गाँव की उबड़खाबड़ सड़क और सरकारी जीप के अलबेले हिचकोले!
कभी तो जीप तीस डिग्री दायें झुक जाती तो कभी बाएं| कलेजा मुँह को आ जाता| फिर भी डर के आगे जीत है कि राह पर लल्लनपुर पहुँचने की उमंग बरक़रार थी| जीप के आगे चलती अनाज की बोरियों से लदी बैलगाड़ियों की लम्बी कतारें। 
आज रविवार है यानि कि साप्ताहिक हाट लगने का दिन। इस परोपट्टा का सबसे बड़ा हाट| इस दिन हाट में भारी मात्रा में अनाजों की खरीद-फरोख्त की जाती है। आस-पास के किसान अपनी-अपनी गाड़ियों में अनाज लेकर आते हैं| देर रात तक खरीद-फरोख्त के बाद अपनी जरूरतों का सामान खरीदकर घर लौटते हैं| धूल की मोटी गुबार आसमान में बादल बन छा जाते।
गाड़ीवानों की धुत्तSS-धुत्तSS की टहकार से भरी हुड्कियों के बीच सटाक-सटाक  चाबुक का स्वर उठता! निरीह बैलों की दशा देख कर मुझे गाड़ीवानों पर क्रोध आता, फिर जीप में लगी रेग्जीन के पर्दे को हटा कर गाड़ी में जुते बैलों की आँखें देखने की कोशिश करती। मार खाने के बाद उनकी कीचड़युक्त आँखों से बहती चिपचिपे पदार्थ की तुलना आँसुओं से करने लगती। उन बैलों की लाचारी से उत्पन्न उनकी भावुक मौन अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश करती। वे चाबुक खाने के बाद दुखी हैं या ख़ुश, स्पष्ट समझ नहीं सकी। लेकिन मार खाने के बाद बैलों की दुलकती-फुदकती, चाल से दौड़ती बैलगाड़ियों का वह दृश्य बड़ा ही मनोरम प्रतीत हुआ। 
जीप चालक अपने लिए साइड की फिराक में था लेकिन हर बार प्रयत्न असफल हो जाता| अभी लगभग दो किलोमीटर तक स्थिति ऐसी ही रहेगी, पिता जानते थे। क्योंकि पिता मरीजों को देखने लल्लनपुर तथा उसके आस-पास के गाँव में नियमित आते-जाते रहते थे| 
बैलगाड़ियों के पीछे जीप धीरे-धीरे बढ़ रही थी। फागुनहैट हवा में आम्रमंजरी की मादक सुगंध से मानो संसार महक रहा था। कटहल के पेड़ों पर तने से लेकर फुनगी तक लटके छोटे बड़े कटहल। खेतों के मेड़ों पर कतारों में सीधे खड़े शीशम के पेड़| एक-एक कर आगे बढ़ते चलते-फिरते से पेड़ों की फुनगियों को ताकती जा रही थी| दूर तक फैले खेतों में पके हुए गेहूं की बालियां खड़ी होकर एक स्वर में मानों फागुन गा रही हों। 
फागुन हे सखी, कुसुम फुलायल 
अमुआ मजरी गेल, गाछ यौ 
कोयली जे कुहुकय, भ्रमर लुबधय  
हियरा में शोर मचाय यौ… 
गेहूं के बीच में पीले सरसों के खेत मानों धरा स्वर्ण आभूषणों से विभूषित हो। फागुन गीत सुनकर उमंग में नाच रही हो। आम के पेड़ों पर कूकती कोयल। प्रकृति के विभिन्न रूपों के स्वर में एक ही लय, एक ही तान समाया हुआ था। ऐसा प्रतीत हुआ मानों सबको साधकर सृष्टि में कोई अद्भुत गीत रचा जा रहा था। ऐसा रिश्ता, ऐसा समागम कहीं नहीं देखा था| हवा, पानी और धरती, आकाश सब एक दूसरे से बंधे हुए। पिता जीप चला रहे थे। मेरे प्रकृति प्रेमी पिता भी इन दृश्यों में डूबे हुए थे, तभी तो इस धीमी रफ्तार से उन्हें कोई शिकायत नहीं थी। अन्य कोई दूसरा होता तो इन गाड़ीवानों से अब तक कितने बार ही उलझ चुका होता।
 पिता को गाँव-गाँव घूमकर मरीजों को देखने जाना पड़ता था, इसलिए अस्पताल से यह जीप मिली थी। आज हम दोनों पिता-पुत्री लल्लनपुर पिसी माँ के पास कुछ दिनों के लिए रहने जा रहे थे।
 रास्ते में कमल सरोवर आने वाला था। मैंने पिता से कमल सरोवर देखने की इच्छा जताई। यहां जीप रोकने को कहा। पिता ने ब्रेक दबाया और एक हल्के धचके के साथ जीप रुक गई। 
