शीशे के सामने खडे होने में अब तकलीफ होती है । उजाड़  बालों का घोंसला ,कुछ काला कुछ सफेद । जब एकाध बाल सफेद थे तब फर्क क्या पडता था । गिनती बढ़ी  तो उखाड़ना शुरु किया , फिर रंगना । पर मांग के पास हफ्ते दस दिन में सफेदी एक महीन लाईन सी लश्कारे मारती  । तो सब छोड़  दिया । अब खिचड़ी  बाल फहरते हैं इधर उधर । उम्र भी क्या शै है । जालिम जालिम । जरा झुक के आईने से सट के चेहरे का मुआयना किया । झाँई का जाल गालों पर , आँखों के नीचे काले गड्ढे । रूखे सिगरेट पीये से होंठ । कौन देखेगा अब इधर जब गुलाब ही लाल न रहे । बदन का हल्का दोहरापन , भारी कमर , अरे पर कमर भारी क्यों हुये ? सूखी सड़ी  सी ज़िन्दगी जैसे मुर्झाया हुआ बैंगन । फिर इस कमर को ही कमरा होना था , हे ईश्वर । आम चीज़ों में ईश्वर को यों नहीं बुलाया जाता पर कमर का कमरा होना खास चीज़ थी सो हर बार ईश्वर का आह्वाहन होता ।
मन मंझान । ढह गई वापस बिस्तर पर । बेचैन अतृप्त आत्मा । नीन्द आई होगी कभी और नींद में कोई मर्दाना हाथ यहाँ वहाँ कहाँ कहाँ छू रहा था । बस बिस्तर पर कभी छुई मुई कभी मछली बनी हिचकोले लेती रही । ये सारे खेल रात के ही थे । सखी कहती रात के ही क्यों ? दिन के भी तो हो सकते हैं । सखी ये कह कर लजा नहीं जाती , बेशर्मी से आँख मार के हँस पड़ती , कमर में कुहनी का टहोका मार घुलट पड़ती । हँसते हँसते गिर पड़ती । ऐसे समय में वो और सीधी सतर बैठ जाती । चेहरा  भावहीन करने का असफल और फूहड़  प्रयास करती , कोई धमाकेदार सनसनीखेज ज्ञान के मोती से सखी को अचंभित कर दें ऐसा कोई जवाहरात खोजती और अंतत: किसी देर रात को पढी गई रूमानी उपन्यास की नायिका सी लाल पड़ जाती । कैसा अनर्थ था । यहाँ तो कोई चौडी बलिष्ठ रोंयेदार लोमश छाती भी न थी । सो ऐसा लाल पड़ना भी व्यर्थ ही जाता । उसके हर काम ऐसे ही व्यर्थ जाते ।
सखी गूढ ज्ञान बाँटती । डेट्स सेट करती । पर्फ्यूम और प्रोवोकेटिव का मतलब समझाती । डियो और शेव्ड अंडर आर्म्स के फायदे गिनाती । वैक्स वैक्स वैक्स ,उसका मूल मंत्र रहता । लांजरी शॉप के चक्कर लगवाती । पेडिक्योर मैनिक्योर , फेशियल वेशियल । सब पुड़िया में बाँध के तकिये के नीचे दबा जाती । पर कोई टोटका , कोई टोना ,सब बेअसर । जीवन वही मुर्झाया सूखा निचुडा बैंगन ।
ऊपर ऊपर से दिन रात छन्न छुन्न होता । तमक धमक और ठसक भरी चाल होती । नाक हवा में और मन तुनक मुनक करता । रेल गाड़ी  धड़ धड़ाती हुई धुँआ उगलती हुई चलती । लोग बाग आजू बाजू रास्ता छोड़ छोड़ चलते , बचते बचाते टेढे मेढ़े  होते , बात बात पर हाथ खड़े  करते । और इसी दर्प में मशगूल ये धमधमाती रहतीं । अरे हट तू क्या चीज़ है भला । अदा से फहराये बाल समेटती , सम्बलपुरी साड़ी  का चौड़ा  पाड़ कँधे पर दुरुस्त करतीं किसी पुरातन बैटल शिप की गरिमा से भरी इधर उधर होतीं । और अंदर ही अंदर क्या होता ? दिल धुकमुक होता । कोई छुईमुई का पौधा अपनी पत्तियाँ बात बात पर क्षण क्षण खोलता बन्द करता । और इस पौधे को पोसने की बजाय ये करतीं क्या ?झट बालों को ज़रा और फहरा देतीं और नाक ज़रा और उठा देतीं ।
