी मुश्किल से समय कटा और वह आती हुई नजर आई। हमदोनों मुस्कुराए और फिर एक रेस्तरां में जाने का निर्णय ले लिया।
    रेस्त्रां में उस दिन हमने ढेर सारी बातें की। मुझे मालूम हुआ, कि वह बी ए फाइनल कर रही है। धीरे धीरे हमारी मुलाकातें बढ़ने लगीं।
        हमें एक दूसरे से प्यार हो गया था। मैं तो उसकी सुंदरता का दीवाना हो गया था। हाँ , यह कहना मुश्किल था, कि उसे मेरी क्या बात पसंद आई ? हो सकता है कि मेरा पैसे वाला होना, उसे भा गया हो। क्योंकि वह एक साधारण परिवार की थी। मैं खुले हाथ से खर्च करता था। हमने खूब फिल्में देखीं, मैंने उसे खूब तोहफे दिए। फिर बात हमारे घर तक पहुँची तो मैंने स्पष्ट कह दिया, कि मैं उसे प्यार करता हूँ और उससे शादी करना चाहता हूं। मैं सबका लाडला था ही और फिर अब तो पापा का हाथ भी बंटाता था। ऋचा की सुंदरता देखकर, किसी ने ज्यादा ऐतराज नहीं किया।
         उसके घर में तो किसी को क्या ही ऐतराज होता। मैं बेशक देखने में मामूली और कम पढ़ा लिखा था। पर पैसेवाला व इकलौता बेटा था। वह जानते थे की उनकी बेटी हमारे यहां राज करेगी। चटपट हमारी शादी हो गई। कुछ दिन तो बहुत खुमार में गुजरे, फिर ऋचा थोड़ी चिड़चिड़ाने लगी। अब वह चाहती थी कि मैं पापा के साथ काम न कर, अपना कोई अलग बिजनेस डालूँ । उसे मैंने व बाकी सबने समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उसने जो रट लगाई थी, वह न छोड़ी। अंत में पापा ने मुझे, एक अलग स्टोर खुलवा दिया।
          मैंने वहाँ बैठना शुरू किया तो उसने जिद की-कि मेरे साथ वह भी बैठेगी। मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की बात भला क्या होती ? उसके बिना मेरा मन ही कहाँ लगता था।मम्मी पापा के ऐतराज के बावजूद मैंने उसे अपने साथ ले जाना शुरू कर दिया। थोड़े दिन में, मैंने महसूस किया, कि मेरे स्टोर पर भी बहुत भीड़ रहने लगी है। उनमें पुरुष ही अधिक संख्या में होते थे। ऋचा मुस्कुरा कर उनका स्वागत करती, और उन्हें सामान देती। कई बार मुझे बुरा भी लग जाता। धीरे धीरे मुझे यह वहम होने लगा कि शायद यह भीड़, ऋचा की वजह से ही जुटती है। अब मुझे, स्टोर में उसके आने पर ऐतराज़ होने लगा। पर उसने मुझे शक्की कहकर मेरी बात को हवा में उड़ा दिया और स्टोर में आना जारी रखा ।
        अब लोग बात करने लगे थे, कि मेरे स्टोर में आने वाले, एक बहुत अमीर आदमी के साथ, उसकी खासी दोस्ती हो गई है। मैंने ऋचा से पूछा, तो उसने साफ इंकार कर दिया। अब वह मुझसे बहुत नाराज़ हो गई और कहने लगी कि वह मेरे जैसे शक्की आदमी के साथ नहीं रह सकती और उसे तलाक चाहिए। मैं उससे अलग होने की बात सोच भी नहीं सकता था।मैंने घबरा कर, उससे पचासों बार माफी माँगी। पहले तो वह अपनी जिद पर अड़ी रही, पर तभी उसके गर्भवती होने का पता लगा, तो वह खामोश हो गई। उसने स्टोर पर आना भी बंद कर दिया।
       अब लोग बकवास करने लगे थे कि उस आदमी का ऋचा से दिल भर गया था। पर मुझे किसी की परवाह नहीं थी। लोगों का क्या, उन्होंने तो सीता को भी नहीं बख्शा था। मैं खुश था कि मेरी ऋचा मेरे पास थी और मैं पिता बनने वाला था । मैं उसका बहुत ध्यान रखने लगा । मम्मी पापा भी उसकी देखभाल में कोई कमी न रखते थे । थोड़े समय बाद, हमारी प्यारी सी गुड़िया का जन्म हो गया। मैं बहुत खुश था। पर ऋचा को न जाने क्यों उससे कोई लगाव न था। वह उसे दूध पिलाने को भी तैयार न होती थी।
