पुस्तक: ओ! अमलतास  नवगीतकार: रमेश प्रसून प्रकाशक: समन्वय प्रकाशन, गाजियाबाद
मूल्य: ₹ 350 पृष्ठ: 168
समीक्षक
डॉ नितिन सेठी
आज का नवगीत मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। आज नवगीत अपनी सामाजिक भागीदारी और जिम्मेदारी को पूरी तैयारी से निभा रहा है। उत्तर आधुनिकता और भूमंडलीकरण के दौर में नवगीत ने जीवन के यथार्थ को बड़ी ही सुंदरता से अपनी लयात्मकता और कथ्यात्मकता में ढाला है। समय और परिस्थिति का स्पष्ट शब्दांकन नवगीत की विशेषता रही है ।रमेश प्रसून वरिष्ठ नवगीतकार हैं। सामाजिक जीवन से जुड़े हुए विशिष्ट कथ्य और लोकसंवेदना आपके नवगीतों की विशेषता रहे हैं। आपका सद्य: प्रकाशित नवगीत संग्रह ‘ओ! अमलतास’ आपके कुल इकसठ नवगीतों का संग्रह है। अपनी विशिष्ट कथ्यात्मकता ओर सम्प्रेषणीयता से ये नवगीत पाठक के मन को मार्मिकता से छूते हैं। संग्रह का पहला ही नवगीत है ‘ओ! अमलतास’। अमलतास को संबोधित करते हुए कवि उसके रूप-रंग-प्रसार की प्रशंसा करता है परंतु अपने हृदय की व्यथा भी दर्शाता है। पंक्तियाँ देखिए—
ओ! अमलतास ओ! अमलतास तेरे अन्तस की स्व:सुवास
हंस-हंसकर बिखराती सुहास लेकिन है मेरा जी उदास
कवि की संवेदनशीलता अमलतास की अमंद आभा और छांव को देखकर संपुष्टि नहीं पाती।उसकी दृष्टि में तो अनजाने पथिकों की पीड़ा ही महत्वपूर्ण है-
तू कहता जिसको घनी छांव उस जगह पथिक के जले पाँव
सारे छालों को चीर गई उन्मत्त समीरण अनायास ओ! अमलतास
देशप्रेम का भाव कवि कई नवगीतों में दर्शाता है। ‘आज लिखें राष्ट्र पर निबंध’ में वह लिखता है-
तोड़कर अघोषित प्रतिबंध आज लिखें राष्ट्र पर निबंध
कश्मीरी केसर की धार पर लिखें आहत चिनाव पर, चिनार पर लिखें
प्रश्नीली घाटी के घेर के घुमाव के बीच में अड़ी हुई दीवार पर लिखें
अनसुलझे उत्तर के बंध
भारतवर्ष को इसके वैभव के कारण सोने की चिड़िया भी कहा जाता था। रमेश प्रसून इस सोने की चिड़िया के पँखों पर एक बेहतरीन नवगीत रचते हैं। ‘पर’ शब्द को लेकर ‘सोने की चिड़िया के पर’ नामक इस नवगीत में कुल आठ पद हैं, जिनमें इस सोने की चिड़िया के परों के नोचे-लूटे जाने, उन परों के स्थान पर नकली परों के लगाये जाने और उसके पश्चात पुनः चमकीले परों के आगमन की कथा कवि ने अपनी कल्पना शक्ति से बाँधी है। भारत का स्वर्णयुग पुनः लौटेगा और भारत पुनः विश्व गुरु बनेगा, इसका भाव द्रष्टव्य है-
सोने की चिड़िया के पर, फर-फर फड़कें फर-फर-फर
नोंच-नोंच खोंचे हमने, भरकर खोंच खरोंचे पर
टूट-टूट कर टूटे पर, लूटे-लूटे, लूटे पर
इतने अजब अनूठे पर, हाथ न आए छूटे पर
सोने की चिड़िया के पर, फर फर फर
चिड़िया को दिलासा देते हुए कवि लिखता है-
