चारों तरफ से बड़े बड़े कुत्तों से घिरे, हम अपने ही खेत पर बैठे थे. अंदर से बेहद डरे हुए पर ऊपर से सामान्य दिखने की कोशिश करते . उनका कोई सा शिकारी कुत्ता हमारी तरफ मुंह कर दो फीट भी चलता कि हमारे प्राण मुंह में आ जाते, हमारे सामने ही थोड़ी देर पहले एक कुत्ते ने न जाने कैसे सूंघकर खेत के बिल से एक बहुत मोटे चूहे को खोद निकाल ,चीरफाड़ कर अपने उदर में ले लिया था. पहले ही जी खराब था, ऊपर से बराबर में ईंटों के अस्थाई चूल्हे पर ऊंटनी के दूध की चाय उफान पर उफान ले रही थी, उसमें पड़ी चाय पत्ती और चीनी थोड़ी देर पहले हमारे ही घर से हमारी मइया ने इन लोगों को दी थी.  हमें पहले ही बता दिया था कि यह स्पेशल चाय हमारे लिए ही बन रही है, इसलिए गुस्सा मइया पर आ रहा था, न वह चाय पत्ती ,चीनी देती न जान पर बनी आ रही यह स्पेशल चाय  बनती.
खैर! चाय बन कर स्टील के गिलास में पिताजी के हाथ में थी और कटोरे में मुझसे थोड़े छोटे भाई के सामने- ‘मैं तो घर में भी चाय न पीता.’ भाई साफ झूठ बोल गया था, और चलकर वही चाय की कटोरी मेरे सामने थी, जिसे अस्वीकार करने का कोई रास्ता भाई ने मेरे लिए नहीं छोड़ा था. 
जबकि घर में प्योर दूध की चाय मैं नहीं पीती थी. प्योर दूध को हमारी एक ताई पेवर दूध ही कहती थी और यह शब्द मजाक मजाक में हम सबकी जबान पर भी चढ़ा हुआ था. भाई जिसे मइया दूध पिलाना ज्यादा ठीक समझती थी, दूध का गिलास गटक लेने के बाद भी  पेवर दूध की चाय पिए बिना नहीं मानता था. शायद उफाना ले रही ऊंटनी के दूध की चाय से मैं अपने को कैसे बचा लूंगी, उसने पहले ही सोच लिया था और मौका लगते ही मेरा आइडिया उड़ा लिया था, अब अगर मैं सच भी बोलूं तो झूठ और उसकी नकल ही होता. सो खून का घूंट पीकर, भाई को क्रोध से देखकर चाय ठंडी होने पर दवाई की तरह मैंने गटक ली थी. और गला मुट्ठी भींचकर गले तक आती उबकाई को आने से रोक लिया था. मुझे डर था यदि हमने चाय ठीक से नहीं पी तो वे सब नाराज हो जाएंगे और अपने कुत्ते हमारे ऊपर छोड़ देंगे जो   हमें फाड़ खाने को पहले ही तैयार थे.  
चाय पिताजी भी पी चुके थे, शायद कुछ नया ट्राई करने की खुशी में. तारीफ भी की उन्होंने.  वह मुर्गा बकरा के साथ    तीतर, बटेर न जाने किस किस का शिकार कर पका खा जाते थे. सेना में उनकी सिपाही की नौकरी थी, जिसमें शौकिया भर्ती होकर वह थोड़े दिन बाद ही भाग निकले थे, पर कुछ अतिरिक्त साहस और जीने का अनूठा ढंग ले आए थे. 
हम तीनों घर के लिए चल पड़े थे. भाई भीगी बिल्ली बना चल रहा था और मैं विजेता की तरह जो विष घूंट की तरह चाय घूंट कर खुद को शिव समझ रही थी. शाम गहरा रही थी और हलकी बूंदाबांदी शुरू हो गई थी ‘ शिवशंकर चले कैलाश कि बुंदियां पड़ने लगीं’ सावन के सोमवार को शिव पूजन को जाते हुए गाए जाने वाला गीत, मेरे जेहन में गूंज रहा था. यह तो बस एक छोटी सी शुरुआत थी.
जब भी अपने किए धरे पर ग्लानि होती है, स्वप्न में बार बार लौटकर आता है –
बरसात का यह मनहूस दिन.
राजस्थान से आया था भेड़ बकरियां का पूरा झुंड, जिसमें कुछ ऊंट और कई सारे ऊंचे-ऊंचे कद वाले खुंखार कुत्ते भी थे, सिर पर मुड़ासा बांधे लंबे लंबे कद के जवान- बूढ़े, आदमी और बेहद गोरी और उसी मात्रा में काली जवान- बूढ़ी औरतें और बच्चे भी.
कितना शोर मचा था खेतों पर और खास हो उठा था हमारा परिवार, क्योंकि दो तीन वर्ष के बाद  आने वाले भेड़ बकरियों के इस जत्थे के मुखिया ने फौजी, मतलब हमारे खेत में पड़ाव करना तय किया था.
हमारे पिताजी उनके  आदमियों के साथ घर आए थे और आटा, तेल, आलू और कंडे बगैरा भर भर कर दिया था, भेड़ बकरियों के झुंड वालों को.
