Thursday, May 16, 2024
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मनीष वैद्य की कहानी – जुगलबंदी

रातभर वे सो नहीं सके। बस करवटें बदलते हुए सोचते रहे। ख़यालों के सफ़ेद घोड़े और अतीत के काले घोड़े कुलांचे मारते उनके जेहन में दौड़ते रहे। उन्होंने अपनी खटिया पर पूरी रात आँखों में ही गुजारी। खाँसते रहे और सोचते रहे। खाँस-खाँस कर पसलियाँ दुखने लगी। फेफड़ों में न जाने क्या अटक गया है, जो गले से बाहर नहीं आ पा रहा। जितनी भी कोशिश करें, व्यर्थ लगती है। जैसे अब तो यह खाँसी उनके जनाजे चढ़कर ही जाएगी। उनकी देह में हिलग कर रह गई है। 
सुबह का उजाला होने में देर है। चारों तरफ़ रात का गाढ़ा काला अँधेरा छाया हुआ है। मुर्गे के बांग देने में भी अभी वक़्त है। बेटे-बहुएँ और बच्चे सुबह की मीठी नींद में हैं। लेकिन वे अपनी खाट से उठ बैठे हैं। कुछ देर ऐसे ही बैठे रहे, कुछ सोचते रहे। फिर यकायक सोच को झटका देते हुए वे खाट की ईस पकड़कर खड़े हो गए। दीवार को पकड़कर गुसलखाने की ओर निकल गए।
मटके को उघाड़कर एक लोटा पानी उलीचा और मुँह धोने लगे। आज बड़े दिनों बाद उन्हें लगा कि वे उस तरह मुँह धो रहे हैं जैसे उन दिनों में धोया करते थे। कितने दिन हुए कि उन्होंने कभी इस तरह मुँह नहीं धोया। खूब रगड़-रगड़ कर। इस तरह मुँह धोने के बाद भी कुछ था, जो उनके चेहरे पर मकड़ी के जाले की तरह चिपक गया था। बरसों से जमी धूल और धुंध को इतनी आसानी से हटाना मुश्किल था। लेकिन उन्हें भरोसा था कि इसी तरह रगड़ते रहे तो जल्दी ही उनके चेहरे पर वही नूर लौट आएगा।
उन दिनों जुम्मा मास्टर के चेहरे पर क्या नूर बरसता था। वे क़स्बे की जान हुआ करते थे। सब लोग उन्हें मान देते थे। उनके एक इशारे पर जान छिडकने वाले कद्रदानों की कमी न थी। पूरा क़स्बा उनका था और वे पूरे क़स्बे के।। इतने सहज कि राह चलते बच्चों से भी बतियाने लगते। उनकी जेब में मूँगफली के दाने और रेवड़ियाँ भरी रहती। बच्चे उन्हें राम-राम करते तो वे भी मुस्कुराकर राम-राम कहते हुए जेब से एक मुट्ठी उनकी हथेलियों पर रख देते। बेटियों को झुककर सलाम करते। औरतों से बड़ी अदब से पेश आते। नफ़ासत और नरमी उनकी तासीर में थी।
गमछे से चेहरा पोंछा तो ठंडी हवा का अहसास उन्हें भीतर तक हरा कर गया। एक पल को तरोताजा-सा लगा। ऐसी ताज़गी उन्होंने लंबे अरसे बाद महसूस की थी। एक गिलास पानी गटका फिर दो-चार क़दम आँगन में ही टहलने लगे मानो चहलकदमी का रियाज़ कर रहे हों। चिड़ियाओं की चहचहाहट उनके कानों में गूँजने लगी। गाढ़े अँधेरे से हल्की रोशनी का धुंधलका फूटने लगा। वे वापस अपने कमरे में लौट आए। तहमद उतारी और पायज़ामा पहन लिया। बालों और दाढ़ी पर हाथ फेरा। तस्दीक किया कि झोले में सब सही-सलामत है या नहीं। झोला कंधे पर टांग लिया और लाठी को टेकते हुए कमरे से बाहर निकले। आसपास देखा कि कोई उन्हें देख तो नहीं रहा।
धीरे से आँगन के दरवाज़े की कुण्डी खोली और फुर्ती से दरवाज़ा भिड़ाकर वे गली में आ गए। यह सब उन्होंने रात में ही तय कर लिया था कि अब बहुत हो गया। सब कुछ भूलकर वे फिर लौटेंगे पुराने रास्तों पर। इतना तय करते ही उन्होंने ख़ुद को हल्का महसूस किया मानो सिर से कोई बड़ा बोझ उतर गया हो।
