‘मम्मी हम कौन हैं?’ 
बेटू स्कूल से आकर अपनी नानी के साथ सोया था और हमेशा की तरह कोर्ट से आकर कपड़े बदल जैसे ही वह बिस्तर पर पहंची थी, नानी की तरफ  पीठ फेर, मुड़ कर उसके गले में हाथ और पैरों पर अपना पैर चढ़ा, लिपट गया था. उसके साथ सोने का यह तरीका तो मीता का था. बेटू भी उसे कॉपी किए था. और प्रश्न भी मीता की तरह ही बहुत आराम से ही पूछा था. ‘आजकल बुरी तरह याद करने लगी हूं मीता को.’ उसने सोचा. 
मीता से झगड़े के दिनों में बेटू का इस तरह सोना कितना चिढ़ा देता था उसे, झटक कर हाथ, पैर सीधे कर दिया करती थी. 
वह मीता में खोई थी कि- ‘मम्मी बताओ न?’ बेटू ने फिर पूछा.
‘क्या?’ उसने प्रश्न सुना ही कहां था.
‘हम कौन हैं?’
प्रश्न सुनकर वह धक से रह गई थी. आखिर! आज क्या जानना चाहता है बेटू?
‘हम मनुष्य हैं, मेरा मतलब तुम लड़का हो, मैं ल..(अपने आप को लड़की कहते कहते रुकी थी वह) औरत हूं.’ मुश्किल से हकलाते हुए से जवाब दिया था उसने.
‘लड़का-लड़की नहीं मम्मा कुछ और?
‘कुछ और क्या?’ परेशान होकर बच्चे से प्रतिप्रश्न किया था.
‘जैसे हिन्दू, मेरा दोस्त नमीर खान कहता है- हिन्दू से कोई बात नहीं करता( वह गोल गोल मुंह करके नकल सी करके कहता है) वे बहुत बुरे होते हैं.’
बहुत बुरा होना जब पहले ही बता दिया गया हो फिर बच्चे को कैसे जवाब दिया जा सकता है कि हम बहुत बुरे हिंदू ही हैं. वह सोच में पड़ गई.
‘यह किसने बताया उसे?’
‘उसकी अम्मी ने.’
‘बेटा उसकी अम्मी गांव की होंगी, बिना पढ़ी लिखी, इसलिए ऐसी खराब बात कही होगी. हिन्दू हो या मुसलमान सब मनुष्य अच्छे होते हैं.’ अचानक गुदगुदी कर मौजूद विषय को खत्म किया था.
बच्चे के दोस्त के लिए वह गहरी चिंता में पड़ गई थी. कुछ ही दिन पहले अर्दली कोर्ट की कुछ फाइलें सीन कराने लाया था. नहा कर निकलने में उसे थोड़ी देर हुई थी, बाहर आकर देखा- बेटू बड़े रुतबे से कुर्सी पर बैठा अपने सामने खड़े अर्दली से बात कर रहा था.
‘आप बड़े होकर क्या बनोगे बेटू?’ अर्दली पूछ रहा था.
‘अंकल मैं बड़ा होकर मुसलमान बनूंगा.’ बहुत जोश में जवाब दिया था बेटू ने, अर्दली ऐसा जवाब और सामने उसे देख कर बुरी तरह सकपका गया था. उसकी ऐसी हालत पर उस वक्त बहुत मजा आया था. वह गाना गाने, गुनगुनाने की शौकीन थी. बेटू को गोद में लेकर अक्सर-‘ तू न हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा.’ गाना गाती रहती थी, ऐसा लगा था- बार बार सुने इस गाने से मासूम बच्चे ने ‘मुसलमान’ शब्द चुन लिया था और मारा भी तो किसके मुंह पर, पूजा पाठी तिलकधारी मिश्रा के. कितना कुढ़ा होगा बच्चे की बुरी परवरिश पर, यह सोचकर ही उसे हंसी का दौरा पड़ जा रहा था. पर आज की बात की गम्भीरता उसे चिंता में डाल दे रही थी.
