समय की गति भी अजीब है। कभी बिल्कुल जानी-पहचानी तो कभी अजनबी सी, अनजान सी। परंतु अब समय तो उसके लिये जैसे ठहरता जा रहा है। एक असहनीय वेदनामयी स्थिरता के साथ।बिलकुल उसी तरह जिस तरह बरसात के पानी से भरा हुआ तालाब सूखता जाता है, सिमटता चलता है और अंत में रह जाती है दलदल…। जिसमें इंसान धंस जाए तो और और धंसता ही जाए।
जिन्हें, कभी एक दूसरे के स्पर्श से शीतल तरलता की रोमांचमयी अनुभूति होती थी, आज उन्हीं को जैसे-एक दूसरे का स्पर्श अवसन्न कर देने वाली विद्युतधारा सी लगने लगी है। रचना को भले ही प्रवीण के स्पर्श से ऐसा न लगता हो…,मगर प्रवीण को रचना के स्पर्श से ऐसा ही लगता है। रचना तो अपने मन में यही समझती है। समझे भी नहीं तो क्या करे ? समझना भी उसके लिए जैसे एक मजबूरी बन कर रह गयी है। जब भी उसका हाथ प्रवीण के शरीर को छूता जाता है तो प्रवीण झटक देता है, जैसे शरीर को कोई जहरीली नागिन छू गई हो। वह समझ नहीं पा रही है कि कैसा होता जा रहा है, यह प्रवीण ? होता जा रहा है क्या, हो गया है…।
वह समझ नहीं पाती, क्यों इसने अपनी दाड़ी और बाल बड़ा लिए हैं…?जिस शेव को वह हर दूसरे दिन बनाता था…,आज वही शेव महिनों से नहीं बनी है…और बैरागियों से ये लम्बे-लम्बे बाल, जो उसे तो कम से कम कतई नहीं सुहाते।जाने क्यों वह अपने बदन को ज्यादा से ज्यादा कपड़ों में छिपाने का प्रयास करता है…। रात तो रात दिन में भी नाइट गाउन पहने रहता है। पायजामा भी इतना ढीला और नीचा बनवा लिया है, जो ऐड़ी और पंजों को छुपाये धरती पर घसिटता है। जाने किस लिए अपेक्षित है, यह अंग-प्रत्यंग को प्रछन्न रखने का भाव? जिन वस्त्रों को प्रवीण उसके लाख मना करने के बाद भी उसी के सामने निर्लज्जता के साथ एक-एक करके उतार देता था.., फिर उससे भी ऐसा ही अनुकरण करने को कहता था। आज वही प्रवीण अपने शरीर को आपादमस्तक वस्त्रों से ढके रहता है। क्या चिपका रखा है प्रवीण ने अपने शरीर से कोई अनमोल खजाना… या कोई घृणास्पद दृश्य….! कुछ न कुछ तो है, जिसे वह उससे हमेशा-हमेशा के लिए छुपाये रखना चाहता है।
आज कितने बदल गये हैं वे एक दूसरे के लिए… और आगे भी बदलते जा रहे हैं,पल, प्रति-पल। इस पल-प्रति- पल के बदलाव इतनी दूरी बढ़ा दी है कि दोनों एक-दूसरे के लिये अनजान होते जा रहे हैं। रचना प्रवीण के मर्म से अनजान है तो प्रवीण रचना के मर्म से? हालांकि रचना ऐसा सोचती है कि उसमें तो कोई मर्म है ही नहीं…, वह तो अपनी पूर्व मनस्थिति में यथावत है। यदि मर्म नाम की कोई चीज है भी तो वह प्रवीण में ही है, जिसे वह रचना पर प्रकट करना नहीं चाहता। यदि उनमें कुछ दिन और ऐसा ही चलता रहा तो कुछ ही दिनों में वे एक-दूसरे के लिए बिल्कुल अजनबी हो जाएंगे…। पहचाने हुए अजनबी ! रचना तो यही सोचती है। उसका सोचना ठीक भी है किसी हद तक। आखिर हर हद की कोई सिमा भी होती है।
मगर आज जैसे उसने दृढ़ संकल्प ले लिया है कि वह पूछ कर ही रहेगी कि प्रवीण आखिर यह रहस्य क्या है ? आखिर हालात को और कितना घसीटा जा सकता है? वह जब भी कुछ पूछती है…,
– ”तुम्हें क्या होता जा रहा प्रवीण ?’’
– ”मुझे..!’’ वह इस भाव से कहता,जैसे उसे कुछ हुआ ही नहीं।
– ”और नही तो क्या मुझे ?’’ रचना अप्रत्याशित उत्तर…, उत्तर नहीं प्रश्न पर प्रतिप्रश्न किए जाने पर उत्तेजित हो जाती है। लेकिन नियंत्रित उत्तेजित।
– ”तो क्या तुम्हें लगता है कि मुझे कुछ होता जा रहा है…?’’प्रवीण बोला।
– ”तुम्हें नहीं लगता ?’’
– ”लगता है पर कुछ-कुछ…’’
– ”कुछ-कुछ से तुम्हारा आशय ?’’