एक दौर था, जब इस क़स्बे को जुम्मा मास्टर के नाम से पहचाना जाता था। पूरे इलाके में उनका बड़ा नाम था। दूर-दूर से लोग आते थे। उन्हें साथ ले जाने को चिरौरी करते। खुशामद करते। लेकिन अपनी मर्जी के मालिक थे जुम्मा। मोहब्बत में आ गए तो समझो कहीं भी चले जाएँ और मन नहीं तो कहीं नहीं। एक बार नहीं कह दिया तो कोई लाख मनाए, रुपयों की थैली सामने रख दे पर मजाल कि जुम्मा अपनी ही बात को काट कर चले जाएँ। ठाठ थे उन दिनों के…! उनके घोड़े को भी ठंड के दिनों में बराबरी से वही देसी घी की जलेबी खिलाते, जो ख़ुद खाते थे। जलेबी खाने के बाद घोड़े की गर्दन पर हाथ घुमाते तो उसकी बड़ी-बड़ी आँखे नेह से पनीली हो जातीं। लोग अचरज करते तो वे कहते कि ऊपर वाले ने इसमें भी मेरी तरह जान बख्शी है तो फिर यह और मैं अलग-अलग कैसे। जो मैं खाता हूँ, वही इसे भी खिलाना मेरा फर्ज़ है। भाईचारे और मोहब्बत को वे खुदा की इबादत से ज़्यादा मानीखेज मानते थे। ‘जिंदगी में कभी चींटी को भी दुःख नहीं दिया’ वैसे तो यह कहावत थी, पर जैसे उनके लिए ही बनी थी।
आज वे कई दिनों बाद इस तरह छोटे-छोटे डग भरते हुए चौक की तरफ़ निकल आए थे। दिनों नहीं, कई सालों बाद। उनके लिए एक-एक क़दम चलना भारी पड़ रहा था। साँसें फूलकर उनका रास्ता रोक लेना चाहती थी लेकिन वे आज किसी कीमत पर थमने को राज़ी नहीं थे।
साठ साल पहले के दिन याद करते हैं तो यादों की रिमझिम फुहारों में भीगने लगते। ठंडी हवाओं का कोई झोंका आसपास बहने लगता। दूर तक हरे-भरे मैदान और कतारों में खड़े खेत नज़र आने लगते। उनके चेहरे का नूर लौटने लगता। सारंगपुर में अपने नाना से पहली बार उन्होंने शहनाई के सुर सुने थे और उनमें खो गए थे। नाना अपने फन के माहिर। बड़ा नाम था उनका। ग्वालियर के सिंधिया राजाओं तक को शहनाई सुना चुके थे। शादी-ब्याह में बड़ी-बड़ी इक्केगाड़ियाँ उन्हें लेने आया करतीं। दो-चार बार वे भी उनके साथ गए थे। लोग उन्हें कितनी इज्जत देते थे। ख़ूब आवभगत होती। बिना शहनाई शादी ही कैसी और फिर शहनाई बजाने वाले नाना जैसे फनकार हो तो बात ही क्या। बाराती ऐसे मंत्रमुग्ध हो जाते कि खाने-पीने की सुध बिसरा देते। कई तो उन्हें सुनने ही बारात में चले आते। नाना को लौटते वक्त कलदार की थैली देते हुए दुल्हन के पिता झुक-झुक जाते। वे थैली लेकर दुल्हन के पास जाते। कलदार की थैली उसके हाथों में थमाते और झुककर सलाम करते हुए लौट आते। दुल्हन भीगी आँखों से उन्हें असीसती-‘…इस शहनाई के सुर हमेशा गूँजते रहें। आपके फन को बरकत मिले।‘ उनकी भी आँखे भर आती।
