अपनी क्लास लेकर अचला बाहर आ गयीं। क्लास से निकलते ही बाहर का मौसम खिला–खिला मौसम अच्छा लगा। बाहर गुलाबी धूप खिली थी।
अचला क्लास के सामने बरामदे में एक–दो मिनट खड़ी रहीं। नवम्बर माह के आखिरी सप्ताह की धूप भली लग रही थी। उनका का ये पीरियड खाली था। अतः उन्होंने बरामदे में बैठी सेविका से बाहर एक कुर्सी निकाल देने के लिए कहा। वे बाहर धूप में बैठना चाहती थीं। सेविका ने एक कुर्सी और मेज बरामदे की धूप में लगा दी। बच्चों की कुछ काॅपियाँ जाँचने के लिए शेष थीं। काॅपियों को भी उन्होंने अपने पास मेज पर रख लिया।
अचला धूप में बैठ गयीं और मौसम के इस निखरे रूप को ऐसे निहारने लगीं, मानों ऐसी गुलाबी ठंड उन्होंने पहली बार देख हो।………..
विद्यालय का ये खूबसूरत लाॅन कितना मोहक लग रहा है। ओस में नहायी नन्हीं–नन्हीं धानी दूब हवा के झोकों के साथ हौल–हौले लहरा रही हैं। लाॅन में किनारे चारों ओर बनी क्यारियों में रंग–बिरंगे मौसमी पुष्प खिल उठे थे। फूलों का इस प्रकार खिलना कदाचित् वसंत के आने की पूर्व सूचना है।
यदि ये खिलते पुष्प वसंत के आने की सूचना दे रहे थे। तो लाॅन में खड़े वृक्ष कुछ उदास क्यों दिख रहे हैं? क्या वृक्षों पर पतझड़ ने दस्तक दे दी है? वृक्षों के पीले पत्ते टूट कर हवा में उड़ते हुए भूमि पर गिर रहे थे। नवम्बर माह का जाता हुआ मौसम बहुत मनभावन लग रहा था। इससे पूर्व अचला को कदाचित् ही ये मौसम कभी इतना खूबसूरत लगा हो।
नवम्बर माह की ये हल्की ठंड और हौले–हौले बहती ये हवा इतनी भली क्यों लग रही है? कुछ देर तक मौसम के इन सुखद पलों की अनुभतियों को हृदय में समेट लेने के पश्चात् अचला काॅपियाँ चेक करने लगीं। अगला पीरियड शुरू होने से पूर्व काॅपियाँ चेक अचला ने बच्चों को क्लास में दे दिया।
……अचला की सेवानिवृत्ति में मात्र चार माह शेष हैं। नवम्बर माह समाप्ति पर है। मार्च में उनकी सेवानिवृत्ति है। अभी एक सप्ताह के अवकाश के पश्चात् कल ही उन्होंने विद्यालय में ज्वाइन किया है। अचला भी क्या करें? शारीरिक अस्वस्थता के कारण कभी–कभी चिकित्सक के परामर्श पर अवकाश लेना आवश्यक हो जाता है।
कुछ माह ही सेवानिवृत्ति के शेष हैं तो अचला चाहती हैं कि ये बचे हुए शेष दिन विद्यालय में बच्चों के साथ ही व्यतीत कर लें। बच्चे भी तो उनको देख कर कितने खुश हो जाते हैं। वे चाहते हैं कि मैम आकर कुछ पढ़ाएँ। किन्तु शारीरिक अस्वस्थता के कारण उन्हें कभी–कभी अवकाश लेना ही पड़ जाता है।
…..अचला एक सरकारी बालिका इण्टर कालेज में शिक्षिका हैं। उन्हांेने छब्बीस वर्ष की अपनी नौकरी पूरी की ली है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर घुटने में गठिया जैसी व्याधि ने ऐसा जकड़ लिया है कि उन्हें चलने–फिरने में कठिनाई होने लगी है। काॅलेज आने–जाने के लिए उन्होंने स्थाई रूप से एक आॅटो लगा लिया है। जो उन्हें स्कूल छोड़ने और लेने आता है।
इन्हीं कुछ तकलीफों में दिन व्यतीत हो रहे थे कि कुछ वर्ष पूर्व हौले से आ धमकने वाले मधुमेह ने स्वास्थ की रही–सही कसर पूरी कर दी। स्वास्थ्य सम्बन्धी अन्य कोई समस्या नही बस गठिया और मधुमेह ने शरीर पर अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ कर दिया है। किसी प्रकार शेष नौकरी व आगे का बचा हुआ जीवन चलते–फिरते कट जाये यही अचला की इच्छा है। डाॅक्टर ने गठिया के लिए कुछ हल्के–फुल्के व्यायाम बताये हैं, जिन्हें वह कभी–कभी कर लेती हैं….कभी–कभी छूट भी जाता है। शुगर की दवाएँ नियमित चल रही हैं।
अगले पीरियड में अचला की क्लास थी। वे उठीं और शनैः–शनैः क्लास की ओर चल दीं। इस लम्बे बरामदे के अन्तिम छोर वाले क्लासरूम में जाना है। पर्स को कंधे पर लटकाये वह क्लासरूम की ओर बढ़ने लगीं।…..