अभी बच्चा बहुत छोटा है, बहलाया जा सकता है, बड़ा होकर अपने सामाजिक अस्तित्व के प्रश्न को न जाने कैसे हल करेगा. चिंताएं हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेतीं.
कहते हैं दिल से दिल की राह होती है, मीता को भी आज सुबह से ही बेटू और आन्या बेहद याद आ रहे हैं. वह पुराने मुकदमे के साक्ष्य में उस शहर में है जहां पग पग पर मीता और बेटू की स्मृतियां अंकित हैं.कितना दुधमुंहा नन्हा सा था बेटू जब वह उसे पहली बार घर लेकर आईं थीं. आन्या उसे ऐसे छाती से चिपकाए थी जैसे खुद ही पैदा कर हॉस्पिटल से लाई हो. 
कितने बगावती तेवर के साथ उसने और आन्या ने एक दूसरे के साथ को हमेशा बनाए रखने के लिए बेटू को गोद लिया था. आन्या मां, वह पिता, एक मुकम्मल फैमिली. न अग्नि साक्षी की दरकार थी, न दुनिया के किसी सार्टिफिकेट की जरूरत.
‘दुनिया को रखेंगे ठेंगे पर!’ उसका ऐसा  कहना तब कितना मुग्ध कर देता था मीता को. और एक दिन उसने बेटू और दुनिया के लिए उसे ही ठेंगे पर रख दिया. गहरी सी सांस लेकर सोचा उसने-
जिस दिन हम दुनिया को ठेंगे पर रखना बंद कर देते हैं, ठीक उसी दिन दुनिया हमें ठेंगे पर रख लेती है. मानो नियम हो जीवन का, एक न एक को ठेंगे पर रहना ही होता है. चुनाव तो हमेशा व्यक्ति ही करता है कि वह दुनिया को ठेंगे पर रखे या खुद उसके ठेंगे पर रहे. दुनिया का अस्तित्व भी किसी व्यक्ति के लिए सिर्फ उतना ही होता है, जितनी वह उस व्यक्ति के अंदर होती है. कहां समझा पाई थी आन्या को कि – दुनिया को कतई फर्क नहीं पड़ता कि आप रात भर किसी से लिपट कर सोते रहे हैं या फर्श पर बैठे सिर पकड़ कर रोते रहे. कितनी कमजोर निकली थी आन्या. आज लगता है जैसे सब कुछ एकतरफा उसकी ओर से ही था.
‘विकृति एव प्रकृति:’  सबसे पुनीत ऋग्वेद की ऋचा कहती है- जो अप्राकृतिक दिखता है, वह भी प्राकृतिक है. पर क्या किसी भी चीज को विकृति के रूप में स्वीकार कर, हम उसके प्रति सम्मान का भाव रख पाते हैं?
बचपन से ही अपनी इस प्रवृत्ति के संबंध में कितनी छान बीन की थी उसने, पता चला था यह प्रवृत्ति पैदायशी होती है. यह कोई आदत नहीं कि इसे बदला जा सके.
बाबा तुलसी ने लिखा है- ‘नारि न मोहे नारि के रूपा.’ फिर उसे ऐसी प्रवृत्ति क्यों दी है विधाता ने? मीता के साथ खजुराहो मंदिर की दीवारों पर अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल तमाम मुद्राओं को चित्रित देखकर कितना संतोष मिला था.
कुछ भी तो गलत नहीं है उनकी आंतरिक दुनिया में.
कहां बारहवीं शताब्दी के कलाकारों की हिम्मत कि वह ऐसी मूर्तियां उकेर सके और कहां आधुनिक समाज की बाशिंदी वह और मीता की यातना कि वह अपनी इस प्रवृति और संबंध का खुलासा भी किसी के समक्ष नहीं कर सकतीं.
अनुशासित बल की नौकरी और अपनी प्रवृत्ति के विपरीत दण्डनीय कानून. प्रशिक्षण के दौरान आईपीसी की क्लास में धारा 377 अप्राकृतिक अपराध में लेक्चर दे रहे डीवाईएसपी ने जब इसकी चर्चा की थी तो लगा था जैसे कानों में गरम लावा डाल  दिया गया है.
