बड़े ही उत्साह से वह मेरे पास आया तथा मेरे पैरों को छूने के लिए झुक गया। कुछ ही क्षणों में मेरे दोनों हाथ उसके सिर के ऊपर आशीर्वाद की मुद्रा में थे। मुख से स्वतः निकल पड़ा, ’’खुश रहो मेरे बच्चे……..जीते रहो। ’’ आशीर्वाद के इन शब्दों सुनकर वह सन्तुष्टि गर्व के भाव के साथ मुझे देख कर मुस्कराने लगा। 
उसका कुशल क्षेम पूछने के पश्चात् उसे भोजन के लिए कह कर मैं रसोई में जा कर उसके लिए खाना गरम करने लगी।  वह भी मेरे पीछेपीछे रसोई में गया।
मुझे खाना गर्म करते देख बोल पड़ा, ’’माँ, मेरे लिए खाना गर्म कीजिए। आप नाहक परेशान हो रही हैं। आप आराम कीजिए। मैं खाना ले लूँगा। ’’ उसने हठ पूर्वक कहा। 
मैं जानती थी कि मेरे पीछेपीछे रसोई में आने का उसका कारण भी यही था। इस समय दोपहर के ढाई बज रहे हैं। वह जानता है कि मैं एक बजे खाना खा लेती हूँ, तथा यह समय मेरे आराम करने का होता है। किन्तु आज मैं आराम कर उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसके मना करने के पश्चात् भी मैंने उसके लिए भोजन निकाल कर डायनिंग मेज पर रख दिया। वह भोजन करने लगा। उसके चेहरे पर आज भी वही निश्छल भोलापन मासूमियत पसरी थी, जैसी आज से लगभग इक्कीस वर्ष पूर्व हुआ करती थी। जब वह पाँच वर्ष का बच्चा था। कुछ भी तो नही परिवर्तित हुआ है, वो मैं। इस लम्बे अन्तराल में हमारे बीच से कुछ रिश्ते गुम हुए हैं तो कुछ नये बने भी हैं।
देखतेदेखते समय किसी परिन्दे की भाँति पंख लगा कर उड़ता गया। ऋतुयें आती रहीं, परिवर्तन के चिह्नन छोड़ कर समय की बाँहे पकड़े चली जातीं।   इक्कीस वर्ष व्यतीत हो गए। समय के लम्बे अन्तराल का आभास मुझे अपनी कमजोर पड़ती हड्डियों कभीकभी काँपते पैरों के कारण होता है। आदित्य जिसे घर में सभी प्रेमवश बाबू कहते हैंपी0 सी0 एस0 ( पब्लिक सर्विस कमीश्सन ) की परीक्षा उत्तीर्ण कर भारतीय रेलवे में अधिकारी के पद पर अपनी ज्वाइनिगं दे कर आज पन्द्रह दिनों के पश्चात् घर लौटा है। पन्द्रह दिनों के पश्चात् दो दिनों का अवकाश ले कर मुझसे अपनी इकलौती बहन प्रियदर्शिनी से मिलने आया है। हम सब भी तो व्याकुल थे उससे मिलने के लिए। प्रियदर्शिनी दिन में कई बार मुझे उसे फोन करती। वह भी तो प्रथम बार इतनी लम्बी अवधि के लिए घर से बाहर गया था।  प्रियदर्शिनी भी आज सायं यहाँ जायेगी। वह भी दो दिनों तक यहाँ रूकेगी। भाई से मिल लेगी…..उसके साथ रह लेगी।  नई नौकरी है, क्या पता फिर कब आदित्य को अवकाश मिले?          