……ओह! कंधे पर लटका पर्स भी कभी–कभी कितना भारी लगता है। जब कि उसमें कुछ विशेष भारी वस्तुएँ नही होतीं। कभी–कभी इच्छा होती है कि कहीं रख दें। किन्तु इसे साथ ले कर चलने की विवशता हैं। चश्मा, मोबाईल फोन, पेन, डायरी, कुछ अन्य शिक्षण सामग्री पर्स में ही रहता है।
’’ मेम जी, पर्स हमको दे दीजिए। हम क्लास तक पहुँचा दें। ’’ यह विद्यालय की आया संगीता का स्वर था। संगीता बरामदे कुछ काम कर रही थी। अचला को पर्स लेकर धीरे–धीरे क्लास रूम की ओर जाते देखा तो शीघ्रता से आकर पर्स पकड़ लिया और उसे क्लास रूम की मेज पर लाकर रख दिया। उसके पीछे–पीछे अचला भी क्लास रूम में आ गयीं और बच्चों को पढ़ाने में व्यस्त हो गयीं।
अपनी क्लास लेकर अचला पुनः उसी स्थान पर आकर बैठ गयीं जहाँ सुबह धूप में कुर्सी लगवायी थीं। दोपहर का समय हो रहा था। इस समय धूप सुबह की अपेक्षा कुछ अधिक चटक हो गयी थी। फिर भी अच्छी लग रही थी। हवाओं में सर्दियों के आने की आहट थी। कुछ ही देर में मध्यावकाश की बेल बज गयी।
सभी कक्षाओं की बच्चियाँ अपना–अपना लंच बाक्स लेकर फील्ड में आ गयीं। विद्यालय का पूरा प्रांगण बच्चियों की आपसी बातचीत, खिलखिलाहट तथा विभिन्न प्रकार के भोजन की सुगन्ध से भर गया।
अचला के लंच और दवा का भी यही समय है। अतः उन्होंने भी यही गुनगुनी धूप में बैठकर लंच करना ठीक समझा। संगीता से स्टाफ रूम से अपना लंच बाक्स और पानी की बोतल वहीं पर मंगा लिया। उनकी सहयोगी अध्यापिकाओं ने उन्हें लंच करने के लिए स्टाफ रूम में बुलाया भी किन्तु उन्होंने धूप में ही लंच करने की अपनी इच्छा जताई।
लंच समाप्त कर अचला ने अपनी शुगर की दवा खाई तथा इत्मीनान से बच्चों को खेलते हुए देखने लगीं। खिलखिलाते बच्चों को देखते–देखते वह विगत् दिनों की स्मृतियों में जाने लगीं।…… आज से लगभग सत्रह वर्ष पूर्व जब वह स्थानान्तरण के पश्चात् यहाँ आयी थी, तब वह युवती तो नही थी किन्तु वे दिन युवावस्था के दिनों के सदृश ही थे। तब उन्हें गठिया–वठिया नही थी। शुगर भी बाद में निकली थी।
दोनों बच्चे युवावस्था की ओर बढ़ रहे थे। सेवानिवृत्ति आदि तो सोचने की बात भी नही थी। यह शहर उनके पति का पैत्रिक शहर था। अचला के पति भी नौकरी में थे। उनकी पोस्टिंग इसी शहर में थी। वे अपने पैत्रिक आवास में अपने संयुक्त परिवार के साथ रहते थे।
बच्चे बड़े होने लगे। उनकी आवश्यकताएँ भी बढ़ने लगीं। अचला और उनके पति को एक नये घर की आवश्यकता महसूस होने लगी। अन्ततः उन्होंने इसी शहर में एक नया घर ले लिया। जिसमें वह अब तक रह रही हैं।
उन दिनों अचला के सपनों को मानो नये पंख मिल गये। बच्चों के साथ भावनात्मक लगाव और सफलता की नयी परिभाषा उन्होंने गढ़ी। भावनात्मक इसलिए कि बेटी ने उच्च शिक्षा पूरी की तथा अपनी पसन्द की एक निजी कम्पनी में काम करने लगी। समय के साथ उसका विवाह भी कर दिया।
बेटी की विदाई का अर्थ तो प्रत्येक माता–पिता जानते हैं। बेटी को विदा कर घर के सूनेपन को भरने का असफल प्रयास वह कर ही रही थी कि एक दिन बेटे ने उनके समक्ष अपने प्रेम विवाह की इच्छा प्रकट कर दी। बेटा इसी शहर के एक निजी कम्पनी में काम करता था। नौकरी के अभी छः माह भी व्यतीत नही हुए थे कि बेटे का यह प्रस्ताव? अचला इसके लिए अभी मानसिक रूप से तैयार नही थी।
बेटे का यह प्रस्ताव कुछ अप्रयाशित–सा था। बेटे ने बताया कि वह अपने साथ काम करने वाली किसी युवती के साथ विवाह करना चाहता है। अचला बेटे के प्रेम विवाह के विरूद्ध नही थीं। उनके अनुसार यह सब कुछ थोड़ा शीघ्र था। फिर भी अचला और उनके पति ने बेटे की खुशियों को प्राथमिकता थी। सभी रस्मों–रिवाजों को निभाते हुए अचला ने बेटे का व्याह कर दिया। बहू घर में आ गयी। बेटा बहुत खुश था। बेटे की खुशियों से बढ़ कर अचला व उनके पति के लिए कुछ और न था। अतः वे भी खुश थे।…..
