Saturday, July 27, 2024
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शील निगम की कविता – स्नेहांजलि

मेरा स्नेह संपूर्ण प्रतिदान है, इसे प्रेम की सीमाओं में न तोलो,
असंख्य स्नेहिल भावनाओं का गठबन्धन है,ज़रा धीरे से खोलो.
प्रेम तुम्हारा चिंगारी बन कर आया हृदय के द्वार,
मेरे स्नेह से मिल, शोला बन कर भड़का बारम्बार.
मेरा स्नेह संपूर्ण प्रतिदान है…
जीवन की संध्या में क्यों? अब तुम बरस रहे बन स्नेह का बादल?
देखो, कैसे भीग रहा, अधूरापन झलकाता मेरे जीवन का आँचल.
मैं बन भिक्षुणी स्नेहांजलि लिए दिन भर भटकती ही रही,
पा सकी न प्रेम-भिक्षा, झोली मेरी खाली ही रही.
गेरुएपन की आड़ में रक्त हृदय का छिपाती ही रही,
कुछ पा जाने की आस में, स्वयं सर्वस्व लुटाती ही रही.
जीवन की संध्या में क्यों? अब तुम बरस रहे बन स्नेह का बादल.
देखो, कैसे भीग रहा,अधूरापन झलकाता मेरे जीवन का आँचल.
साहस नहीं अब,पा सकूँ तुम्हें भर कर अपने नयन.
माँ काल-रात्रि की ओर बढ़ चले, थके-हारे मेरे कदम.
मेरा स्नेह संपूर्ण प्रतिदान है, इसे प्रेम की सीमाओं में न तोलो,
असंख्य स्नेहिल भावनाओं का गठबन्धन है, ज़रा धीरे से खोलो
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