डॉ. मिथिलेश कुमार त्रिपाठी
“अनहद बाजे (वीणा मन की)” संज्ञक काव्य ग्रन्थ की कविताओं का अध्ययन करते समय मैं डॉ. विमला व्यास जी के उस अद्भुत मानस-लोक में अनायास पहुँच गया, जिसके हृदय-देश (केन्द्र) में भावना का महासागर अवस्थित है। जो बाहर से देखने में तो शान्त-प्रशान्त और सन्तुष्ट है, किन्तु उसके भीतरी भाग में अनुभूतियों के अनवरत आलोड़न के कारण विविध विचार-वीथियाँ उठ रही थीं। अनुभूतियों की गहन परतों का वेधन करता हुआ जब मेरा मन भाव-सागर के अतल गर्भ में पहुँचा तो पाया कि वहाँ समष्टि मन की चेतन वीणा अनवरत बजती हुई अस्फुट स्वरों में अनहद नाद-निनादित कर रही है और अधिक गहराई में प्रविष्ट होने पर पाया कि मन की वीणा को बजा रहा है वह प्रेमानन्द, जो न जाने कितने जन्मों से निरन्तर संघनित और समृद्ध होता जा रहा है। कुछ और गहरे उतरने पर मैंने पाया कि प्रेमानन्द का मूल स्त्रोत है ब्राह्मी चेतना का विलास। इसके आगे की गहराई में उतरने की शक्ति मेरी मति-प्रज्ञा के पास नहीं थी। अतः वहीं रुककर चिद्विलास के ध्यान-रस में निमग्न हो गया। जब वहाँ से बाहर निकला तो स्मृतियों के सहारे रसानुभूतियों को व्यक्त करने के लिए व्यग्र हो उठा। 
अनहद बाजे (वीणा मन की) में कुल एक सौ तीन कविताएँ और सत्ताईस क्षणिकाएँ संकलित हैं। सभी का उद्गम जीवनानुभूतियों से हुआ है। प्रकृति की नियम-व्यवस्था के अनुसार नियत समय पर कवयित्री के जीवन-उपवन में भी चुपके-चुपके मधुमय वसन्त का पावन प्रवेश हुआ था, जिसके परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण अन्तर्जगत सघन हरीतिमा से आच्छादित हो गया था और तन-तरूवर, आपाद-मस्तक, उल्लास-कोपलों की लालिमा में नहा उठा था। हृदय-कमल के कोमल कोष में मधु कणिकाओं की सुधर सृष्टि के प्रभाव से मीठी-मीठी कल्पनाएँ मानस लोक में क्रीडा करने लगी थीं। वासन्तिक समीर के संस्पर्श से रोमछिड़ो में जब सिहरन उठती थी, तब मन की वीणा के तार झंकृत हो उठते थे और चेतना की गहनतम पर्त के बीच से अनहद नाद का प्रवाह ऊर्ध्व पथ की ओर प्रवाहित होने लगता था। प्रवाह-पथ पर बिखरते हुए अनहद नाद के अनन्त-अपार मधु-कणों में से कुछ को संचित करके डॉ. विमला व्यास जी ने शब्दों की सुन्दर माला में पिरो दिया है। ऐसी ही मधु-मालाओं का सुघर समुच्चय है “अनहद बाजे (वीणा मन की)।” 
जीवन के वासन्तिक प्रेम की उच्च भावभूमि पर अवलम्बित होने के कारण “अनहद बाजे” काव्य की कविताएँ अपनी प्रभावी क्षमता में अद्भुत हैं। पाठकों के समक्ष आते ही इनकी पंक्तियाँ लोचनों के मार्ग से होती हुई बड़ी तीव्रता से हृदय-पटल पर आच्छादित हो जाती हैं। उस समय वह अनुभूतियों की असीम माधुरी में इतनी गहराई तक डूब जाती है कि पलकें बन्द हो जाती हैं और बाल मन कल्पना की किसी रंगीन दुनिया में विचरण करने लगता है। तब पाठक यह सोच-सोच कर हैरान हो जाता है कि कवयित्री ने मेरे ही जीवन को लक्ष्य करके इन कविताओं की रचना की है। कविताओं की पंक्ति-पंक्ति में, बल्कि शब्द-शब्द में वह स्वयं को समाहित पाता है। 