           लोगों का कहना था, कि बिटिया की शक्ल उस आदमी से मिलती है। पर मुझे तो वह ऋचा जैसी ही लगती थी। थोड़े समय बाद बच्ची को उसकी दादी के जिम्मे छोड़कर, ऋचा ने फिर से स्टोर में आना शुरू कर दिया। मैंने ऐतराज किया, कि अभी गुड़िया बहुत छोटी है, उसे घर में छोड़ना ठीक नहीं। लेकिन वह मेरी कब सुनती थी। गुड़िया बड़ी प्यारी थी, उसकी तोतली जुबान मेरा मन मोह लेती थी। अब घर का माहौल धीरे- धीरे बिगड़ने लगा था। ऋचा मम्मी -पापा, किसी को कुछ न समझती थी।
        मैंने उसे समझाने की कोशिश की, तो वह फिर से तलाक की बात करने लगी। अब वह यह भी कहने लगी कि मैं अनपढ़ गँवार हूँ, उसके लायक नहीं हूं। लोगों से उसने यह भी कहना शुरू कर दिया, कि मैं बहुत जालिम हूँ, उसे मारता पीटता हूँ । सुनकर मैं सन्न रह गया। मैं तो उसे दीवानों की तरह चाहता था। कभी उससे कोई कठोर बात न की थी। अब कई बार, वह मुझे अपने पास भी नहीं आने देती। कहती, मुझे देखकर उसे घृणा होती ही।
           महीनों वह मुझे खुद को छूने भी न देती। दुखी होकर मैं पीने बैठ जाता। मेरी पीने की आदत बढ़ने लगी थी। अब उसे न मेरी परवाह थी, न गुड़िया की। वह अकसर फोन पर बात करती रहती थी। मैं पास जाता, तो खामोश हो जाती या फोन काट देती। मेरे ऊपर न जाने कैसी दीवानगी छाती जा रही थी। आत्मसम्मान नाम की चीज मुझमें बची ही नहीं थी। मैं उसकी मिन्नतें करता। उसके पाँव पकड़ने को भी तैयार था। एक दिन मैं उसके पास गया, तो उसने मुझे पागल और नामर्द कहकर दुत्कार दिया।
         उस दिन पहली बार, मुझे बहुत तेज गुस्सा आया। मैंने उसे कसकर अपनी बाहों में जकड़ लिया और जबरदस्ती करने की कोशिश की। उसने शोर मचा दिया और मुझे गालियाँ देती हुई, टीवी का रिमोट कसकर मेरे सिर पर मारा। मैं सिर पकड़ कर बैठ गया और वह कमरे से बाहर निकल गई। शोर सुनकर मम्मी पापा वहां आ गए और मुझे सम्हालने लगे। तभी गुड़िया चीख- चीख कर रोने लगी। फिर मम्मी मुझे छोड़कर गुड़िया को चुप कराने लगीं। मैं चुपचाप बेड पर, आँख बंद करके लेट गया। मेरे आँसू बहने लगे।
         अभी भी मैं उससे नाराज़ नहीं, बस यह सोचकर दुखी था कि वह मुझसे इतनी नफरत क्यों करने लगी है ? तभी घर में पुलिस आ गई और मुझे पकड़कर थाने ले गई। अब मुझे मालूम हुआ कि ऋचा ने मुझपर, मारने -पीटने और बलात्कार का इल्जाम लगाया है। सुनकर मैं सन्न रह गया। इतने घिनौने इल्जाम ! तभी पापा, आपने वकील के साथ आए और मेरी जमानत कराकर घर ले गए।
         सबके मना करने के बावजूद, दो दिन बाद मैं चुपके से, उसे मनाने उसके घर चला गया। इस बार उसने शर्त रखी, कि या तो मैं उसे तलाक दे दूँ या अलग मकान लेकर रहूँ । मम्मी पापा इस बात के लिए बिल्कुल तैयार न थे। अब मैंने मम्मी के पैर पकड़ लिए। उनसे रो- रोकर कहा, कि मैं ऋचा के बिना नहीं जी सकता। पापा को मेरे ऊपर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने गुस्से में यहाँ तक कह दिया, कि नहीं जी सकता, तो मर जा जाकर। लेकिन हम उस दुष्ट औरत के मन की नहीं होने देंगे। इस बात पर मम्मी रो पड़ीं। बोलीं मेरा एक ही बेटा है। उस नागिन ने इसपर टोना पर दिया है। तभी इसे उसके सिवा कुछ सूझता ही नहीं। अगर इसे कुछ ही गया तो हम किसके सहारे जिएंगे ?