बचपन से ही धुन लग गई। दिन हो या रात, बस एक ही धुन। शहनाई को जुम्मा ने अपने दिल में बसा लिया। वे शहनाई के हो गए और एक दिन शहनाई भी उनकी हो गई। पन्द्रह साल तक नाना के साथ रियाज़ करते रहे। सुर पर पकड़ बनी लेकिन रियाज़ तो ज़िंदगीभर चलता है। रियाज़ बंद तो समझो शहनाई बजाना बंद। इस खोखली नली के सात छेदों में किस पर कौन-सी ऊँगली कैसे चलाना है। किस छेद से कौन-सा सुर बनेगा। कब खोलना है और कब बंद करना है। कौन-सा राग कैसे बजेगा। कब कहाँ कितनी फूँक मारनी है और कहाँ कितनी हवा खींचनी है, कहाँ साँस को साधना है और कहाँ फेफड़े को ख़ाली कर देना है। यह उनसे बेहतर कौन जानता। शहनाई बजाते हुए उनके फेफड़े धौंकनी की तरह चलते।
उन्हें शहनाई की बारीक़ से बारीक़ बातों का भी इल्म था। कब कौन-सा राग बजाना है। किस प्रहर का कौन-सा राग है। कभी भी सोए हुए राग को नहीं बजाया जाता। यानी बेवक़्त किसी राग को बजाना ठीक नहीं होता। स्वर और राग उनकी जुबान पर होते थे और दूर से बैठकर बता सकते थे कि कौन-सा राग बज रहा है। षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद सातों सुर के उतार-चढाव उनके बजाने में सहजता से आते। कठिन सुरों को भी वे पूरे अधिकार से बजाते।
वे बीड़ी के बड़े शौकीन थे। रात में भी नींद खुलती तो बीड़ी सुलगा लिया करते। घरवाली चिढ़ती-कुढ़ती तो वे मज़ाक करते-‘बेगम, क्यों जलती हो इससे, देखो ख़ुद जलकर कुछ धुआँ हमारे आसपास बिखेर जाती है। तुम्हारे इस घर में आने से पहले का इश्क है इससे, पहला इश्क भला कहाँ छूटता है।‘ वह चिढ़कर करवट बदल लेती और वे हँसते रहते। बेगम कहती कि बीड़ी पीने से फेफड़े ख़राब हो जाएँगे लेकिन न उन्होंने बीड़ी छोड़ी, न शहनाई और न ही बेगम। वे कहते-‘ये तीनों ही मेरी जान है।‘बीड़ी, शहनाई और बेगम के साथ सालों-साल उनकी बढ़िया संगत चलती रही। कौन जानता था कि बाद के दिनों में तीनों ही उनकी दुनिया से इस तरह बहुत दूर चले जाएँगे। बीड़ी की तलब भले ही नहीं रह गई हो। पर हाँ, बेगम और शहनाई याद आती रहती है या कहें कभी यादों से निकलती ही नहीं।
क़स्बा उनकी जान में बसता था। इससे उन्हें दिलो-जान से मोहब्बत थी। इसकी तंग और टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से उन्हें बड़ा लगाव था। कई लोगों ने शहर और अन्य जगहों में बस जाने के प्रस्ताव उनके सामने रखे। तर्क दिया गया कि वहाँ शहनाई के ऐसे-ऐसे कद्रदान हैं कि उनके वारे-न्यारे हो जाएँगे। लेकिन वे हमेशा ही इसे सिरे से नकार दिया करते। कहते कि यहाँ की हवाओं में संगीत घुला है। फिजाँ में शहनाई के सुर गूँजते हैं। नदी का गीत, पंछियों की आवाज़ें, मवेशियों की घंटियों का स्वर, पनिहारिनों की पायल का राग, उनकी खिलखिलाहट का संगीत, लोकगीतों की उमंग। झूमते-से पेड़, मंदिर की घंटियों और अजान के सुर..! क्या नहीं हैं यहाँ। कितना प्यार पसरा है यहाँ। हमारी-तुम्हारी मोहब्बत की ऐसी जुगलबंदी कहाँ मिलेगी ? मैं अपना क़स्बा छोड़कर कहीं जाने वाला नहीं। यहीं तुम सबके कंधे चढ़कर ही कब्र में जाऊँगा। मैं इसी मिट्टी से बना हूँ और इसी धरती में मेरी मिट्टी भी मिलेगी।
क्या हिन्दू और क्या मुसलमान, उनके लिए दोनों में कोई फ़र्क नहीं था। क़स्बे में भी किसी को कोई असर नहीं था। ईद की दावत पर पूरा क़स्बा उनके आँगन में आ जुटता। होली-दीवाली पर भेंट-उपहारों तथा लज़ीज़ खाने की थालियों से उनका घर भर जाया करता।