……टन….टन…..टन……छठे पीरियड की घंटी बजी। इस समय अचला को अपनी क्लास लेनी थी। विगत् स्मृतियों को दरकिनार करते हुए वे उठीं और क्लास की ओर बढ़ चलीं।
युवा मौसम और अचला के उम्र की उतरतीं सीढ़ियाँ उन्हें गाहे–बगाहे विगत् दिनों की ओर ले कर चले ही जाते हैं। क्लास लेने के पश्चात् अचला बाहर निकलीं तो मौसम का हाल जानने के लिए आकाश की ओर देखा। दिन की गुलाबी धूप में जो हवाएँ अच्छी लग रही थीं, इस समय सर्द हो चली थीं।
अब अचला ने स्टाॅफ रूम में बैठना उचित समझा। वे जानती हैं कि नवम्बर माह की ये हवाएँ कभी–कभी तीव्र गति से चलने लगती हैं तो मौसम में ठंडक बढ़ जाती है। कमजोर होते जाते शरीर के अस्वस्थ होने का अंदेशा बढ़ा देती हैं।
’’ मैम, आज तो सारा दिन आप धूप का आनन्द लेती रहीं। आइए, कुछ देर हम लोागों के साथ बैठ जाइए। ’’ जैसे ही अचला स्टाफ रूम में गयीं उनकी सहयोगी सोनाक्षी जो उनसे उम्र में लगभग बारह वर्ष छोटी है, ने कहा। सोनाक्षी उनसे चुहल भरी हास परिहास करती रहती है, जो अचला को अच्छी लगती है।
’’ आज सर्दी कुछ बढ़ी है। धूप में बैठना अच्छा लग रहा था। ’’ हँसते हुए अचला ने कहा। अचला की बात सुनकर सोनाक्षी भी हँस पड़ी।
…..कितना हँसमुख चेहरा है इसका। हो भी क्यों न? इस उम्र में सब कुछ अच्छा ही होता है। वह भी तो इस उम्र में ऐसी ही थीं। हँसती–मुस्कराती रहती थीं। उन दिनों सब कुछ अच्छा भी तो था। परिवर्तित होते–होते उन दिनों का रंग ऐसा हो जाएगा इस बात का आभास उन्हें तनिक भी न था। सोनाक्षी भी कहाँ जान पाएगी परिवर्तित होते जाते दिनों के इस रहस्य को। अच्छा है अभी न जाने। उन्मुक्त होकर कुछ जी ले…..खिलखिला ले।…..अचला मन ही मन सोचने लगी और सोनाक्षी को देखकर पुनः मुस्करा पड़ी जो अपने काम में व्यस्त थी।
यह एक यथार्थ है कि बच्चों को बड़े होने में देर नही लगती। माता–पिता समझते हैं कि बच्चे अभी छोटे हैं सहसा एक दिन पता चलता है कि बच्चे बड़े हो चुके हैं। इतने बड़े कि अपना निर्णय अब स्वंय ले सकते हैं।
ऋतुएँ कब आती हैं…कब चली जाती हैं उसका आभास तक नही होता। समय शनैः–शनैः जीवन की कहनी बुनता रहता है। हाँ, जीवन एक कहानी ही तो है जिसमें अनेक उतार–चढ़ाव, सुख–दुख, के पश्चात् क्लाइमेक्स के क्षण आते हैं, जो कभी सुखान्त होते हैं तो कभी दुखान्त। उम्र के इस पड़ाव पर आकर जीवन के उन रंगों से अचला भली–भाँति भिज्ञ हो चुकी हैं।
चार बजे छुट्टी की घंटी बजी। स्टाफ के साथ अचला बाहर निकलीं। गेट पर एक किनारे उनका आॅटो खड़ा था। अचला आॅटो में बैठी और उनका आॅटो चल पड़ा। आज उन्हें अत्यधिक थकान का अनुभव हो रहा था। शरीर इतना थका पहले कभी नही लगा।
वे आराम की मुद्रा में आॅटो में बैठ गयीं। बाहर भागते हुए शहर की सड़क पर गाड़ियों को देखने में तल्लीन हो गयीं। देखते–देखते स्मृतियाँ न जाने कब विगत् दिनों की ओर ले जाने लगीं।……
…….विगत् दिन? हाँ, वही युवावस्था के दिन तो जीवन के सबसे खूबसूरत दिन होते हैं। उस समय दो नन्हें बच्चों….एक पुत्र व एक नन्हीं पुत्री की माँ थीं अचला। सब कुछ प्राप्त था। सरकारी विद्यालय में नौकरी अलग से थी। उस समय शरीर पूरा साथ दे रहा था। सपने देखती थीं। सपने पूरे करने का माद्दा भी रखती थीं।
…..बच्चों की सम्पूर्ण देखभाल से लेकर घर के कार्याें का सम्पादन तक सब कुछ भली प्रकार कर ले रही थीं। न कोई थकान न कोई शारीरिक कठिनाई। समय भी तो तीव्र गति से आगे बढता चला जा़ रहा था। बच्चे बड़े हो गये। बेटी का विवाह कर चिन्तामुक्त हो गयीं। बेटे का भी विवाह उसकी पसन्द की लड़की से कर के संतुष्टि का अनुभव कर रही थीं। कुछ वर्षाें….यही कोई दो–तीन वर्षाें में बेटे–बहू का स्थानान्तरण दूसरे शहर में हो गया था। और वे वहीं सेटल हो गये थे। नौकरी की बात थी तो उन्हें जाना ही था।
……सही अर्थाें में वे चिन्तामुक्त कहाँ हो पायी थीं? उन्हें अपनी सेवानिवृत्ति की तिथि ज्ञात थी। समय की गति की तीव्रता का अनुमान उन्हें तब ज्ञात हुआ जब प्रिंसिपल ने इस नवीन सत्र में सेवानिवृत्ति होने वाले शिक्षकों के नाम की घोषणा करते हुए औपचारिक जानकारी दी।
ऐसा नही कि उन्हें उनकी जन्मतिथि नही ज्ञात थी। उन्हें स्मरण था…..सब कुछ स्मरण था। किन्तु सब कुछ इतना शीघ्र आ जाएगा, इसके लिए वो तैयार नही थीं। बस, यही कारण है कि वो थोड़ी असहज हो गयी थीं।
…..उनके असहजता के अन्य कारण भी तो हैं वो ये कि वो यह कि घर में फैला सन्नाटा उहें अवकाश के दिनों जैसे कि ग्रीष्मावकाश या अन्य पर्वों के कुछ लम्बे अवकाशों में सन्नाटा चुभने लगता है। तो सेवानिवृत्ति के पश्चात् प्रतिदिन घर में रहने वाला समय कैसे व्यतीत होगा?