रो मत चिड़िया बोले पर, ‘उड़ चल’ कहकर डोले पर
तौले जब अनतोले पर, फिर चिड़िया ने खोले पर
सोने की चिड़िया के पर, फर-फर-फर
‘गांधीजी का आना’ में गांधीजी के नाम पर मचाए गए छद्म वाद पर कवि की व्यथा दर्शनीय है। ‘दीमक चाट रही है जिसको’ में भारत भूमि को अपना घर मानकर कवि समझाते हुए कहता है-
टुकड़े-टुकड़े कर देंगे या तोड़-तोड़ कर तोड़ेंगे
कुछ लोगों की जिद है रहने लायक इसे न छोड़ेंगे
कैसे समझाऊं मेरा ही नहीं यह उनका भी घर है
कवि देश के संपूर्ण भूभाग को अपना घर मानता है और इसके अलग-अलग प्रदेशों को एक कमरा। अपनत्व की ऊष्मा यहां एक-एक ईंट को संयोजित कर देती है-
ईंट-ईंट जोड़ी पहले फिर तुझको-मुझको जोड़ा है
ये ही हैं वे लोग जिन्होंने अपनेपन को तोड़ा है
क्यों नहीं सुनता दिल की धड़कन क्या इतना लाचार है
कमरा बोला कमरे से तू अंतर्संगी यार है
नवगीत में व्यंग्यात्मकता अपना विशिष्ट स्थान रखती है। वचन-वक्रता के सार्थक प्रयोग से रमेश प्रसून अपने नवगीतों में एक विशिष्ट भाव-भंगिमा उत्पन्न कर देते हैं। आपके अनेक नवगीतों में व्यंग्यप्रधान भाषा मिलती है। समाज के प्रपंचों और विडंबनाओं को देखकर कवि का मन व्यथित है और अपने नवगीतों में इसे व्यापक अभिव्यक्ति देता है। ‘मौसम ने चांटा मारा’ नवगीत देखिए-
मौसम ने चाँटा मारा तो होश उड़े हरियाली के
है चरित्र से परिचित मधुवन फूलों वाली डाली के
‘साँपनाथ-नागनाथ’ में भी व्यंग्य के प्रयोग से देश की बदहाल व्यवस्था पर करारी चोट की गई है। बहुत चुने हुए शब्दों में अपनी बात कहते हैं रमेश प्रसून-
साँपनाथ को जाना है नागनाथ को आना है
जनता का यह तंत्र भला क्या ऐसे बदला जाना है
परिवर्तन संसूचित है
‘नंगम नंगा-नंगम नंगा’ नवगीत नवीन भावभूमि पर नए-नए संदर्भों को लेकर समाज का नग्न चित्रण कर एक नवेला निनाद उत्पन्न करता है। शब्दमैत्री के चमत्कार से एक जीवंत चित्र और चरित्र सामने लाता है कवि-
तू भी नंगा मैं भी नंगा फिर आपस में कैसा पंगा
आ! नंगी आंखों से देखें खुला तमाशा नंगा-नंगा
पता न था औरों को ढक कर वह खुद हो जाएगा नंगा
चल प्रसून बच कर वर्ना ये कर देंगे तुझको भी नंगा
नंगम नंगा-नंगम नंगा
मनुष्य की बदलती सोच का आख्यान कवि ने अनेक नवगीतों में किया है।सामाजिक परिवर्तनों की दशा यहाँ महसूस की जा सकती है। ‘क्या कहें रह गया इंसान पीछे’, ‘हल हुआ न जिंदगी का हाल’ जैसे नवगीत इसका सार्थक प्रमाण हैं। निम्नलिखित पंक्तियां दृष्टव्य हैं-
घट रहे थे जुड़ गए सवाल
हल हुआ न जिंदगी का हाल
बदले-बदले रंग रूप में तकते-तकते
सुबह धूप में साँझ बन मचाएगी धमाल