तब यह क़स्बा नहीं, गाँव ही था। राम नवमी के जुलूस में पहली बार जब जुम्मा ने शहनाई बजाई तो जैसे सुर खिल उठे। ऐसे मीठे सुर कि लोगों के दिल में उतर गए। फिर तो गाँव का ऐसा कोई त्यौहार-जलसा नहीं हुआ कि उसमें उनकी मौसिकी के सुर न गूँजते। नवरात्रि का मेला, दशहरे का जुलूस, दीवाली की रात, संक्रांति का जलसा या होली का जागरण। उनकी शहनाई के बिना सब सूने से लगते। शहनाई ब्याह-शादी, उत्सव, मंगल और त्यौहार का पर्याय बन गई। मंदिर में शहनाई की आवाज़ गूँजती तो लगता जैसे कोई वेदपाठी सस्वर ऋचाएँ गा रहा हो। मंदिर-मस्जिद..  शहनाई सब धर्मों की इबादत की राह बन गई। मान लिया गया कि जहाँ भी शहनाई बजती है, यकीनन ख़ुशियाँ भर जाती हैं। उनके लिए मौसिकी में मजहब कभी रास्ते में रोड़ा नहीं बना। वे अपनी मौसिकी को ही हमेशा इबादत मानते रहे ।   
जुम्मा अब मास्टर हो गए थे, शहनाई के मास्टर। शहनाई अब उनकी ज़िन्दगी बन गई थी। उनकी रग-रग में बसती थी शहनाई। वे कहते कि अब ये मेरे मरने के बाद ही मुझसे अलग होगी। अपने लिए खास बनारस से शहनाई बुलवाते। शीशम की लकड़ी में चाँदी और हाथीदाँत की सुइयाँ, ताड के पत्ते की तूंती, पीतल की चम-चम करती घंटी… शहनाई का ऐसा लुभावना रूप। आसपास सत्तर-सत्तर कोस तक ऐसी शहनाई ढूँढे  नहीं मिलती और उनके मुकाबले का फनकार तो खैर कोई था ही नहीं। उन्होंने गानों, भजनों और आरती के साथ शहनाई पर लोक गीतों को भी साध लिया था। लोकगीत बजाते तो लोगों के पैर थिरकने को मजबूर हो जाते। उनकी धुन में ऐसी क़शिश थी कि लोग खींचे चले आते। ऐसे राग छेड़ते कि श्रोता वाह-वाह कर उठते। नगाड़े, ढोलक या झांझ-मजीरे से संगत होती तो समां बँध जाता। शहनाई के सुर उनके स्पर्श से खिल-खिल उठते और वे दूर पहाड़ियों से टकराते हरे-भरे खेतों, पेड़-पौधों के फूल-पत्तों, पगडंडियों, बावड़ी और नदी के घाट पर बिखर जाया करते। सुर के उन बिखरे हुए टुकड़ों को लोग अपनी एकरफ़्तार, थकी और सूनी ज़िन्दगी में रंगों की तरह भीतर आत्मा में सहेज लेते। 
जहाँ जाते, मान-सम्मान के साथ इतना मिल जाता कि आराम से गुज़र-बसर हो जाती, बल्कि पूरे ठाठ से जीते। कहीं कोई कमी नहीं थी। हालाँकि उन्होंने कभी पैसों के लिए नहीं बजाया। वे कहते कि दुनिया की सब दौलत एक तरफ़ और मेरी शहनाई एक तरफ़। जगह-जगह से उनका बुलावा आता। जहाँ मन होता जाते, नहीं तो साफ़ मना कर देते। लेकिन गाँव में किसी बिटिया की बिदाई हो तो बिन बुलाए भी चले जाते। शहनाई बजाते और दुल्हन को झुककर सलाम कर लौट आते। उनकी शहनाई बिदाई के ऐसे सुर बिखेरती कि सुनने वालों के भीतर करुणा का सोता फूट पड़ता। सीधे कलेजे से पीर बह निकलती। दिल चाक हो जाया करता। औरतों की आँखों से झर-झर आँसू बहते। आदमी भी छूपकर अपने आँसू पोंछते। हर किसी का गला भर आता। इतनी मर्मस्पर्शी शहनाई… खुद वे भी रुआँसे हो उठते। नाना की शागिर्दी में मिली यह परम्परा उन्होंने किसी धरोहर की तरह संभाल रखी थी। कभी किसी बेटी की बिदाई में उन्होंने एक रुपया तक नहीं लिया।