छोटा भाई और मैं  खुशी से उनके साथ जाते पिताजी के पीछे हो लिए थे और पास से तमाशा देखने के अपने खतरे हैं, यह सबक लेकर लौटे थे.
मिट्टी के तेल की लालटेन और टार्च की रोशनी में देर रात तक जानवरों और उनको हांके जाने की आवाजें आती रही थीं . सुबह तक पानी बरसता रहा था. हमारी आंख खुली तो डेरे वाले जा चुके थे. 
रात हम अपनी मर्जी से चहकते खेत पर गए थे, सुबह पिताजी ने चलने का आदेश दिया था, साथ में चाचा ताऊओं और गांव के छोटे बड़े बच्चे भी थे. हम समझ गए थे, आज फिर पिताजी को अपनी बानर सेना की जरूरत है- जब गांव का हमारा पक्का और सबसे बड़ा मकान बना था, जरा सी देर में ईंटों का चट्ठा लगाने के लिए पिताजी ‘बानर सेना’ को काम पर लगा देते थे, काम खत्म होने पर खूब बड़े गुड़ के ढेले, कभी मुरमुरे के लड्डू सबको दिए जाते थे.
खेत पर बड़ा वीभत्स सा नजारा था, डेरे वाले चले गए थे और उनके अवशेष सर्वत्र बिखरे पड़े थे, जिन्हें बारिश ने और भी भयानक बना दिया था.
पिताजी ने पहले हम बच्चों को हमारे खेतों की मेड़ कौन सी हैं समझाई और फिर आज का टास्क-‘ बच्चों ये हमारे खेतों से बाहर पड़ा खाद उठा कर वापस अपने खेतो में डालना है और आज के काम के लिए सबको चार चार बूंदी के लड्डू मिलेंगे. जो बच्चा ज्यादा मेहनत से काम करेगा उसे एक लड्डू फालतू मिलेगा.’
कार्य का शुभारंभ हम भाई बहन को करना है, पिताजी का एक कठोर संकेत मिलते ही त्वरित बुद्धि भाई ने एक बाल्टी उठाई और मेरे सामने रख कर कहा- ‘डालो मैं फेंक आऊंगा.’
मैंने इधर उधर नज़र फिराई न खुरपी, न फावड़ा, ये काम हाथ से करना है, जो पिताजी का खाद था, हम भाई बहन के लिए कुछ और था. घर में भैंस, बैल होने के बावजूद नौकर के कारण हम पढ़ने वाले बच्चों को कभी उनकी गोबर, सानी से साबका नहीं पड़ा था. किसी कार्य के उदाहरण के लिए हमें दूसरों के सामने पेश करने के अवसर पर पिताजी की आंखें हमारे लिए जल्लाद की आंखों में बदल जाती थीं, फंदा सामने था और खुद ही उसको गले में डालकर,  लटकना था. भाई ने एक बार फिर मेरे लिए कोई और रास्ता नहीं छोड़ा था. अन्य कोई रास्ता न देख मैंने एक सूखे से ढेर को चुन बाल्टी में डाल, एक बाकी बचा तसला उठा लिया था. 
कारसेवा शुरू हो गई थी. भाई की तर्ज पर बाल्टी तसले, लकड़ी के पले बानर सेना के लड़के उठा चुके थे और लड़कियां मजे से हाथ से खाद उठा कर उनमें डाल रहीं थीं. फौजी चाचा को प्रसन्न करने के लिए थोड़ी बड़ी उम्र की परिवार की लड़कियां अपने मुंह नाक पहनी धोती से ढ़क कर गीले वाले उन ढेरों को भी उठा दे रहीं थीं . जिन्हें देखकर ही हमें उबकाई आ रही थी.  लड़के दौड़ दौड़ कर खाद से भरे तसले, बाल्टी, पले उठाकर हमारे खेत में डाल कर आ रहे थे. ये सब सामान शायद नौकर सुबह ही जुटाकर खेत पर ले आया था. हालांकि मैं लड़कों वाला काम ही कर रही थी. किन्तु सूखा समझकर उठाए गए एकमात्र नीचे से चिपचिपे गीले ढेर का वजूद मेरी हथेलियों पर चिपका, मुझे बैचेन करता, अजीब सी सिहरन से भर रहा था. 
आज मैं शिव नहीं थी, सिर पर मैला ढोने वाले गांधी जी की प्रेरक कहानी से भी खुद को नहीं जोड़ पा रही थी.
एक हारी हुई लड़की थी, जिसे वह काम करने को मजबूर होना पड़ा था, जिसे करने की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी. 
शहर में रहने वाले मामा के घर के खुड्डी वाले पाखाने का दृश्य बार-बार आंखों में रह-रह कर तैर रहा था, बहुत तेजी में पाखाने मैं जाकर उसका बैठना और तभी पीछे से मल उठाने को जमादारिन के खोमचे वाले हाथ का आना. कैसी स्थिति में डाल देता था, बयान करने के लिए शब्द खोजे नहीं मिलता.