हम दोनों उतर कर कमल सरोवर के नजदीक जाकर खड़े हो गए। कमल के फूलों से अच्छादित सरोवर, पहली बार सैंकड़ों खिलते कमल एक साथ देखा था। चित्त प्रसन्न हो उठा| 
आगे बढ़ कर फूल तोड़ने की कोशिश करते ही पिता ने बाजू पकड़ कर पीछे खींच लिया और फूल तोड़ने को मना किया। मैं अकचका गयी और उनका मुँह ताकने लगी| मेरी जिज्ञासा को शांत करते हुए उन्होंने बताया इस तालाब के पास कोई नहीं आता, किद्वंती है कि फूल तोड़ने वाले को सरोवर में रहने वाली आत्मा से दंड मिलता है। यह आत्मा किसी मनुष्य का नहीं बल्कि एक हाथी का है जो वर्षों पूर्व यहां डूबकर मर गया था। 
सुनते ही मैं सहम कर दो कदम पीछे हट गयी| 
तालाब के किनारे चारों तरफ कांस के फूल उगे हुए थे। पिता ने मुझे वापस जीप में बैठने के लिए इशारा किया। हम बैठ गए। 
कमल सरोवर के साथ खेत, अमराईयाँ सब पीछे छूटने लगा। जीवन का सौंदर्य क्या है? सौंदर्य का सत्य क्या है? क्या सैकड़ों खिलते कमल का सत्य एक राजवंशी हाथी का मौत हो सकता है? अगर यहाँ हाथी न मरा होता तो इसका अनुपम सौन्दर्य भी न होता क्योंकि मनुष्य के लिए उपयोगी वस्तुएं अक्सर दोहन का शिकार होती हैं| जलपुष्प विहीन अन्य ताल-सरोवरों के उदाहरण सर्वविदित है| ये उबड़खाबड़ सड़क जिस पर जीप हिचकोले खाकर आगे बढ़ रही थी या आम्रमंजरी की मादक सुगंध? 
सौंदर्य के सत्य को विवेक की कसौटी पर कसते हुए विचार में लगी हुई थी तभी देखा आगे लल्लनपुर चौक था। चौक से दाहिने तरफ गाँव में प्रवेश किया। जीप पिसी माँ के घर की ओर मुड़ गई है। पिसी  माँ के रूप में जीवन का एक दूसरा सत्य बेहद करीब था| पिसी माँ से मिलने का कौतूहल कमल सरोवर से कुछ अधिक था। सफेद काली बॉर्डर की साड़ी में लिपटा एक भव्य चेहरा सदा मेरे जेहन में बसा रहता।
पिसी माँ। मैं पिसी माँ की सगी पोती तो नहीं थी पर मेरे प्रति उनका स्नेह सगे से भी कहीं बढ़कर था। मेरे पिता पेशे से डॉक्टर थे और पिसी माँ के दूर के रिश्ते में भतीजे लगते थे। जब कभी लल्लनपुर, जो पिसी माँ का गाँव था, वे मरीजों को देखने आते तो उनसे मिलने जरूर आते थे। पिसी माँ और पिताजी के उम्र में बारह वर्ष का अंतर था| कुछ पल के लिए ही सही उनके आने से पिसी माँ का अकेलापन दूर हो जाता था। उन दोनों के बीच का रिश्ता बुआ-भतीजे से अलग कोई दूसरा ही रिश्ता था| बातें करते हुए आपस में कभी अभिभावक तो कभी मित्रवत व्यवहार करने लगते| 
खैर, इस बार पिता के साथ जिद करके मैं भी लल्लनपुर आ गई थी। आते समय हम हाट होते हुए आए थे| पिता ने शुद्ध घी में बनी इमरतियाँ बंधवाई थीं| वे जानते थे कि पिसी माँ को इमरतियाँ पसंद है| हम दालान पर पहुंच गए| गाड़ी से उतरकर देखा पिसी माँ कुछेक दूर स्थित अपने खलिहान में खेत से कट कर आये धान के बोझों यानि गट्ठरों के हिसाब-किताब में लगी हुई थीं| किसने कितना आनाज काटा है! किसके कितने बोझ हैं! खेत में काम करने वाले लगभग दो दर्जन किसान मजूरी की आस में खड़े थे|
 हम रुक कर उनके क्रिया-कलापों को देखने लगे| बोझों की गिनती के पश्चात् बारी-बारी से मजदूर उनके पास जाते, वे बोझों के बारे में पूछती, हिसाब लगाती और किसी को एक तो किसी किसी को पांच बोझ मजूरी के एवज में देती जाती| जिसने जितने बोझ काटे थे उसी हिसाब से उनकी मजूरी चुकता की  जा रही  थीं| भुगतान करने का यह अनोखा तरीका मुझे पसंद आया था| हमें देख उन्होंने अन्दर जाने को इशारा किया और भोला से हाथ-पैर धोने को पानी देने को कहा| 