आज वे अपने घर से कुछ तय करके निकले थे और उनका गंतव्य अभी दूर था। देह भर की ताकत को समेटे वे चले जा रहे थे। साँसें उखड़ने लगी थीं। खाँसी का एक जोरदार ठसका उनके फेफड़ों से उठा और उन्हें चौक में पीपल के ओटले पर बैठ जाना पड़ा। कुछ देर लगातार खाँसने के बाद उन्होंने खँखारते हुए गला साफ़ किया और बलगम थूँका। इस जतन में उनकी पेशानी पर पसीना चुहचुहा आया। उन्होंने पसीने की बूँदों को अपने कंधे पर पड़े काली और सफेद चौकड़ी वाले गमछे में समेटा और वे उठने लगे। लेकिन शरीर जवाब दे गया। वे वहीं बैठकर कुछ देर सुस्ताने लगे।
पीपल भी उन्हीं की तरह गाँव का पुरखा… उन्होंने देखा इधर के सालों में चौक में पीपल के नीचे इस ओटले पर सिंदूर पुते कुछ पत्थर रख दिए गए थे। उन्होंने इससे पहले यहाँ कभी कोई पत्थर नहीं देखे थे। हाँ, शाम के वक़्त कुछ बूढ़े ज़रूर यहाँ बैठकर तेज़ी से बदलती हुई दुनिया के बरक्स इस क़स्बे में होने वाले बदलावों को देखते रहते थे। बदलती हुई बाइकें, चाल-ढाल, रहने-सहने के ढंग और बदलते हुए रिश्तों को।
कस्बे में सुबह-सबेरे के कामों की हलचल शुरू हो गई थी। चौक से इक्का-दुक्का लोग गुज़रने लगे थे। कुछ लोगों ने उन्हें देखा तो भौंचक रह गए। उन्होंने गौर किया कि लोग उन्हें अजीब-सी नज़र से देख रहे हैं। इस नज़र में अपनापन नहीं था। अपरिचय भी नहीं था। उनकी नज़रों में विस्मय के भाव थे। मानो उन्होंने किसी जीते-जागते इंसान को नहीं, किसी भूत-प्रेत को देख लिया हो। इतने सालों बाद लोग उन्हें लगभग भूल ही चुके थे या भूलने की कगार पर थे। उनके लिए वे भूत ही हो गए थे। इसी ज़मीन के होते हुए भी वे यहाँ से किसी भूत की तरह बीत चुके थे। यह प्रेतों को कंधे पर ढोते रहने का समय नहीं है।
चौक पर उनकी मौज़ूदगी किसी अजूबे की तरह थी। लोग उन्हें आँखें फाड़-फाड़ कर देख रहे थे। हर कोई अपने भीतर तस्दीक में जुटा था कि यह बूढ़ा जुम्मा ही है या कोई और। दिखता तो वही है और भेष-बाना भी उसी की तरह का। चेहरा और आँखें भी वही की वही। खोपड़ी पर धुनी हुई रुई की तरह सफ़ेद बालों की बारीक-सी परत, मूँछों से मिली हुई लंबी-सी दाढ़ी, लंबी नाक, बड़ी-बड़ी भूरी आँखें, चौड़ा कपाल, लंबा कद, सफ़ेद कुरता-पायजामा और पैरों में चप्पलें… जुम्मे के सिवा ऐसा कौन हो सकता है। यहाँ के लोगों ने उसे बचपन से पल-पल बढ़ते हुए देखा था और बीस-पच्चीस साल के वक्फ़े में क्या किसी को भुलाया जा सकता है। लेकिन जुम्मा तो…? 
कितना असहज होता है अपने ही क़स्बे के लोगों की औचक निगाहों से ख़ुद को देखा जाना। वे भीतर तक सिहर उठे। एक पल को लगा कि लोगों की आँखें उन्हें भीतर तक भेद रही हैं। भेद नहीं दहका रही है। उनके भीतर भी एक आँच कई बरसों से दबी पड़ी थी।
इतने ही असहज वे उस दिन भी हुए थे। भीतर तक टूट गए थे। उनके साथ ठीक वैसा ही हुआ था, मानो जिसे आप हमेशा से कठोर ज़मीन समझते रहें हो और किसी पल अचानक वह किसी बुलबुले की तरह भरभराकर धँस जाए। उसके नीचे इतनी गहरी खाई हो कि अँधेरे के सिवा कुछ भी नज़र न आए। या आप किसी पुल से गुज़र रहे हों और एक झटके में पुल टूट जाने से आप नदी की अतल गहराइयों में डूब जाएँ। उस दिन को वे कैसे भूल सकते हैं, वे क्या क़स्बे में से कोई नहीं भूल सकता। कभी किसी ने नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा भी आएगा। पच्चीस साल पुराना वाकिया आज भी जेहन में आता है तो फ्रेम-दर-फ्रेम उनकी आँखों में तैरने लगता है…