अचला के मन में कभी–कभी यही विचार उठते हैं और वो सेवानिवृत्ति के पश्चात् आने वाले कठिन समय को व्यतीत करने के उपाय की तलाश करने लगती हैं।
अचला घर पहुँचीं। पर्स से दरवाजे के इण्टरलाॅक की चाभी निकाल कर दरवाजा खोला और अन्दर दाखिल हुईं। अचला जानती थीं कि उनके पति इस समय सो रहे होंगे। वो जब भी सोने जाते हैं घर का मुख्य दरवाजे के इण्टरलाॅक को बन्द कर सोने जाते हैं। उस इण्टरलाॅक की एक चाभी अचला अपने पर्स में रखती हैं। इसी दिनचर्या से जीवन बँधा है।
बाहर के मौसम में कुछ ऊष्मा–सी थी किन्तु घर के भीतर का वातावरण बेहद ठंडा था। अचला के पति मंकी कैप लगा कर कम्बल ओढ़ कर लेटे थे।
’’ घर के भीतर ठंड बहुत है। ’’ कमरे में आकर अचला ने अपने पति से कहा। वे जानती थीं कि उनके पति इस समय लेटे भर होंगे। ऐसे में नींद कहाँ आती है।
’’ ठंड तो है। घर के बाहर कम ठंड है क्या? ’’ अचला के पति ने उनसे पूछा।
’’ हाँ, धूप निकली थी। बाहर का वातावरण अच्छा है। अब थोड़ी हवा चलने लगी है। जिसके कारण दिन की अपेक्षा कुछ ठंड बढ़ गयी है। ’’ अचला ने कहा।
’’ हूँ। ’’ कह कर अचला के पति चुप हो गये।
अचला जानती हैं कि उनके पति आजकल कभी–कभी ही घर से बाहर निकलते हैं। वो भी तब जब घर की आवश्यकता की कोई चीज लानी होती है। अन्यथा तो अधिकांशतः तो घर में ही रहते हैं। कभी–कभार बैंक जाते हैं। जब से सेवानिवृत्त हुए हैं तब से लाईव सर्टीफिकेट देने जाते हैं।
घर–गृहस्थी की रोजमर्रा की वस्तुएँ यथा सब्जी वाले आदि तो दरवाजे पर ही आ जाते हैं, तो ले लेते हैं। यूँ भी दो जनों के बीच सब्जी आदि की खपत ही कितनी है ? घर में अवश्यकता की वस्तुएँ आवश्यकता से अधिक है। बर्तन, टी0वी0, सोफे, अलमारियाँ आदि सब कुछ है। अधिकांशतः राशन और सब्जियाँ ही मंगानी पड़ती हैं, वो भी थोड़ी मात्रा में।
हाँ, एक चीज जो अति आवश्यक है, महीने में दो या कभी–कभी तीन बार भी मंगानी पड़ती है, वो है दवाईयाँ। अब तो जैसे दवाईयों पर ही जीवन निर्भर हो गया है। एक टाईम की दवा भूल बस छूट गयी तो दो–तीन घंटे के पश्चात् शरीर पर दवा छूटने का प्रभाव महसूस होने लगता है।
पहले तो अचला के पति दावईयाँ लेने मेडिकल स्टोर तक चले भी जाते थे। जब से मेडिकल स्टोर वाला होम डिलीवरी करने लगा है तब से फोन कर देने पर और दवाएँ घर आ जाती हैं। इस उम्र में इन सुविधाओं से बहुत आराम हो गया है।
…..दिन तो मानों पंख लगाकर उड़ते चले जा रहे हैं। जनवरी माह प्रारम्भ हो गया। सर्दी अपने चरम पर थी। कोहरा, गलन, बर्फीली हवाएँ सब कुछ सितम ढा रही थीं। प्रतिकूल मौसम को देखते हुए प्रशसन ने विद्यालय के समय को एक घंटे आगे बढ़ा दिया था। इस उपाय से भी राहत नही थी।
जहाँ दिन भर कोहरा छँटने का नाम नही ले रहा था। तापमान गिरता चला जा रहा था। अन्ततः प्रशासन को चार दिनों के लिए विद्यालय बन्द करने का आदेश देना पड़ गया।