“तुम लोग अन्दर बैठो, मैं अभी ये पसारा निबटा कर आती हूँ|” कहकर अपने कार्य में पूर्ववत मग्न हो गयीं| उम्र के इस पड़ाव में आकर भी पाँच सौ से अधिक धान के बोझों का हिसाब खड़े-खड़े चुकता कर दिया था| किसान मजूरी पाकर उनके पैर छूते और अपना हिस्सा लेकर आगे बढ़ जाते| किसानी से सम्बंधित कार्य उनकी ऊर्जा के संवाहक थे| 
इस कार्य को करते हुए चेहरे पर ओजस्विता झलक रही थी| पिसी माँ अपने सर-समाज में कितनी बुलंदगी से रहती हैं, यह हमारे समक्ष नमूना भर था| 
हाथ पैर धोकर सब अन्दर आकर कमरे में बैठ गए|  मैं घूम-फिरकर कमरों का जायजा लेने लगी| करीब घंटे भर बाद पिसी माँ अन्दर आई| तब तक में मैंने सभी कमरों का मुआयना कर लिया था|
 पिसी माँ थकी हुई होंगी यह सोच कर मैं रसोई में पहुँच गयी और नीम्बू पानी बना कर ले आई| हम दोनों को देख वे अति प्रसन्न थी|
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तय हुआ कि रात का खाना मैं बनाउंगी|
 पिसी माँ के मार्गदर्शन में रसोई बना ही रही थी कि बिजली चली गयी| उसके बाद खाना खाने से लेकर रसोई साफ़ करने तक के सभी कार्य लालटेन की रौशनी में ही संपन्न हुआ था| लालटेन की मध्मिम रौशनी में पलकें झपकने लगी थी सो पिसी माँ के बाजू वाले कमरे में जहाँ मैं अक्सर ठहरा करती थी, आकर सो गयी| पिता छत पर ठंडी हवा की आस में सोने चले गए| पिसी माँ भी अपने कमरे में चली आई| 
बड़े-बड़े जंगले, सागौन की लकड़ी से बने छत अपनी समृद्धि की गाथा सुना रहे थे| जगीरदारनी की इस कोठरी में एक अजीब-सा सुख महसूस हुआ| आँख बंद करते ही खट्टी-मीठी कई स्मृतियाँ अवचेतन मन में चहलकदमी करने लगी|
मुझे बचपन से ही गांव में रहना पसंद था। पिता ने गांव के अस्पताल में ट्रांसफर जानबूझकर करवाया था लेकिन मेरी माता का मन यहां बिल्कुल नहीं लगता था। उनको शहर के ऐशोआराम की जिंदगी से लगाव था| वहां मिलने-जुलने वाले, किटी-पार्टी समूह के सदस्यों के अतिरिक्त कॉलोनी में रहने वाले पड़ोसियों पर डाक्टर की पत्नी होने के रुतबे को प्रदर्शित करने का मौका लगभग रोज ही मिल जाया करता था| गाँव में उनके उस रुतबे का मोल पहचानने वाले लोग थे ही नहीं| अधिकतर गाँव वाले डॉक्टर साहब को भगवान् का दर्जा देते थे, इस कारण यहाँ प्रतिद्वंदिता का प्रश्न ही नहीं उठता था| वे बिना प्रतिद्वंदी के जीत की ख़ुशी प्राप्त करने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी, इन्हीं कारणों से दिन भर में जाने कितनी ही बार अपनी किस्मत को कोसती रहती थीं। पिता झल्लाहट में कभी-कभी झगड़ालू औरत कह दिया करते थे, इस तरह जब कभी घर में बहसों का अनवरत दौर चलता तो फिर उसके बाद दोनों में हफ्तों का अबोला ठन जाता था। अशांतिपूर्ण माहौल से उब के कारण पिता डाक्टरी के बहाने घर से दूर अन्य गांवों में अधिक समय बिताने लगे थे।
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मेरी माता के एक दूर के भाई हैं। उनका नाम पुन्नी है। 
