शांत माहौल में भी अजीब सा शोर था। उनकी साँस किसी थके हुए पथिक सी अपनी मंज़िल तक पहुँचने को बेताब थी।
लोग उनके अंतिम दर्शन कर उनकी अच्छाई और बुराई का आँकलन अपने ही तराज़ू में कर रहे थे।
बाबू जी के बहुत बुलाने पर भी मैं उस कमरे की देहरी लांघने को तैयार नहीं हुआ। मैंने अपने मन के झरोखों को बंद भी नहीं किया। उन्हीं झरोखों से मैं उनके कमरे में आँख और कान लगाने के प्रयास में लगा हुआ था। तभी माँ ने मेरे कमरे की साँकल बजाई और मैं उस झरोखों से निकल उनके स्वागत में उठ खड़ा हुआ।
“आइये न माँ! आप बाहर क्यों खड़ी हैं?”
माँ ने द्वार से ही कहा-
“मैं आज तुम्हारी अनुमति के बग़ैर अंदर नहीं आना चाहती। क्योंकि आज मैं तुम्हारे मन के उस द्वार में प्रवेश करना चाहती हूँ जिसे तुमने अंदर से बंद कर रखा हैं।”
मैं समझ रहा था माँ किस बात विशेष पर मुझसे बात करना चाहती है। मैंने आगे बढ़कर उन्हें गले लगा लिया। वह भी मुझे अपने अंक में समेट कर मेरा सिर सहलाने लगी। हम भावों की उठती- गिरती लहरों में हिचकोले खाने लगे तभी माँ ने कहा-
“उनका आख़िरी वक्त है। उनकी साँस सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही अटकी है। जाकर दर्शन कर आओ।”
मेरा मुख क्रोध और अपमान से जलने लगा मैंने माँ से प्रश्न किया-
“आप ने उन्हें माफ़ कर दिया?”
माँ ने गहरी साँस लेते हुए कहा-
“वह पूरी अपराधिनी होती तो मैं उन्हें कभी माफ़ नहीं करती।उनके अपराध से कहीं ज़्यादा हम उनके उपकार के साथ अपना जीवन जी रहें हैं।”
कहते हुए माँ ने उनकी वही जिल्द बंधी कॉपी मेरे हाथ में रख दी। जिसे जलाने के लिए मेरे बाबू जी और उस काशीखेरे वाली औरत की लड़ाई देख मैंने पहली बार माँ से कहा था-
“क्यों ये औरत हमारे घर में रहती हैं?”
माँ ने कहा था-
“औरत नहीं अम्मा कहो सब उन्हें काशीखेरे वाली बड़ी अम्मा ही बोलते हैं।”
मैंने विरोध में ज़ोर से कहा था-
“कभी नहीं बोलूँगा। यह काशीखेरे की हैं तो वहीं रहें। हमारे घर क्यों रहती हैं?”
जवानी के जोश में फड़कती मेरी बाँहों को स्नेह से थाम मेरी माँ ने मुझे अपनी मौन आँखों से शांत कर दिया था।
काशीखेरा हमारी कोठी के पीछे बसे गाँव का नाम था। वहाँ की पूरी बस्ती लगभग हमारे पुरखों की ही बसाई हुई थी। ख़ानदानी ज़मींदारों के मन बहलाने के लिये वहाँ औरतें ख़रीदकर लाई जाती थीं।
वह जिल्द बंधी कॉपी पाकर मैं उसे उलटने-पलटने लगा। माँ बोली-
“जल्दी पढ़ लेना ऐसा न हो वक्त ख़त्म हो जाए।”
बाबू जी और उसके बीच में अक्सर इस जिल्द वाली कॉपी को लेकर झगड़ा इतना बढ़ जाता था कि अम्मा काशीखेड़ा वापस चली जाती थी। कैसे भी करके रात तक बाबू जी उन्हें मानाकर वापस कोठी में ले ही आते थे।
इन सब बातों से निकलकर मैं उस कॉपी  की हक़ीक़त जानने के लिए उसे खोलने लगा। पहला पन्ना खोलते ही उसमें मुझे मेरी और माँ की तस्वीर चिपकी हुई मिली। मैं ग़ुस्से से भभक पड़ा मेरी बचपन की फ़ोटो बाबू जी ने इसे क्यों दे दी।बहुत वक्त से एक रहस्य रही इस कॉपी को मैं जल्दी से जल्दी पूरी पढ़ लेना चाह रहा था। इसीलिये मैंने अपनी सोच को झटक दिया और पढ़ना शुरू किया-
“स्त्री होना सौभाग्य है या अपराध? इस प्रश्न का जवाब न मुझे देख कर मिलता है न तुम्हें देख कर ठकुराइन!”