– ”बहुत कुछ…’’ गहन गंभीरता के साथ वह रचना को ताकते हुए कहता है।’’
– ”मतलब…?’’ एक अजीबपन उसकी आंखों में तैर जाता है।
– ”अच्छा है रचना तुम इस बात को यहीं रहने दो…। जब तक मैं कुछ नहीं कहता, तब तक मेरा कुछ न कहना कुछ-कुछ ही है। और जब कुछ कह दूंगा तो हो सकता है, वह तुम्हारे लिए बहुत कुछ बन जाए,जिसे तुम सहन न कर पाओ…।’’
बस इससे आगे कुछ और पूछने की रचना की हिम्मत न होती। इतना ही कई बार पूछ चुकी थी वह। इसके बाद तो न जाने कैसे भाव उतर आते थे, प्रवीण के चेहरे पर। एक बुझापन । एक खीज। एक दर्द की झलक, जिसे वह आज तक समझ नहीं पाई कि वह प्रवीण के लिए सहनीय है या असहनीय। इन सबके ऊपर छा जाती थी मायूसी, जिसका सम्मोहन शीतल और आकर्षक ही होता प्रायः रचना को ऐसा ही लगता था, तभी तो वह इससे आगे आज तक कुछ नहीं पूछ सकी। वह सोचती, कोई न कोई ऐसी वजह जरूर है,जिसके कारण प्रवीण परेशान है, बेबस है। लेकिन धैर्य और प्रतीक्षा की भी एक सीमा है,जो अब उसकी सहनशीलता को तोड़ने को आतुर है। दरअसल उस ‘वजह’ के पीछे उसे तिरस्कार का भाव महसूस होने लगा है।अतएव अब उसे सीमा का उल्लंघन आवश्यक लगने लगा है।
बाहर से कार के होर्न की आवाज उसके कानों से टकराती है, लेकिन उसके शरीर में कुछ प्रतिक्रिया नहीं होती,जो पहले कभी हुआ करती थी। पहले जब प्रवीण हॉर्न बजाता था, तब जैसे उसका अंग-अंग हर्ष और उल्लास से प्रग्लभ हो उठते थे। फूर्ति से दरवाजा खोलकर वह लॉन में आ जाती थी। इसके पहले भी वह कई बार खिड़कियों के पर्दे हटाकर सड़क पर दृष्टिपात कर लेती थी। तब यह प्रतीक्षा कितनी उमंगमयी हुआ करती थी। आवेशमयी उत्तेजना और कसावपूर्ण आलिंगन की प्रतीक्षा में!प्रवीण गाड़ी से उतरते ही दौड़कर उसे बांहों में उठा लेता…, फिर होता था चुम्बनों का सम्प्रेषण। कितनी नवीनता होती थी, इस प्रेम भरे स्वागत, प्रति स्वागत में। कितने मधुर थे वे क्षण। काश वे क्षण उसकी जिन्दगी से चिपक गए होते?
परंतु अब ऐसा कुछ भी शेष नहीं रह गया है।
जब प्रवीण दरवाजे पर कुछ मिनिट खड़ा रहता, तब वह किवाड़ खोलती… और जब वह बाथरूम चला जाता, तब तक वह खाना लगाकर टेबिल पर रख देती…। फिर दोनों कुछ बोले तो बोले, नहीं तो बिस्तर पर गिर जाते। एक दूसरे के विपरीत मुख करके। जैसे दोनों का संबंध कभी रहा ही नहीं हो…। बस यात्री रहे हों रेल के डिब्बे की आमने-सामने की शायिकाओं के। आज भी यही सब हुआ।
दोनों खाना खा रहे थे। कभी-कभी अनायास दोनों की नजर भी मिल जाती थी। मगर उनमें कोई चमक नहीं थी। फिर भी चंचल स्वभाव की होने के कारण रचना आज नटखट चंचला हो उठी…। उसके मन में न जाने क्या आया… कि उसने एक निवाला प्रवीण की सब्जी के साथ खा लिया। पहले तो वे एक ही थाली में खाते थे, मगर कुछ महीनों से प्रवीण ने रचना को जो हिदायतें दी थीं, उसमें एक हिदायत जूठा खाना नहीं खाने की भी थी। मगर रचना को तो जैसे जंग सी चढ़ी थी। प्रवीण की बात का उल्लंघन करने में उसे अपने अंतर में कहीं न कहीं सुख की अनुभूति होने लगी थी। वैसे भी चंचल मन और अनियंत्रित इंद्रियां मन को विचलित करते ही हैं।
लेकिन यह देखकर प्रवीण की आंखों में क्रोध तैर गया और उसने क्रोधावेश में रचना के गाल पर चांटा मारते हुए फटकार लगाई, ”जब मैंने तुमसे हजार बार कहा है कि मेरा जूठा नहीं खाया-पिया करो । फिर भी तुम अपनी आदत से बाज नहीं आतीं… समझ नहीं आता, कैसी बदमिजाज औरत हो…?’’ अचानक निर्मित स्थिति ने कायापलट दी।
एक क्षण तो रचना अवाक, अपलक घूरती रही प्रवीण को और सुनती रही उसके विष बुझे शब्दों को। जिस धैर्य को बड़े आत्म-विश्वास के साथ वह धारण किए हुए थी,आज वह धैर्य उपेक्षा की ठोकर से फूट पड़ा ”मैं कैसी औरत हूँ या तुम कैसे आदमी हो ? लगता है, तुम्हें कोई ऐसा रोग लग गया है, दुनिया में जिसकी कोई दवा नहीं। जब तुम्हें ऐसी नपुंसकों सी जिन्दगी जीनी थी, तो फिर विवाह ही क्यों किया ? क्या आवश्यकता थी ? ब्रह्मचारी बनकर रहते…? साधु-संन्यासी बन भगवान से मोक्ष की टेर लगा रहे होते?’’