वह बचपन से ही ऐसी थी. लड़कियों का सौंदर्य हमेशा बांधता था उसे. अपने चचेरे, तहेरे, ममेरे भाइयों की दुल्हनों को देखना उसे बहुत प्रिय था. ससुराल से आने वाली नवयुवतियों का बनाव श्रृंगार भी हमेशा आकर्षित करता. वह उनके साथ बैठने समय बिताने के अवसर खोजती रहती थी.
किशोर वय में भी लड़के उसका ध्यान नहीं खींच पाते थे. कोएड. कालेज वाले दिनों में भी वह लड़कियों की अदाओं पर ही मुग्ध रहती थी. किसी की हंसी भाती तो किसी के नुकीले नेत्र, किसी की पैनी नाक तो किसी की देह के कर्व. लड़कियों की उठने बैठने चलने की लचक उसका ध्यान भंग किए रहती.
अब पति बन चुके राकेश को आन्या कालेज के दिनों से जानती थी, पर दोस्ती एलएलबी करते हुए हुई थी. कई दोस्त और भी थे. साथ साथ तमाम फॉर्म भरे जाते, परीक्षा देने जाते, किसी का प्री निकलता कोई मेन तक पहुंचता. कोई किसी परीक्षा के लिए काम्पीटेंट होता, कोई किसी के लिए नहीं होता पर परिणाम की प्रतीक्षा सब करते थे. राकेश से सब इंस्पेक्टरी का प्री ही निकला था और वीरेन फिजिकल में फेल हो गया था. वह फायनल सलेक्शन के बाद प्रशिक्षण में चली आई थी. राकेश का ननिहाल था इधर, हर डेढ़ दो महीने में नानी के घर किसी ओकेजन के बहाने मिलने चला आता. आते समय उसके घर जा- खैर खबर, घी, बेशन के लड्डू और जरूरत के सामान पकड़ लाता. ‘फ्रस्टू, दलाल साला’ उसने मन में गाली दी.
‘आन्या… आन्या…. राकेश जोर से आवाज लगा रहा है. अरे कोई है इस घर में या सब मर गए?………. कोई आकर मेरा एसी बंद कर दो.’
उसके कमरे के एसी का रिमोट खराब है. नशे और आलस्य में वह यूं ही आवाज लगाता है. 
‘जाने कैसे पता चल जाता है, हरामखोर को आन्या आ गई है.’ चाय ले आई मां से वह कहती है.
‘तुम्हारे पीछे भी, तुम्हें ही आवाज देता है.
कुसुम और मुझसे तो नफरत है उसे.’ मां बताती है.’
‘हां! हर वह आदमी जो मेरे जीवन को आसान करे, उससे नफ़रत है इसे.’ प्रकट में मां से कहते हुए, मन में सोचा- मां और कुसुम के होने से घर में उसकी जगह तो कम होती ही है, वे उस पर नजर रखने वाले दो सजीव कैमरे भी तो हैं. 
कितनी  मतलब की और हवाई थी उसकी मुहब्बत,  मीता से उसे हासिल करते ही गायब हो गई थी. 
कालेज का यार था, कितनी अदा से कहता था- ‘जानती भी हो कब से चाहता हूं तुम्हें?’ अहसास कराता- वह उसके जन्म जन्म का साथी है और उसकी प्रतीक्षा में ही अकेला है, गा उठता था-
‘ मेरी सपनों की रानी कब आएगी तू ‘ 
कितनी बारीकी से उसने काटा था मीता से. कितने गूढ़ार्थ में पूछता था-
‘बेजान गुड्डे गुड़िया का खेल कब तक खेलती रहोगी रानी? दो पाज़िटिव तारों का घर्षण थोड़ी गर्मी पैदा करले, स्पार्क के लिए पाज़िटिव-निगेटिव को मिलना ही पड़ता है.’
‘मम्मा आपकी कैसी शादी थी?’ बेटू अपना होमवर्क करते पूछ रहा है.
‘कैसी भी नहीं.’ चुपचाप अपना काम करो.