 बचपन से ही सारे दुर्योग सिर्फ उसके साथ घटित होते रहे हैं. जमादारिन के हाथ में खोमचा तो होता था और वह अपना मुंह भी कसकर धोती से बांधे रखती थी. पर यहां तो आपद्धर्म की तरह हाथ में आ चिपका खाद के कलेवर में जानवरों का विसर्जित पदार्थ था. किसान का गोबरधन था, उसके लिए मुंह ढाकना धन का अपमान, और इस अपमान को वह कर भी गुजरती, पर मुंह ढांपने के लिए फ्राक में फालतू कपड़ा होता ही कहां है. ऊपर से चाचा के लड़के मोन्टू का खाद के प्रकार का विकट वर्णन दिमाग को भन्नाए दे रहा था- ये छोटे छोटे कंचे बकरी के, ये भेड़, ये बड़ा ढ़ेर ऊंट का’
‘और कुत्ते का?’ मेरा भाई पूछ बैठा था.
‘कुत्ते की मोय न सल, शहर वालों की तरह मैदान में ले गए होंगे. यही पे वे भी मरते तो भईया खड़े न है पाते, फिर खाय लेते बूंदी के लडूआ!’ वह हों हों कर हंस दिया.
‘कुत्ते किधर गए होंगे? जा मैदान में जाकर खोज ले आ उनकी भी खाद.’ चिढ़ी हुई मैंने दिखाने भर को काम कर रहे भाई से कहा था. हालांकि हरामखोरी मैं भी भरपूर कर रही थी. पिताजी की आंखों से बच बचाकर.
‘अब से मुझे भी वह सब ही करना है- जो भाई करेगा और वह सब नहीं करना है- जो भाई नहीं करेगा.’ ये विचार मैंने अपने मन में अच्छे से बिठाया. इस विचार की परीक्षा की घड़ी बहुत जल्दी आ पहुंची थी. फौजी की स्कूल जाने वाली लड़की गोबर नहीं छूती, यह बात सबको पता चल गई थी. 
‘बताओ बहना- बेपढ़ी लीपती, पीसती हैं, सो पढ़ी लीपती, पीसती हैं. मोड़ी का ऐसा नखरा कित्ते दिनन का?’
ताऊ के लड़के के टीके वाले आ रहे हैं, हमारे घर के सामने के बड़े चबूतरे पर पंगत बैठेगी सो गोबर, पीली मिट्टी से लिपाई चल रही है. चचा ताऊओं की बेटी बहुएं जल्दी जल्दी लीपने मैं जुटी हैं. घर में अंदर छिपी बैठी मैं चबूतरे की एक साइड में कुर्सियों पर बैठे पिताजी और चाचा की चाय पकड़ाने भर को बाहर आई थी कि वापस  जाते ताई की छोटी लड़की ने रोक लिया- ‘लली नेक लीपना पकराय दियो.’ जानबूझकर बड़े लगाव किन्तु जोर से कहा था उसने.’
मैंने पास ही अपनी साइकिल की चैन ठीक कर रहे भाई की तरफ देखा था- ‘इस काम के लिए उसे कहा जा सकता है?’
‘नहीं.’ खुद ही अपने प्रश्न का जबाव देकर, बहन को अनसुना कर, मैं चल पड़ी थी कि चाचाजी बिफर गए थे-
‘गोबर क्यों छुएंगी, कलम चलाएंगी, कलक्टरी करेंगी.’ सामने मां की गुस्से वाली आंखें थीं पर मैं पार कर गई,
चप्पल कुटम्मस के खतरे के बावजूद.
टीके की गहमागहमी में बात निभ गई और मैंने ”हिम्मते मर्दानी, मददे खुदानी.’  उक्ति का लिंग परिवर्तित कर, उसे अपने हक में कर लिया था.
हम गांव से तीन किलोमीटर दूर कस्बे के बाल विद्या मंदिर में पढ़ने जाते थे, कभी साइकिल भाई चलाता मैं पीछे बैठती और कभी मैं चलाती भाई पीछे बैठता. मां भाई को खूब सारी चीनी और दूध में मीड़ कर फुलाकर रखी रोटी  टिफिन में देती और मेरे लिए अचार पराठा. हम दोनों एक साल छोटे बड़े थे, पर थे एक ही कक्षा में. कक्षा में टीचर के डर से भाई की सिट्टी पिट्टी गुम रहती और उसके पीछे बैठने वाली मैं अपना पूरा ध्यान उसकी पसंद के टिफिन पर लगा, अक्सर कभी उसे पूरा तो कभी आधा चट कर देती. जबकि दूध रोटी मेरी पसंद नहीं थी और घर में मैं कभी यह नहीं खाती थी.  हमारे उस स्कूल में टिफिन का खाना चोरी होना आम बात थी. तमाम बच्चों के पास अपने  टिफिन नहीं हुआ करते थे और जिनके पास होते थे वह- अपने टिफिन वाले दोस्त या इंटरबल में आ मिलने वाले भाई बहन के साथ, क्लास रूम के सामने के गलियारे में दीवार की तरफ मुंह करके बैठकर, दूसरों से छिपा कर अपना खाना खाते थे. भाई को मेरे दिए गए पराठे पर संतोष करना पड़ता. जो मुझे बहुत ख़ुश कर देता था.