’’ चलो ये अच्छा हुआ कि चार दिनों तक विद्यालय बन्द रहेगा। मुझे भी कुछ दिनों की राहत मिल गयी। ’’ अचला सुबह कुछ देर से उठीं और पति से कहा।
’’ हूँ ’’ । सदा की भाँति उनके पति ने बस इतना ही कहा।
अचला जानती हैं कि उनके पति बहुत कम बोलते हैं। अपनी अधिकांश बातचीत हाँ….हूँ…से पूरी कर लेते हैं। लगता है बोलने का काम अचला के जिम्मे है।
’’सुनो, बस कुछ दिनों पश्चात् मैं सेवानिवृत्त होकर घर में रहूँगी। तब हम लोग सुबह के रूटीन में कुछ चेंज करेंगे। ’’ सुबह की चाय अपने पति के साथ पीते हुए अचला ने कहा।
’’ हाँ, ठीक है। ’’ उनके पति ने चाय का एक भरपूर घूँट भरते हुए कहा।
’’ हमारी आदत बन गयी है सुबह उठने की, तो हम उठ कर कुछ देर बाहर टहलने के लिए चला करेंगे।
’’ हूँ। ’’ अचला के पति ने कहा।
इधर चार दिनों तक अचला को आराम था। सुबह का कुछ समय रजाई में कट जाता। धूप निकलती तो दोपहर को छत पर कुछ देर के लिए चली जातीं। शाम का समय हीटर के सहारे कट जाता।
चार दिन जैसे चार पल में व्यतीत हो गये। विद्यालय खुल गया। किसी प्रकार सुबह अचला उठीं और तैयार होकर विद्यालय के लिए निकल पड़ीं।
’’ बस कुछ दिनों की बात है। इसी इक्कतीस मार्च तक ही। तत्पश्चात् कुछ आराम हो जाएगा। ’’ घर से बाहर निकलते समय अचला ने दरवाजे तक छोड़ने आये अपने पति से मुस्कराते हुए कहा। अचला के पति ने सहमति में सिर हिलाया और मुस्करा दिये।
समय अपनी गति से चलता जा रहा था…पता नही उसकी गति धीमी थी या तीव्र। मार्च माह का अन्तिम दिन आ ही गया। अचला सेवानिवृत्त हो कर घर आ गयीं।
इस समय मौसम भी खुशगवार हो गयाा था और अचला की तबीयत भी ठीक लग रही थी। अभी कुछ दिनों पूर्व की बात थी। विद्यालय जाना नही चाहती थीं। सोच रही थी कि कैसे ये कठिन दिन कटेंगे। कटेंगे भी या नही? और आज अचला निश्चिन्त होकर घर में थीं।
….मई माह के दिन आ गये हैं। मौसम में गर्मी समा चुकी हैं। एयरकंडीशनर चलाने पर ठंडक लगने लगती है, बन्द करने पर गर्मी। पंखा गर्म हवा फेंकता है। मौसम और उम्र का अजब हाल है। आजकल अचला की मनःस्थिति अलग है और मौसम भी अपना अलग रंग दिखा रहा है।
आज तो अचला को रसोई में काम करते–करते चक्कर ही आने लगा। तत्काल अचला आधे–अधूरे काम छोड़कर दीवार पकड़–पकड़ कर रसोई से बाहर आ गयीं। वे बेडरूम मेें आ गयी। बेडरूम में ए0 सी0 चल रहा था।
’’ काम करते–करते सहसा न जाने क्या होने लगा…..घबराहट होने लगीं। चक्कर आने लगा। ’’ बेड पर बैठ कर अचला ने पसीना पोंछते हुए कहा।
’’ अरे! क्या हो गया? ’’ अचला को परेशान देखकर उनके पति उनके पास आकर खड़े हो गये और अचला के माथे पर हाथ रखकर उनका बुखार देखने गले।
’’ कैसी तबीयत है? डाॅक्टर के पास लेकर चलंे क्या? ’’ अचला को परेशान देखकर उनके पति व्याकुल हो गये। सोचने लगे कि रात गहरी होती जा रही है। पत्नी को लेकर जाएँ तो कहाँ जाएँ? प्राइवेट डाक्टर्स की क्लिनिक बन्द होने वाली होगी। सरकारी अस्पताल थोड़ी दूरी पर है। पता नही इस समय वहाँ डाॅक्टर मिलेंगे या नही?