प्रवीण सर नीचे किए हाथ मल रहा था।
रचना का फूटा हुआ धैर्य प्रबल से प्रबलतम आवेग में बहने लगा…, -”मेरी भी कुछ हसरतें हैं, अभिलाषाएं हैं… तुम मेरे पति हो, आखिर तुमसे मैं इच्छाओं की पूर्ति नहीं करूंगी तो और किससे ? गैर मर्द से…? क्या सोचकर हुई तुम्हारी चांटा मारने की हिम्मत ? इस तरह मैं तुम्हारी गुलामी नहीं सह सकती…, मैं चली जाऊंगी, तुम से दूर चली जाऊंगी, हमेशा-हमेशा के लिए चली जाऊंगी…’’
प्रवीण सिगार जलाता हुआ बैडरूम में घुस गया। रचना भी कुछ देर और बड़बढ़ाने के बाद बैडरूम में घुस गई।
आज का अपमान उसे रह रहकर कचोटता रहा। अनेक अनर्गल विचार उसके मन में उठते रहे। कुछ समय उपरांत संयमित होने के बाद कुछ निश्चित करने का निश्चय करते हुए सो गई…।
प्रवीण को रचना के प्रति किया व्यवहार अवांछित लग रहा था। उसे अपने आप पर ही गुस्सा आने लगा था। जिस रचना से उसने अपने दो साल के वैवाहिक जीवन में एक भी मर्तबा लैंगिक भेद और उलाहना से जुड़ी बात नहीं की थी…, आज कह गया था।ओह!कटुतापूर्ण अमानुषिक व्यवहार…!रचना के प्रति कैसा निर्दयी हो गया है वह। लेकिन उसकी यह निर्ममता भी तो विवशता की बुनियाद पर आधृत है। उसके कारणों में अंतर्निहित है, रचना का सुरक्षित जीवन! रचना का सुख!रचना के सुख के लिए ही तो वह यह सब खेल,खेल रहा है। क्योंकि उसे विश्वास है रचना भी उससे उतना ही प्यार करती है, जितना वह रचना से। अतएव उसे यही कृत्रिम निष्ठुरता दिखाकर ही तो रचना को वहां ले जाकर खड़ा करना है, जहां से रचना का फिर से नव-वैवाहिक जीवन की संभावना बढ़ जाए…।
उसने सिरगेट का टोंटा एश ट्रे में समल दिया। रचना की ओर पलट कर देखा, रचना विमुख थी। वह रचना के पास सरक आया।
रचना के काले-लम्बे बाल पलंग पर उनमत्त नागिन की तरह पड़े थे…। वे ही बाल जिन बालों से वह कभी खेला करता था और एक पारलौकिक सुख की अनुभूति हुआ करती थी। तब उन बेजान बालों में भी कितना रोमांस अनुभव होता था। कभी वह रचना के सोते समय उन बालों को किसी वस्तु से बांध दिया करता था। यहां तक कि वह लंबी केश राशि के दो भाग कर अपनी कमर में बांध लेता था। फिर जब रचना जगती तो कैसी खीझ भरी प्यारी-प्यारी तिलमिलाहट उभर आती थी।कैसे हाथ-पैर फेंकती थी। फिर कैसे प्रवीण की अभिलाषा पूर्ती के लिए, स्वयं को प्रवीण की बांहों में समा देती थी। कितने आकर्षणप्रिय और सुखानुभूतिपूर्ण थे,वे दिन, वे घड़ियां, वे क्षण…! इस क्षण तीव्र रूप से व्यग्र मन में प्रवीण ने अनुभव किया कि मन कंप्यूटर की हार्डडिस्क के समान है, जो जीवन के सभी महत्वपूर्ण तथ्यों और स्मृतियों को संजोकर रखता है। और वे अनुकूल व विपरीत परिस्थितियों में अनायास मस्तिष्क के स्मृति-पटल पर एक-एक कर खुलने लगते।बेचैन कर देने वाली स्मृतियां!
प्रवीण ने प्रेमातिरेक में रचना के बालों को मुट्ठी में भर लिया। उन्हें आहिस्ता-आहिस्ता अपने अधरों के पास ले आया। आज उसके अधर चुम्बन, प्रति-चुम्बन के लिए प्रकपिंत हो रहे थे। जब अधर और बालों की दूरी तिल भर शेष रह गई, तभी रचना ने करवट ली…, पल भर में ही उसकी उत्तेजना शिथिल हो गई।
अब रचना का मायूस दुःखी एवं मलिन चेहरा उसके सामने था। वह निर्निमेष उसे ही ताक रहा था…। गोरे गालों पर आँसुओं की सूखी धारें थीं। पहली बार उसने रचना के गालों पर मलिनता देखी…। जमे हुए आँसुओं में, जमा हुआ दर्द अनुभव किया। वह तिल भी देखा…, जो रचना की ठोड़ी पर अंकित है। प्यारा सा काला तिल। कितना प्यारा था उसका स्पर्श!रचना के शरीर में तो जैसे वह काम भावना का प्रतीक था। वह उसे हौले-हौले सहलाता था, तो कैसी सिहरन तैर जाती थी, उसके शरीर में…। तब कैसी लज्जापूर्ण मुस्कराहट छा जाती थी,रचना के चेहरे पर। मगर अब वैसा कुछ नहीं रहा। जो कुछ था, जैसे उसी काले तिल ने ग्रस कर अपने में समेट लिया। ऐसे में वह मन और मस्तिष्क में भेद नहीं कर पाता। शायद गीता में ठीक ही कहा है कि मस्तिष्क हमारे स्थूल शरीर का अंग है और मन सूक्ष्म शरीर की तरंगें हैं। परंतु चाहे स्थूल शरीर हो या सूक्ष्म शरीर, अंततः हैं दोनों भौतिक ही, क्योंकि दोनों में भाव हैं और जिज्ञासा की अनंत उड़ान है।
और फिर गुजरते गए इसी द्वंद-प्रतिद्वंद और तलाक के कारण खोजने एवं उन्हें प्रमाणित करने के साक्ष्य इकट्ठे करने में दिन, सप्ताह,महीने और वर्ष। और आज के बाद वह कल भी आने वाला था…, जिस कल के अस्तित्व में उनके अलगाव की सुनिश्चितता निहित थी।
तलाक के लिए पहल रचना की ही ओर से थी। लेकिन कारण प्रवीण था।प्रवीण के लगातार उपेक्षित व्यवहार से वह तिलमिला उठी थी। आखिर रचना भी अपने स्वामित्व, अस्तित्व, और अहं की अधिकारिणी थी। यह उद्वेग उसमें जागृत हुआ था, प्रवीण द्वारा चांटा मारने वाले दिन से, फिर प्रबल से प्रबलतम होता गया प्रवीण को पराजित करने का संकल्प। आखिर में रचना ने अपनी मेघा की लगाम से मन को काबू में ले लिया और अदालत में निर्णयात्मक पहल कर दी थी। परंतु कल की समीपता और तलाक की निश्चितता देखकर आज उसका द्वंद कमजोर पड़ने लगा था। अनेक आशंकाओं ने उसे घेर लिया। विभिन्न भाव उसके मन में उभर रहे थे, जिनमें अपने भविष्य की चेतावनी के साथ-साथ प्रवीण का भविष्य भी संलग्न था…। प्रवीण के साथ बिताई अतीत की यादें ऐसी थीं, जिनमें उसकी तमन्नओं की पूर्ति करने वाली बातें नत्थी थी।प्रवीण ने कभी उसकी किसी भी बात का बुरा नहीं माना। चाहे उसने कितनी ही कड़वी बात ही क्यों न कह दी हो। सदा प्रवीण ने उस कड़वाहट को हंसी में टाला । फिर एकदम ऐसी कौन सी मजबूरी आन पड़ी?जिसने सुखमय जीवन चौपट कर दिया…।
उन दोनों के मध्य कहीं कोई तीसरा तो नहीं आया…?