दाव झेलना और दाव देना, मैं  दोनों सीख रही थी. एक चुप सौ झूठ को हराने की कूबत रखती है, ऐसा मइया से कई बार सुना था, पर एक चुप सो ‘न’ पर भी भारी होती है, ये मेरी अपनी खोज थी. कोई काम नहीं करना हो बस चुप रहो और करना हो तब ही ‘हां’ बोलो. ‘न’ की नकारात्मकता से उत्पन्न समस्याओं को जीवन से निकाल फेंकने का मंत्र है यह.
खैर! जीवन मंत्रों से नहीं चलता, सीधी रेखा में चलता, अचानक गुलाटी मार जाता है. नवमी में आते आते मैं भाई से हारने लगी थी. नवमी का हमारा गणित का ट्यूशन मास्टर बुद्धि के कुछ प्रकार बताया करता था. मेरी बुद्धि उसके हिसाब से काष्ठ बुद्धि थी. ऐसी बुद्धि में कोई चीज आसानी से नहीं घुसाई जा सकती पर एक बार घुस जाए तो पक्की ही घुस जाती  थी. भाई की बुद्धि उसके हिसाब से गोबर बुद्धि थी- जिसमें जितनी आसानी से कोई चीज घुस जाती थी, उसी आसानी से निकल जाती थी. मास्टर मेरी काष्ठ बुद्धि में अपना गणित नहीं घुसा पाया था. मेरा ध्यान मास्टर के किताबी गणित से ज्यादा उसके जीवन के गणित पर रहता, जवान उम्र के उसके दो पागल लड़के घुटनों के बल चलते, घिसटते हमारे इर्द गिर्द मंडराते, अजीब आवाजें निकालते, विचित्र हरकतें कर, हमें भयभीत करते. उनकी शक्लें अचानक डेरे वाले कुत्तों से मेल खाने लगतीं. मास्टर की बेटी के ढाई साल के बच्चे को बीस तक पहाड़े कंठस्थ थे. हमें शर्मिंदा करने को वह कभी भी उसके ज्ञान का वमन हम पर करा देते. अपने पागल लड़कों के बचपन में दिमागदार होने की बाते भी वह कभी कभी बता देते. मुझे पक्का यकीन हो गया था- क्षमता से ज्यादा गणित दिमाग में घुसा कर ही मास्टर ने अपने दो लड़के पागल कर लिए हैं. और फिर किताब के गणित पर मेरे दिमाग ने चुप्पी साध ली थी. पर भाई अपनी गोबर बुद्धि के दम पर विज्ञान का विद्यार्थी बना रहा और मुझे प्रशंसनीय काष्ठ बुद्धि लेकर भी मजबूरन या ये कह लो परिस्थितिवश तीन महीने बाद कला विषय के साथ गृह विज्ञान की शरण में जाना पड़ा.
जैसे विज्ञान पढ़ने वाला हर विद्यार्थी वैज्ञानिक रुझान नहीं रखता ठीक ऐसे ही गृहविज्ञान पढ़ कर भी मैं घरेलू लड़कियों या ये कहूं अपनी बड़ी तहेरी, चचेरी बहनों सरीखी नहीं हो सकी थी, जिनमें दो का विवाह हो चुका था और एक प्राइवेट दसवीं पास कर विवाह की प्रतीक्षा में हमारे घर के काम-काज को मां से ज्यादा सम्हाले रहती थी. लालच यह कि इसके ऐवज में फौजी चाचा उसके लिए अच्छा घर वर दिखवा देंगे.
स्कूल और ट्यूशन के बाद हम दोनों भाई बहन डंग डहेरे पर रहते. पशु चराने जाने वाले ग्वाल वालों के होने वाले तमाम क्रीड़ा- कौतुक के हिस्सेदार बनते, भरी दुपहरी में भूत प्रेत बाधाओं का उपचार करते, आवारागर्दी की हदें पार करने लगे थे.
हम विज्ञान और कला विषय के साथ दसवीं पास हो गए थे कि पिताजी ने तय किया भाई को आगे की पढ़ाई के लिए मामा के पास शहर भेजा जाएगा.
‘और मुझे?’ अपने नाम का चर्चा न सुन मैं ने तमककर पूछा था.
दोनों ऐसे चुप थे जैसे मैंने प्रश्न न पूछकर संतोष जनक उत्तर दिया हो.
शहर में पली बढ़ी हमारी मइया का विवाह पिताजी से उनकी फौज की नौकरी के कारण हुआ था. पिताजी के नौकरी छोड़ देने के बाद आठवीं पास मइया गांव में ऐसे रच बस गई थी कि उन्हें देखकर कोई उनके शहरी होने का अंदाजा नहीं लगा सकता था. परिवार के बच्चों की तरह हम भी मां को मइया कहते पर हम भाई-बहन के ऊपर मां के शहरी संस्कारों की छाप साफ दिखाई देती. गांव में रहते हुए भी हम गांव के बच्चों से अलग दिखते, बोलते थे, गांव के होने का अहसास हमें सिर्फ शहर वाले मामा के घर जाने पर होता था, जहां मां कभी कभी हमें लेकर जाती थी.
