शाम ने आकर दोपहर को बाहर जाने का रास्ता दिखा दिया था। वीणा ने अनमने होकर बगल में पड़ा फोन उठाया, एक रस्म थी जो हर दिन निभानी पड़ती थी,
“ हैलो, कितने बजे तक निकलेंगे ऑफिस से?”
“सात बजे तक” 
“सीधे खाना खायेंगे या कुछ नाश्ता?”
“कुछ तला हुआ पकोड़ा टाइप बना लेना..एक दो पापड़ सेंक देना, बैठूंगा आज”
सूचना देने के साथ ही फोन काट दिया गया था। “बैठना” केवल क्रिया नहीं प्रक्रिया भी हो सकती है, ये वीणा ने आलोक से शादी के बाद ही जाना था…बैठना, बोतल के साथ..बैठना, चखने के साथ और  साथ ही वीणा की अकल और मायके वालों की धज्जियां उड़ाते जाना।
“एक कौड़ी की अकल नहीं, जला पापड़ लेके चली आती है फूहड़” दो पैग के बाद जुबान खुलती..फिर बंद नहीं हो पाती, मायके वाले लपेट लिए जाते,
“साले..झूठे मक्कार.. एफ डी कराई,लड़की के नाम, कहां गई एफ डी साली”
वीणा दूसरे कमरे में बैठी, अगली तारीफ़ का इंतज़ार करती,
“ढेला देने में जान निकलती सबकी, साले झूठे..सब के सब झूठे.. ए बीना, फोन करके बात करो अपने बाप से, मेरी बात कराओ”
वीणा कमरे से बाहर नहीं आती। साल भर भी नहीं हुआ था शादी को,मुश्किल से ग्यारह महीने..लेकिन ग्यारह बार से कई गुना ज़्यादा बार वो अपने कमरे में लगे पंखे को देखकर कितना कुछ सोच चुकी थी।
“मैं मर जाऊंगी पापा किसी दिन, सच बता रही हूं..आपको पता नहीं कैसे आदमी के साथ रह रही हूं”
“और वही आदमी तुमको फ्लाइट के इतने महंगे टिकट  से मायके भेजता है, कुछ तो शर्म करो वीणा..एडजस्ट करो, सब करते हैं” भइया झट से पल्ला झाड़ लेता। लौटते समय पापा अपनी मजबूरी बता देते,
“हम खुद तुम्हारे भाई के भरोसे हैं बिटिया, कहां से तुमको भी बुला लें..वैसे मारपीट तो करते नहीं आलोक बाबू?”
पापा भी संदेह की चक्की में उसको ही पीसते। वीणा कैसे समझाती,आलोक मारपीट नहीं करते लेकिन उससे कम भी कुछ नहीं करते..जब देखो तब छोटी छोटी बात को लिए किच किच, “प्याज़ का छिलका तुरंत फेंका करो, मरे चूहे जैसा गंधाता है..हद फूहड़ हो तुम बीना..पूरा मूड खराब कर दिया”
फूहड़ कौन है? वो जिसने मूड खराब कर दिया या फिर वो जिसने उसका नाम ही खराब कर दिया! वीणा से बीना बनने का सफ़र एक ही दिन में तय हो गया था और रात में बाकी का सफर कैसा रहेगा, वो भी दिख गया था।
“मुझे सब कुछ नहीं चलता..पार्टिकुलर हूं कुछ मामलों में, पसंद नापसंद का एक लेवल है, उसको मेंटेन करना” 
सुहागरात में ऐसी बातें भला कौन करता होगा?