‘बताओ न मम्मा, आज पापा आपको बहुत गालियां दे रहे थे. दिन पर दिन बत्तमीज होते जा रहे हैं.’
‘किसी ऐसे लड़के से प्यार और शादी करती जो तुम्हें प्यार करता, तुम्हारा कहना मानता, पीछे पीछे आता..’ 
‘चुप काम करो बेटू नहीं थप्पड़ खाओगे.’ कहती वह विचलित हो गई थी-
किसी लड़की की प्रेम कहानी में अनिवार्य रूप से एक लड़का  होता है और उसकी प्रेम कहानी में सब कुछ था बस एक लड़का ही तो नहीं था. क्यों एक लड़का और लड़की ही होते हैं प्रेम कहानी में, दो लड़की या लड़का क्यों नहीं हो सकते? काश हो सकते होते तब क्या मीता को इतनी आसानी से निकाल फेंक दिया जाता अपने जीवन से.
मृणाल बिस्ट था मीता का असल नाम जिससे वह प्रशिक्षण में मिली थी. लंबा कद, चपटा सा गठा बदन, आरपार देख सकने की क्षमता वाली बेधती हुई आंखें. कुछ ऐसा रसायन मिला हुआ था उसके व्यक्तित्व में जो ध्यान खींचता अपने अधीन करता था. सामान्य सी हाय हलो थी.  एक दिन वह पलंग पर लेटकर, घर खत लिख रही थी कि बिष्ट ने अचानक उसके बराबर लेटते हुए पीठ सहला कर पूछा था- ‘क्या लिख रही हो?’ समूचा वजूद कांप गया था . जैसे किसी तप्त देह ने आगोश में ले लिया हो. और फ़िर अनायास ही वह लापरवाह बिस्ट का बहुत ध्यान रखने लगी थी. वह सुबह पांच बजे नहाने जाती तो बिस्ट को उठाकर जाती, मैस से अपना, उसका चाय नाश्ता ले आती. खाना खाते दाल में घर से लाया घी मिला देती.  जब वह बाहर घूमने जाते रिक्शा ओटो तय करना, सिनेमा के टिकट लेना, बाहर खाने का बिल मंगाना, पे करना, अनयास ही बिस्ट की जिम्मेदारी बनती गई.
बहुत अच्छा लगने लगा था उसका साथ. आसमानी जींस और सफेद सूती शर्ट पर रेवन के काले चश्मे और ब्याय कट बालों में बिस्ट को सराहते, उसके साथ घूमते कभी लगा ही नहीं था कि-‘प्रेम कहानी में एक लड़का होता है!’
देह एक साज है, और साज कहां फर्क करता है कि बजाने वाली उंगलियां स्त्री की हैं या पुरुष की, साज को तो बस फनकार चाहिए, उसका धर्म है बज उठना. वह एक दूसरे के साज और फनकार एक साथ थे. मजाल है जो एक को नींद न आए और दूसरा तृप्ति के आनंद में मुंह फेर कर सो जाए. सूखे, गीले चुम्बन का मर्म, अब समझ में आता है. खराब से खराब  मूड को भाप, मीता का कान की लव ओठ से छूते हुए कहना- ‘आज तुम्हें एक गीला चुम्बन चाहिए.’ कैसे झंडू वाम का सा काम कर जाता था.
ट्रेनिंग के बाद भी उनकी पुरुष- स्त्री की सामाजिक भूमिकाएं बरकरार रहीं थीं, मीता की आकांक्षा फील्ड ड्यूटी और  चौकी- थानों की बागडोर सम्हालना थी. महिला थानों से चिढ़ थी उसे और खुद को श्रेष्ठ साबित करने का जुनून. 
उसने शुरू से ही ऑफिस पकड़ लिया था और सबसे पहले अपना लॉ ग्रेजुएशन का थर्ड ईयर पूरा कर डिग्री हासिल की थी. परीक्षा का फार्म भरना, परीक्षा की डेट शीट याद दिलाते रहना, तैयारी को यूनीक खरीद कर दे जाना जैसे काम राकेश करता रहता और किसी न किसी बहाने उससे जुड़ा रहता.