भाई के शहर जाने के फैंसले से नाराज मुझे अकेले बिठा कर समझाया था मइया ने – ‘मामा के दो जवान लड़के हैं, भाई को उनका साथ मिल जाएगा.गांव में रहकर बिगड़ रहा है.’ मेरा महीना आना  इसी महीने शुरू हुआ था सो मैं घबराई हुई थी, मइया ने पूछा ऐसे में कैसे मैं मामी के घर में रह पाऊंगी. सामान्य विज्ञान में रिप्रोडक्टरी सिस्टम पढ़ने के बाद भी रहस्य लोक बने शरीर की गुत्थी को थोड़ा और उलझाते मां ने बताया था-‘महीने से होने वाली कुंवारी लड़की को जवान लड़के छूकर खराब कर देते हैं, ऐसे में बच्चा पेट में आ जाता है.’
भाई शहर पढ़ने चला गया था और मैं प्राइवेट इंटर करने के लिए गांव में रह गई थी. उससे तीन सीढ़ी नीचे.  उसकी पहली सीढ़ी विज्ञान विषय था जिस पर मैं उसके साथ चढ़ी होती तो ग्यारहवी विज्ञान में रेगूलर पढ़ने की बाध्यता के कारण शहर जा सकती थी, मेरी दूसरी निचली सीढ़ी मेरा महीना आना था, अगर वह उसी महीने न आता तो मां मामा के घर जाने से न रोकती और तीसरी निचली सीढ़ी का संकट पेट में आ सकने वाले बच्चे से जुड़ा था, भाई के साथ यह संकट भी नहीं था.
हम जब भी जीवन में जिस भी समय अपने या अपनों को बुरी बलाओं से बचाने के लिए पुख्ता इंतजाम कर रहे होते हैं, उसी समय हमारे इर्द गिर्द मंडराती बुरी हवाएं अपना रुख हमारी तरफ कर, हमारे खिलाफ काम करना शुरु कर देती हैं.
भाई के शहर जाते ही मेरे जीवन की दिशा खो गई थी, वह मेरा साथी और प्रतिद्वन्द्वी दोनों था. मैं उसके पीछे, बिना स्कूल के अकेली रह गई थी. मेरी पूरी दुनिया ही उजड़ गई थी और सामने जो एक दूसरी दुनिया खुलने लगी थी, उसका रहस्य रोमांच और गूढ़ ज्ञान संभाले नहीं संभलता था. बिना स्कूल संगी साथी के  किताबों में कोई कितना मगज मार सकता है.
मन बहलाने का साधन अब फौजिन चाची मतलब मइया की मिलने आने वाली औरतें थी. मैं जानती थी मइया की बातें सुनने की मुझे ही नहीं परिवार की किसी भी कुंवारी लड़की को स्पष्ट मनाही है. ऐसा अंदेशा होने पर तुरंत डांट डपट कर वहां से हटा, भगा दिया जाता था. जाओ अपना काम करो. मइया की पंचायत से मैंने जाना गांव की खराब लड़कियों को लड़के शहर से लाकर बोडी और चड्डी, क्रीम- पाउडर देते हैं, यह सब पहनने वाली लड़कियां खराब चरित्र की होती हैं. भले ही मेरे लिए मइया यह सब खुद ही ले आती थी.
मइया के पास अपने मन की बातें कहने  आने वाली ‘मन होशिया करम गढ़िया’ तकिया कलाम वाली सुंदर सी, गरीब और अति सीधे पति वाली भाभी के दुखड़े- टुकड़ा टुकड़ा मेरे पास एकत्र होकर, औरत की नियति की कथा कहने लगते. करीब हर वर्ष ही एक बच्चा जनम देने वाली रामनाथ चाची, जो आते ही मइया के हाथ का काम अपने हाथ में लेकर, दुनिया जहान के कष्टों की पोटली खोल देती और मायके जाने के लिए किराया भाड़ा, पहनने के लिए अच्छी धोती और कान के कुंडल, पैर की पायल मांग ले जाती.
बराबर के घर के लड़के की बारात गई है. औरतों का खोइया चल रहा है. ब्याह में शामिल होने ससुराल से आई बालो जीजी का अश्लील और बेहद फूहड़ नाच- गाना चल रहा है- ‘पर पर के मारी मेरी अबला , थाड़े से मारी मेरी अबला, बैठे से मारी मेरी अबला,’ बोल के साथ लेट कर, बैठ कर, खड़े होकर- मारने के एक्शन. कैसा अजीब नृत्य था, सुबह गाने के बोल गुनगुना उठी थी मैं कि मइया ने टोक दिया था-‘तुम न गाओ, गंदा गाना है.’
मैं अपने दोमंजिले मकान के घर की छत के चारों तरफ की मुंडेरों पर खड़े होकर गांव की लड़कियों के लिए साजो श्रृंगार की वस्तुएं लाने वाले- बांके, संजीले नौजवानों की टोह लेने की कोशिश करती, पर वह सब अदृश्य बने रहते और थक कर किताबों में मन लगाने की कोशिश करती.
भइया  तीज त्योहारों और छुट्टियों में दो चार दिन के लिए आकर, अपना खर्चा पानी लेकर चला जाता. गांव में उसका मन नहीं लगता. वह शहर के रंग ढंग में पूरी तरह ढल गया था और अब  मैं उसके आसपास  की भी चीज नहीं रह गई थी.