उसकी प्रथम नियुक्ति भी तो यहाँ से दूर छतरपुर  में हुई है। वहाँ से आनेजाने में काफी समय लगता है। अतः प्रत्येक साप्ताहिक या अन्य अल्पावधि के अवकाश में आना असम्भवसा है। आज प्रियदर्शिनी से भी इसी बहाने मेरी मुलाकात हो जाएगी। यद्यपि वह इसी शहर में रहती है, किन्तु काफी दिन हो गये उसे यहाँ आये। 
रसोई में बर्तनों के रखने की आवाज से मैं समझ गई कि आदित्य ने भोजन कर लिया है, तथा वह बर्तनों का रखने रसोई में गया है। मुझे सन्तोष की अनुभूति हुई। आँखें बन्द कर मैं सोने का प्रयत्न करने लगी, किनतु मेरी आँखों में दूरदूर तक नींद नही थी। विचारों का गतिमान प्रवाह मुझे ले कर  इक्कीस वर्ष पूर्व चला जा रहा था। वे दिन किसी चलचित्र की भाँति मेरे सम्मुख आते जा रहे थे…………..
        ’’ ………..मैं एक समृ़द्ध परिवार की बेटी थी। घर के पाँच भाई बहनों में सबसे बड़ी। घर में पहली शादी हो रही थी, अतः मेरे मातापिता ने बड़ी ही इच्छाओं और धूमधाम से मेरा विवाह किया। किन्तु उन्हांेने मेरे विवाह में एक बड़ी भूल कर दी थी। इसे मैं उनकी भूल कहँू या अपना भाग्य? क्यों कि कोई भी मातापिता अपने बच्चों को सुखी देखना चाहता हैं। कदाचित् यह मेरा भाग्य ही था कि पिताजी ने मेरा विवाह एक पिछड़े गाँव में कर दिया था। मैं शहर की सुख सुविधाओं में पली बढ़ी थी। समृद्ध घर था, अतः अभावों से परिचित नही थी। ससुराल में कृषि बागवानी का कारोबार होता था। वे भी समृद्ध लोग थे। गाँव पिछड़ा था। विकास और आधुनिकता से कोसों दूर।  
प्रथम दिन से ही मुझे वहाँ अच्छा नही लगा। पति पढ़ेलिखे तो थे किन्तु खेती बागवानी के कार्य करते थे। सीधेसरल कुछकुछ गँवई किस्म का व्यक्तित्व था उनका। मेरी कल्पनाओं में बसे पति की छवि से अलग। ससुराल में मेरा मन बिलकुल नही लगता था। रहीसही सबसे कष्टप्रद बात यह थी कि वहाँ प्रातः क्रिया से निवृत्त होने के लिए घर के सभी सदस्यों को खेतांे की ओर जाना पड़ता था। इस गाँव में अमीर हो या निर्धन किसी के घर में शौचालय नही था। प्रथम बार घर की महिलाओं के साथ खेतों की ओर जाते हुए मैं बहुत रोई थी। यही कारण था कि अपने विवाह को मैं मातापिता की त्रुटि कहती थी। उन्हांेने जिस वातावरण में मेरा पालनपोषण किया था, उन्हें उसी के अनुरूप मेरा घरवर देखना चाहिए था। 
कुछ समय पश्चात् इसे  मैंने अपना भाग्य मान लिया और ससुराल में समायोजित होने का प्रयत्न करने लगी। किन्तु मेरा भाग्य मुझे जाने कहाँ ले जाना चाहता था। अनेक यत्न करने पर भी मेरा मन ससुराल में नही लगता था। कुछ दिन ससुराल तो अधिकांश दिन मेरे मायके में गुजरने लगे। धीरेधीरे माँ से मैंने इस विवाह से उपजी अपनी परेशानियों से अवगत कराया। 
ससुराल में मुझे दोनों समय भर पेट भोजन भले ही मिल जाता था किन्तु फलफूल, दूध, चाय, काॅफी जैसी अनेक चीजें जो मुझे अच्छी लगती थीं माँ के घर बड़े चाव से खातीपीती थी, यहाँ दुर्लभ थीं। पैसे तो मुझे कभी दिए ही जाते। चलते समय माँ मुझे जो कुछ पैसे दे देतीं वे भी मेरे पास यूँ ही पड़े रहते। उन पैसों का मैं उस गाँव में क्या करती?
        कभीकभी मैं सोचती कि यदि मेरा विवाह गाँव में ही करना था तोे मेरे मातापिता ने मेरा पालनपोषण गाँव में रहने योग्य तरीके से क्यों नही किया? आखिर जो गाँवों में रहते हैं वो प्रसन्न भी तो रहते हैं। किन्तु मेरा मन क्यों नही यहाँ लगता?