“अनहद बाजे” में संकलित सभी कविताएँ शब्दों के लघु कलेवर में भावों का विशाल सागर समेटे हुए हैं। जैसे-जैसे पाठक धैर्यपूर्वक चिन्तन-शक्ति के सहारे शब्दों की पर्तें खोलता जाता है, वैसे-वैसे वह भवसागर के दुःखावरण को पास करता हुआ भाव-सागर के अमृत-कलश के निकट पहुँचता जाता है। अन्तिम पर्त को हटा लेने के बाद वह अमृत-कलश को हस्तगत कर लेता है और उसके पान का वही आनन्द प्राप्त करता है, जिसे कवयित्री ने काव्य-रजना के समय प्राप्त किया था। कवि-अनुभूतियों का सामान्य हो जाना ही साधारणीकरण कहलाता है। जिस कवि की कविता में साधारणीकरण की शक्ति जितनी अधिक होती है, उसका कवि-कर्म उतना ही सफल माना जाता है। डॉ. विमला व्यास जी ने अपने तारूण्य-काल प्रेमानुभूतियों को बड़ी ईमानदारी से कोमल-कान्त शब्दों के सहारे प्रकट कर दिया है, इसलिए उनमें साधारणीकरण के गुण स्वतः विकसित हो गये हैं। जो कविता अनुभूति की सच्चाई को छिपा कर लिखी जाती है, उसमें साधारणीकरण की क्षमता का विकास नहीं हो पाता। डॉ. विमला जी के निर्मल-निश्छल हृदय से उद्भूत होने के कारण ही उनकी कविताओं की भावानुभूतियाँ जन-सामान्य की अनुभूतियाँ बन सकी हैं। यहाँ कुछ कविताओं के भाववैशिष्ट्य को ग्रहण करने का प्रयास किया जा रहा है- 
“अनहद बादे” काव्य-संकलन की पहली कविता है “तुम जैसा…..।” कविता इस प्रकार है- 
बे-इन्तिहा
कोशिश की मैने
इस बावरे दिल को
रंग-बिरंगी 
दुनिया में लगाने की 
पर ये लगा नहीं
हर गली हर मोड़ पे
खोजा मैंने पर  
तुम जैसा कोई मिला नहीं। 
यह कविता पढ़ने में जितनी सरल और सामान्य है, समझने में उतनी ही गूढ़ और असामान्य। इसका अभिधार्थ इतना ही है कि बावला अर्थात् प्रेमदीवाना मन जिस पर लग जाता है, अर्थात जिसे अपना मान लेता है, उस-जैसा दूसरा व्यक्ति उसे नाना रूपात्मक जगत में दिखायी नहीं देता। इसका गूढ़ार्थ ग्रहण करने के प्रयास में सबसे पहला प्रश्न यह उठता है कि कोई मन बावला होकर किसी को दिल क्यों दे बैठता है? दूसरा प्रश्न यह है कि जो मन जिसका प्रेमदीवाना हो जाता है, उस- जैसा दूसरा उसे क्यों नज़र नहीं आता है? “नादाँ दिल” शीर्षक की पंक्तियों में ऐसे ही प्रश्नों की व्यंजना है, यथा-
सच में/ बेहद हैराँ हूँ/ परेशाँ हूँ मैं/ ये नादाँ दिल/ न जाने क्या कर बैठा/ मुझसे पूछा ही नहीं/ और फैसला कर बैठा/ जिस जमीं पर कभी/ टूटा सितारा भी नहीं गिरता/ उसके कण-कण से/ न जाने क्यूँ?/ बेपनाह मोहब्बत कर बैठा। 
इस प्रकार की आकर्षण’, एकात्म समर्पण’, मिलन की आकुलता’, रंगोज्ज्वल कल्पनाओं में खोना’, अज्ञात प्रियतम के दिल की गहराई में उतरने की चाहत’, उसे अपने हृदय की गहराई में समेट लेने की उत्कट अभिलाषा’, असंख्य कल्पनाओं एवं प्रत्येक मानव चेहरे में प्रियतम को खोजना’, प्रिय को सम्बोधित करके दिये गये मधुर उलाहनों द्वारा मन का मलाल निकालना’, प्रियतम पर एकाधिकार प्रकट करना’, एवं भावना के स्तर पर अभेद मिलन द्वारा अद्वैतानुभूति में डूब जाना आदि भाव-बोध से सम्बन्धित कविताओं की संख्या विवेच्य ग्रन्थ में सर्वाधिक है। इन कविताओं की विशेषता यह है कि इनमें प्रश्न तो किये गये हैं प्रकट रूप से, किन्तु उत्तर व्यक्त न करके व्यंजित किये गये हैं। सारे प्रश्नों का निचोड़ यह है कि ऐसा (प्रेम) क्यों हो जाता है? इसका उत्तर मुझे अनहद बाजे की कविताओं की गहन पर्तों में सिमटा हुआ मिला। 