          उनकी बात सुनकर ,पापा का सिर झुक गया। फिर उन्होंने मुझे दो कमरों का एक घर लेकर दे दिया। लेकिन मम्मी ने शर्त रखी, कि गुड़िया उनके पास ही रहेगी। ऋचा ने इस बात पर कोई ऐतराज नहीं किया। न जाने कैसी माँ थी, जिसे अपनी जाई औलाद की भी चिंता न हुई। ख़ैर हम दोनों नए घर में आ गए। ऋचा बहुत खुश थी। उसे अपनी इच्छा से, अपने घर को, सजाने -संवारने का मौका मिला था। वह खुश थी, तो मैं भी खुश था। वहाँ लंबे अरसे बाद हमारे बीच पुनः नजदीकी होने लगी थी।
        सब कुछ ठीक होता सा लग रहा था। मैं स्टोर सम्हाल रहा था और ऋचा घर को सजा रही थी। पैसे की कोई कमी नहीं थी। उसने जितना चाहा खर्च किया, मैंने एक शब्द भी न कहा। बस मेरी ऋचा खुश रहे। फिर जैसे वह घर से ऊबने लगी। अब वह फिर से स्टोर में बैठने लगी। मुझे महसूस हुआ, कि आजकल वह फिर से मुझसे दूरी बरतने लगी है। एक दिन मेरी तबियत थोड़ी ढीली थी, तो सोचा थोड़ी देर आराम कर लूं।
         उस समय ऋचा घर पर थी और स्टोर का सबसे पुराना और भरोसेमंद नौकर संजू गायब था। स्टोर को दूसरे नौकर के भरोसे छोड़कर मैं घर गया तो देखा संजू वहीं था। मुझे देखकर, पल भर को ऋचा के चेहरे का रंग उड़ गया। वह बताने लगी कि संजू को उसने टांड़ पर थोड़ा सामान रखने को बुलाया था। मैंने चुपचाप जाकर लेट गया और ऋचा को चाय बनाने को कहा। तो वह बोली कि स्टोर केशव के भरोसे छोड़ आए हो इसलिए मैं वहां जा रही हूँ। उसका यूँ चले जाना , मुझे बुरा लगा। उसके बाद मैं काफी देर चुपचाप बिस्तर पर पड़ा रहा।
          कुछ दिन से मेरी तबियत ढीली रहने लगी थी। ऐसा लगता था जैसे हाथ पाँव में जान ही नहीं है। दिमाग एक अजीब से सुरूर में रहने लगा था। स्टोर जाने की हिम्मत नहीं पड़ती। यह देखकर ऋचा ने मुझे दवा लाकर दी और कहा कि मैं टाइम से दवा लेता रहूं, व स्टोर की बिलकुल भी चिंता न करूं। मैं भावुक हो गया, कि वह मेरा कितना ख्याल रखती है। सब फालतू में ही उसमें कमियाँ ढूँढते रहते हैं। अब मैं एक अजीब से सुरूर में रहने लगा। दिमाग भी जैसे सुन्न सा होने लगा था।
         मैं पूरे दिन नशे की सी हालत में पड़ा रहता। कई दिन ऐसे ही निकल गए। मेरा स्टोर पर जाना बिलकुल बंद हो गया। बेचारी मेरी बीवी, घर और स्टोर दोनों सम्हाल रही थी। एक दिन वह बोली कि आपकी तबियत ज्यादा खराब हो गई है, अस्पताल चलते हैं। जरा इन कागजों पर साइन कर दो। मेरा दिमाग तो काम कर नहीं रहा था। वह जहाँ कहती गई, मैं साइन करता गया। फिर न जाने क्या हुआ। जब मैं थोड़ा होश में आया, तो देखा मेरे हाथ पाँव बँधे हुए हैं और कुछ लोग मुझे उठाकर किसी गाड़ी में डाल रहे हैं।
       मेरा नौकर संजू, बड़ी फुर्ती से काम कर रहा था और केशव शोर मचा रहा था। तभी वहाँ पापा और कुछ लोग आ गए। उनलोगों में झगड़ा होने लगा। फिर क्या हुआ मुझे पता नहीं। अब जब मैं होश में आया हूँ , तो खुद को पापा के घर में पाया।