याद आता है- उन्हीं दिनों उसने मृणाल को मीता और राकेश ने उसे रानी कहना शुरु किया था. रानी वह व्यंग में कहता था. रानी होने से उसका अभिप्राय खर्च करने की क्षमता थी. मीता से वह खूब चिढ़ता था, पर उसके हिस्से के काम भी दौड़ दौड़ कर कर देता, बदले में वह उसकी तमाम तरह की आर्थिक मदद कर देती. वकालत के लिए उसके रजिस्ट्रेशन की फीस उसने ही दी थी. लॉ ग्रेजुएट होते ही जुडीशियल सर्विसेज का आकर्षण उसके अंदर जोर मारने लगा था. ट्रेनिंग पर जाने से पहले पीसीएस की प्री और मेन परीक्षा उसने निकाली थी. हौसला बंधता गया. राकेश ने भी साथ फॉर्म डाला था, तैयारी जैसे वह उसके साथ समय व्यतीत करने को करता था. बाकी समय मटरगस्ती करता, थोड़ा बहुत काला कोट चढ़ा, कोर्ट जाता और कभी मीता तो कभी उसकी आड़ में लोगों के काम  कराता, दलाली खाता.
मीता और उसके साथ रहने से दोनों के घर वालों को खास दिक्कत नहीं हुई थी.  दो कामकाजी दोस्त लड़कियों का एक साथ रहना कोई ऐसी खबर भी नहीं थी कि उस पर चिल्ल पौ की जाए. जब बच्चा गोद लेना प्लान किया था तब जरूर मीता के घरवाले चाहते थे -कि वह मीता के बेरोजगार भाई के लड़का या लड़की में से किसी को गोद ले लें. तब राकेश ने ही अनाथालय से या किसी लावारिस नन्हे बच्चे को चुनने का सुझाव दिया था और भाग्य से तभी रेलवे क्रोसिंग पर लावारिस आ टपका था बेटू.
इससे पहले ही मीता के साथ बहुत माथा पच्ची कर चुकी थी- मेल और फीमेल चाइल्ड के चुनाव को लेकर और अंततः समाज के तमाम लफड़ों और पेचीदगियों को सोचते हुए बच्चे के लिए समाज को ठेंगे पर नहीं रखना तय किया था. बहुत मन न होते हुए भी मेल चाइल्ड के चुनाव का मन बनाया था. यह चुनाव ही शायद पहली गलती थी, जो अन्जाने में उनसे हुई थी और फिर गलतियों का पूरा एक सिलसिला था जो उन्हें अपने सैलाब में बहा ले गया था.
काश हमने फीमेल चाइल्ड चुना होता और देश में विवाह न सही ऐसा कानून ही होता कि दो सखियां बतौर पेरेंट संयुक्त रूप से बच्चा गोद ले सकती होतीं.  दूसरी सदी में लिखे गए ‘कामसूत्र’ के ‘पुरुषायिता’ अध्याय में ऐसी स्त्रियों का जिक्र है जो दूसरी स्त्री से शादी कर बच्चा पालती थीं. कितना सुंदर टाइटिल है उनके लिए ‘स्वर्णिनिस’, कितना प्रिय था उसे पर अपने लिए कहां संभाल कर रख पाई थी वह. स्वर्ण छोड़ कर कोयला चुन बैठी थी दुनिया के वास्ते. कितना घुटन भरा असुरक्षित माहौल दे बैठी है बेटू को.
रुपये पैसे की जरा सी कोताही से कितना आक्रामक हो उठता है राकेश-
‘नंगा करके चौराहे पर खड़ा कर दूंगा जज साहिबा! फंदा, नदी- नाला खोजती फिरोगी.’ बेटू का कतई लिहाज नहीं है उसे.