      कुछ दिन ससुराल तो कुछ दिन माँ के घर रह कर दिन व्यतीत होते रहे। धीरेधीरे दो वर्ष व्यतीत हो गये। मेरी गोद में मेरा बेटा बन्टू गया। मैं स्नातक उत्तीर्ण थी, किन्तु इन परिस्थितियों में मेरी शिक्षा भी मेरे काम नही रही थी।
     माँ के घर आने के पश्चात् मैं शीघ्र ससुराल जाना नही चाहती थी। ऐसा अक्सर होने लगा। मायके में रूक जाने के कारण ससुराल पक्ष के लोग नाराज़ रहने लगे। स्थिति तलाक तक पहुँची। मैं भी यही चाहती थी। तलाक के पश्चात् मैं बन्टू को अपने पास रखना चाहती थी, किन्तु उसे उसके पिता अपने साथ ले गये। 
   नई मिली स्वतंत्रता स्वच्छन्दता के कारण माँ के घर मेरा मन लगने लगा और अच्छा लगने लगा, किन्तु कब तक……? जीवन का कोई उद्देश्य था। मेरे ऊपर व्याहता का लेबल चस्पा था। अतः कुँआरी लड़कियों जैसा मेरा जीवन हो नही सकता था। माँ के दिये पैसेे ससुराल में काम आते किन्तु यहाँ कम पड़ जाते। 
       घर में किसी अकस्मिक खर्च के जाने के कारण माँ मेरे ही पैसों में कटौती कर मुझे कम पैसे देती। मुझे देने वाले पैसे माँ को व्यर्थ लगते थे। माँ भी क्या करतीं उन्हंे पूरे घर की आवश्यकतायें पूरी करनी थीं अतः पैसों की कमी बनी ही रहती थी। कभीकभी माँ मुझे दूसरा विवाह कर लेने की सलाह भी देती। जो कि मुझे कुछकुछ ठीक ही लगता। 
      इस समय मैं उम्र का पच्चीसवाँ वर्ष पूरा करने वाली थी। मुझे समझ आने लगा था कि अकेले जीवन व्यतीत करना सरल नही है। स्त्रियाँ अपने व्यक्तित्व को चाहे जितना भी सशक्त साँचे में ढ़ाल लें समाज उन्हे तोड़ने का प्रयत्न करता ही है। किन्तु मैं टूटने वालों में से नही थी। मैंने सदा आगे बढ़ने में विश्वास किया। माँ के साथ रहते हुए मुझे अर्थिक स्वावलम्बन की आवश्यकता का तीव्र अनुभव हुआ। मैं ग्रेजुएट थी अतः अपने इस शहर में ही कोई भी नौकरी पाने के प्रयासों में लग गयी।
    नौकरी की तलाश के दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि आज के समय में मात्र स्नातक कर लेने से नौकरी सरलता से नही मिलती। इस शिक्षा के साथ ही साथ कोई व्यवसायिक या तकनीकी शिक्षा भी आवश्यक है। अथक दौड़भाग करने के पश्चात् मुझे एक निजी कार्यालय में नौकरी मिल गयी। कुछ भी नही से ये अल्प आय वाली नौकरी ठीक ही थी। खाली बैठने से अच्छी थी ये व्यस्तता। इस नौकरी से प्राप्त आय मुझ अकेले के लिए भी पर्याप्त थी। शनैःशनैः मुझे ज्ञात होने लगा कि रोजगार की तलाश में भटकते पढ़ेलिखे युवकयुवतियों का निजी कम्पनियाँ कम पारिश्रमिक अथक परिश्रम काम ले कर किस प्रकार शोषण करती हैं। 