आज का नवगीत दैनिक जीवन की विसंगतियों को सीधे-सीधे नहीं शब्दायित करता अपितु पहले उसे अपने तर्क की कसौटी पर कसकर अपनी अनुभूतियों को विश्वसनीय बनाता है। इसके पश्चात् उन्हें जीवन संदर्भों से जोड़कर नवगीत में ढालता है। यही कारण है कि आज का नवगीत युगसंदर्भ का गान बनकर निकला है। रमेश प्रसून भी सोच और सम्वेदना के आधारभूत स्तर तक जाकर विचार करते हैं और फिर अपना सार्थक सृजन देते हैं। अनेक नवगीतों में यह बात देखी जा सकती है। ‘खुशबू के घाटे हैं’ की पँक्तियाँ देखिए-
सागर तट पर स्वयं प्रकम्पित,
लहर लहर से मिली सशंकित
पता न किसमें ज्वार छिपे हों किसमें भाटे हैं
सुना है मौसम ने हँस-हँसकर फूल बाँटे हैं
हाथों में देखा जो अपने पाया काँटे हैं
इसी क्रम में ‘मतलब अलग है इसका’ नवगीत भी शोषक और शोषित के अंतर को दर्शाता है-
था एक बोझ वह भी, है एक बोझ यह भी,
बोझे के बोझ को यों
जब ढो रहा था सुखिया मतलब अलग था उसका
अब ढो रहा है सुखिया मतलब अलग है इसका
थी एक नींद वह भी, है एक नींद यह भी, जीवन की नींद में गुम
जब सो रहा था सुखिया मतलब अलग था उसका
अब सो रहा है सुखिया मतलब अलग है इसका
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता की पँक्ति है-’जब भी कोई भूख से लड़ने खड़ा हो जाता है, सुंदर दीखने लगता है’। रमेश प्रसून का कवि मन भी भूख के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य को अपनी आँखों से देखता है और उस पर नवगीत रचता है। ‘पेट में पेट’ नवगीत बिल्कुल सटीक चित्रण है ऐसी भयावह भूख का-
भूख रोटियों की माँगों पर दहकी-दहकी डोले
उस पर मौन विवशता से अँतड़ी की ऐंठन बोले
फूँक न दे कहीं आग पेट की सबको रही लपेट
पेट में पेट, पर्त-पर्त में पेट की लिपटा एक अलग से पेट
इसी पेट की भूख को शांत करने के लिए या यूँ कहें कि पेट की आग को शांत दिखाने के लिए क्या-क्या कागजी खेतियाँ नहीं की जातीं। इसी तथ्य को कवि ‘है पेट खाली’ नवगीत में दर्शाता है-
ये भुखमरी पर कुछ आँकड़े हैं या भूख को दी हुई है गाली
है पेट खाली है जेब खाली है पेट खाली
दिला दो हमको हमारी थाली
जनता को सब्जबाग दिखाने वालों को कवि सावधान भी करता है –
हैं आदमी ये, हां आदमी ही, न समझो इनको,
बस वोट खाली, है पेट खाली
‘रोटी देना माँ’ नवगीत में रमेश प्रसून एक संवाद का आयोजन करते हैं, जिसमें मां-बेटे का संवाद रोटी पर दिखाया गया है। अभाव और विवशता जीवन का जीवन जीती माँ अपने बेटे को रोटी भी नहीं दे पाती, जिस पर बेटा अपनी माँ को वचन देता है-
कुछ खोकर कुछ पाकर दूंगा मत पछता तू आकर दूंगा
रोटी से रोटी पैदा कर सबको माँ ला-लाकर दूँगा
न छीनूँ न छीनने दूँगा तब माँगूगा तुझसे आकर
रोटी देना-माँ माँ! ओ-मां