“पता है बीना,फोटो देखकर ही मुझे लग गया था,लड़की सुंदर है बट ग्रूमिंग करनी पड़ेगी..दिख ही रहा है, मैं सही था”
मज़ाक उड़ाते हुए आलोक ने वीणा को अपनी ओर खींच लिया था… उस रात कमरे में एक घुटन की नींव पड़ी थी और जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे थे, वो घुटन जुड़ जुड़कर बड़ी होती जा रही थी..और इस तरह की ‘बैठने’ वाली शामें उस इमारत को थोड़ा और ऊँचा करती जाती थीं।
वीणा ने खिड़की का पर्दा सरकाकर आज फिर सामने वाली बालकनी पर नज़र जमा दी.. डॉक्टर साहब आकर वहाँ बैठ चुके थे, वीणा ने तुरंत अपने कमरे की लाईट बंद कर दी, देखना एकतरफा ही होना चाहिए! वो देखती रही, हर दिन की तरह। डॉक्टर साहब ने पहले पौधों की गिरी पत्तियाँ बटोरीं, फिर पौधों पर पानी छिड़का और हर शाम की तरह आँखें मूँदकर कुर्सी पर अधलेटे हो गए‌। वीणा के मन में उठा सवाल गूँजने लगा,”आज बेडशीट लेने जाऊँ डॉक्टर साहब के यहाँ?”
डॉक्टर साहब, यही नाम है उनका, जिससे वो जाने जाते थे.. वीणा ने भी आँखें मूँद लीं, करीब छः महीने पहले ये नाम पहली बार सुना था।
“सामने वाले फ्लैट में जो आदमी नहीं रहता, पागल जैसा.. अकेले बात करता रहता है, पेड़ -पौधों से..वो दिमाग़ का डॉक्टर है, अपना इलाज भी कर लेता कभी”
आलोक ने मखौल उड़ाते हुए ये परिचय दिया था उनका।
“पेड़ पौधे से बात करते हैं,इसीलिए पागल कह देंगे आप उनको?”
वीणा ने प्रतिरोध किया था, वो तो पेड़ पौधे से बात करते हैं, जिनमें जीवन बहता है..और वो! वो तो एक पत्थर के साथ रहती है, कभी जीती है,कभी मरती है..
“तुम अपनी अक्ल न लगाओ, सब उनको पागल कहते हैं” आलोक ने इतना बता दीया था कि वीणा की आंखें,उस बालकनी के इर्द गिर्द मँडराने लगी थीं। आँखे उनका पीछा करने लगी थीं, बालकनी से कमरे तक, कमरे से किचन,किचन से फिर बालकनी तक! पूरा घर दिखता था उनका, क्या पता इसके आगे भी कुछ हो घर में..दिखता तो सिर्फ़ उतना ही है न, जितनी अपनी इंद्रियों की सीमा हो.. उसके आगे! उसके आगे एक बेचैनी का बादल उमड़ता रहता है,काला स्याह बादल,हटाए नहीं हटता..
“हैलो.. एक्सक्यूज़ मी.. ये आपकी बेडशीट है? इधर उड़कर आई थी”
डॉक्टर साहब ने बालकनी पर खड़ी वीणा को आवाज़ दी,
“थैंक्स”
वीणा का जवाब भी कोई जवाब था? बताना चाहिए था न, 
“मेड लेने आएगी”
“आप अपनी मेड से भिजवा‌ देना” जैसा कोई जवाब 
या फ़िर “मैं कितने बजे लेने आऊँ” जैसा एक सवाल पूछना चाहिए था। उस शाम से आज शाम तक झिझक तारी रही, आज लगा … इतने दिन तक अपनी चादर कहीं और रखना, ठीक नहीं।