     एक अच्छी नौकरी पाने के लिए मेरी एक बार मेरी तीव्र इच्छा भी हुई कि मैं कोई व्यवसायिक कोर्स कर लूँ किन्तु परिस्थितियों ने साथ दिया। उसी नौकरी को करतेकरते दो वर्ष व्यतीत कर दिये। अभावों और भविष्य की चिन्ता ने मेरे भीतर पैसों की लालसा सुखसुविधा पूर्ण जीवन जीने की इच्छा बलवती कर दी। पैसे का मूल्य मैं समझाने लगी थी। साथ ही यह भी कि वर्तमान समाज में आर्दश उच्च विचारों से नही बल्कि पैसों से व्यक्ति का आकलन होता है। मैं ये भी जानती थी कि धनसम्पदा इतनी सरलता से नही कमाई जा सकती।
      मेरे जीवन में एक बड़ा परिवर्तन होने वाला था जिससे मैं अनभिज्ञ थी। एक दिन मेरे किसी परिचित ने इन्द्र प्रकाश के परिवार से मेरा परिचय कराया। इन्द्र प्रकाश का परिवार शहर के धनाढ्य संभ्रान्त परिवारों में से एक था। जब मैंने प्रथम बार उनके महलनुमा घर में प्रवेश किया था तो घर की भव्यता के साथ वर्दी में सजे नौकरचाकर, विदेशी नस्ल के चमकदार कुत्तों आदि को देख कर अचभ्भित थी। घर के अन्दर से बाहर तक सब कुछ भव्य कलात्मक था। घर के प्रत्येक कोने में समृद्धि का वास था। 
      उस समय मैं उनके घर के सदस्यों से भी मिली। उनके परिवार में उनकी वृद्ध माँ तथा दो छोटे बच्चे जिनकी उम्र सम्भवतः छःसात वर्ष से अधिक होगी, थे। इन्द्र प्रकाश किसी कार्य के सिलसिले में बाहर गये थे। बच्चों को देख कर मैंने अनुमान लगाया कि इन्द्र प्रकाश उनकी पत्नी की उम्र अधिक होगी। वे युवा होंगे। मेरे मन में ये  प्रश्न भी उठ रहा था कि युवावस्था में ही कैसे उन्होंने इतनी समृद्धि धन अर्जित कर लिया होगा? उनकी पत्नी नही दिख रही थीं। मैंने उनके बारे में वहाँ किसी से कुछ नही पूछा, तथा अनुमान लगााया कि कदाचित् वे भी इन्द्र प्रकाश के साथ बाहर गयी होंगी। 
     इन्द्र प्रकाश के छोटे से परिवार से मिल कर मैं उस महलनुमा घर से बाहर गई। बातोंबातों में उस परिचित द्वारा ज्ञात हुआ कि छोटे बेटे को जन्म देते समय इन्द्र प्रकाश की पत्नी का देहान्त हो गया था। सुन कर हृदय विषाद से बोझिल हो गया।
     कुछ दिनों के पश्चात मेरे पग पुनः इन्द्र प्रकाश के घर की ओर बढ़ चले। उस दिन इन्द्र प्रकाश से मिल कर हृदय और अधिक व्यथित हो गया। इन्द्र प्रकाश युवा तो थे, किन्तु अत्यन्त कृषकाय अस्वस्थ लगे। इतने बड़े साम्राज्य के मालिक को ऐसी कौन सी व्याधि लगी होगी जिसका पैसों से उपचार संभव था? असाध्य! हाँ इन्द्र प्रकाश किसी असाध्य व्याधि से ग्रसित थे। जिसका उपचार पैसों से करा लेना संभव नही था। 
      ज्ञात हुआ कि चिकित्सकों ने उनके शेष जीवन की अवधि भी अल्प बताई थी। उप्फ्! इतना पैसा, इतनी समृद्धि सब कुछ उपलब्ध होते हुए भी ऊपर वाले ने इतनी बड़ी त्रासदी उन्हंे दी है। विधता का भी कैसा न्याय है? बिन माँ के दो छोटे बच्चे हैं, वृद्ध माँ जीवन के अन्तिम पड़ाव पर हैं तथा इन्द्र प्रकाश जिनकी साँसों की डोर कभी भी टूट सकती है। कुछ दिन, कुछ माह, कुछ वर्ष……. कुछ भी निश्चित नही है। 