तीसरा…! उसके जीवन में तो आज तक प्रवीण के अलावा किसी अन्य ने प्रवेश नहीं किया। अविवाहित अवस्था में भी नहीं।तो क्या… प्रवीण के संबंध किसी और से हैं…., अनेक बार उसने प्रवीण का ऑफिस तक पीछा किया है । वह कहीं किसी से नहीं मिलता…, कहीं कोई उससे नहीं मिलती…, न ही वह ऑफिस के अलावा कहीं जाता…, बस ऑफिस और घर के बीच ही उसकी जिन्दगी सिमट कर रह गई है…। प्रवीण का मोबाइल भी वह कई मर्तबा जांच चुकी है, शंका का कहीं कोई साक्ष्य नहीं मिला। फिर कहां है कुछ ? कहीं किसी ने प्रवीण में मन में उसके प्रति गलतफहमी पैदा कर दी ? जिसके कारण प्रवीण उस पर संदेह करने लगा हो ? मगर क्या ऐसा संभव हो सकता है ? होने को तो कुछ भी हो सकता है…? मगर उसने आज तक उसके चरित्र पर संदेह की बात गुस्से में भी नहीं कही। फिर इस मनमुटाव का आखिर कारण क्या है ?

रात जैसे-जैसे बढ़ती जा रही थी…, वैसे-वैसे उसे लग रहा था समय की गति जैसे थम रही है।हालाँकि समय तो अपनी वर्तमान गति से ही चलता ही रहता है। मगर उसे एक लम्बे अंतर्राल से समय एक ही स्थान पर ठहरा हुआ लगने लगा था।प्रवीण को पराजित, अपमानित करने का भाव जो एक अरसे से जमा हुआ था, आज जैसे वही भाव पिघलकर बहने को है। किया तो उसने यह सब क्रोधावेश में था, जो प्रवीण की मौन निष्क्रियता के कारण और दृढ़…, दृढ़ से दृढ़तर होता चला गया।

मगर कल इससे पहले तलाक का निश्चय हो,उसके मन में प्रवीण से एक बार मुलाकात कर सामान्य स्थिति निर्मित करने की भावना तीव्रता से उत्सर्जित हो गई। फैसले की आशंका से मन विखंडित हो रहा है। क्योंकि इन वर्षों में अकेले रहते हुए उसने अनुभव किया कि वह सुरक्षित नहीं है।जो वकील उसका मामला लड़ रहा है,वह उसके संवेदनशील अंगों के स्पर्श का बहाना ढूंढ़ता है।उसकी भाभी का भाई हो या फ्लेट का पड़ोसी, सबकी आंखों में उसने उसे भोग लेने की हसरत देखी है।इसलिए प्रवीण का पूर्व प्रेम… जो निश्चल था, स्वछंद था,…पवित्र था, वही बहाल हो जाए तो शुभ ही शुभ है।अतएव वह कल फैसले से पहले प्रवीण से मिलकर सामंजस्य बिठाने की कोशिश करेगी…,अपने अहं का दमन करके…। नैसर्गिक रूप में, सहज स्थिति में…।
अगले दिन वह सुबह ठीक नौ बजे प्रवीण के घर पहुंच गई। जो एक समय उसका अपना था। उसने घंटी बजाई…,
वह अपने को पूर्ण यत्न-प्रयत्न से संयत किए हुए थी। धैर्य और विवके को बड़े विश्वास के साथ उसने मन-मस्तिष्क में धारण कर लिया था। और हृदय में अनुस्यूत थी फिर से मिलन होने की संभावना!आंखों में झलक रहा था कुछ खो जाने का दुःख तो कुछ पा लेने का हर्ष…!
प्रवीण ने दरवाजा खोला…,
– ”ओह ! आप…! आइए ?’’
‘तुम’ से आप पर आ जाना और फिर मेहमानों सा आदर भाव के प्रदर्शन से उसे लगा…,जैसे कहीं गहरा कटाक्ष किया है, जिसमें अंतनिर्हित है, तलाक की अपेक्षा..!
– ”हां…।’’ और वह अंदर हो ली ।
– ”कहो कैसे आना हुआ ?’’ वे ही गंभीर तिरस्कारपूर्ण शब्द..!वही सब कुछ जला देने वाला सिगार का मुंह से निकलता धुंआ। उसे लगा जैसे वह जो कहना चाहती है, नहीं कह पाएगी…,पर प्रयास तो करेगी ही…,
– ”कल फैसले की तारीख है…।’’
– ”हां, मुझे जानकारी है।मैं जरा जल्दी में हूँ।कहीं जाना है।”
उसे लगा उसकी आशा आंधी से टकराकर ध्वस्त होने को है।
– ”तो क्या आप…’’
प्रवीण के चेहरे के भावों को पढ़कर उसे लगा जैसे उसके आग्रह का कुछ परिणाम निकलने वाला नहीं है। प्रवीण स्वयं तलाक का इच्छुक है।
– ”कहो…? बैठकर आराम से कहो…।’’
प्रवीण का सोफे पर बैठने का संकेत आत्मीयता का स्वाभाविक प्रगटीकरण न होकर, एक साधारण व्यक्ति के प्रति शिष्टता का प्रदर्शन भर था।रचना को यही लगा।
– ”रहने दीजिए मैं चलती हूँ…। शायद अब कहने से भी कुछ नहीं होगा…?’’ अनायास ही कुछ कहने की भावना में कह गई वह।
– ”तो कुछ कहने आईं थीं आप…? कहो निसंकोच…। आज आप जो भी कहेेंगी,मैं सुनूँगा…।’’ जैसे प्रवीण का स्वर आत्मीय हुआ।
– ”मैं कुछ ऐसा कहना नहीं चाहती, जिसमें कुछ भला-बुरा हो…’’
– ”तो फिर…?’’