“हैलो, मैं वीणा..वो बेडशीट आपकी बालकनी में आई थी” दरवाज़ा उन्होंने ही खोला‌ था, वीणा ने आने की नकली वजह बता दी थी‌।
“मुझे लगा आपने मुझे गिफ्ट कर दी है..कम इन प्लीज़”
दरवाज़ा पूरा खोलकर वो पीछे हट गए थे। वीणा ने पूरे फ्लैट को स्कैन किया,आने की असली वजह यही थी। हर जगह पौधे, छोटे बड़े..सीधे, टेढ़े..और हर पौधे की मिट्टी में लगी छोटी सी चिट,उसके नाम के साथ।
“ये पहली बार देखा” वीणा ने चिट की ओर इशारा किया,
वो वीणा की आँखों में झाँककर बोले,
“नाम भूल जाता हूँ, ग़लत नाम से न पुकार दूँ, इसलिए चिट लगा रखी है..नाम बदलना किसी को भी अच्छा नहीं लगता न वीणा”
उसके सिर पर जैसे हज़ारों लीटर पानी किसी ने उड़ेल दिया था, सामने बालकनी थी..जब वो झांककर सब देख सकती थी, तो डॉक्टर साहब भी सब कुछ सुन ही सकते थे,सब कुछ सुन चुके थे।
“बेडशीट दे दीजिए” अब एक पल भी और रुकना नहीं हो पा रहा था, सारी गाली गलौज डॉक्टर के कानों तक पहुँच चुकी थी, वीणा को लगा जैसे उसके कपड़े उतर चुके थे।
“रिमेंबर वीणा.. सुसाइड रास्ता नहीं खोलता, वो रास्ता बंद कर देता है,जीने का”
बेडशीट थमाते हुए वो बोल गए थे। वीणा के शरीर में झुरझुरी दौड़ गयी थी..कौन बता आया था उनको इतना कुछ? कैसे उनको पता कि कितनी ही बार नींद की गोलियाँ घर में आईं फिर कुछ सोचकर फेंक दी गयीं! 
“दिमाग़ पढ़ता हूँ, सवाल पढ़ता हूँ,जवाब देता हूँ..यही प्रोफेशन है मेरा..जब ठीक न लगे,आ सकती हो ..ये मेरा कार्ड “
दरवाज़ा बंद करने से पहले उनके कार्ड में वीणा को अपने सवालों के जवाब मिल गए थे..डॉक्टर विक्रम सिंह, साइकियाट्रिस्ट! 
घर आकर भी वीणा उनमें ही उलझी रही,करीब पैंतीस साल की उम्र होगी इनकी, वीणा से कम से कम सात आठ बड़े.. वो बेडशीट एक लिफाफे में रखकर वापस की गई थी, बाहर आते ही एक ख़ास महक फैला गयी, डॉक्टर के घर की महक! वीणा ने झट से वो बेडशीट उसी लिफाफे में रख दी, पराए घर की महक अपने घर में फैलना सही नहीं।
आलोक के आने का टाईम हो रहा था, आज ‘बैठना’ था, 
गालियों वाली शाम आज कुछ ज़्यादा ही चुभ रही थी, डॉक्टर भी सुन रहे होंगे,वीणा अनमनी थी।
“ऐ बीना..अपनी शकल सुधारकर रखा कर..कैसी होती जा रही”
चौथे पैग के बाद लड़खड़ाती ज़ुबान खुलने लगी थी!
“थोड़ा धीरे बोलेंगे”  वीणा ने धीरे से कहा,”चुप हो जाइए” ये  कहना हो ही नहीं पाया।
“क्यों धीरे बोलूं! अपने घर में,  अपनी बीवी से बात कर रहा हूं..किसी के बाप का नौकर नहीं हूं..”