दूर अयोध्या में कोई मस्जिद तोड़ी गई थी और उसने यहाँ सब कुछ तोड़ दिया था। पीढ़ियों का भरोसा, आपसी प्रेम और भाईचारा एक पल में किसी तिनके की तरह उड़ गया था। क़स्बे में वह उधम मची थी कि जुम्मा का दिल जार-जार रोता रहा। न इधर वाले रुकने को तैयार थे और न उधर वाले मानने को। कल तक जिनके साथ गलबहियाँ करते नहीं थकते थे, आज उन्हीं को नेस्तनाबूद करने पर तुले थे। यह सब एक दिन में नहीं हुआ था, इस ज़हर की नागफनी क़स्बे में बीते कई दिनों से बोई जा रही थी। दोनों ही तरफ़ से। वोटों की बंपर फसल के लिए नेताओं ने इसे खाद-पानी दिया। जुम्मा जैसे लोग कभी इन कंटीली झाड़ियों को देख ही नहीं पाए और जब देखा, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। क़स्बे की जुगलबंदी टूट गई थी, वह दो फाड़ हो चुका था। इसी मिट्टी में पली-बढ़ी एक पूरी कौम अनायास पराई कर दी गई थी। जुम्मा जैसे लोग जो न इधर थे न उधर। उनके लिए यहाँ कोई जगह नहीं थी। इबादतगाहों में बजाने पर मुसलमान उन्हें पहले से ही काफिर मान चुके थे। इधर वालों के लिए वे थे तो उसी कौम के। फिर भी उन्होंने अपने तई दोनों को ही समझाने-बुझाने की कोशिशें की लेकिन बहरों की बस्ती में कौन किस की सुनता। बल्कि लोगों में उनके प्रति अब तक की राय पर ठप्पा लग रहा था। इस कालिख भरी जगह में उनका भी दम घुटने लगा। हर दम धुआँ-धुआँ होते रहते।
इसी सदमें में एक काली रात वे अपने घर से चुपचाप निकले और उसके गाढ़े अँधेरे में खो गए। घर वाले यहाँ-वहाँ ढूँढते रहे लेकिन कोई खबर नहीं मिली। उन दिनों का माहौल ही ऐसा था, लोगों ने सोचा और फिर मान लिया कि वे कहीं मार दिए गए। इसके कई सालों बाद एक दिन बेटे को दूसरे शहर के किसी बड़े अस्पताल से फोन आया कि उनके वालिद जुम्मा मास्टर की हालत नाज़ुक है और उन्हें फेफड़ों का कैंसर है। खबर मिलते ही पूरा परिवार अस्पताल पहुँच गया। परिवार की तीमारदारी और डॉक्टरों की मेहनत से वे कुछ ठीक होने लगे। हालत थोड़ी संभली तो डॉक्टरों ने कहा कि उनकी बीमारी इस स्टेज में पहुँच चुकी है कि अब पूरी तरह ठीक तो नहीं हो सकते लेकिन हाँ, इन्हें घर ले जा सकते हो। ख़ासकर इनके फेफड़ों का ध्यान रखें। बीड़ी और शहनाई दोनों से दूर रहें तो ज़िन्दगी के कुछ और महीने बढ़ सकते हैं।
वे लौट तो आए लेकिन अब यहाँ उनका मन नहीं लगता। रह-रहकर भीतर पच्चीस साल पुरानी यादों का कोहराम उमड़ता और वे घुटन-सी महसूस करने लगते। अब क़स्बा भी बहुत बदल गया था। घर वाले उनकी कमज़ोरी के कारण उन्हें कहीं जाने नहीं देते और यहाँ उनसे कोई मिलने नहीं आता। शुरुआत में कुछ लोग आए भी, पर ख़बर पूछकर चलते बने। डॉक्टर की सख्ती पर घर वालों ने बीड़ी और शहनाई दोनों ही छिन लिए। कई महीनों तक अपने एकांत में तन्हा वक़्त  गुज़ारते रहे।