– ”मेरा मतलब है क्या…’’
– ”क्या…?’
– ”क्या आपको यह सब अच्छा लग रहा है’’ ? रचना की आशापूर्ण दृष्टि प्रवीण के चेहरे पर टिक गई।
– ”डायवर्स…?’’
– ”हां।”
– ”रचना, कुछ बातों के लिए कई कारण ऐसे बन जाते हैं कि आदमी को उन कारणों की सिद्धि के लिए कठोर पहल करनी पड़ती है,नहीं चाहते हुए भी…”
-“लेकिन ऐसा कौना सा कारण आन पड़ा कि हमारे स्थायी वियोग की स्थिति होने जा रही है…?’’
– ”काश… मैं तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर दे पाता…’’ प्रवीण निढ़ाला तो हुआ, पर दृढ़ता ढ़ीली नहीं पड़ी।
– ”तो क्या मेरा प्रश्न करना अनर्गल है ?’’
– ”हां मेरे लिए तो यही लगता है।’’
जैसे प्रवीण के चेहरे पर उक्त स्वरों के निकलने से कोई दर्दमयी कठोरता छा गई हो।
– ”तो ठीक है, मैं जा रही हूं। समझौते की बड़ी उम्मीद से आई थी, लेकिन निराश लौट रही हूं।’’
अंतिम शब्द कहते ही रचना की आंखों में आंसू छलक आए। वह पलटकर फुर्ती से बाहर हो गई। जब तक प्रवीण संयमित होकर दहलीज फलांग कर बाहर आया, तब तक टैक्सी में बैठ चुकी थी और जब वह बाउंड्री के दरवाजे पर आया,तब तक टैक्सी चल पड़ी थी। पत्थर दिल बना प्रवीण हालात का रोना रोते हुए लॉन की सीढ़ी पर सिर पकड़कर बैठ गया।
और क्षण-क्षण से परिवर्तित होकर वह समय भी आया जब परिवार न्यायालय में उनके तलाक का होना सुनिश्चित था।
धड़कते दिल और कांपते हाथों से बड़ी मुश्किल से रचना ने तलाक के कागजों पर दस्तखत कर पाए थे। वह आपादमस्तक प्रवीण को घूर रही थी। प्रवीण ने कागज अपनी ओर खींचकर उन्हें बायें हाथ से दबाकर दायें हाथ से दस्तखत करना शुरू किए। रचना प्रवीण की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का बड़ी ही सतर्कता के साथ अवलोकन कर रही थी। दस्तखत करते समय प्रवीण के ओवरकोट की बांह टेबिल के किनारे से टकराकर वहीं रह गई। और नंगा हाथ दस्तखत करने को आगे खिसक आया, जिस पर प्रवीण का ध्यान नहीं गया…। उसके हाथ पर सफेद-सफेद गले हुए दागों चिन्ह थे…,जो किसी संक्रमण (कोढ़) रोग के लक्षण लग रहे थे।
तत्क्षण रचना ने कोट की बांह और ऊपर खिसका दी..। कोढ़ के और गहरे दाग सामने आ गए…,”यह क्या प्रवीण ?’’ रचना ने प्रश्नवाचक दृष्टि से प्रवीण को घूरा…,
– ”कुछ नहीं…।’’ प्रवीण ने दृढ़ता के साथ कहा। और बांह नीचे कर ली। वह दस्तखत कर चुका था।
मगर तत्क्षण ही रचना ने आवेग में आकर तलाक के कागज फाड़ दिए।
प्रवीण और न्यायाधीश अवाक रचना को घूरते रहे…।
– ”चलो प्रवीण…’’ और वह प्रवीण का हाथ पकड़कर बाहर ले आई।
प्रवीण समझ गया था कि रचना की मनोवैज्ञानिक तर्क-शक्ति और कुशाग्र-बुद्धि पल भर में ही सब कुछ समझ गई। अर्थात रहस्य का पर्दाफाश हो चुका है।चुनांचे रचना अब कुछ नहीं होने देगी।
वे दोनों कार में बैठकर घर की ओर चल दिए।
रचना के मन में प्रवीण द्वारा अतीत में किए कटुतापूर्ण व्यवहार की मिसालें एक-एक कर मस्तिष्क में कौंधने लगीं…, वह क्यों जूठा खाने को मना करता था…, क्यों उसने चांटा मारा था…, क्यों अपने तन को ज्यादा से ज्यादा कपड़ों से ढ़कने का प्रयत्न करता था…,क्यों उसके साथ सहवास नहीं करता था…, क्यों वह उससे अलग रहना चाहता था…, इस पृष्ठभूमि में एकमात्र यही भाव था, कि रचना सुखी रहे ? उसके छूने से कहीं वही रोग रचना को न लग जाए? भविष्य में बच्चे पैदा हों तो उन्हें कोढ़ न हो जाए…?आदि…इत्यादि! कितना प्रेम करता है प्रवीण उससे कि उसके सुख के लिए वह अपना जीवन तक तबाह करने को तैयार था। रचना के मन में अनेक विचार उठते रहे। उसका हृदय प्रवीण के लिए असीम, अगाध श्रद्धा से भर गया। निस्वार्थ निश्छल श्रद्धा!