       गाहेबगाहे जब भी अवसर मिलता मैं इन्द्र प्रकाश के घर चली जाती। किसी विषेश व्यक्ति से मिलने, कोई विशेष कारण। जाने क्यों मेरे पग उधर बढ़ जाते। इन्द्र प्रकाश की माँ की बातों से ज्ञात हुआ कि वे दोनों छोटे बच्चों घर की देखभाल के लिए इन्द्र प्रकाश का विवाह किसी शिक्षित समझदार लड़की से करना चाह रही हैं। इसके लिए उन्हांेने कई लागों से बात भी की हुई है। 
       उस दिन घर कर उनकी बातों पर विचार करती रही। कुछ ही दिनों में मैं स्वंय इन्द्र प्रकाश से अपने विवाह का प्रस्ताव उनकी माँ के समक्ष रख चुकी थी। मुझे आज यह स्वीकार करने में किंचित मात्र भी संकोच नही है कि मैं इन्द्र प्रकाश से विवाह अपने स्वार्थ के लिये कर रही थी कि किसी ममता या परोपकारवश।
      मैंने यही सोचा कि इन्द्र प्रकाश की वृ़द्ध माँ के जीवन के कुछ ही समय शेष हैं। इन्द्र प्रकाश भी अपनी व्याधि के कारण लम्बा जीवन जी सकंेगे। उनकी पत्नी होने के नाते इस साम्राज्य, इस धनदौलत, इस ऐशोआराम की स्वामिनी मैं ही बनूँगी। अभावों में रहने सम्पन्न जीवन जीने की लालसा ने कदाचित् मेरे अन्दर ये सोच भर दी थी। मैं जानती थी कि इन्द्र प्रकाश की मृत्यु के पश्चात् उनकी सम्पत्ति कानूनी रूप से उनकी व्याहता पत्नी की हो जायेगी। जो मैं हूंगी। सम्पत्ति प्राप्त करने का ये शार्टकट मार्ग मुझे अच्छा लगा। 
       मेरे निर्णय से मेरे घर वालों को प्रसन्नता नही हुई। ये मैं उनके चेहरों को देख कर जान गई थी। किन्तु किसी ने विरोध नही किया। मेरी दृढ़ता देख कर किसी ने विरोध नही किया। अपनी ज़िन्दगी का निर्णय लेने के लिए मैं स्वतंत्र थी। इसमें किसी का हस्तक्षेप स्वीकार करने वाली नही थी मैं, यह उन्हंे भली प्रकार ज्ञात था। 
       इन्द्र प्रकाश से विवाह कर मैं उनके घर गई। उनके साथ, उनके घर में रह कर मुझमंे जाने कैसा परिवर्तन आने लगा। वाहते हुए भी मैं उनका वृद्ध माँ की करने को तत्पर हो उठती। वो मुझे आशिर्वादों से नवाज देतीं। आदित्य को कब बाबू कहने लगी ज्ञात नही। बाबू अत्यन्त मासूम था। प्रियदर्शिनी आदित्य से डेढ़दो वर्ष बड़ी थी। जब भी किसी बात पर आदित्य रोता और मैं उसे अनसुना कर देती, प्रियदर्शिनी शीघ्र उसके पास जाती। उसे चुप कराती। उसे समझाती कि, ’’माँ कार्यों में व्यस्त हैं।’’ जब कि ऐसा नही होता।  वह मेरी किसी बात का बुरा नही मानती। मेरी प्रत्येक बात को आदेश की तरह पालन करने के लिए तत्पर रहती। 
     इन्द्र प्रकाश का स्वास्थ्य दिनप्रतिदिन क्षीण होता जा रहा था। उनकी सेवा के लिए घर में नाौकरचाकरों के अतिरिक्त एक परिचारिका भी नियुक्त थी। अतः मुझे कुछ विशेष नही करना पड़ता था। 