उन्होंने अपनी लाठी को ज़मीन पर मजबूती से टिकाया। गोया ख़ुद अपनी ज़मीन पर खड़े होने का साहस जुटा रहे हों। लाठी पर पूरे शरीर का वजन देकर जैसे-तैसे वे खड़े हो गए। इस बार कुछ राहत लगी। साँसे भी सामान्य हो गई। वे फिर आगे बढ़ने लगे। एक-एक कदम संभालते हुए वे चौक से स्कूल की तरफ़ मुड़ गए। स्कूल के थोड़ा आगे ही क़स्बे का नया-नया बना मैरिज गार्डन था। लक-दक करता हुआ नया-नवेला, सजा-सँवरा हुआ। बाहर पार्किंग में चा रपहिया और दोपहिया वाहनों का जमघट था। शादी की चमक-दमक और नए कपड़ों में इठलाते लोग। गार्डन की दीवारों पर बल्ब ही बल्ब टँगे थे। जुम्मा मास्टर ने सोचा, रात को यहाँ ज़रूर चाँद उतरा होगा। रंग-बिरंगी रोशनी का। अच्छा है, क़स्बा गुलज़ार हो रहा है। हमें नए का आगे बढ़कर स्वागत करना चाहिए। लेकिन नए को भी पुरानों का ख़याल करना चाहिए। खैर,उन्होंने अपने विचारों को झटक दिया और सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे बैठ गए। वे सोचते हैं आर्केस्ट्रा और डीजे के जमाने में कितनी पीछे छूट गई शहनाई, तेज़ आवाज़ संगीत में इसकी भीनी मोहक धुन किसे भाती। कभी यह शान थी। आज हमारे बच्चे इसे छूते तक नहीं। वे कहते हैं कि इसमें पैसा नहीं है। क्या पैसा ही सब कुछ है, विरासत कुछ नहीं। नाना के यहाँ दस पीढ़ियों से शहनाई बजाने का काम होता रहा लेकिन अब कोई नहीं बजाता। ख़ुद जुम्मा के शागिर्द बैंड के साथ जाते हैं और ख़ाली दिनों में मज़दूरी कर बच्चों का पेट पालते हैं।
तभी किसी बुजुर्ग ने गौर किया कि अरे ये तो जुम्मा मास्टर हैं। लोगों ने आव-भगत की। इतना चलकर आने से थकान हो गई थी। उनकी साँसें फूल रही थीं। कोई कुर्सी उठा लाया, कोई पानी का ग्लास तो कोई गरम चाय की प्याली। उनके आसपास धीरे-धीरे भीड़ जमा हो गई थी।
बिदाई का वक़्त हुआ तो उन्होंने अपने झोले से शहनाई निकाली। शहनाई ने कई बरसों के बाद उनके होंठों को छुआ। शहनाई और उनके बीच का प्यार लंबे अंतराल के बाद आज फिर हरा हो गया। उस प्यार का पक्का रंग उन दोनों पर नज़र आने लगा। शहनाई और जुम्मा दोनों जवान हो उठे। शहनाई ने अपना दुःख सुनाया। जुम्मा के अपने रंज थे। लोगों ने सुना तो कानों पर यक़ीन नहीं हुआ। इतनी मार्मिक… हर कोई रो पड़ा। आँसू उमड़ रहे हैं। कौन जाने इसमें कितने पश्चाताप के आँसू हैं। 
सुर थमा तो उन्होंने शहनाई को माथे से लगाया और बड़े ही अदब से पास की कुर्सी पर रख दिया। फिर वे थरथराते हुए कुर्सी से उठे, लोगों ने उन्हें सहारा दिया। मंडप से बिदा हो रही दुल्हन के पास गए। उसे झुककर सलाम किया। दुल्हन उनके गले लगकर रोने लगी। असीसते हुए उसकी आँखों में कृतज्ञता का भाव है। वहाँ मौजूद औरतों की आँखों से सवाल तैर रहे हैं। रोते हुए मानो वे पूछ रही हों-‘कहाँ चले गए थे बाबा, ऐसे भी कोई अपना क़स्बा छोड़कर जाता है…! क्या कोई इस तरह अपनी बेटियों से भी नाराज़ होता है … ? इस बीच कितनी बेटियाँ आपकी शहनाई सुने बिना ही बिदा हो गई…! उनका क्या कसूर था बाबा !’