रचना, प्रवीण को लेकर घर आ गई। उसी घर में…, प्रियतम के उसी घर में, जिसे वह सदा-सदा के लिए तिलांजलि दे रही थी। अचानक जो परिस्थितियां बदलीं,उन पर उसे बड़ा ही विस्मय हो रहा था।साथ ही एक उमंगमयी आनंदानुभूति…!
– ”क्या आवश्यकता थी तुम्हें अपना निर्णय बदलने की ?’’ प्रवीण बोला।
– ”और तुम्हें क्या आवश्यकता थी यह सब कुछ छुपाने की… ?’’
– ”मुझे…।’’
– ”हां बोलो… बोलो…, क्या अपनी पत्नी से भी कोई दुःख दर्द छिपाया जाता है। क्या शादी का मतलब सुख और भोग तक ही सीमित है ? यदि कहीं तुम्हारी जगह मुझे कोढ़ हो जाता तो फिर तुम मुझसे तो इसी आधार पर तलाक ले…लेते?”
– ”नहीं रचना नहीं…’’।
– ”यदि दुःख दर्द में एक दूसरे को भूल जाएं तो फिर महत्ता क्या रह जाती है नाते-रिश्तों की ? फिर पति-पत्नी तो एक-दूसरे के सहचर हैं। क्या तुम मुझसे अलग रहकर खुश रह सकते थे ? या मैं तुमसे अलग रहकर खुशी अनुभव कर सकती थी ? कभी नहीं, प्रवीण कभी नहीं…? अदालत तक पहुंचने का मेरा उद्देश्य मर्म तक पहुँचने का था।मैंने सोचा, शायद तुम तलाक के डर से अपना रहस्य बता दो… और फिर किसी भी तरह समझौता करके स्थिति सामान्य हो जाए। इसीलिए मैं तुम्हारे पास कल आई भी थी…, पर तुम तब भी कुछ नहीं बोले…। अब तो बोलो क्या आवश्यकता थी यह सब छिपाने की…?’’
वे दोनों बिल्कुल आमने-सामने थे और एक दूसरे के भाव-विचार अपनी-अपनी नजर और अनुभव से समझने का प्रयत्न कर रहे थे।
– ”मैं नहीं चाहता था, रचना तुम्हारी जिन्दगी बेरौनक हो, तुम्हारी कोख से जो संतान जन्म ले, वह असाध्य रोग से संक्रमित हो। मैं अपने हाल पर ही रहकर सिर्फ तुम्हें सुखी देखना चाहता था। मैंने सोचा था, तालाक के बाद तुम दूसरी शादी कर लोगी…,फिर उससे तुम्हारे जो बच्चे होंगे वे निरोगी, पुष्ठ, और सुंदर… होंगे….। इस कल्पना से ही मेरा मन प्रफुल्ल हो जाता था…।’’
– ”तो तुम्हारी इच्छा थी रचना विलासमयी जिन्दगी जिए ? क्या वासना और बच्चे ही प्रेम का अंतिम पड़ाव या सुख हैं ? तुम्हारा गलत ख्याल था प्रवीण, मुझे तुम्हारे घावों में मरहम लगाने में ही संतोष है। हम शारीरिक संबंध स्थापित ही नहीं करेंगे…, फिर भला बच्चा कहां से पैदा होगा ? जरूरी हुआ तो कोई अनाथ बच्चा गोद ले लेंगे।’’
– ”मगर कब तक चल सकता है ऐसा ? भावना तो उठती ही है और फिर सामने भरा हुआ तालाब होने पर प्यास का दमन कब तक किया जा सकता है…?अच्छा है रचना तुम अपना निर्णय…’’
– ”बस चुप…!’’ रचना ने एक स्निग्ध मुस्कान के सथा प्रवीण के अधरों पर उंगली रखते हुए कहा, ”आगे मैं संभाल लूंगी…।’’
स्थितियां सामान्य हो गईं। असामान्यता थी तो बस शारीरिक सुख की, जिसे उन्होंने क्षणभंगुर सुख की संज्ञा देकर किसी न किसी तरह अपनी-अपनी इद्रियों पर नियंत्रण किया हुआ था। बलात् नियंत्रण ! जिसका बेग बढ़ने पर कभी भी सीमा टूट सकती थी।
समय गुजरता रहा। समय तो गुजरता ही है।
रचना तन-मन से प्रवीण की सेवा करती। यथासाध्य उसके घावों का उपचार करती। कभी यह महसूस नहीं होने देती कि प्रवीण को वह बोझ समझती है। वास्तव में वह ऐसा समझती भी नहीं थी। पूर्णतः समर्पित हो गई थी सेवा-परिचर्या में। काम भावना को उसने धर्म संबंधी चिंतन और दायित्व बोध की ऊर्जा से शरीर में ही कहीं भस्मीभूत कर लिया था। उसने गीता में बार-बार पढ़ा कि ‘आत्मा पांच घोडों द्वारा खींचे जा रहे रथ की सवारी है। रथ शरीर है और पांच घोड़ें इंद्रियां हैं। रथ की लगाम मन है और उसका सारथी बुद्धि है। इन सबकी दिशा-निर्देशक आत्मा है। आदर्श दृष्टि से देखा जाए तो मन को नियंत्रित करने के लिए आत्मा बुद्धि पर शासन करती है। और मन इंद्रियों को नियंत्रित करता है। इस आत्मज्ञान से रचना ने बुद्धि और मन दोनों को ही नियंत्रित कर लिया था।
मगर एक रात…,
काली रात थी वह। वर्षा ऋतु और गहराती काली घटाओं वाली भयावह काली रात। स्पंदित व रोमांचित कर देने वाले बादलों की गर्जना…! सिहरन भर देने वाली, खिड़कियों के शीशों से टकराने वाली पानी की बूदें…, जिनका आभास मात्र उत्तेजक था।
प्रवीण बहुत देर तो अपना मन बरामदे में टहलते-टहलते बहलाता रहा। मगर अपने आप को संभाल पाना वह आज मुश्किल समझ रहा था। जैसे-जैसे वह भावनाओं को दबाता था, वैसे-वैसे भावनाएं और प्रबल हो उठती थीं।
वह दरवाजा बंद कर बैड रूम में आ गया…।
रचना सो रही थी। बेसुध…!