अचानक हमारे घर का सालों पुराना नेपाली नौकर जिसे पिताजी फौज की नौकरी पर थे, तब लाए थे- नाराज होकर चला गया.  पिताजी इस बार प्रधानी का चुनाव लड़ने का मन बनाए थे. 
गांव बदल रहा था, बानर सेना सयानी हो गई थी. लड़कियों को ससुराल और लड़कों को सूरत हीरा तरासने भेजने का रिवाज चल पड़ा. नौकर के चले जाने पर खेत बटाई पर उठ गए, बैल बिक गए, रह गई दुधारू दो भैंस और पड़ियां, जिसकी शानी पानी की जिम्मेदारी मां पर बढ़ गई.
घर के लिए जरूरी दूध रख कर बचा दूध कस्बे से सुबह शाम मोटर साइकिल पर गांव में टंकी लेकर आने वाले दूधवाले को दिया जाने लगा. रोज दिए जाने वाले दूध का हिसाब कापी में लिखने की जिम्मेदारी मेरी हो गई थी.
दूध लेने कभी एक आदमी आता तो कभी उसका लड़का जो शायद पढ़ रहा था. मेरा ध्यान गया लड़का अक्सर न जाने किस फिल्म के गीत का बस एक टुकड़ा गुनगुनाता था- ‘मेरी किस्मत में तू नहीं शायद.’ महीना के अंत में  दूध का हिसाब मिलाते उससे थोड़ी बहुत बात होती.
‘न उसे प्रेम के लिए चुना था, न विवाह के लिए, एक अजीब सा सम्मोहन था उसकी आंखों में, जो जीवन में हार रही मेरे अंदर की लड़की को कहीं गहरे छूता,  हौसला दे रहा था. अन्यथा उसकी क्या  हिम्मत कि प्रधान पद के प्रत्याशी लायसेंसी रायफल धारी फौजी की बेटी से नाता जोड़े. उसने सिर्फ लगाव दिखा महत्व महसूस कराया था, पीछे आने की धृष्टता नहीं की थी. 
मां की हारी बीमारी की हालत में उसकी जिम्मेदारियां मुझ तक पहुंचने लगीं थीं.
मां बुखार में तप रही थी और भैंसें भूखी खड़ी थी. घर में भूसे का एक तिनका नहीं. दूर खेत पर सड़क किनारे बनी भूसे की बुर्जी से पहली बार भूसा लेने गई थी मैं. कितना डर लगा था, भूसे की पूरी छत मेरे ऊपर आ गिरे और मैं दब जाऊं तो. चादर में भूसा निकाल कर बांध लिया था. पोटली साइकिल पर टिकानी थी पर वह लुड़क लुड़क जाती . मुझे किसी की मदद की सख्त जरूरत थी. गांव का कोई भी आदमी औरत आकर यह काम कर सकता था पर तभी मोटर साइकिल से आ पहुंचा था वह लड़का- जिसकी क़िस्मत में कोई और या फिर मैं नहीं थी पर वह मेरी किस्मत में बहुत अच्छे से लिखा गया था. पोटली उठवाई, रखी गई और मामला स्पर्श तक पहुंचा.और बाद में भूसे की बुर्जी की गुफा में भूसे की छत और भूसे के बिस्तर पर, बालो जीजी के नाच वाले गीत के पूरे कोकशास्त्री आसनों के अभिनय तक भी. 
जैसे लड़कियों के पास कामी लम्पट लड़कों को पहचान लेने की एक अदृश्य शक्ति होती है, ठीक वैसे ही लड़कों के पास भी पुरुष का प्रेम और संसर्ग प्राप्त लड़की को पहचान लेने का अदृश्य गुण होता है.
शहर से भाई के साथ आए मामा के छोटे लड़के ज्ञानू ने शायद अपने इसी अदृश्य गुण से मेरे चरित्र को जांच परख लिया था और जरा मौका मिलते ही कोने में सीधे दबोच लिया था, छटपटाकर छूटकर मां के पास हांफती हुई भाग कर पहुंची थी मैं. मां ने पूछा भी और बचपन में झगड़ने वाले भाई बहन की सामान्य खींचातानी समझ जाने दिया.
बच्चों के कंचे के खेल का एक सूत्र होता था-‘हरी हरावे, लाल जितावे, पीली गंठ दिबावे.’ प्रेम आकर्षण या सम्मोहन जो भी कहूं- उस कौतुक से सूख रहा अड़ियल मन हरा भरा था, फिर हारना तय था, गुस्से से लाल होने तमतमाने के दिन लद गए थे मेरे, सो जीतने का तो सवाल ही नहीं था. दूसरा महीना पूरा हो गया था और मेरा पीरियड गायब था. जोर से आती मतली को भय से रोक लेने का पुराना अभ्यास  था. तय किया पीला नहीं पड़ना है.  पीली पड़ी नहीं कि गंठ मतलब सजा मिलनी तय है. गांव के गंवार बच्चे जीवन का कितना सच्चा ज्ञान लिए घूमते हैं. 
मइया की पक्की गुइया एक चाची को अपनी जवानी को सराहते कहते सुना था – ‘जिजी ऐसी जवानी थी, धरती में लात मारकर बालक पैदा कर देती थी. इतने बालक जने, द्वार पर बैठे आदमियों ने न जाना- कब पीर उठी और कब जाए हीरा लाल. आजकल की बहुएं दो महीने पहले से ही चिल्ला उठती है- मैं मरी मेरी मइया. बेजान बिना दूध घी के बनी कागज की देह में ताकत कहां से आएं? कैसे चुपचाप जनें हीरालाल.’
