दीपावली की सफाई करते समय धूल खाती ऊपरी मंजिल की एक अलमारी में मिल गई, मेरी‌ वो नीली डायरी,,,मेरे कालेज के दिनों की डायरी,,जब मैं रोज की घटनाओं को अंकित करती थी,, यहां तक कि सहेलियों से हुए लड़ाई झगड़े भी.. बच्चों की तरह उल्लास में डूबे पलों की अनमोल यादें भी,, मैंने झट से डायरी उठाई , और बड़े मनोयोग से उसकी धूल साफ की,, संभाल कर रखते हुए मन बार बार भटक रहा था,,पर सोचा कि रात में इत्मीनान से पढूंगी..
रात को सब कामों से फुर्सत पाकर घर के लिए नये पर्दे सिलने के बहाने ऊपर के कमरे में आ गई,, धड़कते दिल से कुछ पन्ने पलटें,,बेहद पुराने से गले गये पन्नों में भी मेरी सुंदर लिखावट पहचान में आ रही थी,,, एक पन्ने पर जाकर मेरी नज़र अटक गई—
दो जून—दोपहर दो बजे–
शुक्ल सर के आने में देर है अभी ,, मैं और दुर्गेश दोनों कामन रूम में आकर बैठे ही थे कि कक्षा प्रतिनिधि कल्पना ने आकर बताया कि*तुम दोनों को सर बुला रहे हैं*पर हमारी बातें थीं कि खतम ही नहीं हो रही थी,हम टालते रहे,, अंततः दस मिनट लेट से पहुंचे कक्षा में,, शुक्ला जी ने घूर कर देखा और पिछले क्लास के नोट्स के आधार पर सवाल पूछने लगे सबसे,, मैं तैयार थी, और बहुत सी लड़कियां भी सवालों के जवाब दे रही थीं,,, ग्यारहवीं कक्षा में भी उस समय स्कूल जैसा ही अनुशासन और मर्यादा होती थी,, दुर्गेश के पास जवाब देने के लिए कुछ नहीं था, मुझे सवालों के जवाब देते हुए देखकर वो चकित थी,,*धीरे से पूछा*तुझे कैसे मालूम?तुमने मुझे तो ये नोट्स दिए नहीं, मैं उस दिन आई नहीं थी**
अब मेरा दिमाग घूम गया, और याद आया कि मैंने सचमुच उसको नोट्स नहीं दिए थे,, जैसे कि हम दोनों में एक अघोषित समझौता था कि एक दूसरे की अनुपस्थिति में हम नोट्स दिया करेंगे, और मैंने अपना वादा तोड़ दिया था,,पूरी क्लास के सामने उसकी स्थिति ख़राब थी, और ऊपर से शुक्ला सर ने उसे क्लास से बाहर जाने के लिए कह दिया, वह आंखों में आंसू भरे बाहर निकल गई थी, और वहां से सीधे घर,,,
10 जून–सुबह दस बजे
दुर्गेश आज भी कालेज नहीं आई थी,,, मुझे बहुत बुरा लग रहा था,शाम को जब उसके घर गई तो पता चला कि दुर्गेश गोरखपुर चली गई है, अपने मामा के घर, वहीं पढ़ाई करेगी,, और आंटी अंकल फैजाबाद अपनी नमी पोस्टिंग पर, मैं तो अवाक और हतप्रभ रह गई, उसने मुझे माफ़ी मांगने का भी मौका नहीं दिया,, और संयोग भी कैसा,,कि दुबारा मुलाकात भी नहीं हुई,
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17 सितम्बर
परीक्षाएं नजदीक थीं, पढ़ाई में मेहनत करती थी,पर वो उत्साह अब नहीं रहा,, दुर्गेश से मिलने,माफी मांगने की इच्छा अधूरी रह गई,,
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उस जमाने में आज की तरह मोबाइल तो होते नहीं थे कि दुर्गेश का हालचाल पूछ पाऊं,,, परीक्षाएं समाप्त हुई,मैं पास भी हो गई, परंतु अपनी सखी के साथ इस सफलता का जश्न मनाने का उत्साह कुछ और ही होता,,
फ़रवरी-7
बारहवीं में एडमिशन के तुरंत बाद मेरे पिताजी का स्थानांतरण हमीरपुर बुन्देलखण्ड के डिग्री कॉलेज में हो गया, और हमें सपरिवार वहां जाना पड़ गया, घर में मेरे विवाह की तैयारियां शुरू थीं,,टाटा स्टील में अच्छे पद पर कार्यरत लड़का मिलने का‌ मौका गंवाए बिना मेरे चाचाजी ने विवाह तय कर दिया,, और मैं सोलह वर्ष की उम्र में जमशेदपुर आ गई,नया माहौल,,नया परिवेश,नये लोग,, और मैं अकेली,,अपनी सखी को याद करती ,,