कैसे इस बेटू के बहाने ही घर और उनके जीवन में इतनी आवाजाही कर घुसपैंठ की थी उसने. चाहे जहां भी उनकी पोस्टिंग होती वह उन तक पहुंचने के सूत्र खोज ही लेता. जल्दी ही चौकी थानों के चार्ज में व्यस्त, दूर दराज पोस्टिंग के कारण घर से दूर मीता का वह विकल्प बनता चला गया था. बेटू पौने दो साल का था जब उसका जुडीशियली में सलेक्शन हुआ था.
सामाजिक निर्मिति ही कुछ ऐसी है कि अम्मा और राकेश बेटू को साथ ले उससे प्रशिक्षण के दौरान मिलने आते और वहां सब राकेश को पति समझ लेते. मीता का आना भी होता. ड्यूटी की आपाधापी में कभी वर्दी में तो कभी सिविल ड्रेस में. मीता का वर्दी में होना उसे थोड़ा खराब महसूस कराता. बाद में यह शर्म ही बढ़ कर झगड़े और अलगाव का कारण बनती चली गई थी.
उनकी अंदर की दुनिया भले ही आपस में ही पूरी होती थी, पर जिम्मेदारी वाले पद की हैसियत से वह जानती थीं उनका आंतरिक संबंध कानून की दृष्टि में अपराध है और समाज में निंदनीय. यही कारण था कि संबंध था पर उसका सार्वजनिक स्वीकार नहीं. उनके संबंध की इस कमजोरी का फायदा राकेश को  मिल रहा था और बाहर की दुनिया पर अनायास ही उसका कब्जा होता गया था. लोग बिन कहे ही उन्हें पति पत्नी का दर्जा दे देते थे. एक दो ऐसे वाकयों के बाद मीता ने राकेश को रोकने की कोशिश की पर बेटू और अम्मा से वह इतना घुल-मिल गया था कि उसे रोकना मुमकिन न हो सका था. बेटू के बहाने उसके जीवन में पधारी शादीशुदा भाई बहन से बेजार विधवा मां हर काम के लिए राकेश पर भरोसा करने लगी थी.  मीता का छुट्टी आना और घर का अखाड़ा हो जाना आम बात हो चली थी. राकेश जानबूझकर और शायद मां भी उनके झगड़े को हवा देते. 
उसे याद आता है मीता की विदाई का वह आखिरी मंजर – उसने मां से बेटू को छीन कर ले जाने की कोशिश की थी. मां ने राकेश को फोन कर दिया था और राकेश ने थाना पुलिस को, गुस्से में खूब गालियां बकी थीं मीता ने. क्वाटर्स का सुरक्षा गार्ड रोकता रह गया था और उसने क्वार्टर के शीशे तक तोड़ डाले थे. बाद में एफआईआर के लिए कितना कन्विंस किया था राकेश ने पर वह तैयार नहीं हुई थी. ऐसी पोस्ट पर बैठी थी कि मामले पर आसानी से पर्दा डाल दिया था.जानती थी बेटू का गोदनामा उसके  नाम पर था, इसलिए सर्विस पर रहते मीता उसे कैसे भी छीन नहीं सकती थी. 
रुपये पैसे और संयुक्त एकाउंट की परवाह दोनों ने ही नहीं की थी. बहुत मजे से समझौता हो गया था. सम्मलित रूप से खरीदा प्लाट उसने मीता को और मीता ने कैश और ज्युलरी उसकी तरफ कर दी थी.
मनमर्जी का कच्चा सा प्यारा रिश्ता जरा से अहम, टकराव और दुनिया जहान की परवाह की भेट चढ़ गया था.
कहते हैं प्रेम में अंधा व्यक्ति दुनिया की परवाह नहीं करता पर क्रोध के महांध को तो अपना भला बुरा भी दिखाई नहीं देता. 
जो रिश्ता कागज और समाज की स्वीकृति पर नहीं होता उसका वजूद किसी एक के दिल का दरवाजा बंद होते ही समाप्त हो जाता है.
झगड़े के बाद मीता के लिए उसके दिल ने धड़कना बंद कर दिया था और दिमाग ने तो जैसे काम करना ही बंद कर दिया था, अन्यथा मीता को छोड़कर राकेश से रजिस्टर्ड शादी और राकेश का बेटू के पिता होने का हलफनामा आसानी से कुबूल किए जाने वाले फैंसले तो न थे उसके लिए.