पक्का किया अब से दूध पीना है, घी खाना है, ताकत जुटानी है, और जमीन में लात मारकर  अन्जाने, अनचाहे नाजुक से इस गर्भ से छुटकारा पा लेना है.
संयोग कुछ ऐसा कि नौकर के जाने से काम की अधिकता से मइया कुछ ज्यादा बीमार रहने लगी थी और आलसी क़िताब की आड़ में दिन खपा लेने वाली मैं अचानक बहुत कमेरी हो गई थी. भरी दोपहर में भूसा, बरसीम और ज्वार काट कर गट्ठर ला कर चबूतरे पर पटक देती, अकेले चबूतरे में गढ़ी कुट्टी की मशीन चलाकर कुट्टी काट देती, गोबर कूड़ा, घर का चौका चूल्हा कोई काम न बचा जिसे न किया, कई कई औरतों के साथ लीपे जाने वाले अपने चबूतरे को पियरा मिट्टी और गोबर डाल अकेले लीप डालती. दूध, घी,  मेहनत से बनती बलिष्ठ देह, चेहरे पर रूप टपकता, देख देख मइया सिहाती मर मर जाती.
पिताजी चुनाव हार गए थे. मैं बी० ए० में प्रायवेट फार्म डाल कर भी पढ़ाई में मन नहीं लगा पा रही थी. अपनी हार से ध्यान बंटाने को पिताजी मेरे ब्याह की जुगत में लग गए थे. ब्याह तय हो गया था. मैं मेहनत कर करके हल्कान हुई जा रही थी पर हीरालाल थे कि टस से मस नहीं हो रहे थे. ब्याह की तिथि और हीरालाल का हिसाब में ऊंगलियों पर जोड़ती पूरे छह माह.
ब्याह तय हो चुका था सलवार सूट छोड़ कर अभ्यास के बहाने से मां की पुरानी धोती पेट छिपाने को सीधे पल्ला डालकर पहनती. साढ़े पांच महीने पर लगुन सगाई हाथ पर रखी गई, उसी दिन मइया और एक भावज  का ध्यान मेरे पेट पर पड़ गया.
पहले प्यार से फिर गुस्से से अकेला पाते ही घुसक मार मारती, पूछती मइया का खाना पीना छुट गया. पिताजी न जाने क्या कर बैठें. रायफल छिपा कर रख दी थी. मुझे समझ आ गया था- चुप रहकर काम नहीं चलने वाला, कुछ तो बताना पड़ेगा- जोर जुलम हुआ कि मन मर्जी से किया था सब. किस्मत वाला लड़का भी चार पांच महीनों से नहीं आया था. उसके बाप से एक दिन यूं ही पूछा था मइया ने- शहर पढ़ने चला गया था. 
उसका नाम नहीं ले सकती हूं मैं, पिताजी जिंदा नहीं छोड़ेंगे. सपनों में घर में रखे रायफल की गोली कभी मेरा तो कभी उसका सीना चाक करती रहती.
दो दिन बाद तेल ताई की रस्में शुरू होनी है. दूध लेकर आई मइया अपना प्रश्न लिए मेरे पास बैठी थी- ‘बता कौन?’
‘ज्ञानू भइया’ बहुत गुस्से से लाल होकर एक भरपूर सुरक्षित दाव खेल दिया था मैंने.
मां का मुंह खुला का खुला रह गया था.
‘कहां?’
मैंने कमरे के उस कोने की तरफ इशारा कर दिया था, जहां ज्ञानू ने मुझे दबोचा था.
कब? मइया ने नहीं पूछा था, शायद उसे कुछ याद हो आया था.
मैं निश्चिंत थी ज्ञानू को रायफल से गोली नहीं मारी जा सकती.
कैसी सुंदर जोड़ी थी मामा और पिताजी की- ‘अर्जुन कृष्ण जीजा सारे घोड़ी पर बिराजे….’ परिवार के विवाह में निकरोसी के अवसर जब यह गीत गाया जाता है तब मइया की आंखों में पिताजी और मामा की छवि आ बसती है, जिसे वह सबको बताती थी. 
भाई पहले ही घर आ चुका था, गांव वाले मामा मामी, मौसियां, बुआएं तमाम रिश्तेदार और घर परिवार की लड़की बच्चों से घर भरा था. मंडप वाले दिन शहर वाले मामा-मामी भी आ गए. ज्ञानू और उसका भाई नहीं आए थे.
किसने किससे क्या और कैसे कहा होगा, मैं नहीं जानती.  सिर्फ हाथ पैरों में हल्दी लगवा मैं अपने कमरे में आ गई थी, पीछे से कटोरा भर हल्दी लेकर आई नाउन अम्मा को भी बरज दिया था.
घूरा पूजन करवाने खूब शाम या कहो अंधेरे में मइया ले गई.
बारात आई. रात के तीन बजे फेरे पड़े. संग विदाई पर अड़े ससुराल वालों को पिता जी ने मना लिया था. कैसे? नहीं जानती.