पुन्नी मामा अक्सर अपना बोरिया-बिस्तर लेकर हमारे घर हफ़्तों रहने आ जाते हैं। पुन्नी मामा जब तक रहते हैं मेरी माता खुश और खिली-खिली रहती हैं। पुन्नी मामा की नजर में मेरी माँ यानि उनकी दीदी ममतामयी, आदर्श भारतीय नारी, त्याग की प्रतिमूर्ति इत्यादि लगती हैं| सच कहूं तो माँ को जब-जब देखती हूँ ममता शब्द पर दया आता है| शब्द अगर कभी मुखर होकर अपनी पैरवी के लिए खड़े हो जाए तो मेरी माता जैसी कितने ही नर-नारी कठघरे में खड़े कर दिए जाएंगे| मैं इकलौती संतान हूँ फिर भी मेरे लल्लनपुर या अन्य रिश्तेदारों में कहीं चले जाने, वहां रहने से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता था। 
माता के लिए पिता घर लौटें चाहें न लौटें, उनकी तनखाह वक्त पर घर आ जाना चाहिए| दरअसल जिस अलार-दुलार की कामना बच्चे करते हैं उस दुलार की अजश्र धारा यहाँ पिसी माँ के स्नेहिल व्यवहार से फूटता था| शायद यह भी एक कारण था कि पिता की खूंटी इस घर से बंधी थी|
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समाजशास्त्र की छात्रा होने के नाते भारत की गौरवशाली सामाजिक परम्पराओं के अतीत को जानने में मेरी विशेष रूचि रही है| सनातन काल का भारत और उसकी अनोखी पारिवारिक तथा सामाजिक संरचना कैसी रही होगी? हमारे देश में ग्रामीण जीवन के विविध रूपों में कमोबेश अब भी वे परम्पराएं दिखाई देती है| भारत के सामाजिक परिदृश्य में उसके ग्रामीण व्यवस्था को मैं समझना चाहती थी| भावनात्मक संबंधों, सामाजिक मूल्यों तथा अन्य रीती-रिवाज पारिवारिक पृष्ठभूमि पर ही पोषित होते हैं| परिवार अगर बिखरता है तो कहीं न कहीं वहां सामाजिक व्यवस्था कमजोर पड़ने लगती है| 
लेकिन कुंदन को इन बातों में जरा भी रूचि नहीं थी| वह समाज के किसी बंधन को नहीं मानता था| यही वजह थी कि मैं उससे कटी-कटी रहती थी| 
मैंने अपने माता-पिता को देख कर जाना था कि दो अलग-अलग सोच रखने वालों में नजदीकियाँ नहीं पनपनी चाहिए| कुंदन विज्ञान का छात्र था| अपने मामा के यहाँ रहकर पढ़ रहा था| वह जब कभी बहाने से नजदीक आने की कोशिश करता तो मैं कोई न कोई बहाने बनाकर दूर चली जाती|
 कुंदन हर बात में बहस करता था। मुझे कुंदन जैसा लड़का अपने जीवन में नहीं चाहिए था| मैं अपने पिता के समान कोमल ह्रदय रखने वाले जीवन साथी की आकांक्षा रखती थी| लेकिन कुंदन…एक प्रश्न बन गया था।
 उसे जितना अधिक दूर करती वह उतनी ही शिद्दत से दिलो-दिमाग पर कब्जा करता जा रहा था| गोरा रंग, गोल चेहरा, घुंघराले बाल, ऊँचा कद और गहरी भूरी आँखें, कुंदन अनचाहे शैवाल-सा उगा हुआ था जो मेरे मन के समंदर में ऊंचे-ऊंचे लहरों पर मचलता हुआ मस्तिष्क में उछाल भरता रहता था| हवा में उसकी गंध तक महसूस करने लगी थी। अपने आसपास उसकी मौजूदगी को अनदेखा करने के बावजूद मुझे भान होने लगा था कि मैं कुंदन के जाल में बुरी तरह फंस चुकी हूँ| इस जाल से आजाद होने के लिए कई तरह से जतन करती रहती थी| हिरणी-सी आकुल खुद के इस भटकाव को रोकने में नाकाम रही| किसी अन्यंत्र मन रमा सकूँ, मेरा ध्यान इस तरह से बार-बार न भटके, इसके लिए नित नए प्रयास रहती करती| एक अति व्यस्त दिनचर्या की तलाश थी। 
मेरे पिता और मैं, दोनों एक ही नाव में सवार| इन्हीं वजहों से कालेज की छुट्टियों का मैंने बेसब्री से इंतज़ार किया था| गाँव में यहाँ के सांस्कृतिक पर्व, व्रत और त्यौहार को समझने के लिए आई थी| लोक किस्से और मुंह जबानी कही जाने वाली कहानियों के सहारे लोक कथाओं, किद्वंतियों के पीछे छुपे रहस्यों एवं तथ्यों को खंगालना था। अगर समाजशास्त्र पर आगे जाकर शोध करना है तो यह बड़ा काम आएगा| इसी बहाने पिसी माँ से इस गाँव से जुड़े कई गावों का पिछले सौ-सवा सौ सालों का इतिहास तो प्राप्त हो ही जाएगा| 