वीणा ने अपने कमरे में जाकर खिड़की से सामने वाली बालकनी देखी, सिर उठाकर अपने कमरे का पंखा देखा…घुटन की इमारत थोड़ी और  ऊँची हो गई थी।
“हैलो डॉक्टर विक्रम.. मैं वीणा, शाम को आपके क्लीनिक आ सकती हूँ?” अगली सुबह आलोक के ऑफिस जाते ही वीणा ने फोन कर दिया,
“ओके, पाँच बजे”
सवाल का सिर्फ जवाब आया, कोई सवाल नहीं आया… क्लीनिक क्यों,घर आ जाओ, सामने ही तो रहती हो.. वीणा आश्वस्त हुई, ये सच में दिमाग पढ़ना जानते हैं।
“घर पर नहीं मिलना चाहती थी, बिल्डिंग में सही नहीं लगेगा ..सब लोग देखते हैं “ वीणा ने शाम को क्लीनिक पहुँचते ही स्पष्ट किया, हालांकि इसकी ज़रूरत नहीं थी।
“कॉफी पियोगी न..दो कॉफी और सैंडविच “ पूछने के साथ ही डॉक्टर  ने फोन उठाकर ऑर्डर भी कर दिया था। उसके बोलने का इंतज़ार कर रहे थे,वीणा ने टेबल को घूरते हुए बोलना शुरू किया,
“मुझे अक्सर लगता है, बिना बात के रोने लगूँ.. कहीं भाग जाऊँ..” 
“रो‌ लिया करो..भाग जाया करो” डॉक्टर का तुरंत जवाब आया।
“नहीं मतलब..वो सब सही नहीं लगता, अक्सर वो सब होता है” वीणा का ‘वो सब’ डॉक्टर विक्रम को अच्छी तरह पता था,
“आलोक पूरी तरह ग़लत भी नहीं हैं..मेरे मायके वालों ने भी झूठ बोला था शादी के लिए” वीणा शायद खुद को समझाना चाहती थी, डॉक्टर ने रोक दिया,
“आपने क्या ग़लत किया अपने हसबैंड के साथ?”
“कुछ भी नहीं”
“फिर आपके साथ इतना सब होना सही है?”
पेपरवेट घुमाते हुए डॉक्टर का सवाल, वीणा के सारे सवालों का जवाब था..
“अब मुझे क्या करना चाहिए? मतलब किस तरह बात करनी चाहिए..या आप मुझे कोई दवा‌ दे सकते हैं क्या”
हड़बड़ाई हुई वीणा केबिन का दरवाज़ा खुलने की आवाज़ से चुप हो‌ गयी थी, कॉफी और सैंडविच टेबल पर लाकर रख दिए गए थे। 
“आप बीमार नहीं हैं,तो आप दवा क्यों लेंगी?.. सैंडविच लीजिए”
“मैं सैंडविच नहीं खाती” वीणा ने कॉफी का मग उठा लिया।
“नहीं खातीं..तो‌ भी खाइए”
डॉ विक्रम ने प्लेट वीणा के थोड़ा और पास कर दी,
“मैं नहीं खाती हूँ.. प्लीज़! आप मुझे बताइए, मुझे घर पर क्या करना है?” वीणा खिसिया गई थी।
“यही करना है,जो अभी कर रही हैं..मना करना है, ज़बरदस्ती क्यों कुछ खाना है? न गालियां, न इंसल्ट, कुछ भी नहीं”
कॉफी के घूँट के साथ सुनी गई वो बात, वीणा को कहीं अंदर तक तृप्त कर गई थीं। कोई महक हावी होती जा रही थी, कॉफी की, डॉक्टर की बातों की या फिर उस घुटन के हटने की..
“मैं चुप रहती हूँ तो इतना कुछ हो जाता है, बोलूँगी तो शायद..”
वीणा का डर फिर मुँह खोले सामने आ गया था, डर के पीछे पापा दिखे, भइया दिखा..