इस बार- भाई नहीं, शहर वाले मामा के साथ मैं और मइया गए थे. मामा ने सब इंतजाम कर दिया था. ज्ञानू हास्पीटल साथ गया था. किसी कालम में नाम लिखा गया था उसका. छह माह की मरी बेटी कपड़े में लपेट कर ज्ञानू के हाथ में दी थी नर्स ने जिसे घर लाकर अपने ही घर के आंगन में गाढ़ दिया था ज्ञानू ने.
‘पूरे पांच किलो की पथरी निकली थी.’ मइया गांव की औरतों को बताती, पीली पड़ गई लड़की के स्वास्थ्य का जायजा देती.
छह महीने बाद गौना होकर आई थी. पति कमरे में गैस का होण्डा जलाए बैठा था.
उसकी रुचि पत्नी से ज्यादा पथरी में थी.
पेट खुलवा कर टांके देखे.
‘सच सच बता क्या था?’
सच कहती हूं-पुरुष का आधा पुरुषत्व उस दिन घट जाता है, जिस दिन उसे कोई खेली खाई औरत पत्नी रूप में मिल जाती है, और रहा बचा तब- जब वह खेली खाई औरत उसकी कठिन मार को ढिटाई की हद तक जाकर चुपचाप बर्दाश्त कर जाती है.
सास के शब्दों में कहूं तो मैंने- पति की जवानी कील दी थी, और अब वह मेरी ताई एक जन्खा था. बच्चा पुरुष के वीर्य से पैदा होता है और पुरुषत्व कोई और चीज़ होती है,  जिसके दम पर ही कोई पुरुष बेलगाम  घोड़ी जैसे स्त्री के तन- मन को बस में कर सकता है.
सहयोग न करूं तो हरामजादी हरजाई. और सहयोग करूं तो काम की प्यासी कमीनी कुतिया.
अपने काम के दम पर सास- ससुर, जेठ जिठानी सबके मन में जगह बना ली थी मैंने. रह गए थे-सिर्फ तुम!
कुढ़ते घुटते टीवी का रोग लगा बैठे थे.
जी जान से सेवा कर ठीक कर लिया.
पेट कटवा कर हीरालाल पैदा किए थे, सुघड़ डाक्टरनी ने पथरी के आप्रेशन वाले टांकों को हीरालाल के जन्म से जोड़ दिया पर तुमसे इज्जत न मिल सकी, न मायके में पूछ हुई.
पच्चीस साल गुजर गए, मां के शहर वाले प्यारे भइया भाभी छुटे, जीजा साले की शानदार जोड़ी टूटे, भइया का ज्ञानू के घर परिवार से नाता टूटे, पिताजी ने कभी मेरी देहरी पर पैर नहीं रखा और तुम कभी मुझे स्वीकार नहीं कर सके और तुम्हारी त्वचा की खुजली लाइलाज रही. काम में खुद को झौंक चुकी मुझ कमेरी के दम पर भाइयों में बंटवारे की कभी नौबत नहीं आई. 
कभी मुझ बहन को अकेला छोड़ कर अपना भविष्य गढ़ने शहर चले गए भइया ने बारहवीं  कर चुके मेरे बेटा को अपने पास पढ़ने शहर बुला लिया था.
आज डिप्टी एसपी बनकर सामने बैठा है-
‘मां तेरे संघर्ष, तेरी कुर्बानी बचपन से देखी हैं मैंने, तेरे सत्कर्म का फल है जो ये वर्दी मिली है मुझे. ब्याह तो जब होगा, तब होगा ही, तू चल मेरे साथ, कुछ दिन मेरे साथ रह सिर्फ मेरी मां बन कर. बहुत कर ली सबकी सेवा!’
बेटा के ऐसे वचन सुनकर नाक फड़की थी तुम्हारी. पर, कील दी गई जवानी वाला आदमी झूठ तो क्या, सच कहने की सामर्थ्य भी खो देता है.  देह पर टांकों के निशान बोल कर असल कहानी नहीं सुना सकते और मैंने अपना अपराध  कबूल ही कब किया था. 
‘मुझे क्षमा करना मालिक!!’ मैंने दोनों जहां के मालिकों से और कुर्बान हो गई अपनी बिट्टो से एक वाक्य में माफी चाही थी. बेटा की सम्मानित मां होते ही मइया, पिताजी, भाई सबके स्नेह और आदर की पात्र हो उठी थी मैं. गांव वालों ने मनुहार कर पंचायत चुनाव लड़वाया, प्रधान बनी. खूब काम किया और नाम कमाया.
दो साल बाद ही पेरालिसिस का पहला अटैक पड़ा था तुम्हें और बेजुबान कर गया था, मेरे बुरे कर्मों की सजाएं तुमने झेली थीं- अपने तन, मन और शायद आत्मा पर भी.
अगर मेरी जगह तुम होते तब भी क्या एक छोटे से कौतुक क्रीड़ा की कहानी   तीस वर्ष की यात्रा करती तुम्हारे साथ ही खत्म होती?

1 टिप्पणी

  1. कौतुक क्रीड़ा में स्त्री, स्त्री होने का दंड आजीवन भुगतती है बाकी जो है वह तो है ही…

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