प्रकाशित उपन्यास - 'मन्नू की वह एक रात, बेनज़ीर- दरिया किनारे का ख़्वाब, वह अब भी वहीं है
प्रकाशित कहानी-संग्रह - मेरी जनहित याचिका, हार गया फौजी बेटा, औघड़ का दान, नक्सली राजा का बाजा. मेरा आखिरी आशियाना, मेरे बाबू जी; नाटक– खंडित संवाद के बाद
कहानी एवं पुस्तक समीक्षाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. "हर रोज़ सुबह होती है" (काव्य संग्रह) एवं "वर्ण व्यवस्था" पुस्तक का संपादन. संप्रति : लखनऊ में ही लेखन, संपादन कार्य में संलग्न
सम्पर्क : pradeepsrivastava.70@gmail.com
बेहतरीन कहानी
धन्यवाद प्रोफ़ेसर साहब.
प्रदीप जी! कहानी का विषय कॉमन है। कहानी जिस मार्मिकता के साथ प्रारंभ हुई ,निखत औरखुदेजा के आने के बाद से ज्यादा ही खिंच गई । धर्म की चर्चा को इतना अधिक खींचने से कहानी की लंबाई अनावश्यक खिंच गई,और उसे संदर्भ में किसी पार्टी का नाम भी ले देना अनुचित लगा ।
निखत और खुदेजा की लंबी वार्ताओं ने ही कहानी के अंत को पूर्व में ही स्पष्ट कर दिया। अगर कहानी में ऐसा होता है तो कहानी को पूरा पढ़ने का आनंद ही समाप्त हो जाता है, कहानी वक्त के पहले ही खत्म हो जाती है।
हम तो ऐसा भी सोचते हैं।
बरहाल कहानी के लिए बधाई तो बनती है।
नीलिमा जी टिप्पणी के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद.
कभी-कभी बात लीक से हट कर भी होनी चाहिए…