“जो बात शायद के बाद आए,वो डाउट होता है सिर्फ”
डॉ विक्रम बातों के जादूगर थे , उनका जादू चलने लगा था..वीणा ने सिर झटककर सामने खड़े डर को अनदेखा किया,
“आपकी फीस”
वीणा ने पर्स खोला,
“अगली बार बता दूंगा..इंप्रूवमेंट दिखे तो पहले..एक बात और, दिन भर घर में रहना, सोचते रहना कुछ भी ठीक नहीं करेगा.. गो आऊट, एक्सप्लोर द सिटी “ डॉक्टर की बातों में महक थी, उनके घर वाली महक।
वीणा भरी भरी सी वापस लौटी। उसी महक से भरी हुई..वो महक क्लीनिक में भी थी। वीणा ने लिफाफा खोलकर बेडशीट निकाली, वो महक उसमे लबालब भरी थी ..बेडशीट को अपने चेहरे के पास लाती हुई वीणा ठिठक गई, लगा जैसे डॉक्टर विक्रम उसके चेहरे के एकदम पास खड़े हों..वीणा ने बेडशीट वापस अलमारी में छुपा दी, लेकिन महक को खुद से अलग नहीं कर पायी।
वीणा अक्सर क्लीनिक जाने लगी, हर बार फीस अगली बार के लिए टाल दी जाती। वीणा ने एक बार चौंककर कहा,
“अब तो बहुत इंप्रूवमेंट है डॉक्टर! मैं खुद फील करती हूँ..सब कुछ उनके हिसाब से नहीं करती”
“अभी भी सुसाइड का ख्याल आता है?”
डॉक्टर ने आंखों में झांककर पूछा था, वीणा मना नहीं कर पायी थी,
“हाँ..कभी-कभी”
“जिस दिन ये ख्याल आना बंद आ जाएगा, फीस ले लूँगा”
“वैसे शहर खूब घूम रही हूँ आजकल, अकेले” वीणा ने एक दिन खुश होकर बताया था, उन्होंने ने शिकायत की थी,
“तभी तो आजकल एक्सीडेंट की खबरें बहुत आ रही हैं,सबका ध्यान भटक जाता होगा”
वीणा के चेहरे पर उड़कर आया लाल रंग पक्का होकर वहीं ठहर गया था। ऐसा पक्का कि फिर वो रंग कभी गया ही नहीं..खिड़की से छुपकर डॉक्टर को देखती तो वो रंग चेहरे से उतरता हुआ पूरे शरीर को लाल कर जाता, क्लीनिक में बैठी हुई उनको सुनती तो लगता पूरी रूह सुर्ख हो उठी हो…
उस शाम वो रस्म फिर निभाई गई,
“हैलो..कितने बजे तक निकलेंगे ऑफिस से?”
“बस निकल रहा हूं..और सुनो, शाम को कुछ ढंग का बना लेना, एक दोस्त आया हुआ है, उसको खाने पर बुला लिया है..उसके पहले बैठेंगे हम लोग”
वीणा के शरीर में झुरझुरी दौड़ गई! किसी और के सामने भी उसके मायके के लोग गाली खायेंगे? वो लड़का भी वीणा की फूहड़ता के किस्से सुनेगा? फोन रखने के बहुत देर बाद तक वीणा के हाथ कांपते रहे..फिर कंपन अपने आप नहीं रुकी, उसको रोका गया,
“सुनिए आलोक..किसी को घर पर लाकर पीने पिलाने का प्लान मत करिएगा, मुझे कंफर्टेबल नहीं लगेगा”
“मैं पूछ नहीं रहा हूं..बता रहा हूं,तुम होती कौन हो रोकने वाली..और उसके सामने मुंह नहीं खुलना चाहिए”
“बोतल खुलेगी तो मुंह भी खुलेगा,आज आप भी देख लेना”
पता नहीं किस कारण से, दोस्त तो घर नहीं आया लेकिन आलोक के अंदर का जानवर ज़रूर बाहर आ गया। घर आते ही बाएं गाल पर पड़ा एक तमाचा,वीणा के पूरे वजूद को झकझोर गया था,
“साली..घर मेरा, पैसे मेरे, धौंस भी मेरे ऊपर..कौन भड़का रहा है, बाप भड़का रहा है? बुलाऊंगा, हर दिन दोस्त बुलाऊंगा..रोक कर दिखा, तेरी भी औकात देखूं” 
“मैं घर छोड़कर चली जाऊंगी” बाएं तरफ का गाल, बुरी तरह तप रहा था,
“चली जा..अभी चली जा..क्या खाएगी, कमाने के लिए क्या सोचा है..” 