अब इस अदा से कोई पुरुष फँसने से तो रहा । नहीं ही फँसा । आखिर चालीस की सरहद अब दिखती थी ज़रा ज़रा । किसी नोमैंस लैंड़ की तारों वाली बाड़ जैसा । एकबार बाडा पार किया नहीं कि सरकंडों के जंगल में फँसे । सिर्फ काँटे ही काँटे ,फूल एक भी नहीं । और एकाध और कदम इस झाड़ में बढा दिये फिर तो ढलान शुरु । शरीर वैसे भी अब कसाव खोने सा लगा था । ब्लाउज़ और पेटीकोट के बीच के हिस्से को उँगलियों के बीच पकडने पर अंगुल भर माँस अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने को बेताब हो उठता ।
तभी सखी कहती , थम ! समय निकला जा रहा है । सखी की अपनी भरी पूरी दुनिया थी । राग रंग थे , नशीले जोशीले खेल थे । चुहल कौतुहल थी । कौतुक प्रमाद था । रात के बाद सुबह की आलस भरी अंगडाई थी , चेहरे की दमक थी , कमर की गहराई थी । और इनसब सुखों के बीच सहेली की सूखी मरी दुनिया की बेचैन चिंता थी , पुण्य कार्य कर देने का तीव्र आग्रह था , धड़धड़ाती नदी का प्रबल आवेग था ।
समय था कि निकला जाता था अंधाधुंध ,बेलगाम बिदका घोड़ा  । चेहरे की लुनाई उसी अनुपात फीकी पडती जाती थी । अक्षुण्ण कौमार्य की बिन्दी माथे दपदप चमकती । फीके चेहरे के मरियलपने को और और उजागर करते हुये । मुश्किल मुश्किल समय था और राह में कई कई दुश्वारियाँ । सखी की हिदायतें ,सलाहें , तरकीबें भी अब मानो ऐसे लगतीं जैसे अचक्के अचाहे हज़ार चींटियां  चलती हों बदन पर । एक एक करके नाकामयाबी के लाल चकत्ते गर्दन , बाँह , छाती पर उभर जाते । फिर लपेटते रहो साड़ी  का पल्लू इधर उधर । सबसे भयानक बात ये हुई कि कुछ सजीले छबीले नौजवान आँटी जैसे संबोधन से भी नवाजने लगे । आहत नज़रों से देखने के सिवा वे और क्या करतीं । बस बाल थोड़ा  और फहरने लगे , झाँईयाँ कुछ और गहराने लगीं । आँखों की निराश मायूसी तो खैर चौड़े  चश्मे से ढक ही रही थीं  ।
और इन्हीं मायूसियों के बंजर दौर में फूल खिल गया अचानक ,बेसानगुमान । और ये सब सखी का करिश्मा नहीं था । भई दूर दूर तक नहीं था । शायद उसी तंग तंग ईश्वर का कमाल था जिसे इधर वो एक उग्र गुस्से और बेचैनी से अपनी कमियों खामियों का जिम्मेदार ठहराती थीं । आखिर न्यूसेंस वैल्यू भी कोई चीज़ होती है , भगवान के घर भी होती है । इसी बात को साबित कर देने के लिये महाशय का आगमन हुआ । लम्बे चौड़े  छ फूटे महाशय जवानी में सजीले रहे होंगे । अब भी थे । कनपटी के सफेद बालों ने सजीलेपन की व्याख्या थोडी बदल दी बस । आँखों पर चौड़े  फ्रेम का चश्मा बौद्धिकता के इश्तहार का जीता जागता नमूना लगता । चश्मे के एक अनाम भाईचारे से भी महाशय को उनसे बाँध देता । स्पेंसर ट्रेसी और हम्फ्री बोगार्ट की पुरानी ब्लैक एंड़ व्हाईट फिल्मों की चमकीले रुमानियत से उनको भर देता । महाशय , जब जरा झुक कर ,तन्मय हो सिगरेट सुलगाते तो ये भी जरा सुलग जातीं ।