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आज तो गूगल है, इंटरनेट हैं,पर उस जमाने में हमें ये सुविधाएं नहीं थीं,, अचानक एक दिन पोस्ट मैन ने तार दिया कि coming soon,,,, उसके बाद न कोई अता न पता.. न नाम.. भेजने वाले के नाम को वर्षा की बूंदों ने धो दिया था,, और मैंने वह पत्र उठा कर डायरी में रख दिया,, उसमें कोई नंबर था, पर मैंने ध्यान नहीं दिया,,
फ़रवरी 15–
मैं गृहस्थी की आपाधापी में बस उस पत्र भेजने वाले को याद कर रही थी,पता नहीं कौन है, क्यों आ रहा है,सात दिन तो हो गये,,आएगा भी या नहीं,,,,
सुबह की चाय बनाने ही जा रही थी कि किसी ने पीछे से आकर मेरी आंखें बंद कर दी और हाथ से चाय का बर्तन छीन लिया और खुद चाय गैस पर चढ़ा दी,, तभी मुझे पति ने आवाज दी और मैं उधर चली गई,बार बार पीछे मुड़कर देखती कि कौन है,,पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था बाहर से,,
ड्राइंग रूम में एक युवक हंस हंस कर बातें कर रहा था, परिचय मिला कि पति के तकनीकी कालेज के दोस्त हैं, और मेरे घर सपत्नीक आए हैं,,ओह,तो वह उनकी पत्नी है,,
मैं दंग रह गई थी,यह अपरिचित हैं फिर भी इतनी आत्मीयता क्यों दिखा रही थीं, तभी ट्रे में चाय के कप, नमकीन बिस्कुट सजाएं जिस युवती ने प्रवेश किया,,वह  दुर्गेश थी ,!!!मेरी दुर्गेश,,,मेरी अपनी दुर्गेश,, आंसू मेरी आंखों से लगातार बहते जा रहे थे,,वह भी रो रही थी,,पूरा परिवार भाव विहवल था,,इस महामिलन से, अंततः वर्षों बाद हम मिले,,
वह मेरी सखी से आखिरी मुलाकात थी,,
अप्रैल 12
आज  मनहूस अप्रैल की बारह तारीख, है,जब सूचना मिली  है  कि दुर्गेश नहीं रही!!!!!!!
एक कार दुर्घटना में वह सपरिवार,,
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4 अक्टूबर–,
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डायरी के लगभग बीस पन्ने खाली थे, उसके बाद कविताएं थीं,बस, फिर कभी डायरी नहीं लिखी, आज अचानक मिली इस डायरी ने अपनी सखी से मिलवाया था मुझे,, मैं उसे छाती से लगाए , उसके होने के अहसास को महसूस कर रही थी,
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आज  आनंद बाला दीदी ने इस‌ विषय को लेकर बहुत सी बातें याद दिला दी है, हार्दिक धन्यवाद आपका,

2 टिप्पणी

  1. पुरवाई*में प्रकाशित होना मेरे लिए सौभाग्य है, शुरू से ही इसका सारगर्भित, सार्थक संपादकीय, और संवेदनशील कहानियां कविताएं मुझे गौरवपूर्ण अनुभूति देती रही है,, पत्रिका के संपादक आदरणीय तेजेन्द्र शर्मा जी एवं उनकी यशस्वी टीम को साधुवाद, शुभकामनाएं
    सभी को प्रकृति के जागृत देवता सूर्य पर्व छठ की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं
    पद्मा मिश्रा, जमशेदपुर झारखंड

  2. पुरवाई*में प्रकाशित होना मेरे लिए सौभाग्य है, शुरू से ही इसका सारगर्भित, सार्थक संपादकीय, और संवेदनशील कहानियां कविताएं मुझे गौरवपूर्ण अनुभूति देती रही है,, पत्रिका के संपादक आदरणीय तेजेन्द्र शर्मा जी एवं उनकी यशस्वी टीम को साधुवाद, शुभकामनाएं
    सभी को प्रकृति के जागृत देवता सूर्य पर्व छठ की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं
    पद्मा मिश्रा, जमशेदपुर झारखंड

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