आत्मापरकता नवगीत का विशिष्ट गुण होती है। सच तो यह है कि काव्य में आत्मानुभूति ही बाहरी यथार्थ का संस्पर्श पाकर शब्दों में ढलती है। किसी रचनाकार की आत्मानुभूति जितनी गहरी होगी, उसके भावबोध और संवेदनागत भी आयाम उतने ही व्यापक होंगे। रमेश प्रसून के संदर्भ में यह व्यापकता अमलतास की जड़ों और उसकी सुवास की भाँति ही उनके नवगीतों में प्रसारित है। संग्रह में अनेक ऐसे नवगीत मिलते हैं जिनमें कवि आत्मपरक होकर शब्दसंधान में संलग्न है। निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए-\
अंतर्मन छेद दिया भेद कर विभेद दिया
इस तरह कुरेद दिया दर्द ने हृदय
कोई रात चैन से सो सका न मैं
‘गीली कोर बहुत चुभती है’ में भी यही भाव है-
गीली कोर बहुत चुभती है मैं आंसू की बूंद मुझे बहने दो
चित्र वेदना के आंखों में झांक झांक कर बात कहें, कहने दो
ऐसी ही आत्मपरकता दुनिया में होते अन्याय को ललकारने का साहस कर सकती है-
सूरज चंदा और सितारे खाकर तुम लेट रहे हो कब से तोंद फुलाकर तुम
कैद नहीं कर पाओगे नभ मुट्ठी में कह दो उन अंधियारों से जा-जाकर तुम
सावधान! आ रहे हैं हम उजियारे हैं, हम आग से उपजे अंगारे हैं
छूना मत, भाई छूना मत
कवि का जीवन के प्रति आशावादी स्वर ‘आग उगेगी खेत में’ नवगीत का मूलभाव है। कवि का आवाहन है कि हकदार को ही उसका हक मिले। कवि समवेत स्वर की सुलगाहट को यूँ अभिव्यक्त करता है-
गिरा पसीने का अंगारा रेत में
आग उगेगी आग उगेगी खेत में
फसल बँटेगी गांव शहर में घर-घर तक
खबर बनेगी चर्चा होगी अंबर तक
सुलगा स्वर गूँजेगा जब समवेत में
नवगीतों में प्रकृतिपरक चित्रण अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। प्रकृति के अनेक रूप नवगीतों में शब्दाँकित होते हैं। बिंब विधान और मानवीकरण के प्रयोग से नवगीत के प्रकृति चित्रण बहुत ही रमणीय हो जाते हैं। रमेश प्रसून ने भी प्रकृति के मनोहर चित्र खींचे हैं अपने नवगीतों में। ‘क्या पाया तूने बरगद में’ बरगद का मानवीकरण कर बूढ़े होते बरगद से कवि ने प्रश्न किया है-
क्या पाया तुमने बरगद बूढ़े होकर
अपना हर क्षण इस युग की खातिर खोकर
खड़े हुए हो तुम मौन तपस्वी होकर
बरगद जहां बूढ़ा हो गया है, वहीं एक पेड़ का हरापन अपनी शक्ति को बचाते हुए समाज की विडम्बनाओं और कुटिलताओं के सामने लड़ने को तैयार खड़ा है। मानो जैसे कवि ने समाज के अच्छे विचारों वाले व्यक्तियों को ‘लड़ाई शेष है’ नवगीत में प्रतीक बना दिया है शोषणवादी व्यवस्था के विरुद्ध। पंक्तियाँ देखिए-
पेड़ से बोला हरापन तू मुझे मत छीन मुझसे
विष भरी प्रतिघातिनी कुटिला हवाओं से लड़ाई शेष है
है नहीं जिससे अलग कुछ, है नहीं जिसमें अलग कुछ
देख न उससे अलग कुछ देख न उसमें अलग कुछ
उस अनित्या नित्यता में कार्य कारण कृत्य-कर्ती
कारिका स्व:कारिणी कुशला हवाओं से लड़ाई शेष है