“अनहद बाजे (वीणा मन की)” का केन्द्रबिन्दु है अज्ञात प्रियतम। वह अज्ञात परम प्रियतम, जिसके विषय में कबीर दास ने लिखा है- 
जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।
पुहुप वास ते पातरो, ऐसो तत्त्व अनूप।।
कविताओं का ध्वन्यार्थ बताता है कि जीवन के वासन्तिक काल में किसी दिन कवयित्री की भोली-भाली आँखों ने अचानक किसी व्यक्ति विशेष के दर्शन कर लिये। दर्शनोपरान्त उसका रूप सौन्दर्य आँखों में उतर कर सम्पूर्ण मनोलोक पर आच्छादित हो गया। अर्थात् मन पर उसका एकाधिकार हो गया। परिणाम यह हुआ कि मन की सारी क्रियाओं का संचालन उसी रूप सौन्दर्य के द्वारा होने लगा। रूपासक्त मन जागरण से लेकर शयन-पर्यन्त नाना प्रकार की कल्पनाओं और स्वप्नों में उसे खोज कर अभिलाषित जीवन व्यतीत करने लगा। कल्पना का सुन्दर जगत कितना मधुर होता है? इसे नापने का कोई पैमाना आज तक बना ही नहीं। 
सूक्ष्मीकरण के क्रम में प्रिय का गतिशील सौन्दर्य मन से हृदय में उतरा। वहाँ से चेतना की पर्तों का भेदन करता हुआ जब परम चेतना (आत्मा) तक पहुँचा तो कवयित्री के चर्म-चक्षुओं के भीतर के दिव्य चक्षु खुल गये और प्रिय की भौतिक काया में अलौकिक प्रियतम के दर्शन होने लगे। उसे “तत्त्वमSसि” (वह तुम ही हो) का बोध हुआ और वह अद्वैत आनन्द की अनुभूति में खो गयी। “एक से दो होने की अभिलाषा” (एकोSहं बहुस्याम् से शुरु होकर कवयित्री का जग-जीवन “मेरे अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं” (एकोSहं द्वितीयो नास्ति) के यथार्थ भाव-बोध में परिणत हो गया। इसी परिवर्तित जीवन-दशा की उपज हैं “अनहद बाजे (वीणा मन की) की कविताएँ। 
डॉ. विमला व्यास जी की प्रेम-साधना लौकिक सौन्दर्याकर्षण से शुरू होकर जब अलौकिक प्रेम की उच्च भाव-भूमि तक पहुँची, तो उसे जीवन और जगत की वास्तविकता का ज्ञान हुआ। अपने वैयक्तिक प्रेमानुभूतिपरक ज्ञान को उसने सर्व संवेद्य बनाने के उद्देश्य से कविता का सहारा लिया। उनकी कविताएँ हमें बताती हैं कि समूची सृष्टि के उद्भव और विकास का शाश्वत प्रवाह, आकषर्ण और मिलन की अविच्छिन्न क्रिया का परिणाम है। आकर्षण ही प्रकारान्तर से प्रेम कहलाता है। भारतीय ज्ञान-परम्परा में प्रेम को जगत का सार और आधार दोनों बताया गया है। यह प्रेम होता क्यों है? इसे हम डॉ. विमला व्यास जी की कविताओं के मन्थन से प्राप्त ज्ञान के आधार पर समझने का प्रयास करते हैं, तो पाते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि-विकास अर्थात जागतिक प्रपंच का कारण आकर्षण है। आकर्षण से ही सृष्टि का उद्भव होता है। आकर्षण में ही वह स्थिर रहती है और आकर्षण के आवर्तन में ही उसका लय होता है। शून्य-मण्डल में दिखायी देने वाले अनन्त ग्रह-नक्षत्र परस्पर के आकर्षण में खिंच कर ही अपनी-अपनी कक्षा में परिक्रमा कर रहे हैं। 