सोचते–सोचते अचला के पति ने अचला की ओर देखा। अब उन्हें अचला की तबीयात ठीक लग रही थी। कदाचित् रसोई में गर्मी के कारण उनको बेचैनी होने लगी हो। ए0 सी0 के ठंडे कक्ष में आकर उन्हें कुछ आराम मिल गया हो। फिर थी ऐसी स्थिति के लिए फस्र्ट एड की जो दवा डाॅक्टर ने दी है, उसमें से एक गोली उन्होंने पत्नी को दे दी।
’’ रसोई में गैस पर सिम पर सब्जी चढ़ी है, उसे चलाना है। कहीं लग न जाये। ’’ अचला ने धीरे से कहा।
’’ तुम आराम करो। सब्जी मैं देख लूँगा। ’’ अचला के पति ने कहा और रसोई की ओर बढ़ गये।
रसोई में जाकर अचला के पति ने सब्जी चला दी। बस दो मिनट में सब्जी बन कर तैयार हो जाएगी। रोटियाँ अचला बना चुकी थीं। शाम को ऐसा ही हल्का–फुल्का भोजन रहता है। जो उम्र के अनुसार उनकी पाचनतंत्र को सूट कर जाये।
अब तो रात क्या, दिन का भोजन भी ऐसा ही हल्का–फुल्का रहता है। कभी इच्छा हुई तो अचला सप्ताह में एक–दो बार दाल–चावल आदि बना देती हैं। रसोई का काम समेट कर गैस आदि बन्द कर अचला के पति बेडरूम में आ गये।
’’ कैसा तबीयत है अब? ’’ आते ही उन्होंने पत्नी से पूछा।
’’ ठीक है। पहले से काफी ठीक है। बल्कि अब पूरी तरह ठीक है।….न जाने अचानक से क्या होने लगा ? प्रतीत हो रहा है कि गरमी के कारण ऐसा हुआ है। गर्मी भी तो बहुत पड़ रही है। ’’ मुस्कराने का प्रयत्न करते हुए अचला ने कहा।
’’ ठीक रहो। कहो तो भोजन लाकर दे दें? सब गरम है। अपनी शुगर आदि की दवा खा कर आराम करो। ’’ अचला के पति ने कहा।
’’ हाँ, थोड़ी देर में ले लेते हैं। तुम भी अपना भोजन ले आना। ’’ अचला ने कहा।
’’ कल डाॅक्टार के पास ले कर चलूँगा तुम्हें। ’’ पति ने कहा।
’’ हाँ, मैं भी सोच रही हूँ, डाॅक्टर को दिखा लेते हैं। किन्तु उससे पहले शुगर टेस्ट करानी होगी। तीन महीने पहले कराया था तो थोड़ी बढ़ी हुई निकली थी। वैसे भी डाॅक्टर के पास जाने पर वो शुगर की रिपोर्ट मांगेगा। नही तो टेस्ट करा कर रिपोर्ट दिखाने के लिए कहेगा। दो–दो बार जाना पड़ेगा। सोच रही हूँ पहले कल शुगर टेस्ट करा लूँ। रिपोर्ट आ जाये तब लेकर चलूँगी। पैथालाॅजी वाले को अभी फोन कर दो। सुबह आठ बजे आकर फास्टिंग का ब्लड सैम्पल ले ले। ’’ अचला ने कहा।
अचला के पति ने उनकी बात सुनकर सहमति में सिर हिलाया। पैथालाॅजी वाले को फोन करने के पश्चात् वे भोजन लेने रसोई में चले गये। अचला उठीं और पीछे–पीछे वो भी रसोई में चली गयीं।
’’ तुम यहाँ न आओ। यहाँ गर्मी बहुत है। बेडरूम में चलो। मैं भोजन लेकर आ रहा हूँ। ’’ अचला के पति ने कहा। अचला ने बेसिन में हाथ धोया और बेडरूम में आ गयीं।
कुछ ही देर में अचला के पति दो प्लेटों में भेजन लेकर आ गये। दोनों ने साथ–साथ भोजन किया। दोनों ने अपनी–अपनी दवाएँ लीं। अचला को ही नही उनके पति को भी शुगर है। वे भी चिकित्सक के परामर्श से दवा लेते हैं। रात्रि को सोने से पूर्व घर समेटने, अतिरिक्त लाईटें बन्द करने आदि का काम समाप्त कर अपने विचारों, जीवन के उलझे–सुलझे धागो को ओढ़ कर दोनों सो गये।
सुबह हुई दोनों प्रतिदिन की भाँति प्रातः उठ गये। ब्रश करने आदि क्रिया आदि से निवृत्त होकर पैथालाॅजी वाले की प्रतीक्षा करने लगे। अचला की तबीयत इस समय ठीक लग रही थी। अतः वो रसोई में जाकर चाय बनाने की तैयारी करने लगी। चाय तो ब्लड सैंपल देने के पश्चात् ही पीएंगीं।
काम वाली आएगी तो झाड़ू–पोंछा, बर्तन करेगी तथा दोपहर का भोजन बनाएगी। शाम का भोजन अचला स्वंय बनाती हैं। उनके पति कहते हैं कि शाम के भोजन के लिए भी काम वाली को बुला लिया करो। अचला कहती हंै कि शाम का भोजन वो स्वंय बना लेंगी। इससे रसोई में काम करने की आदत बनी रहेगी। काम वाली के कभी छुट्टी पर चले जाने पर भोजन तो बना लेंगी।
अगले दिन ब्लड सैंपल की रिपोर्ट