पर ये सुलगें न सुलगें , अब भला महाशय इनकी ओर क्यों देखने लगे । लेकिन अजूबा हुआ । होना ही था । सो महाशय ने देखा और फँस गये । जवानी से ही चश्मे वाली पढाकू किस्म की लड़कियों पर जान छिडकते थे । पर पढाकू लड़कियाँ हुई दब्बू लड़कियाँ । सो इनके दुस्साहसी प्रणय निवेदन पर घबड़ा  कर और दब्बू हो जातीं ।चश्मे का शीशा धुँधला जाता । तेज़तर्रार सुंदर लड़कियाँ ,इन्हें आजिज करतीं । ये उनसे दूर भागते और दुष्ट किस्मत की क्रूर नियति कि ये जिनके पीछे पड़ते वो हाथ और पल्ला झाड़ ,कुछ गडबड़ है वाला अंदाज़ अपना फूट लेतीं । इन्हीं चक्करों में महाशय भी अपने सजीलेपन के बावजूद उस मोड़ पर अकेले चल रहे थे जहाँ पर अमूमन लोग शादी की एक लम्बी पारी खेल चुकने की अंतहीन बोरियत से निकलने के लिये इधर उधर कमसिन लड़कियों पर निगाह डालना शुरु करते हैं । लेकिन महाशय तो महाशय थे । कमसिन लड़कियों को क्यों ताकते भला । फँसे तो कहाँ फँसे । उसी चश्मे पे जाके फँसे ।
अब मन बड़ा  बेहाल रहता । दिनरात बेचैनी का आलम । सोते , जागते , उठते , बैठते मन कहीं अटका रहता । दिल में कोई कील फँसी थी । गज़ब टीस मारती । जैसे कोई सुराख करता हो और फिर उस सुराख में कोई फूल लगाता हो जिसकी महक उन्हें बावरी करती । सखी देखती थी ये बदलाव । पूछती थी , क्य हुआ ? उनके कुछ नहीं के जवाब पर हँसती थी बेहया ।
इन्हीं जलते होंठ और सूखी ज़बान की लड़ाई के दौरान , एक दिन महाशय ने फोन कर दिया , घँटों बात कर ली । क्या बात कर ली न महाशय को पता न उनको रही खबर । और सखी को तो खबरदार , बिल्कुल भी नहीं । ये सब मामला अकेले दुकेले का था । कोई तीसरा नहीं । कहानी फिर बढने लगी । अब तफ्सील क्या बताना । वही छेड़ छाड़ , गिले शिकवे , रूठना मनाना , नाज़ नखरे , इतराना लडियाना । कुछ सुगंधित प्रेम पत्र , कुछ सूखे फूल , कुछ मेल मुलाकातें इधर उधर  ।
मन अब और बेचैन रहता । तन और भी ज़्यादा । कोई तार खिंचा था जो अब टूटा ही चाहता था । उँगलियाँ तड़तड़ाती थीं , कमर पिराता था । हाथ पैर टटाते थे । बस ऐसे जैसे बांस की टहनी लचक गई हो , कमसिन पत्तियाँ फूट रही हों । शरीर पर भी पत्तियाँ ही पत्तियाँ । कौन हरियाली गंध थी जो पहुँचती थी उन तक भी । ये सोच सोच वो मन ही मन नयी ब्याहता सी लजा भी जातीं ।उनके दोहरे बदन में कोई सुबुक पतली काया लोटपोट हो जाती । आगत मिलन की कोई छाया उन्हें लहालोट कर डालती । होंठों के किनारे से रस चू जाता ।
महाशय इन दिनों रिसर्च कर रहे थे टिड्डों की  मेटिंग रिचुअल्स पर । पता नहीं कौन सा सरफिरा काम था पर इस रूखे काम के बीच अचानक उन्होंने पाया कि किसी अनजानी टेलीपैथी से उनके बदन में भी एक भयानक ऐंठन ने घर बना लिया है । परिचित थे सो समझ गये। लेकिन समझने भर से क्या होता है । पुरानी कहानियों से कुछ सबक सीखा हो तब तो । टिड्डों से मन हटाकर दिल लगाया कि कैसे प्रोपोज़ किया जाये । साईंटिस्ट थे कवि नहीं सो अगली बार मिले तो बीयर के दो पेग के बाद और बहकने के ठीक पहले , पूरे होशोहवास में एलान किया ,