      ” ऋचा, तुम कहाँ हो ? प्लीज़ मेरे पास आओ, मुझे तुम्हारी जरूरत है ” मैं पुकारता हूँ ।
       ” बहुत हिम्मत हो गई उसकी ” एक अजनबी स्वर उभरता है।
       बाहर बातें हो रही हैं। मैं चाहकर भी उठ नहीं सकता। लग रहा है, शरीर में जान ही नहीं।
       ” मेरा एक ही लड़का है शर्मा जी। न जाने कौन सी मनहूस घड़ी थी जो वह इसके जीवन में आई। बच्ची भी मेरे बेटे की नहीं है, उसके उस हरामखोर आशिक की है। लेकिन हम यह सोचकर उसे पाल रहे हैं, कि इसमें बेचारे बच्चे का क्या कुसूर। ” कहते हुए मम्मी रुकी हैं।
       ” इसकी इसी नीमबेहोशी की हालत में, स्टोर और घर के प्रेपर्स पर साइन करवा लिए। अब सब कुछ उसका हो गया। न जाने क्या खिलाकर, प्रवीन की यह हालत कर दी है। उसने तो पागलखाने पहुँचाने की पूरी तैयारी कर ली थी। वह तो बेचारा केशव हमारा वफादार है, तो उसने समय रहते, हमें खबर कर दी। वरना मेरा बेटा तो इस समय पागलखाने में भर्ती होता। फिर वहाँ से इसे निकालने में जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते । बड़ी मुश्किल से इसे उन लोगों के कब्जे से छुड़वाया। ” पापा की आवाज आई।
       “नागिन मेरे बेटे को डस गई। बताओ जरा, उसे रिश्ता जोड़ने को एक नौकर ही मिला था। सड़ -सड़ के मरेगी डायन। मेरी बददुआ है। ” मम्मी कह रही हैं।
     ” यह नारी मुक्ति का झंडा उठाने वाले सो कॉल्ड लोग कहाँ हैं ? कोई जाकर उनसे पूछे , कि अगर कोई पुरुष सताए जाए तो वह अपने लिए न्याय माँगने कहाँ जाए ?” अजनबी स्वर उभरा।
       सुनकर हूक सी मेरे कलेजे में उठ रही है। सब न जाने क्यों उसे बुरा भला कह रहे हैं ? मेरी ऋचा ऐसी तो नहीं है। ऋचा…. कहाँ हो तुम … मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता। मैं चिल्ला रहा हूं, वहाँ से भाग कर तुम्हारे पास आना चाहता हूँ और सब मुझे पकड़ रहे हैं।

ज्योत्सना कपिल
संपर्क – jyotysingh.js@gmail.com
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1 टिप्पणी

  1. ज्योत्स्ना जी को दूसरी बार पढ़ा।आज हमारी सोच ध्वस्त होने का दिन है नारी मुक्ति शीर्षक से कहानी के प्रति जो सोच बनी थी ध्वस्त हो गई।
    बहरहाल प्रेम प्रसंग से शुरू हुई यह कहानी पीड़ा जनक स्थिति में समाप्त हुई।
    पर उस पुरुष का भी क्या ही किया जाए जो समझना या सुधरना ही नहीं चाहे।चोट खा- खाकर भी।
    जो लोग नारी मुक्ति की बात करते हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि कुछ नारियाँ पहले से ही उन्मुक्त होती हैं।
    कहीं-कहीं पुरुषों को भी मुक्ति की आवश्यकता होती है।
    यहाँ तो नारी मुक्ति शीर्षक पर ही प्रश्न चिन्ह महसूस हुआ।
    कहानी किसी निष्कर्ष पर पहुँचती महसूस नहीं हुई।
    शायद ऐसी ही स्त्रियों के लिए लिखा गया है कि *”जिमि स्वतंत्र भई बिगरहिं नारी”*
    कहानी सो-सो लगी।

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