पेड़ की पत्तियों को वेदना के अप्रस्तुत विधान से संयोजित कर रमेश प्रसून एक महत्वपूर्ण नवगीत ‘वेदना फिर से हरी होने लगी’ देते हैं-
पेड़ पर पत्ती बड़ी होने लगी वेदना फिर से हरी होने लगी
सुरभि से सम्बंध परिभाषित हुए पुष्प चारों ओर उद्भासित हुए
बात काँटो की खड़ी होने लगी
धूप को अल्हड़ नवयौवना मानकर कवि ने धूप पर उस नवयौवना के सारे कार्य-व्यापार आरोपित किए हैं।  यहाँ ‘धूप’ प्रतीक बनकर आई है भोली-भाली ग्रामीण जनता का-
कर आई जो धूप जरा आराम कोठरिया में
हो गई फिर बिन कारण ही बदनाम कोठारिया में
शोषण इतना है कि सारा आलम जान लेने पर उतारू है-
पाँच-पाँच बौरे, बौरों ने कर हेटा-हेटी
डाल गले में फंदा लटका दी ऋतु की बेटी
कह डाला खुदकुशी हुई बेनाम कोठारिया में
रमेश प्रसून के नवगीतों में नदी अपने सतत् प्रवाह से अपनी राह ढूंढती दिखती है।नदी के अनेक रूप यहाँ द्रष्टव्य हैं। ‘ग्लेशियर’ नवगीत में नदी बहुत हैरान परेशान है।बढ़ते पर्यावरण संदोहन व वातावरण प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों को यहाँ दर्शाया गया है-
है नदी विचलित बहुत यह सोचकर
टूट कर गिरने लगे क्यों ग्लेशियर
नदी का अल्हड़पना ‘एक नदी लुट गई’ नवगीत में है-
पर्वत-पर्वत प्यास बह गई पानी में
नदी लुट गई अपनी भरी जवानी में
इसी नवगीत के अंत में व्यवस्था पर भी तंज किया गया है-
विचलित हुआ ह्रदय खामोश हवाओं का
देख रुदन कोनों में घिरी दिशाओं का
निकले छेद व्यवस्था की मनमानी में
‘जा नदी बाढ़ में डूबी’ अन्योक्तिपरक नवगीत है। यहाँ नदी के पूरे जीवन का भावचित्र कवि ने प्रस्तुत किया है। जीवन के सारे चित्र नदी के बहाने से कवि ने ला खड़े किए हैं-
साँसो से भी ऊबी-ऊबी
जा नदी बाढ़ में डूबी
डूबे मैं भी तू भी
खा गई भूख के मारे
अपने ही स्वयं किनारे
झपटे मैं भी तू-भी
‘या नदी प्यासी है’ नवगीत में विरोधाभास का प्रयोग है। जीवन की आपाधापी की मरुभूमि में सिसकती नदी जैसे अपनी लहरों से ही अपवंचना का दंश झेल रही है। ‘नदिया प्यासी है’ का प्रयोग प्रस्तुत नवगीत को नये अर्थ देता है-
लहर लहर में चर्चा है क्यों घोर उदासी है
या तो नैया टूटी है या नदिया प्यासी है
इसी भावभूमि का अगला गीत ‘नदी इधर आती है’ है जिसमें नदी पर बदलते समय ने ऐसा प्रभाव डाला है कि नदी ने भी अपने प्रतिमान और अनुशासन बदल लिए हैं। पंक्तियाँ देखिए-
अब जब नदी इधर आती है सबका पानी पी जाती है
सबका पानी पी जाती है फिर भी प्यासी रह जाती है