यह एक विज्ञान-सम्मत सत्य है कि सृष्टि में पदार्थ, चेतना, भावना आदि से सम्बन्धित जो कुछ भी है, उन सबका निर्माण परमाणुओं से हुआ है। परमाणु का काम है अपने समानधर्मी परमाणुओं को अपनी ओर आकर्षित करना। इस प्रकार परमाणुओं के परस्पर खींचने, खिंचने और मिलने की अविच्छिन्न क्रिया पर समूची सृष्टि संरचना अवलम्बित है। मानव-जीवन के शाश्वत विकास में भी यही नियम काम कर रहा है। यद्यपि मानव शरीर विविध धातुओं व रसायनों से निर्मित है, तथापि वह पदार्थों की पोटली न होकर भावनाओं का पुञ्ज है। भावनाएं मूलतः तीन प्रकार की होती हैं- सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी। सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति की भावनाओं में ये तीनों गुण न्यूनाधिक मात्रा में विद्यमान होते हैं। फिर भी मात्राधिक्य के कारण कोई एक गुण प्रधान होकर जीवन का अपने अनुसार संचालन करता है। भानवाओं के समानधर्मी परमाणु एक दूसरे को आकर्षित करते है। अभिप्राय यह है कि सतोगुणी व्यक्ति के परमाणु सतोगुणी को, रजोगुणी के भाव-परमाणु रजोगुणी को और तमोगुणी के भाव-परमाणु तमोगुणी को ही अपनी ओर खींचते हैं। जब दो समान भावना के व्यक्ति एक दूसरे के निकट आते हैं तो दोनों के भाव-परमाणु एक दूसरे को खींचने लगते हैं । इस खिंचाव को ही द्रष्टा की दृष्टि में विद्यमान सौन्दर्य कहा जाता है। किसी भी व्यक्ति को सभी व्यक्ति सु्न्दर नहीं दिखते। केवल वही व्यक्ति सुन्दर दिखता है, जिसकी भावनाओं से उसकी भावनाओं का मेल होता है। भाव-परमाणुओं के परस्पर का आकर्षण सौन्दर्य और मिलन प्रेम कहलाता है। ध्यातव्य बात यह है कि जिनके समानधर्मी भाव-परमाणु मात्रा में अधिक और शक्तिशाली होते हैं वे अपेक्षाकृत न्यून और निर्बल भाव-परमाणु वाले व्यक्तियों को अधिक तीव्रता से आकर्षित करते हैं। अर्थात अधिक और सशक्त भाव-परमाणु वाले व्यक्ति के प्रति न्यून और निर्बल समभाव-परमाणु के लोग तीव्रता से खिंचते हैं। एकपक्षीय आकर्षण (खिंचाव) होने के कारण प्रेम भी एक पक्षीय हो जाता है। दोनों ओर प्रेम तब पलता है, जब दोनों प्राणियों के समानगुणी भाव-परमाणु समान मात्रा में होते हैं। 
यही नियम मानवेतर प्राणियों और जड़-पदार्थों पर भी लागू होते है। प्रायः देखा जाता है कि किसी को कुछ प्रिय है किसी को कुछ। रूचि-भिन्नता सर्वत्र दिखायी देती है। ऐसा इसलिए कि सृष्टि की प्रत्येक जड़-चेतन रचना, चेतना से उद्भूत होकर उसी में अवस्थित है। गुण-भेद से चेतना भी तीन प्रकार की होती है- सात्विकी, राजसी और तामसी। जिस व्यक्ति की चेतना के परमाणु जिस मानवेतर रचना के चेतना-परमाणु से मेल खाते हैं, उसे वे चीजें आकर्षित और प्रभावित करती हैं। यही आकर्षण और प्रभाव मानवेतर प्रेम कहलाता है। 