प्रवीण पलंग पर बैठ गया…। बहुत दिनों बाद आज बड़ा ही आकर्षक लग रहा था, रचना का चेहरा। दीप्तिमान गोरा-गोरा, गोल-गोल मनभावन चेहरा! ठोड़ी पर काला तिल आज पहले जैसा ही प्यारा लगने को व्याकुल कर रहा था…, कितना मनोहर होता है तिल का स्पर्श…,उसे सहलाना…!रचना में काम-भाव उत्सर्जन का केंद्र बिन्दु…!और फिर उसके सामने जैसे रचना का शरीर निर्वस्त्र होता गया…। पूर्व की तरह निर्वस्त्र…। कैसी सुहावनी लग रहीं थीं अतीत की समृतियां…!इन स्मृतियों का स्मरण कर प्रवीण के मन का सॉफ्टवेयर सहवास के पूर्व उत्तेजक बिंबों-प्रतिबिंबों से अद्यतन होता चला गया।
फिर वह खिसक आया रचना की ओर…
प्रवीण के बाएं हाथ की मध्यमा उंगली बढ़ रही थी, रचना के तिल के स्पर्श को… और प्रवीण के अधर मचल रहे थे, रचना के अधरों के चुम्बन को…। इन अनचाहे स्पर्शों से रचना की नींद उचट गई और वह बुदबुदाई, प्रवीण…यह क्या…? नहीं…,नहीं…!’’
– ”कुछ नहीं रचना… कुछ नहीं…!ठहरो जरा !’’
रचना विरोध करती रही और प्रवीण प्रतिरोध ! अंत में प्रवीण का प्रतिरोध हिंसक यौन उत्पीड़न में बदल गया। यह था पति का पत्नी के साथ वैवाहिक बलात्कार…! वासना के आवेग में सभी दार्शनिक भाव ध्वस्त हो गए। कहा भी है कि मन इतना ताकतवर है कि वह चाहे तो नरक को स्वर्ग बना सकता है और स्वर्ग को नरक! रचना ने दांपत्य को स्वर्ग बनाए रखने की मंशा से अपनी इच्छाओं को नियंत्रित किया हुआ था,किंतु प्रवीण के अनियंत्रित दुराचरण ने स्वर्ग को नरक बनाने का रास्ता एक बार फिर से खोल दिया।रचना विचित्र मानसिक द्वंद से गुजर रही थी,’पत्नी के शरीर को पति होने के कारण अपनी संपत्ति समझना और उसकी इच्छा के विरुद्ध यौन संबंध बनाना वैवाहिक बलात्कार के सिवाय क्या है?पत्नी की शारिरिक एवं मानसिक अखंडता के सम्मान के अधिकार में शारिरिक अखंडता भी शामिल है।अतएव पत्नी की इच्छा के विरुद्ध संभोग व्यक्तिगत स्वायत्तता का भी उल्लंघन है।काश वैवाहिक दुष्कर्म का कानून वजूद में होता तो वह आज प्रवीण के खिलाफ…?’
फिर गुजर गया आठ साल का लम्बा समय…,
जब प्रवीण के मिलने की आशा उसकी स्मृति में धूमिल सी पड़ने लगी थी, तब अचानक उसे प्रवीण का स्पीड पोस्ट से पत्र मिला। रचना ने लिफाफा खोलकर पत्र पढ़ा, ‘रचना… मेरी तबीयत बहुत खराब है। मेरी अंतिम अभिलाषा तुम्हें और अपने बेटे को देखने की है..।तुम्हें और बेटे को सकुशल देखकर मैं चैन की नींद सो सकूंगा…।’
पत्र पढ़ने के क्षणों में वह निस्पंद सी हो गई। मगर जैसे-तैसे उसने अपने को संभाला और प्रवीण के पास जाने को बेटे के साथ तैयार होने लगी। बड़ी तत्परता और फुर्ती के साथ, मगर धैर्य और विवके खोए बिना।
अनेक शंका-कुशंकाओं में उलझी हुई आकुल-व्याकुल सी, संदिग्धता ग्रहण किए हुए रचना अपने पूर्व पहचाने हुए, मगर अजनबी प्रियतम के औषधालय के सामने खड़ी थी…।’रचना संक्रमण रोग औषधालय’ का लम्बा-चैड़ा बोर्ड, फिर उसी के अनुरूप आलीशान भवन ! आश्चर्य हुआ उसे यह सब देखकर। एक उड़ती नजर उसने पूरे भवन और उसके भीतर होने वाली हलचल पर डाली। मगर उसे कुछ विस्मयकारी अनर्थ के वातावरण की अनुभूति नहीं हुई। सब कुछ सामान्य गति से चल रहा था। लोग-बाग निचली मंजिल में आ जा रहे थे।
वह प्रवेश द्वार की ओर बड़ी। बच्चे की उंगली थामे हुए । प्रवेश द्वार पर पहुंची…,तब चैकीदार ने टोका…,
– ”हाँ मेम साहब, किनसे मिलना है ?’’
– ”मुझे प्रवीण कौशल जी से मिलना है।’’
– ”मालिक साहब से। कहां से आईं हैं आप ?’’
– ”दिल्ली…’’
-”ओह…!दिल्ली से ! तो आप रचना मैम साहिबा हैं ?.