मैं उनके पहले ही वाक्य से हिल गया। विद्रोही भावों से भरे ऐसे ही कई पन्नें मेरे होश उड़ाते रहे। किंतु कॉपी  के जिस हिस्से पर अब मैं था। वहाँ लिखे एक-एक शब्द सिर्फ़ मेरे लिए थे।
“मेरा दिया नाम तुम्हारे पिता बिलकुल भी नहीं रखना चाहते थे। ‘शुभ’  क्योंकि इस नाम में उन्हें वह पौरुष वाले भारी भरकम शब्द नहीं मिल रहे थे जो अब तक उनके ख़ानदान में हुये हैं। तुम मेरे लिए शुभ थे। तो मैं तुम्हारा कोई और नाम क्यों रखने देती।”
मैं हतप्रभ था। मेरा नाम इसका दिया हुआ है। मैंने आगे के पन्नें पलटने शुरू किए तो वहाँ भी मैं ही था।
मैं कब चला,कब बोला, कब स्कूल गया और कब रोया या कब हँसा, यहाँ तक की कब मैंने अपने माता-पिता पर क्रोध किया सब उनकी उस कॉपी में दिन और तिथि के साथ अंकित था। मेरी जिज्ञासा बढ़ती जा रहा थी।मैंने और तेज़ी से पढ़ना शुरू किया और अब मैं जिस पन्ने पर था। वहाँ जो लिखा था वह तीर सा मुझे चुभता चला गया।
“शुभ तुम्हारे चेहरे पर कैशोर्य की उभरती रेखायें मेरे मस्तक को ऊँचा कर देती हैं।आज मेरे प्रति तुम्हारी नफ़रत ने मेरे जीवन का मक़सद पूरा कर दिया।”
मेरी नफ़रत ने काशीखेरे वाली का मक़सद पूरा कर दिया सोचकर मैं हैरत में पड़ गया।
इस वक्त मेरा मन सब कुछ पढ़ लेने को इतना विचलित हो रहा था कि सोच-विचार का मेरे पास वक्त ही नहीं था। मैंने अगला पन्ना पलटा।
“शुभ, तुम्हारी नफ़रत ही काशीखेड़े की औरतों को इज़्ज़त बक्सेगा। इस घर के तुम पहले व्यक्ति हो जिनका वास्ता उन गलियों में नहीं पड़ा। शायद अब परिपाटी बदल जाए और कोई नई काशीखेड़े की अम्मा न पैदा हो।
रही बात तुम्हारे घर से मेरे न जाने की तो उसकी वजह तुम ही थे।
मैं तुम्हारे पिता से गर्भवती हो गई थी। उसी वक्त तुम्हारी माँ भी गर्भ से थी। तुम्हारे पिता को मेरे गर्भ का पता चलते ही वह मेरी जान के पीछे पड़ गए। उन्होंने दो शर्तें रखी या तो मैं गर्भ गिरा दूँ या दुनिया से कूच करने के लिए तैयार हो जाऊँ। ईश्वर को कुछ और ही मंज़ूर था। उन्ही दिनों तुम्हारे पिता पारिवारिक मुक़दमा हार गए और एक बड़े क़र्ज़ में डूब गए। उस वक्त मैंने अपनी शर्तों पर उनकी सहायता की। तुम्हारे पिता का सारा क़र्ज़ा मैंने उसी धन से उतारा है जो तुम्हारे आदरणीय जन हमारी सेजों पर बिछा गए थे। इसलिए मैं इसे अपना किया कोई उपकार नहीं मानती। हाँ, तुमने उस तरफ़ का दरवाज़ा बंद करके ज़रूर हम सब पर उपकार कर दिया है।
तुम्हारे पिता आख़िर पुराने खिलाड़ी थे। एक दिन वह खेल ही गए अपनी चालाकी से और मेरा गर्भपात उनके पिलाये केसरिया दूध से हो गया। पर मैं हारी नहीं और मैंने अपना क़र्ज़ वसूलने को धमकी दी। कहा कि या तो वह मुझे अपनी कोठी में रखें या मेरा सारा क़र्ज़ा वापस करें नहीं तो मैं मुक़दमा कर दूँगी।
कोर्ट में हुई अभी-अभी की हार ने तुम्हारे पिता के भय को बढ़ा दिया। वह मुझे अपनी कोठी में ले आए।
मैं तुम्हारी माँ के पेट के उभार को देख-देख कर अपने व्यथित मन को शांत करती रहती। क्योंकि मैं खुद को उसकी अपराधिनी मानती थी।
तुम्हारा जन्म हुआ तो मैं बहुत ख़ुश थी। तुम में मैं अपना खोया गर्भ ढूँढ कर अपने मन की नफ़रत को दूर कर लेती थी।
तुम्हारे सामने खुद को नीचा करने का कोई मौक़ा सिर्फ़ इस लिए नहीं छोड़ती थी क्यूँकि मैं उस काशीखेड़े की देहरी की नफ़रत तुम्हारे हृदय में भरना चाहती थी।”
मैं स्तब्ध था यह सब पढ़कर आख़िरी पन्ना पलटते- पलटते मेरी उनके प्रति नफ़रत कम होती जा रही थी।बहुत कुछ लिखा हुआ जल भी गया था।जिन शब्दों को मेरे पिता ने पूरा जलाने का प्रयास किया था उनके बस कुछ अंश पढ़कर ही मेरी नफ़रत की डगर बदल गई थी।
“ सच्चाई के अलावा कुछ नहीं लिखा है मैंने इसमें पर तुम्हारे पिता से मैं हमेशा यही कहती हूँ कि इसमें मैंने यही लिखा है कि तुम मेरे बेटे हो।”
जिल्द बंधी कॉपी बंद करके  मैं सोचने लगा कि मैं किससे नफ़रत करूँ?
तभी माँ ने मेरे काँधे पर हाथ रखा और कहा।
“वह चली गईं।”
मैं अपनी माँ के गले लग कर उनके काँधे को भिगोने लगा।जिल्द बंधी कॉपी के पन्नें कोठी के पीछे तरफ़ खुलने वाली खिड़की से आती हवा में उड़ने को फड़फडाने लगे।

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