यहाँ, प्रश्न यह भी उठता है कि सौन्दर्याकर्षण की तीव्रता विपरीत लिंगी प्राणियों (नर-नारी) में ही क्यों पायी जाती है? इसका उत्तर भी अनहद बाजे (वीणा मन की) की कविताओं में ही व्यंजित है। “कौन हूँ मैं?” शीर्षक कविता में कवयित्री ने आत्म-परिचय देते हुए लिखा है- 
मैं हूँ/ एक आत्मा/ अभिन्न अंश हूँ/ परम पिता परमात्मा का/अजर अमर अविनाशी हूँ मैं/ स्वरूप है मेंरा/ शान्त शीतल निश्छल/ दिव्य प्रेम से सराबोर/ करती हूँ/ अगाध असीम स्नेह/ परमात्मा की हर कृति से/ दिव्य दृष्टि के अभाव में/ बेहद मुश्किल है खोज मेरी/ मैं तो हूँ/ विस्तारित/ सम्पूर्ण कायनात में। 
इसका अभिप्राय यह है कि मानव नश्वर शरीर न होकर अविनाशी आत्मा है। आत्मा उस परमात्मा का अँश है, जो अपने ही सूक्ष्मतम अंश से विराट ब्रह्माण्ड की रचना करके उसी में समाहित हो गया है। कवयित्री के “मैं” अर्थात् आत्मतत्त्व की खोज दिव्य दृष्टि के बिना संभव नहीं है। अब प्रश्न यह उठता है कि परमपिता परमात्मा से जीवन का उद्गम और विकास क्यों और कैसे हुआ? वर्तमान भौतिक विज्ञान में इसका कारण महाविस्फोट (बिग बैंग) बताया गया है। यह विस्फोट हुआ क्यों? यह प्रश्न आज भी उसके यहाँ अनुत्तरित है। 
प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियों की दृष्टि में यह सृष्टि, ब्रह्म की एक से अनेक होने की इच्छा का परिणाम है। “एकोSहं बहुस्याम” की इच्छा होते ही परम ब्रह्म परमात्मा ने अपने अकल्पनीय सूक्ष्म शरीर को सर्वप्रथम “पुंलिंग” और “स्त्रीलिंग” इन दो भाव अर्थात् चेतना-कणों में विभक्त किया। पूर्ण से अलग होते ही दोनों कणों ने अभाव, अपूर्णता और अधूरेपन का अनुभव किया। जीवन की रिक्तता को भरने के लिए दोनों एक दूसरे की ओर दौड़े और परस्पर मिल कर एक रूप हो गये। दोनों के अभेद मिलन से तीसरे कण का जन्म हुआ। अपूर्ण से पूर्ण होने की अभिलाषा से दोनों चेतनाणुओं का एक दूसरे की ओर दौड़ना, दौड़ कर मिल जाना और मिल कर तीसरे को जन्म देने की अविच्छिन्न क्रिया को सृष्टि के इतिहास में “आकर्षण” और “मिलन” नाम से सम्बोधित किया जाता है। परमात्मा का अकल्पनीय सूक्ष्म, किन्तु विराट व पूर्ण शरीर सर्वप्रथम पुंलिंग और स्त्रीलिंग के रूप में विभक्त हुआ था और विभाजन के पश्चात अपूर्णता (रिक्तता-शून्यता) को भरने के लिए एक दूसरे की ओर दौड़ा था, इसलिए भौतिक संसार में भी पुरुष और स्त्री एक दूसरेकी ओर आकर्षित होते हैं। दोनों आदिम चेतनाणुओं के अन्दर पुनर्मिलन की जो अभिलाषा उनके परस्पर के अलगाव (विभाजन) के समय उत्पन्न हुई थी, वह प्रत्येक नव निर्माण के अचेतन में समाहित होती चली जा रही है। अचेतन की मिलनोत्कंठा ही अज्ञात् रूप से पुरुष और स्त्री को एक दूसरे की ओर आकर्षित कर रही है। जिस तीव्र आकर्षण से आकर्षित होकर वे एक दूसरे से मिलते हैं, उसी तीव्रता से, उनके निषेक-काल में शरीर से अलग होने वाले रेतस एवं रज-कण भी एक दूसरे की ओर दौड़ कर आपस में चिपक जाते हैं। “मैं” अर्थात् आत्मचेतना की “एकोहं बहुस्याम” की अभिलाषा ही नाना रूपात्मक जगत की रचना करके उसी में समाहित हो गयी है। आगे सृष्टि का जितना भी विस्तार होगा उसमें भी ब्रह्म की आदिम अभिलाषा समाहित होगी। “मैं तो हूँ/ विस्तारित/ सम्पूर्ण कायनात में/” का यही गूढ़ार्थ समझ में आता है। 