       अन्ततः तीन वर्ष भी पूरी तरह व्यतीत हुए कि एक दिन इन्द्र प्रकाश चल बसे। दोनों छोटे बच्चे मुझसे लिपट गये थे। रोतेरोते उनकी आँखों से अश्रु सूख गये। वे किंचित मात्र भी मुझसे दूर होना नही वाहते थे। मेरे साथ रहना…..मेरे साथ खाना…..मेरे साथ सोना…… मैं भी इस दुख की घड़ी में उन्हें स्वंय से दूर करती। इस अवस्था में भी इन्द्र प्रकाश की माँ की सक्रियता देखने पे्ररणा लेने वाली थी। उन्होंने अपनी आँखों में अश्रु आने दिया और स्वंय को टूटने दिया। मैं जानती थी कि इस त्रासदीपूर्ण घटना से वे  भीतर ही भीतर हिल चुकी हैं, टूट चुकी हैं। किन्तु अपना दुख दुनिया वालों के समक्ष व्यक्त नही किया। स्वंय को कमजोर पड़ने दिया।
      इन्द्र प्रकाश के देहान्त के पश्चात् होने वाले सभी धार्मिक सांसारिक कार्यों को बखूबी सम्पन्न कराया। इन्द्र प्रकाश के निधन के कुछ ही माह व्यतीत हुए होंगे कि घर में वकील को देख कर मुझे आश्चर्य हुआ। मैं असमंजस में थी क्यों कि वकील के आने के कारण की मुझे भनक तक थी। 
       ’’ बहू यहाँ आओ, कुछ महत्वपूर्ण कार्य है। ’’ इन्द्र प्रकाश की माता जी के काँपते स्वर मेरे कानों में पड़े। 
       वे ड्राईगं रूम में वकील के पास बैठी थीं। ईश्वर उनकी कैसी परीक्षा ले रहा हैउम्र के इस पड़ाव पर कितने दःुख……उफ्फ। इतने दुःख झेलने के पश्चात् भी उनके साहस में कोई कमी नही। इतने बड़े समृद्ध कारोबार के लिए सोचना उनके जैसी जीवट स्त्री का ही कार्य है।’’
      मन में उनके प्रति रहे प्रशंसा के भावों को छुपाती हुई मैं ड्राईंग रूम के सोफे पर कर बैठ गयी। वकील को देख कर मन आशंकित हो रहा था कि कहीं मुझे सम्पत्ति से बेदखल कर सब कुछ इन्द्र प्रकाश के दोनों बच्चो के नाम तो नही कर दिया जा रहा है। ऐसा हो गया तो मेरी तो सोची समझी योजनाओं पर पानी फिर जायेगा। वकील पेपर पलट रहा था। कुछ ही क्षणों में उसने मेरे समक्ष हस्ताक्षर करने हेतु एक पेपर बढ़ाया। 
    वो एक कानूनी उत्तराधिकार सम्बन्धी दस्तावेज था। उसमें लिखी पंक्तियाँ मैं पढ़ती जा रही थी तथा आत्मग्लानि से भरती जा रही थी। इन्द्र प्रकाश की माँ ने मुझे सम्पूर्ण सम्पत्ति की स्वामिनी का अधिकार दे दिया था। मुझे इतना सम्मान दिया था कि मुझे स्वयं पर लज्जा आने लगी। मुझे इस सम्पत्ति से वैराग्य उत्पन्न होने लगा। इस घर में रहने वालों के महान विचारों अच्छाईयों के समक्ष मैं स्वंय को तुच्छ पा रही थी। 
         ’’ माँ जी, आपके होते हुए इसकी क्या आवश्यकता है? ’’ मैं किसी प्रकार बोल सकी। 
     ’’ है बहू, आवश्यकता है। मेरा क्या भरोसा, कब ऊपर वाले का बुलावा जाये और मैं चल पड़ूँ। तू मेरे लिए इन्द्र प्रकाश से कम नही है। मैं तुम्हे तुम्हारा अधिकार देकर निश्चिन्त हो जाना चाहती हूँ। ’’ कह कर काँपते हाथों से उन्हांेने वो सभी कागज़ात मेरी ओर  सरका दिये थे। 