सुना है इस क्षेत्र में खेत, तालाब और राजनीति की आड़ में वर्चस्व की लड़ाइयां भी होती रहती हैं। जातिवाद का गहराता धुँआ, अंतरजातीय संबंधों पर उत्पन्न विवादों पर तलवारों का टकराना| ‘लव जिहाद’ जैसी घृणित कर्म को अंजाम देने के पीछे समाज की कौन-सी मानसिकता कार्य करती है? इन सब बातों का बारीकी से विश्लेषण करना था| उत्तर तलाशने थे।
 कई प्रश्न परिवार के निर्वाह से सम्बंधित भी उसके मन में कुलबुला रहे थे| इस बार लल्लनपुर में चैत मास में लगने वाला रामनवमी का मेला भी देखना था| अपने वादे के अनुसार पिसी माँ अपने साथ मेला दिखाने लेकर जाने वाली हैं| मैंने करवट बदला और सोने का उपक्रम किया| आँख मूंदते ही फिर से वही आकृतियाँ नाचने लगी… और ऐसे में ही आंख लग गई।
अवचेतन में कई आवाजें सुनाई दे रही थी, लोगों की पुकारें, चीखें…. नींद टूटी तो लगा सच में कोई पुकार रहा है| इतनी रात गए कौन? मैं चौंकी| ध्यान से सुना, यह तो पिसी माँ की आवाज थी।
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 “भोला, ओ भोला, एक गिलास पानी दे दे बेटा।” पिसी माँ लगातार आवाज दे रहीं थी।
 भोला जाने कौन सी नींद में था जो नहीं सुन पा रहा था। पिसी माँ ने खिड़की से आकाश की ओर देखा। तारों से अनुमान लगाया, अभी रात का तीसरा पहर शुरू हुआ था। वह अकुलाई और फिर से आवाज लगाई, “भोला, ओ भोला, एक गिलास पानी दे जाना।” 
भोला ने फिर से नहीं सुना। वे बिस्तर से लगी खिड़की से बाहर झाँकने की कोशिश करती हैं| उजरिया रात है। दालान के अंगनई में चांदनी पसरी हुई है। हवेली के चौदह कमरों में पिसी माँ ने यही एक कमरा अपने लिए चुना था| दालान की तरफ खुलते हुए खिड़की के सामने अपना बिस्तर लगाया हुआ था। यहां से आंगन भी देख लेती थीं और दालान पर लोगों की आवाजाही भी।
 भोला बहुत पुराना नौकर था। भोला से पहले उसके पिताजी काम करते थे। जगदीश भोला का बेटा था, वह प्रतिदिन आता। दिन भर गाय को सानी पानी देता, घास छीलता, कुट्टी काटता है और शाम होते ही दीया-बाती से पहले अपने लिए सीधा लेकर घर वापस चला जाता। उसकी बीवी सीधे का इंतजार करती रहती थी कि वह सीधा लेकर आएगा तो रसोई बनाएगी।
मैं आवाज सुनकर झट कोठरी से बाहर आई  और तुरंत लोटा भर पानी लेकर पिसी माँ के कमरे में पहुँच गई | 
पिसी माँ ढिबरी की मध्यम रोशनी में मुझे देखती हैं| मैं हाथ बढ़ा देती हूँ| वे लोटा पकड़ गटगट पानी पी लेती हैं| और जैसे ही खाली लोटा पकड़ती हूँ वे मेरी तरफ एकटक देखने लगी  हैं| 
मैं भी उनकी ओर देखते हुए सोचने लगती हूँ कि इस वक़्त अगर मैं न होती यहाँ तो क्या होता| बुजुर्ग सयानी पिसी माँ किस तरह पानी के लिए कलप रहीं थी| ऐसे में अगर कुछ हो जाता तो!…दुश्चिंता से मन में भय व्याप्त हो गया|
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“तू कैसे जाग रही है?” मैं इस अप्रत्याशित प्रश्न से अकचका गयी| ऐसा लगा मानों किसी ने चोरी पकड़ ली| वे भी समझती तो होंगी कि प्रेम में पड़ी लड़कियाँ दिन तो आराम से गुजार लेती हैं लेकिन रात उन पर भारी पड़ती है।
 बात बदलने के उद्देश्य से मैंने कहा,“तुम्हारी इस कथित हवेली में नींद पड़ने की आदत लगाना पड़ती है पिसी माँ|” 
“कथित हवेली क्यों कहा?”
“क्योंकि यहाँ मात्र चौदह कमरे हैं…चौदह कमरों की हवेली होती है भला?”