-”जी हां…।’’
– ”आइए…, आइए…, मालिक आप ही की बाट जोह रहे हैं…।’’
चौकीदार ने बच्चे को गोद में उठा लिया। चौकीदार आगे-आगे था और रचना पीछे-पीछे।
रचना ने परीक्षण कक्ष के दरवाजे पर खड़े-खड़े देखा…, वह आश्वर्यचकित रह गई। स्वस्थ, सुंदर पहले वाला प्रवीण उसके सामने था। बिल्कुल शादी के समय के दिनों वाला प्रवीण. ! न चेहरे पर दाड़ी…, न लम्बे-लम्बे बाल…, न ढीले-ढाले कपड़ेे।न आधी बांह की शर्ट। अब तो वे दाग (कोढ़ के दाग) भी नहीं रह गए हैं, जिनके कारण वे एक दूसरे के लिए अजनबी बन गए थे। अब तो उसे प्रवीण का चेहरा बड़ा ही प्यारा-प्यारा आकर्षक लग रहा है। पूर्व के दिनों वाला चूम लेने वाला मोहक मुख…! रोमांचकारी व चित्ताकर्षक!!
प्रवीण के हाथों में एक तस्वीर थी। जिसे वह इतनी देर से प्यार भरी नजरों से देख रहा था। तभी प्रवीण ने उस तस्वीर को चूम लिया।
तो रचना को लगा प्रवीण ने जैसे उसी के ओंठ चुम लिए हैं।और अनायास ही उसके मुखारबिन्द से फूट पड़ा…,
-”प्रवीण..’’ और वह दहलीज के अंदर हो गई। प्रेम में तिरोहित कर देने वाला बहुत गहरा आवेश था उन शब्दों में।
– ”रचना…!’’ जानी-पहचानी पूर्व परिचित आवाज सुनकर प्रवीण ने रचना को देखते हुए कहा। फिर वह तस्वीर टेबिल पर रख रचना के स्वागत के लिए आगे बढ़ा चला आया। प्रेम, हर्ष और उल्लास मिश्रित स्वागत,अभिनंदन! फिर दोनों एक दूसरे की बाहों में लिपट गए… कसावपूर्ण आलिंगन फिर चुम्बन-प्रतिचुम्बन !
– ”मुझे विश्वास था, तुम जरूर आओगी…,
– ”मैंने तो बहुत पहले खोजना चाहा था तुम्हें ! मगर तुम दिल्ली छोड़कर यहां चले आए। फिर तुम्हारा कोई पता नहीं लगा। मगर तुमने झूठा पत्र क्यों भेजा…?’’
– ”मैंने सोचा कहीं तुम सही बात जानकर आओ ही नहीं।”
– ”मेरी शंका तो स्वस्थ्य मनु के जन्मते ही खत्म हो गई थी…, जिसके कारण हम-तुम अजनबी बने !’
– ”कहां है मनु ?’’ प्रवीण का पितृत्वमयी वात्सल्य उमड़ा।
– ”वह देखो ?’’
दरवाजे पर खड़ा-खड़ा मनु मम्मी और अजनबी व्यक्ति को हैरत भरी नजरों से देख रहा था। उसने आज से पहले कभी अपनी मम्मी को इस तरह किसी आदमी से लिपटते नहीं देखा था…।
चौकीदार उन दोनों को प्रेमालाप की अवस्था में देख मनु को वहीं छोड़ चला गया था।
– ”आओ बेटे…’’ और प्रवीण ने मनु को हाथों में उठाकर हवा में उछाल दिया। फिर उसके गाल पर पप्पी ली। मम्मी जैसी प्यारी-प्यारी पप्पी!
इस बीच रचना ने वह तस्वीर उठाकर देखी, जो कुछ समय पहले प्रवीण के हाथों में थी। उसमें रचना का ही छायाचित्र था। उसका खिला हुआ हृदय और पुलकित हो गया।
– ”कैसा है हमारा मनु? ’’रचना ने पूछा।
– ”सुन्दर, बहुत स्वस्थ। इसे पैदा न करके हम कितना अन्याय कर रहे थे इसके साथ?”
-क्योंकि हमें डर था कि इसे आप वाला रोग न लग जाए। मगर हम अनजान थे कि कुदरत का खेल विलक्षण भी होता है।” रचना ने ईश्वर के प्रति भरोसा जताया।
– ”और हमारा यह अंजानापन हमें आज तक अजनबी बनाए रहा, पहचानी हुए अजनबी…! मगर अब कभी ऐसा नहीं होगा। अब हम हमारी समस्याएं एक-दूसरे को साझा करेंगे, छुपाएंगे नहीं। एक-दूसरे के सुख-दुःख का सहारा बनकर जिएंगे, अंजान बनकर नहीं। क्यों रचना…?’’
– ”हां प्रवीण…! तुमने अखबारों में पढ़ा कि देश के छद्म नारीवादी पत्नी से इच्छा के विरुद्ध संसर्ग को वैवाहिक बलात्कार की श्रेणी में रखने की मांग कर रहे हैं। यह कानून यदि अस्तित्व में होता तो शायद इसके बूते मैं तुम्हें अदालत के कठघरे में खड़ा कर चुकी होती। तब कितना बड़ा अन्याय हो जाता ? हे भगवान इस कानून को नहीं बनने देना!” रचना ने ईश्वर से गुहार लगाई।
-“अपने देश में कई ऐसे विरोधाभासी कानून बेवजह हैं, जिनका सुखी और लंबे दांपत्य के लिए अंत किया जाना जरूरी है।”
-“हाँ पापा!मुझ जैसे बच्चों को फिर इतने वर्ष बिना पापा के नहीं रहना पड़ेगा…।”मनु अनायास ही बोल पड़ा।
-“अरे तू बताए बिना जान गया कि ये तेरे पापा हैं?”
-“मैं कोई मम्मी-पापा की तरह बुद्धू थोड़ी हूँ कि जानते हुए भी अजनबी बन गए।”
-” शैतान!” और प्रवीण की गोदी में इठला-इतरा रहे मनु के गाल पर चपत लगते हुए रचना प्रवीण के वक्षस्थल में समा गई।

प्रमोद भार्गव
वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार
शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी (म.प्र.)-473-551
मो. 09425488224, 09981061100

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