“अनहद बाजे (वीणा मन की)” मूलरूप से भाव-प्रधान काव्य ग्रन्थ है। जीवन के वासन्तिक काल की अनुभूतियों में डूब कर लिखी गयी होने के कारण इसकी कविताएँ पढ़ते समय मन को तरह-तरह की अतीन्द्रिय भावमयी दुनिया की सैर कराती रहती हैं। कवयित्री की जीवनानुभूतियों से प्राप्त शिक्षाएँ शब्दों के कलेवर में इस प्रकार से पचा दी गयी हैं कि सामान्य दृष्टि से देखने पर ऐसा प्रतीत ही नहीं होता कि इनमें आत्मलाप के अतिरिक्त और भी कुछ है, किन्तु शब्दों के आरम्भिक आवरणों को हटाते ही आभास होने लगता है कि प्रायः सभी कविताओं के गर्भ भाग में ऐसे विविध भावाश्रित पथ-संकेत हैं, जिन्हें ग्रहण करके तनाव-जन्य संकटों से बचा जा सकता है। हृदय पर सबसे बड़ा आघात तब लगता है, जब अपना सबसे अभिन्न साथी या जीवन साथी उपेक्ष, अविश्वास या विश्वासघात करने लगता है। इन परिस्थितियों से उत्पन्न पीड़ा असह्य, मर्मान्तक और प्राणान्तक हुआ करती है। इस औषधि-हीन असाध्य कुरोग का कितना उपचार “क्षणिकाएँ” शीर्षक की छठीं कविता में किया गया है, यथा- 
सच्ची दोस्ती/ बेज़ुबान होती है/ ये तो/ आँखों से बयाँ होती है/ दोस्ती में/ दर्द मिले तो क्या/ दर्द से ही/ दोस्ती की पहचान होती है। 
दर्द को दोस्ती की पहचान बताकर डॉ. विमला व्यास जी ने मानव मात्र के अंतःकरण में इस सत्य को जम कर बैठा दिया है कि सांसारिक जीवन में सभी सम्बन्ध अपनी निकटता और प्रगाढ़ता के अनुसार न्यूनाधिक दर्द समय-समय देते ही रहेंगे। इसलिए सम्बन्ध-जन्य दर्द में शाश्वत सुख का अनुभव करना चाहिए और दर्द को प्रेम की निशानी के रूप में स्मृति की परत में सहेज कर रख लेना चाहिए। इस प्रकार के उपदेशों की व्यंजना से “अनहद बाजे” की कविताएँ विशेष अर्थवत्ता से युक्त हो सकी हैं। 
सारतः, कहा जा सकता है कि “अनहद बाजे (वीणा मन की)” संज्ञक काव्य-ग्रन्थ वर्तमान हिन्दी साहित्य-संसार की अमूल्य निधि है। अनुभूति और अभिव्यति, दोनों ही रूपों में यह ग्रन्थ विशेष उत्कर्ष को प्राप्त हुआ है। कविताओं की पंक्ति-पंक्ति में भावना का इतना मीठा विस्तार है कि नापने के प्रयास में बुद्धि बेचारी थक कर बैठ जाती है। हृदय-तल से निर्गत होने के कारण इसकी कविताएँ निर्वचनीय कम अनिर्वचनीय (भावनीय) ज्यादा है। “अनहद बाजे (वीणा मन की)” के रूप में डॉ. विमला व्यास जी ने हिन्दी साहित्य को जो अमूल्य उपहार दिया है, उसके लिए सुधी पाठक-समाज उनका सदैव ऋणी रहेगा। 
लेखक
डॉ. मिथिलेश कुमार त्रिपाठी 
एसो. प्रोफेसर हिन्दी विभाग
स्नातकोत्तर महाविद्यालय पट्टी, प्रतापगढ़ 

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