“ये कमरे हवेली का ही एक हिस्सा है|” पिसी माँ ने समझाया|
 मैंने फिर से अपनी बात दोहराने की कोशिश की, “पिसी माँ, चौदह कमरे की हवेली भी होती है भला? हवेली तो बावन और उससे अधिक कमरों की हुआ करती है। उस हवेली में रानियां रहा करती हैं|” 
मेरे कहने भर से पिसी माँ छत की कड़ियाँ देखने लगी, मुझे लगा वे अपना अतीत झाँक रहीं है, बोली, “तुझे नहीं मालूम यह चौदह कमरों की हवेली कभी बावन कमरों की हवेली से भी बड़ी हुआ करती थी।” 
मुझे अचरज में डालते हुए उन्होंने आँगन के पश्चिम की ओर इशारा किया, “वह कोने पर देख रही हो झाड़-झंकार के बीच दबा हुआ कुआं?”
“हाँ पिसी माँ, उस कुएं में तो साँप भी है और बड़े-बड़े कछुए भी। मैं जब भी आपके मन्दिर के पूजा के निर्माल उस कुएं में सिराने जाती हूँ, डर लगता है।“
“पगली है, डरती है। अरे भाई, पुरखों का कुआं है। जानती हो कभी यह कुआं आंगन के बीच में हुआ करता था|”
“तो क्या कुआं को उठाकर अब वहां रख दिया?”
सुनते ही पिसी माँ मुस्कुराने लगीं, और उठकर दिवाल के सहारे बैठ गयीं| “पागल हो, ऐसा भी भला हो सकता है? घर भी कहीं सरक सकता है?”
“कुआं वहां कैसे पहुंचा?” 
मेरी जिज्ञासा बढ़ती देख पिसी माँ ने आह भरते हुए कहा, “दिल छोटे पड़ गए, सबने मिलकर बंटवारा कर लिया|” 
हवेली का प्राचीन प्रारूप समझाते हुए पिसी माँ ने कहा, “इस तरफ पूरब की ओर बड़े बाबा के पांच बेटे, पांच बहुएं और उनके बच्चे यहां किलोल करते रहते थे। उस तरफ देखो, वह जो नलका है, वहां मझले बाबा की तीनों बहुएं रहती थी। वहां उनके कमरे बने हुए थे। वहां उनके बच्चे किलोल किया करते थे और इस तरफ दक्षिण से मैं सबसे छोटी|”
“लेकिन पिसी माँ आपके तो दो ही बेटे हैं ना?”
“मेरे दो ही बेटे हैं, दोनों को खेती-बाड़ी रास नहीं आई। पुश्तैनी जमीन पर खेती के सहारे जीविका चलाना नहीं चाहते थे।”
“पिसी माँ, इन्हीं खेतों से इतना बड़ा परिवार पलता था। आपकी इतनी बड़ी संपत्ति है। सुना है तीन सौ बीघा से भी ऊपर जमीन है। तीन पोखर, आम, कटहल, लीची, अमरूद के अलग-अलग बगीचे। इतना सब कुछ होते हुए भी बाबाओं के नाती-पोते इस संपत्ति पर नहीं पल सके जो सब शहरों में जाकर जीविका तलाशते हुए बस गए?”
“ऐसा नहीं है रे, तीन बाबाओं के नाती-पोते पल तो जाते, लेकिन बाद में जो परिवर्तन आया, आधुनिकता की हवा चली, उसने ही सर्वनाश किया है। तेरे बाबा लोगों ने गाँव में स्कूल बनवाया। शिक्षा के लिए सभी बच्चे गांव के उस स्कूल में जाने लगे। तेरे बाबा लोग तो पढ़े-लिखे थे नहीं, मगर उन सबने अपने बच्चों को गांव के स्कूल में दाखिला करवाया। जब दाखिला करवाया तो मास्टर ने पता नहीं कौन-सा बीज बोया| उनके मन में उच्च शिक्षा प्राप्त करने की कामना जागी| बाबा के बड़े बेटे ने दरभंगा में रहकर पढ़ाई की, मास्टरी में बहाल हुए| वह गांव में ही रहता हैं| सबकी खेती-बाड़ी भी देख रहा हैं| दूसरे का अधिक मन नहीं लगा पढ़ने में और खेती करना भी रास नहीं आया इसलिए वह चला गया धनबाद और वहां कोयले की खदान में भर्ती हो गया| खूब रुपए कमाने लगा, सुना है तनखा अच्छी देते हैं कोलियरी वाले|” कहते हुए खिड़की से बाहर झाँकने लगी, तीसरा पहर खत्म होने को था|