   मेरे समक्ष वो सब कुछ था जिसके लिये मैंने रूग्ण इन्द्र प्रकाश से विवाह किया था। किन्तु मुझे इन सबसे वितृष्णा हो गयी दोनों बच्चे जिन्हें देख कर मेरे हृदय में कभी भी प्रेम ममता उत्पन्न नही हुई आज सामने सोफे पर उन्हें बैठे देख कर उनकी मासूमियत पर हृदय में ममत्व आप्लावित हो रहा था। तथा स्वंय से घृणा हो रही थी। 
       बच्चों से मैं द्वेष करती थी। उन्हंे मार्ग का कंटक समझती थी। मुझे यह भी विश्वास था कि आवश्यकता पड़ने पर वे बच्चे मेरे लिए सब कुछ पर सकते हैं। मुझे स्मरण होने लगा कैसे वे पूरे दिन मेरे इर्दगिर्द रहते उनका माँ…….माँ……कहना मुझे उद्वेलित करने लगा। मैं कैसी निष्ठुर थी कि उनके वात्सल्य में पगे शब्दों को अनसुना करती रही। 
      उस दिन उन काग़जात पर हस्ताक्षर करने के उपरान्त मैंने स्वंय को इन्द्र प्रकाश के स्थान पर स्थापित कर लिया। घर के सभी लोगों की देखभाल पूरे मनोयोग तथा उत्तरदायित्व से करने लगी।  दो वर्ष पश्चात् इन्द्र प्रकाश की माता जी को भी इस दैहिक जीवन से मुक्ति मिल गयी। मैंने इस घर को पूर्ण रूप से अपना लिया। इस घर ने तो मुझे पहले ही अपना लिया था। 
बच्चे बड़े हो रहे थे, समझदार भी। मेरे मुख से जो शब्द निकलते बच्चे उसे आदेश समझ कर उसका अक्षरशः पालन करते। धीरेधीरे इन्द्र प्रकाश की बिखरी सम्पत्ति को मैंने व्यवस्थित किया। उनके कारोबार को आगे बढ़ाया। मैं बदल चुकी थी। पूर्व की अपनी पहचान व्यक्तित्व से पृथक। 
बाबू की रूचि पढ़लिख कर प्रशसनिक क्षेत्र में नौकरी करने की थी।  मैंने उसे वो करने दिया। घर तथा व्यापार के झमेलों से उसे दूर रखा। प्रियदर्शिनी को बिजनेस मैनेजमेंट में उच्च शिक्षा दिलवाई ताकि आवश्यकता पड़ने पर वह अपने पापा के व्यापार को सम्हाल सके। किन्तु ऊपर वाले की कृपा रही और उसका विवाह एक समृद्ध घर में पढे़लिखे योग्य लड़के से सम्पन्न कराया। 
आज बाबू भी प्रशसनिक अधिकारी की नौकरी पाकर प्रसन्न है। अब आगे बढ़ते चले जाना है। 
मैं आराम करना छोड़ उठ पड़ी। सहसा स्मरण हो आया कि प्रियदर्शिनी के लिए कुछ विशेष खानेपीने की चीजें बनवा दूँ। अतः स्मृतियों से बाहर गई। प्रियदर्शिनी माँ बनने वाली है। 
मैं रसोई में जा कर नौकरों को विशेष भोजन बनाने का निर्देश देने के पश्चात् बाबू का हाल पूछने हेतु उसके कक्ष की ओर बढ़ जाती हूँ। वह बिस्तर पर बेखबर सो रहा हैं। उसके कमरे की बत्ती जल रही है। मैं जानती हूँ कि वह रोशनी में सो नही पाता है। कदचित् यात्रा से थक गया होगा अतः कमरे की बत्ती जलता छोड़ दी है। मैं उसके कक्ष की बत्ती बन्द कर निश्चिन्तसी बाहर आती हूँ। माँ……माँ……सहसा बाबू के स्वर कानों में पड़ते है। उसे आभास हो गया था कि मैं कमरे में आयी हूँ। और वह पुकार उठा माँ….माँ….. सच ही तो है। मैं माँ हूँ। इन बच्चों ने मुझे माँ का स्थान दिया है। मेरे सम्पूर्ण व्यक्त्वि को माँ के साँचे में ढाल कर महान बना दिया है। 

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