“आई डिज़ायर यू “
मोहतरमा के दिल में ये सुनते ही फूल नहीं खिले । बस धक से कोई ज्वालामुखी फूट गई । इस चालीस साला ढलके जवानी को कोई डिज़ायर करे  , ऐसा कोई कहे , ये तो सपना साकार हुआ । लाल गुलाल दहकते चेहरे और सूखी ज़बान पर जीभ फेरते आँखें महाशय की तरफ कीं । लॉबस्टर के पेट को दक्षता से चाकू से काटते , काँटे पर एक टुकड़ा उठाते तन्मय महाशय , अपने एक पल की हिम्मत का फल देखने से वँचित रह गये । टिड्डों के मेटिंग रिचुअल्स की लेटेस्ट फाईंड़ की कहानी का  उपसंहार उम्दा डिनर की समाप्ति और उसके बाद की झागदार कॉफी के अंतिम घूँट तक ही हो पाया । मोहतरमा का इंतज़ार इंतज़ार ही रहा ।
तीन दिन बाद , और तीन बेचैन रातों के बाद महाशय ने फोन पर हिम्मत का दूसरा पल दिखाया । मनीला के कॉनफरेंस में उनके पढ़े जाने वाले पेपर की दीर्घ चर्चा के बीच में उनके मुँह से निकला,
“ओह हाउ आई मिस यू”
“पर हम तो अभी बात कर रहे हैं । हाउ कैन यू मिस मी “। ऐसा भोला जवाब मोहतरमा ने दिया ।
“आई मिस यू बिसाईड़ मी, इन माई बेड़ “ मोहतरमा फक्क । ऐसी बात का क्या जवाब । हथेलियाँ पसीज गई । छाती के बीच कुछ गरम गोला बना और फैल गया ।
“मेरे साथ मनीला चलो, चलोगी? “
ओह माई गॉड़ , कैसे सँभालू इस दिल को जो रेल की धड़धड़ाहट को मात दे रहा है । कानों में हवा सनसना रही है । ठीक सुना न मैंने , मोहतरमा ने छाती पर हाथ रखते सोचा । ” देन यू कैन रीड़ माई पेपर इन डीटेल ऐंड़ हीयर मी टू “ महाशय की हथेलियाँ भी पसीज रही थीं । कुछ ज़्यादा कह दिया मैंने ।
तीन दिन मोहतरमा हाल बेहाल रहीं । न सोते रैन न जागते चैन । थकहार कर सखी खोजा । सखी मैडम पम्पाडोर  बनीं । फटाफट बेडसाईड़ टिप्स का पुलिंदा तैयार किया , नाईटकेस पैक करवाया , लेस से लैस कपड़े तहवाये और काँपती लरजती मोहतरमा को चैनेल फाईव का एक अंतिम स्टिफ स्प्रे मार कर  सिंगापुर ऐयरलाईंस के ऐयरक्राफ्ट में लगभग धकियाते ठेलते महाशय के बगल वाली आईल सीट में स्थापित करवाया ।
महाशय अपनी दो पल की बहादुरी से इतना आक्रांत थे कि रास्ते भर पसीजे हाथों से सेमिनार में पढ़ने वाले अपने पेपर्स उलटते पुलटते रहे । मोहतरमा स्टिफबैक पूरे रास्ते तनी सतर निशब्द बैठी रहीं , पैसेज के लाल कार्पेट पर पता नहीं भावी जीवन के इस ‘आगे खतरनाक मोड़ है” के डेडली कर्व के संभावित रेकेज का जायजा लेती रहीं ।
रात होटल के रेस्तराँ में कैवर्ने सूविन्यान का सिप लेते महाशय कुछ बोल्ड हुये । मोहतरमा की हथेलियों पर अपना हाथ हौले से रख दिया ।
आगे की कथा दोस्तों जरा हृदय विदारक है  । सोचा तो था कि ये कुछ नॉटी मज़ेदार कहानी लिखी जा रही है । इसमें ज़रा सी कॉमेडी होगी , थोड़ा हल्कापन होगा , कुछ हँसा देने वाला रोमांस होगा । कुछ कुछ बासु चटर्जी वाली फिल्मों जैसी ।