“जान भी तो आफत में पड़ी रहती है उनकी| सुना है वहां मजदूरों को खदान के एकदम अंदर उतार देते हैं| कभी आग लग जाए या अन्य दुर्घटना हो जाए तो जान पर बन आती है| बहुत खतरा है वहां|”
“ऐसी बातें न कर, चुप रह! मन डूबा जाता है|”
वह चुप हो गई। पिसी माँ के चेहरे पर उदासी के बादल घने हो गए। 
 “एक बार किसी ने कहा था तो उसका जवाब था कि खतरा कहाँ नहीं है? हम अभी जहां खड़े है, क्या वहां खतरा नहीं है, मृत्यु के भय से कौन यहाँ ग्रस्त नहीं है? अब क्या कहूं ऐसी ही बातें बना-बना चले गए एक भाई कोलकाता, दूसरा धनबाद, तीसरा दिल्ली, चौथा रायपुर| तीन अमरीका में पढने गए तो वहीँ रह गए| यहां रह गए हैं अनाथों सरीखे ये खेत खलिहान| मेरे दोनों बेटे…” कहते हुए उनका गला भर्रा गया फिर धीमे स्वर में बोली, “दोनों भाई लन्दन चले गए, उनके बच्चे, बच्चों के बच्चे, सब वहीँ के बन कर रह गए|”
“पिसी माँ, मंझले बाबा के यहां भी तो कोई नहीं है|”
“हां बेटा, मंझले के यहां भी अब कोई नहीं है| जीवन बीमा कंपनी में एक बेटा लग तो गया था। आस बंधी थी उससे लेकिन वह भी इधर कम ही निकलता है|” 
“तो पिसी माँ, जब कोई यहां रहता ही नहीं था तो बावन कमरों की हवेली के टुकड़े किसने करवाए?”
“बेटा, जब साथ में रहना छूट गया तो, दुख-सुख का नाता भी छूटता चला गया|”
“छूट कहाँ से गया! भोला कह रहा था कि हर साल छुट्टियों में वे सभी आते हैं|” 
“गर्मियों की छुट्टियों में वे सब जमीन के लालच में यहाँ आते हैं। जब आते हैं तो अपने-अपने हिस्से की जमीन की जानकारी मांगते हैं, बंटवारे की बात करते हैं| हम तीनों बूढी देवरानी-जेठानी तो सुनकर चुप-चुप से किसी कोने में पड़े रहती हैं| तेरे दादा रहते तो अपने बेटों और भतीजों से मिलकर सलाह मशवरा करते| इन सबको जवाब देते। बहूओं का आना अब त्रास देने लगा है। वे सब जब इकट्ठे यहां आती हैं, रहती हैं तो परिवार का सामान्जस्य बिगड़ जाता है। आए दिन झगड़े का शोर आंगन से उठने लगता है।”
“किस बात पर लड़ती हैं सब?” मैंने किसी को अब तक नहीं देखा था लेकिन पिसी माँ से उनका प्रसंग सुनते ही अचानक से वे सभी संभ्रांत महिलाएँ झोपड़पट्टी में बात-बात पर सिर फुटौव्वल करने वाली झगड़ालू चेहरे बन गईं। 
पिसी माँ के मन में भूचाल सा उठा,”इधर से पहली वाली कहेगी, मेरा पति सबसे अधिक कमाता है, तो दूसरी कहेगी मेरा पति बड़ा अधिकारी है, तुम्हारे पति से अधिक कमाता है| इन सब विवादों को देखकर बहुत निराश हो जाती हूँ| मेरा मन करता है कि डंडा उठाकर गांव के बाहर इन सबको खदेड़ आऊं। अधिक क्रोध आने पर एक बार कह दिया था, अरे नासपिटों, तुम लोग कितना भी कमाते हो, लानत है ऐसी कमाई पर| धन की आमद तरक्की का वाहक होता है। तुम अपनी कमाई से इन बावन कमरों की हवेली को सौ कमरों की हवेली में बदलकर दिखाओ तो जाने| बाप-दादाओं की हवेली को तोड़ने में लगे हुए हो, यह कैसी ऊंची कमाई है तुम्हारी? इंसान जब कमाता है तब धनिक होता है| ऊपर उठता है, तब वह मन से भी संपन्न होता है| यह सब जितना अधिक कमा रहे हैं, जितना अधिक कमाते जा रहे हैं, उतना ही अधिक दरिद्रता उनके विचारों में आता जा रहा है| समझाती रह गयी पर किसी की अक्ल नहीं खुली| उन दरिद्र लोगों के पेट भरने के लिए इस हवेली के तीन हिस्से करने पड़े|” 
“तो पिसी माँ, यह कुआं किसके हिस्से में आया है?”