’’ तुम्हारी शुगर बढ़ी हुई है। डाॅक्टर के यहाँ चलना पड़ेगा। शाम का अप्वाइंटमेंण्ट ले लेता हूँ। तैयार रहना। ’’ अचला के पति ने कहा।
’’ ठीक है। मैं तैयार हो जाऊँगी। ’’ अचला ने कहा।
शाम को अचला व उनके पति डाॅक्टर के यहाँ गये।
’’ शुगर पहले की अपेक्षा बढ़ी हुई है। मैं इस बार दवाएँ बदल दे रहा हूँ। डोज भी बढ़ा दे रहा हूँ। कुछ और टेस्ट लिख दिये हैं। शीघ्र कराकर रिपोर्ट दिखा दीजिए। सुबह–शाम आधे घंटे टहलिए। टहलना आवश्यक है। चावल, चीनी बिलकुल बन्द करना होगा। ’’ डाॅक्टर की बातें अचला ध्यान से सुन रही थीं।
चीनी तो वह बिलकुल नही लेतीं। चावल अवश्य कभी–कभी ले लेती हैं वो भी थोड़ी मात्रा में। अब से वो भी नही लेंगी। हाँ, एक बात है कि वो टहलती बिलकुल भी नही है। घर के कार्यों के लिए चलने–फिरने को ही पर्याप्त मानती हैं।
तो अब टहलने का प्रयास करेंगी। किन्तु कैसे? उनके घुटनों में तो दर्द रहता है। चलने–फिरने में तकलीफ होती है। तो टहलेंगी कैसे? इन्हीं विचारों में गोते लगतीं, सोचते–विचारते, इन समस्याआंे का समाधान तलाशती पति के स्कूटर के पीछे बैठी हुईं अचला घर की ओर चल पड़ीं।
बीच में मेडिकल स्टोर पर स्कूटर रोककर उनके पति ने दवाईयाँ लीं। घर आकर अचला ने पुरानी दवाईयाँ हटाकर उनके स्थान पर नयी दवाईयाँ रख दीं। हाथ–मुँह धोकर वे बेडरूम में कुर्सी पर बैठ गयीं। उन्हें थकान लगने लगी। आज बहुत दिनों पश्चात् कदाचित् बाहर निकल कर थोड़ा बहुत चलने के कारण उन्हें ऐसा लग रहा था। गर्मी भी बहुत थी।
’’ थकान हो रही है। प्रतीत हो रहा है जैसे शरीर की सारी शक्ति किसी ने निचोड़ ली हो। ’’ अचला ने कहा।
’’ ठीक है। तुम आराम करो। आज खाने के लिए कुछ आॅनलाईन मंगा लेंगे। जो तुम कहोगी वो आर्डर कर दूँगा। ’’ अचला के पति ने कहा।
’’ ठीक है, अभी बताती हूँ। ’’ अचला ने कुछ सोचते हुए कहा।
’’ सुनिए! क्यों न कुछ दिनों के लिए बेटे या बेटी में से किसी को रहने के लिए यहाँ बुला लें? मैं सुबह–शाम थोड़ा बहुत टहल लूँगी और थोड़ा अराम भी कर लूँगी। क्यों कि टहल कर आने के पश्चात् घुटने का दर्द बढ़ जाता है। ऐसे में घर में जो थोड़ा बहुत काम कर लेती हूँ, वो भी नही कर पाऊँगी। ’’ कुछ देर सोचने के पश्चात् अचला ने कहा।
’’ किसे बुलाएंगे ये भी बताओ? बेटा अपने परिवार के साथ दूसरे शहर में रहता है। नौकरी करता है। अपना काम, अपना परिवार छोड़कर हमारे पास क्यों आएगा? रही बेटी की बात तो मैं जानता हूँ कि वो हमसे अत्यन्त स्नेह करती है, बेटे से कहीं अधिक। हमारे समाज में बेटी तो सदा से पराया धन रही है। उस पर हमारा क्या अधिकार है। वो भी तो परिवार वाली है। दो छोटे बच्चे हैं। अपनी घर गृहस्थी छोड़ कर हमारे साथ कुछ दिन रहे….हम ये उम्मीद क्यों करें? ’’ अचला के पति ने कहा।
पति की बात सुनकर अचला सोच रही थीं कि वे सही कह रहे हैं। साथ ही यह भी कि हमने जो कुछ अर्जित किया है वो सब कुछ मेरी बेटी नही, बेटा लेगा। साफ–सुथरी काॅलोनी में ये अच्छा–खासा बड़ा घर है जिसे मेरी बेटी नही, बेटा लेगा। तो कुछ दिनों के लिए बेटे को ही बुलाना ठीक रहेगा।
’’ तो क्यों न हम एक बार बेटे से पूछ कर देखें? वो नही आ सकता तो बहू और बच्चों को ही भेज दे कुछ दिनों के लिए। ’’ अचला ने पति से कहा।
’’ ठीक है। मैं बेटे से बात कर के देखता हूँ। तुम भी बात कर के देख लेना। ’’ अचला के पति ने कहा।
आॅन लाईन आर्डर किया हुआ भोजन आ गया। अचला और उनके पति ने भोजन किया। तत्पश्चात् दोनों शाम होने की प्रतीक्षा करने लगे। जब बेटा आॅफिस से घर आ जाये। ताकि बेटे बहू के समक्ष ही सारी बातें हो जायें।
शाम हुई। यह सोचकर कि बेटा घर आ गया होगा और चाय आदि भी पी चुका होगा। अचला के पति ने बेटे को फोन मिला दिया। उन्होंने बेटे से पत्नी की अस्वस्थता तथा कुछ दिनों के लिए बहू को भेज देने की बात कही।