वीणा को ऊपर से नीचे तक देखते हुए आलोक घर से बाहर चला गया था। रात गहरी होती जा रही थी.. वीणा को महसूस हुआ, वो घुटन की इमारत जिसकी नींव सुहागरात पर रखी गयी थी, खटाखट खटाखट जुड़ते जुड़ते इतनी ऊँची हो गयी थी कि उसके नीचे शादी की कब्र बन चुकी थी।
“भइया, मैं घर आ रही हूँ” पूरी रात, सुबकने के बाद वीणा ने  फ़ोन कर ही दिया था, भइया सब कुछ सुनने के बाद इतना ही बोले थे,
“देख वीणा..दो आई वी एफ तो फेल हो गए थे, तीसरा सक्सेसफुल हुआ, आज ही पता चला है। तुम्हारी भाभी को किसी भी तरह के स्ट्रेस से दूर रहने को कहा गया है, थोड़ा मैनेज करो.. मैं बात करता हूं आलोक से,कल‌ ही”
सुबह के साढ़े पाँच बज चुके थे। वीणा ने सुबह का आसमान देखा, तेजी से रंग बदलता हुआ, काला फिर गाढ़ा नीला, फिर नारंगी ,फिर सब कुछ रौशन.. सूटकेस पैक करते हुए रीना ने खुद को समझाया अभी सब कुछ काला है.. धीरे-धीरे रंग बदल ही जायेंगे। माँ की दी हुई सोने की चेन रखी, लिफाफे से निकालकर बेडशीट रखी‌ ओर पूरे घर को एक बार हसरत से देखकर अलविदा कहा…ऑटो रिक्शा में बैठते ही  मुड़कर घर को देखा, ये घर वीणा का था ही नहीं,उसी आदमी का था,जिसने उसे कभी जीने नहीं दिया.. एक बार मुड़कर उस बालकनी को भी देख लिया,  जिसने मरने नहीं दिया।
“हैलो डॉक्टर ..”
करीब हफ्ते भर बाद वीणा ने फोन किया,
“हैलो वीणा..तुम हो कहां? ये किसका नंबर है?तुम्हारा फोन बंद है, घर पर भी नहीं हो ना तुम?”
“आप घर गए थे?” 
“तुम्हारी मेड से पूछा था..कुछ बताओगी अब?”
सब कुछ बताते हुए भी वीणा कुछ तो छुपा ही ले गई, विक्रम ने बार बार पूछा, वीना चुप रही,
“जब तुम पापा के पास नहीं हो,तो कहाँ हो, इसी शहर में हो? मुझे मिलना है, प्लीज़”
वीणा ने फ़ोन रख दिया था,जब मिलना नहीं था, तो पता नहीं फ़ोन किया क्यों था? वीणा ने एक मैसेज टाइप किया,
“इसी शहर में हूँ,नौकरी ढूंढ ली‌ है.. खुद को ढूँढ़ रही हूँ,मिल गयी तो आपसे भी मिलवा दूँगी”
दिन‌ अपने वजूद के टुकड़े जोड़ने में बीतते रहे, पापा और भइया मिलने आए तो जोड़ने की बजाय थोड़ा और तोड़ गए।
“तुमने तलाक़ के पेपर भेज दिए? एक बार पूछा भी नहीं..”भइया गरजे थे,
“आपने ही तो कहा था स्ट्रेस ना दूं आप सबको” वीणा शांत थी। शांत रहकर जुड़ना भी ज़्यादा आसान था, खुद को ढूंढना भी और संभालना भी । उस शाम डॉक्टर विक्रम के क्लीनिक गई तो कुछ ज़्यादा ही संभल कर लौटी, विक्रम ने उस शाम अपने नाम के आगे से डॉक्टर उपसर्ग निकाल कर, सिर्फ़ विक्रम बनकर बात की थी..