“किसी के हिस्से में नहीं है वह| किसी ने अपने हिस्से में उसे लेना ही नहीं चाहा| वह कहती हैं कि इसको भरवा दो?”
“वह कौन?”
“मंझली की जो बहू है, जिसका पति जीवन बीमा में काम करता है, कहती है कि इसको भरवा दो और इसको तीन हिस्से में बांट दो| साफ़-साफ़ कह दिया है सबको कि जब तक मैं जीवित हूँ, यह कुआं नहीं बंटेगा| इसमें हमारे पुरखों की आत्माएं बसती हैं|” 
“आत्माएं …. पिसी माँ, इस तरह से हमें मत डराया करो|” 
“नहीं रे पगली, यह देव आत्माएं हैं, पितरों के लिए आशीर्वाद पाने के लिए हम कुआं पूजते हैं| तीज त्यौहार, शादी वगैरह होती है तो हम कुआं पूजते हैं| देखो वह जो कछुआ है कुआं में, वह सत्तर वर्ष से अधिक का है| जब मैं ब्याह कर आई थी, तब भी वह इतना ही बड़ा हुआ करता था| उसे देख कर मुझे ऐसा लगता रहता है कि वह देवता है, हमारी रक्षा करते हैं|” 
“आप जब व्याह कर आयीं थी तब भी ये कुआँ…” मैं एकटक पिसी माँ के चेहरे को टकटकी लगाए देख रही थी। मन ही मन पिसी माँ को दुल्हन के रूप में सजाने लगी थी। मैं अपनी परिकल्पना में एक बड़े जागीरदार की छोटी बहू से बात कर रही थी। उँगलियों पर पिसी माँ के उम्र का हिसाब लगाने लगती हूँ|
       पिसी माँ गंभीर मुद्रा में डूबी रही| कुछ देर बाद मैंने चुप्पी तोड़ते हुए बात बदलने की कोशिश की, “पिसी माँ, तुम भोला को अपने साथ रखती हो| लोगों ने कहा है कि तुम भोला के हाथ का पानी भी पीती हो, इससे तो धर्म भ्रष्ट हो रहा है तुम्हारा?”
“मनुष्यता से बढ़कर कोई धर्म नहीं होता है| भोला ने हमारे कुल की बहुत सेवा की है। अब वह इस परिवार से बाहर का लगता ही नहीं है| वह भी अब इस कुल का बेटा है। उसे मैं किसी अन्य जाति का मान ही नहीं सकती| हमारे सभी रीति-रिवाजों का पालन करता है| कर्मों से वह पूरी तरह से ब्राम्हण हो गया है|”
“ब्राह्मण कैसे हो गया है माँ?”
“देखा नहीं तुमने, वह जब खाना खाने बैठता है तो चारों तरफ अंजली में पानी लेकर खाली को पहले देवताओं को भोग लगाता है| उसने वह सब कुछ सीखा है जो तुम्हारे दादाजी किया करते थे| सच कहूं इस परिवार में परंपराओं का निर्वहन बेटों ने तो नहीं किया लेकिन भोला ने मन प्राण से सभी संस्कार निभाए हैं|”
“तो तुम भोला को गोद तो नहीं लेने जा रही हो पिसी माँ?” मैं कहते हुए ठठा कर हंस पड़ी लेकिन पिसी माँ इस चर्चा के उपरांत गंभीर हो गयी थीं| 
उनके प्रभावशाली चेहरे पर दृढ़ता झलक रही थी| उन्होंने ढिबरी को बुझाते हुई कहा, “अगर मैं उसे गोद ले भी लूं तो आश्चर्य मत करना| वंशज वही होता है जो वंश की परिपाटी निभाए।” मैंने खिड़की की ओर देखा पौ फट रही थी| उजाले की एक सुनहरी किरण आँगन में प्रवेश कर चुकी थी|
मेरे समक्ष मगध का इतिहास खड़ा था। एक तिलस्म सा चारो तरफ पसरा हुआ था| टुकड़ों में बाँटी हुई बावन कमरों की विशाल हवेली सरक कर अपनी-अपनी जगह वापस आने को तैयार हो रहीं है, कुँए ने बीच आँगन में आकर अपना स्थान ग्रहण कर लिया था| 
क्या सच में पिसी माँ ऐसा प्रलयंकारी निर्णय ले सकती है? मैं खुद संशय में पड़ गयी थी| क्या वास्तव में पिसी माँ अपने विलासी नंद वंश में संकल्पवान मौर्य वंश की स्थापना करने जा रही है? पितृसत्ता एक तरफ और दूसरी तरफ पिसी माँ और उनकी जिठानियाँ, क्या वास्तव में यह समय मातृसत्ता के पुनर्जागरण का काल है? 

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