प्रथम समागम में ही समझ में आ गया था राकेश के पास उसे देने के लिए अपनी हडीली उंगलियों के नुकीले पेचकस और देह की दादागीरी के सिवा कुछ नहीं है.
कोमल स्पर्श और दुलार की अभ्यस्त देह को राकेश का चुभता दुखता संसर्ग रास नहीं आया था. उसका स्त्री मन संबंध की उष्मा ही चाहता था पाज़िटिव नेगेटिव का झुलस देने वाला स्पार्क नहीं. 
मां बचपन में शेर की कहानी सुनाते बताती थी- जब शेर किसी गाय का मांस खा लेता है, किसी अन्य जानवर को खाना छोड़ देता है और जब किसी औरत का मांस पा लेता है, गाय को भी छोड़ देता है. स्त्री देह की कोमल छुअन में मन अटक कर रह गया था.
आखिर कहां गलती कर बैठी ? उसके अंदर की वनैली, अतृप्त, हिसंक देह मरखने जानवर सी राकेश के स्पर्श मात्र से बिदक उठती. बाद में वह शराब पीकर करीब आने की कोशिश करता और वह चीख उठती- ‘तुमने क्या मुझे कॉल गर्ल समझ रखा है राकेश जो कैसे भी तुम्हें अपनी देह बर्दाश्त कर लूंगी. तुम्हें तो अच्छे से पता थी मेरी प्रवृति.’
समाज स्वीकृत, कागज पर लिखा पति था राकेश, मीता की तरह नहीं छूटा जा सकता था उससे.  अब जीवन में वह है, न मीता है, सिर्फ वितृष्णा से भरता राकेश ही राकेश है. वह भी अपनी अय्याशियों और सुरक्षित भविष्य के साथ. तन-मन का साझीदार न हो पर मरने के बाद उसकी पेंशन, मृतक आश्रित में नौकरी का हकदार और बेटू का पालक पिता.
 
बोझिल एकांत झेलती वह जीवन की गाड़ी  एक बार फिर मनोनुकूल रिवर्स गियर में डालना चाहती है. जगत के सीधे मार्ग का मायाजाल अंदर ही अंदर दिन- रात छीलता रहता है. उसके घर की पूरी व्यवस्था संभाले मां को पहले मीता नहीं चाहिए थी, अब राकेश भी नहीं. एक दिन बेटू से भी बेजार हो जाएगी. भले ही सालों से विधवा मां का ठिकाना वह ही है पर उनके अपने बच्चे तो भाई और बहन के बच्चे ही हैं. न कोई पेंशन न कमाई का कोई और जरिया फिर भी  किसी को नानी से लैपटॉप चाहिए तो किसी को अपने बच्चे के प्रायवेट मेडिकल कालेज की भारी फीस में मदद. सबको उसका कमाया पैसा दिखता है, दिल का दर्द नहीं. ऊपर से तोहमत यह कि जिस सूरते हाल में लोग संबंध तोड़ लेते हैं, परिवार उसके साथ खड़ा है.
आई टी ट्रेंनिग में ‘लेफ्ट राइट’ बोलता उस्ताद गलत कदम को लय में लाने के लिए – ‘गलती पर गलती’ करने के सिद्धांत पर चलने को कहता था और गलत कदम लय में आ जाता था. जीवन की बिगड़ गई लय-ताल ठीक करने के लिए, उसे लगता है फिर से एक गलत कदम की जरूरत है. खुद ही पहल कर फोन करती है मीता को. आजकल घंटो फोन पर बतियाती हैं दोनों, घरवालों ने कैसे, कब और कितना उनको लूटा है. उनके साझे सपनों वाला प्लाट, जिसे उसने मीता की तरफ कर दिया था, उस पर चारों तरफ खुलने वाली खिड़कियां घर बनवाया है-
‘चारों तरफ से खूब हवा आती है.’ खुश होकर बताती है मीता. मां, बेरोजगार भाई- भाभी और उसके बेटा-बेटी पूरे कब्जे से साथ में रहते हैं. छुट्टी जाने पर दो वक्त की रोटी और ढेर सारा प्यार सम्मान मिलता है.