’’ ठीक है मम्मी–पापा। अभी रंजीता ( बेटे की पत्नी का नाम ) से पूछ कर बताता हूँ। मैं उससे पूछ कर आपको फोन कर दूँगा। आप लोग मुझे फोन करने के लिए परेशान न होइएगा।’’ बेटे ने हकबकाते हुए कहा।
’’ ठीक है बेटा। ’’ कहते हुए अचला के पति ने फोन रख दिया।
’’ क्या कहा बेटे ने? ’’ अचला ने प्रसन्नता भरी उत्सुकता से पूछा।
’’ कहा है कि बहू से पूछ कर बताऊँगा। इस बारे में फोन न करने के लिए भी कहा है। फोन वो स्वंय करेगा। ’’ अचला के पति ने कहा।
पति की बात सुनकर कुछ समय पूर्व प्रसन्नता से दीप्त अचला का चेहरा तुरन्त बुझ गया। उन्होंने भी दुनिया देखी है। बाल यूँ ही तो धूप में सफेद नही हुए हैं। वे अनुमान लगा चुकी थीं कि बहू नही आएगी। फिर भी माँ का हृदय है। बेटे के लिए स्नेह और आशीर्वाद से भरा हुआ। वे बेटे के फोन की प्रतीक्षा करने लगीं।
एक दिन….दो दिन….तीन दिन….दिन पर दिन व्यतीत होते जा रहे थे। बेटे का फोन नही आया। वे प्रतीक्षा करती रहीं। बेटे का फोन न आना था, न आया।
दो सप्ताह पश्चात् सहसा बेटे का फोन आ ही गया।
’’ मम्मी अब कैसी तबीयत है? ’’ बेटे ने पूछा।
’’ अब ठीक है। क्या तुम आज आफिस नही गये? ’’ दोपहर का समय था इसलिए अचला ने पूछा। क्यों कि बेटा आॅफिस से घर जाकर शाम को फोन करता है। उस समय बहू से भी बात हो जाती है।
’’ नही मम्मी, आॅफिस से ही बात कर रहा हूँ। मम्मी, एक बात कहनी है वो यह कि छोटी–मोटी समस्याएँ जैसे कि आप लोगों की तबीयत इत्यादि खराब हो जाये तो आप और पापा अपने लेबल से वहीं पर मैनेज कर लिया कीजिए। मैं या रंजीता ऐसी छोटी–छोटी बातों के लिए वहाँ नही जा सकते। मम्मी आप समझ रही हैं न मेरी बात? पापा से भी बता दीजिएगा। ’’ बेटे की बात सुनकर अचला सकते में थीं। मुँह से कोई शब्द नही निकल पा रहे थे।
…..’’ आप अपना ध्यान रखिएगा। पापा का भी ध्यान रखिएगा। ठीक है? मैं फोन रख रहा हूँ। ’’ कह कर बेटे ने फोन काट दिया।
बेटे की बात सुनकर अचला का साहस जैसे टूटने लगा। परिस्थितियों वश बच्चे माता–पिता से दूर रहें वो ठीक है। किन्तु उनके दुःख–सुख के समय साथ खड़े हो जाएंगे, यह विश्वास बहुत बड़ा सम्बल देता है। इसी सम्बल के सहारे माता–पिता की जीने की इच्छा बढ़ जाती है। कदाचित् जीवन की अवधि भी बढ़ जाती होगी। अचला कुछ देर तक उसी प्रकार खड़ी रहीं और अपने डूबते हुए हृदय को समझाते हुए उसे संयत करने का प्रयास करने लगीं।
’’ क्या हुआ? बेटे का फोन था क्या? ’’ अचला को खड़े देख उनके पति ने पूछा।
’’ हूँ। ’’ अचला ने कहा।
’’ तुम्हारा बुझा हुआ चेहरा देखकर मैं समझ गया था कि अवश्य बेटे का ही फोन होगा। ’’ अचला के पति ने कहा।
’’ कह रहा था कि…..। ’’
’’ कुछ न कहो कि वो क्या कह रहा था…? तुम्हारे कहे बिना मैं उसकी कही बात समझ गया। चलो हम दोनों अपना–अपना काम करें और खुश रहें। ’’ अचला अपनी बात पूरी भी नही कर पायी थीं कि उनके पति ने उन्हें रोकते हुए कहा।
पति की बात सुनकर अचला रूआँसी होकर उनकी ओर देखने लगीं।
’’ ऐसे क्यों देख रही हो? अभी हम युवा हैं। उम्र तो संख्याओं की गिनती है। जब तुम युवा थी तो क्या उस समय तुम अस्वस्थ नही होती थी? दवा खाकर ठीक हो जाती थी कि नही? बस, ऐसा ही समझो। हमारे बच्चे हमारे साथ क्या खड़े होंगे…..उनको आवश्यकता होगी तो हम उनके साथ खड़े होंगे। अभी इतना दम और साहस है हम दोनों में। ’’ पति की बात सुनका अचला के नेत्रों में ठहरे अश्रु बहकर बाहर निकल कर भूमि पर गिर गये। अचला को ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हृदय में बहने वाली पीड़ा भरी नदी बहते–बहते कहीं दूर निकल गयी है। उनका मन अत्यन्त हल्का अनुभव कर रहा था।
हर बुजुर्ग का दर्द और हर परिवार में यही हो रहा है। बहुत अच्छी और मर्मस्पर्शी कहानी।