‘ओ! अमलतास’ में तीन नवगीत मिथकीय चेतना लिए हुए हैं। महाभारत के तीन पात्रों—अश्वत्थामा, द्रौपदी और युधिष्ठिर को लेकर रचे गए ये नवगीत हैं। इन चरित्रों के माध्यम से कवि ने एक जीवन सत्य की उद्घोषणा भी की है। ‘हिस्से का अभिशाप लिए’ नवगीत में दार्शनिकता का पुट है, जिसमें रेखांकित किया गया है कि पिछले कर्मों की कालिमा लाख हाथ धोने पर भी नहीं छूटती है-
अश्वत्थामा जैसा पा भी ले अमरत्व
अगर मन भटकेगा जीवन भर अपने हिस्से का अभिशाप लिए
बाहर-बाहर बोझ पुण्य का, भीतर-भीतर पाप लिए
धर्मराज युधिष्ठिर के समक्ष चार प्रश्नों को उठाकर कवि युधिष्ठिर से कह उठता है-
सत्य तुम्हारा सत्य युधिष्ठिर सत्य अधूरा है
दुर्योधन का सत्य विवादित लेकिन पूरा है
युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी का पाँच पतियों में बँटवारा, द्रौपदी को द्यूत में दाँव पर लगाना, ‘नरो वा कुंजारो वा’ कहकर द्रोणाचार्य का अंत करना, द्रौपदी के चीरहरण पर मौन हो जाना; इन चार बातों पर कवि ने युधिष्ठिर से चार प्रश्न पूछे हैं। यह नवगीत अपनी तरह का अलग नवगीत है। ‘जाँघ पर जा बैठना मत, द्रौपदी तू’ कुल ग्यारह पदों का नवगीत है। इसमें कवि का नारीवाद को समर्थन देता रूप सामने आया है। संग्रह में एक और लंबा गीत है ‘मैं चौराहा हूं’। इसमें चौराहे पर एक कहानी बुनी गई है। कवि ने इस गीत में बहुत सुंदर कल्पनाएँ की हैं और चौराहे को मानो चारों दिशाओं से देखा है। लोकतत्व रमेश प्रसून के नवगीतों की विशिष्ट पहचान है। संग्रह के अधिकांश गीतों में लोकतत्व की अनुगूंज सुनी जा सकती है। कवि का लोक से और लोकचेतना से गहरा जुड़ाव है। इसी क्रम में एक गीत है ‘कामगारों का गीत’ जिसमें कुल अट्ठाईस पदों में कामगारों की दिनचर्या का मोहक वर्णन है। झुनिया के चरित्र को आधार बनाकर कवि ने पूरा गीत रचा है।
       रमेश प्रसून वरिष्ठ साहित्यकार हैं। लंबे समय से नवगीत-ग़ज़ल-कविता के सृजन में रत् हैं। आपकी भाषा जीवन के सच को सामने लाने वाली तथा विसंगतियों और सामाजिक पीड़ाओं को अभिव्यक्त करने वाली है। देश की सांस्कृतिक चेतना और अस्मिता के सुहाने चित्र आपकी लेखनी में भरपूर मिलते हैं। जीवन की ऊष्मा व नैरंतर्य आपके नवगीतों में साँस पाते हैं। आपके नवगीतों की भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं तत्सम् शब्दों से युक्त है। सामासिक शब्दों के प्रयोग में रमेश प्रसून सिद्धहस्त हैं। नवगीतों की व्यंग्यात्मकता, लोकगीत की शैली और बिम्बात्मकता को समेटे हुए ‘ओ! अमलतास’ संग्रह के ये नवगीत अपनी घनी छाया और स्वर्णसम चमकती शब्दावली से पाठक को आराम देते हैं। नवगीत सृजन में प्रस्तुत कृति एक मानक बनकर सामने आएगी, ऐसा पूर्ण विश्वास है।
डॉ. नितिन सेठी सी 231,शाहदाना कॉलोनी बरेली (243005) मो. 9027422306 drnitinsethi24@gmail.com

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