जुम्मा मन में समझ रहे हैं उनकी आँखों में तैरते सवालों को लेकिन उनके पास कोई जवाब नहीं। उन्होंने सिर झुका लिया। आज ज़िन्दगी में शायद पहली बार। जैसे कह रहे हों-‘हाँ, गलती तो हुई है। मैं कसूरवार हूँ। हम सब कसूरवार हैं।‘ वे फफक पड़े। वे आँखों में उमड़ आई नमी को कुरते की बाँह से छुपाते हैं। वहाँ खड़े लोगों के सिर झुक गए। सबके चेहरों पर पश्चाताप के भाव हैं। ज़्यादातर की आँखों में पानी है।
लोगों ने उन्हें सहारा देकर कुर्सी पर बैठाया। दुल्हन बिदा हो चुकी है। उन्हें बड़े दिनों बाद शहनाई मिली है। आज मौका मिला है तो वे रुकना नहीं चाहते। शहनाई के सुर फ़जाओं में गूँज रहे हैं। थोड़ी देर पहले जो शख्स ठीक से चल भी नहीं पा रहा था, उसकी बूढ़ी ऊँगलियाँ बीन पर कमाल कर रही हैं। वे कितनी चपलता से ऊपर-नीचे दौड़ रही हैं । वे बजा रहे हैं जैसे कोई सत्तर साल का बूढ़ा नहीं, पच्चीस साल का जवान बजा रहा हो। इन सालों में रियाज़ तो दूर उन्होंने शहनाई को छुआ तक नहीं था लेकिन आज तो वे खो गए हैं। अपना दिल चिर कर बजा रहे हैं। आवाज़ कहीं भीतर से आ रही है। शायद उनकी आत्मा से। उस आवाज़ में कोई रूहानी खुशबू है जो क़स्बे से दूर पहाड़ियों तक फ़ैल रही है। उस सुगंध को पूरा क़स्बा अपनी साँसों में महसूस कर रहा है। वहाँ का ज़र्रा-ज़र्रा, पेड़-पौधे, नदी की धार, बावड़ी का पनघट, बूढ़ा पीपल, शहनाई के तारों की तरह क़स्बे को जोड़ती पगडंडियाँ… जैसे सारा क़स्बा ही गमक उठा है।        
उनकी साँस फूल रही है। बार-बार उखड़ जाती है लेकिन साँसों पर किसका ध्यान। ताज़ी हवा के लिए फेफड़े कसमसा रहे हैं। वे हाँफ रहे हैं, दम घुटा जा रहा है और वे अपनी पूरी ताक़त समेट कर बजा रहे हैं। सुर नहीं छूट रहे। वे अनहद मस्ती में हैं। वे मलंग हो गए हैं। बेतहाशा बजा रहे हैं। उनके कानों में सिर्फ़ शहनाई गूँज रही है। वे उसकी आवाज़ में डूब चुके हैं। इस वक़्त उनके वजूद में शहनाई की आवाज़ है। सिर्फ़ आवाज़। फ़कत एक आवाज़। वे लौट चुके हैं अपने पुराने फक्कड़ दिनों में। उन दिनों में पहुँचते हुए शहनाई और सुरीली हो गई है।
लोगों का हुजूम उसी तरह जमा है, जैसा पच्चीस साल पहले जमता था। लोग अपने प्रिय फनकार को सुध-बुध खोकर सुन रहे है। वे मंत्रबिद्ध हैं, मुग्ध होकर सम्मोहित हैं उस सुर में। स्वर लहरियाँ उनके आसपास तैर रही हैं। सहसा किसी का ध्यान उनकी ओर गया, नाक से खून की एक लकीर बहकर उनके कुरते तक आई। लोग कुछ करते इससे पहले यकायक शहनाई के सुर टूट गए। कुर्सी पर ढुलक चुकी जुम्मा मास्टर की निर्जीव देह से शहनाई फिसल कर नीचे आ गिरी। 
मनीष वैद्य
जन्म – 16 अगस्त 1970, धार (म.प्र.)
शिक्षा-एमए, एमफिल (हिंदी साहित्य), राहुल सांकृत्यायन पर शोध
हंस, पहल, कथादेश, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, पाखी, कथाक्रम, इन्द्रप्रस्थ भारती, अकार, बहुवचन, लमही, पूर्वग्रह, परिकथा, कथाबिम्ब, वीणा, मधुमती और निकट सहित महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में सौ से ज्यादा कहानियाँ प्रकाशित। कुछ रचनाओं का पंजाबी और उड़िया में अनुवाद।
कहानी संग्रह- टुकड़े-टुकड़े धूप (2013), फुगाटी का जूता (2017)
सम्मान- कहानी संग्रह ‘फुगाटी का जूता’ पर वागीश्वरी सम्मान (2018 )
‘फुगाटी का जूता’ पर ही अमर उजाला शब्द छाप सम्मान (2018)
शब्द साधक रचना सम्मान (2019)
श्रेष्ठ कथा कुमुद टिक्कू सम्मान (2018 )
कहानी के लिए प्रतिलिपि सम्मान (2018)
प्रेमचन्द सृजनपीठ से कहानी के लिए सम्मान (2017)
यशवंत अरगरे सकारात्मक पत्रकारिता सम्मान (2017)
पानी, पर्यावरण और सामाजिक सरोकारों पर साढे तीन सौ से ज्यादा आलेख पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित,पानी के नवाचारी कामों पर एक किताब ‘जमा रसीदें’, आकाशवाणी से भी प्रसारण।
संप्रति-पत्रकारिता और सामाजिक सरोकारों से जुडाव
संपर्क-11-ए, मुखर्जी नगर, पायोनियर स्कूल चौराहा, देवास (मप्र) पिन 455001 मोबाइल–9826013806 manishvaidya1970@gmail.com
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