‘मुझे तो हमेशा से पता था एक दिन लौटकर आओगी आन्या! मृणाल बिस्ट कोई भूल जाने वाली चीज नहीं.’ होटल के रूम में पहुंचते ही मीता गर्मजोशी से उसे अपनी बांहों में भर कर चूम लेती है.
‘कभी दुनिया को रखा था थेंगे पर, अब रख कर दिखाओ.’ आन्या चेलेंज करती हंसती है. अक्सर बेकरार होकर 
दोनों परिवारों से छुप छिपा कर मिल लेती हैं. जीवन फिर लय में आने लगा है.
 
‘रखेंगे, रुको जरा,देखती नहीं हो पहले हम कितने आजाद थे, अब तो वृक्ष की तरह कितने बेबस लोगों का बसेरा बन गए हैं. अपनी जगह से खिसकने की गुंजाइश ही कहां है?’
मीता की बांहों में अपनी आरामदायक मुद्रा में सोई वह- स्वप्न में मीता के गुप्प अंधेरे हवा महल में खड़ी है. एक बहुत बड़ा सा खाली कमरा है जिसकी सारी खुली खिड़कियां तेज आंधी पानी में खड़खड़ा रहीं भयानक शोर कर रही हैं. तेज कड़कड़ाती बिजली के प्रकाश में बार बार कमरे के बीचों-बीच फर्श पर मीता की लहुलुहान लाश दिख रही है…..
पुलिस बेटू को पकड़ कर ले जा रही है!
राकेश को भी…
मां से पूछताछ हो रही है…
मीता का भाई….,बहन………, भतीजे, भतीजियां, मां, भाभी सब लाईन में खड़े हैं.
बेटू के हाथ बंधे हैं, वह वर्दी पहने पुलिस अफसर के सामने रोता गिड़गिड़ाता कुछ कह रहा है. चीख कर उठ बैठती है आन्या.
‘कुछ बुरा सपना देखा न?’ मीता पानी का गिलास देती पूछती है. 
‘सुना दो. कहते हैं रात के अंतिम प्रहर देखे सपने का प्रभाव कह देने से कम हो जाता है.’
कितने खाई, खंदक, झाड़ झखांड उग आए हैं हमारे दरमियां, सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी.’ पर कोई रास्ता जरूर निकाल लेगी प्यारी मीता वह फिर भी आश्वस्त  है.
बेटू देहरादून के एक बोर्डिंग स्कूल में है. 
अवसर निकाल दोनों साथ मिलने चली आती हैं. 
राकेश की जरुरतें बिना हूल हुज्जत के पूरी हो रही हैं. रात में वह अपने कमरे और दिन में ज्यादातर कोर्ट कचहरी और बाहर के कामों में व्यस्त खुश रहने लगा है. मां को उसके आसार अच्छे नहीं लगते पर वह ध्यान ही नहीं देती. मां कहां जानती है- उसकी अस्वीकृति ही राकेश के इतर संबंधों का आधार है.
देहरादून में एक प्लाट फायनल कर लिया है मीता ने. कहती है-
‘सिर्फ दो कमरे बनवाएंगे, ढेर सारी खाली जगह में सब्जियां उगाएंगे, रिटायर हो लो जज साहिबा! सब कुछ छोड़ छाड़ कर बुढ़ापा साथ में काटते, अपने जैसी पीड़ा झेल रहे लोगों के लिए समाज में जागरूकता लाने का काम करेंगे.’ अंतिम वाक्य में जज साहिबा शब्द को खींच कर कहती मीता की दर्द मिश्रित हंसी देर तक आन्या के कानों में गूंजती है.
‘हां हम जरूर करेंगे, अब यह कार्य अपराध नहीं.’

2 टिप्पणी

    • कैसे समझेगी दुनिया जो अप्राकृतिक है वह भी प्राकृतिक है। अच्छी कहानी। लेखिका ललिता को ढेर सारी शुभकामनाएं।

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