“साफ़ साफ़ कह दूँ वीणा?” 
“नहीं” वीणा वो‌ क्या ही सुनती जो उनकी आँखों में कब से देख रही थी।
“फिर क्या करूँ?” विक्रम थोड़ा और पास आ गए थे,
“एक पौधा ले आइए, उसका नाम वीणा रखकर, चिट लगा दीजिए.. भूलेंगे नहीं”
“है वो पौधा.. बहुत बड़ा हो चुका है, ज़मीन चाहिए अब उसको”
विक्रम की आँखें वीणा पर टिकी हुई थीं, लाल रंग हर तरफ़ फैलने लगा था, वीणा ने झुकी हुई आँखें बिना ऊपर उठाए कहा था,
“ज़मीन पर एक इमारत है..उसको तोड़ रही हू़ँ,जब टूट जाएगी,मलबा भी हट जाएगा, बता दूँगी..उस ज़मीन पर अपना पौधा लगा दीजिएगा”
“तब तक क्या करूँ?” 
“ उस पौधे की देखभाल “
विक्रम ने वादा कर लिया था। उसके बाद कितना कुछ हुआ, वो पौधा सूख ही नहीं पाया। तलाक़ के पेपर्स से बौखलाए हुए आलोक ने डॉक्टर विक्रम को भी घसीट लिया था, 
“मुझको पता है तुम उसके यहाँ गई थी,वाचमैन ने बताया..कब से चल रहा था ये सब? ऐसा क्या देता है वो जो मुझसे नहीं मिलता था, साली छिनार..”
आलोक को बिखरता देख, वीणा जुड़ने लगती थी। लगता था, घुटन की वो इमारत दरकने लगी थी। वीणा को अपने हाथ में एक हथौड़ा दिखता था, उस इमारत को तोड़ती जाती थी..पूरी दुनिया वीणा के खिलाफ़ खड़ी टूटी ईंटों को फिर से जमाने लगती थी। कोर्ट की आखिरी तारीख के पहले भइया ने तुरुप का पत्ता फेंका था,
“ये तुम्हारा आखिरी फैसला है? समझ लेना..फिर शायद मायके के दरवाज़े भी बंद हो जाएं तुम्हारे लिए”
वीणा ने भी पूछ लिया था,
“अभी खुले हैं क्या मायके के दरवाज़े मेरे लिए?”
डिवोर्स पेपर पर साइन करना आखिरी प्रहार था, उसी के साथ वो घुटन की इमारत भरभरा कर गिर पड़ी थी, मलबा ही मलबा हर तरफ़। कोर्ट से बाहर निकलते समय वीणा ने उस मलबे की बदबू महसूस की..आलोक दूर खड़ा था। पापा,भइया बस कहने को पास खड़े थे,सबकी दूरी समान थी, सबके चेहरे उतरे हुए थे। 
“भतीजी को देखने कब आओगी?” भइया ने एक औपचारिक सवाल किया।
“फिलहाल तो नहीं,एक अधूरा काम और पूरा करना है,” वीणा ने गले से चेन निकालकर भइया को थमा दी,”बच्ची को पहना दीजिएगा..उसकी दादी और बुआ , दोनों का आशीर्वाद है इसमें “
वीणा ने एक बार भी मुड़कर नहीं देखा था…समय ही नहीं था, ज़मीन खाली थी, मलबा हट चुका था..पौधे को गमले से निकालकर वहाँ रोपने का वक्त आ गया था। 

5 टिप्पणी

  1. बहुत सच्ची कहानी, काश भारत की 60% पीड़ित ‘वीणा’यें ऐसे कदम उठाने का साहस कर सकें

  2. बहुत ही सुन्दर, किसी मनोचिकित्सक की सी दक्षता से लिखी गई कहानी। मेरी शुभकामनाएं दीदी ❤️

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