लेकिन रात जब बैलकनी के स्लाईडिंग ग्लास डोर से झाँका तो देखा , मोहतरमा निढाल काँपती सी कुर्सी पर बैठी हैं । लेस की नाईटी के बजाय गले तक ढका कमीज और पजामे वाला नाईट सूट पहनी हैं । महाशय ज़रा फक्क चेहरा लिये बिस्तर के एक कोने में चुपचाप चेहरा हथेलियों में थामे ध्यान मग्न हैं । टिड्डियों के मेटिंग रिचुअल्स को  स्टडी करने के दौरान ऐसा कोई अनुभव ज्ञान उनके हाथ नहीं आया था जो उन्हें इस तरह के सिचुएशन के लिये तैयार करता । आखिर अपने काँपते कलेजे को दोनों हाथों में थामे , लम्बी डूब लगाने के पहली की गहरी साँस लेते कुछ कुछ जॉर्ज ऑफ द जंगल स्टाईल में महशय कूदे और मोहतरमा को लिये दिये नीचे कार्पेट पर धाराशाई हुये ।
आखिर आखिर मोहतरमा उनकी बाँहों में थी । चैनेल फाईव की महक अब तक अपने बचे खुचे मालेक्यूल्स के साथ डिसपर्शन के थ्योरी को सही साबित कर रही थी । कुछ कुछ बेमत्त उन्माद में महाशय ने मोहतरमा को चूमना शुरु किया । मोहतरमा के ज़रा से रुखड़े गाल महाशय के उँगलियों के तले धड़कने लगे थे । कई सदियों बाद या कुछ पल बाद महाशय ने नोटिस किया कि मोहतरमा काठ की तरह निस्पंद पड़ी हैं । महाशय को और प्यार उमड़ा । ओह शी इज़ सो वर्जिनल , शाई , ऐंड़ शी इज़ ऑल माईन ।
लेकिन द ऑल माईन गर्ल उनके फुसफुसाते स्नेह पगे अस्फुट डियर हार्ट की गुहार पर भी सुगबुगाये बिना काठ रहीं तो महाशय ठनके । ठनके उस बम साईज़ गूमड़ पर जो मोहतरमा के माथे पर तेजी से बढ़ रहा था । जूता सुँघाने की नौबत आये उसके पहले मोहतरमा ने पक्का फिल्मी अंदाज़ में , ‘मैं कहाँ हूँ ‘ कहते आँखें खोलीं और अपने चेहरे के ऊपर महाशय का झुका चेहरा देखकर लाल पड़ गईं । फिर आँखें बन्द किये बुदबुदाईं
एक चिडिया फड़फड़ाती  है मेरे अंदर बहुत अंदर खासकर तब
जब तुम होते हो मेरे सामने
महाशय परेशान बेचैन हुये । कनकशन लगता है तभी कुछ बेसिर पैर की बातें कह रही है । सारा रुमान हवा हुआ । मोहतरमा अगले दो दिन बिस्तर पर लिक्विड  डायेट पर रहीं । पानी जैसा सूप पी पी कर बेमज़ा हुईं ।
महाशय टिड्डों की स्लाईड्स दिखा दिखा और साईंटिफिक फ्रेटरनिटी की अकूत प्रशंसा बटोर , कमरे की काउच पर दो रातें बिता , मोहतरमा के गूमड़ के बैठने का इंतज़ार किये । अंतिम रात थी और महाशय सुनहरे समय को ज़ाया न होने देते । आखिर साईंटिस्ट आदमी थे . चीज़ें नाप तौल कर प्रिसाईशन में करते थे । इस बार औचक कूद पड़ने का पिछला फल देखते हुये तकनीक में बदलाव किया । मोहतरमा ने पाया कि कुछ आजीबेगरीब आवाज़ निकालते हुये , कुछ कुछ बचपन में देखी बनमानुशों की भाव भंगिमा में मुट्ठियां  छाती पर ठोकते महाशय प्रणयी हुये । मोहतरमा की बेतहाशा फूटती हँसी से ज़रा भी बिना घबड़ाये महाशय जारी रहे । मोहतरमा के मन में इस प्रणय भरी रात का साफ सच्चा स्क्रिप्ट था । सखी से सुनी रसीली बातें थीं , किताबों में पढ़ी रंगीन कहानियाँ थीं । हम्फ्री बोगार्ट टाईप साईलेंट स्ट्रॉंग माचो लवर था । यहाँ महाशय की कहानी कुछ और रास्ते पकड़ रही थी । रोमांटिक फिल्म में कॉमेडी अनायास घुसपैठ कर रही थी । उनकी आशा के विपरीत होंठों की बजाय महाशय ने उनके पैर के अँगूठे की अंतिम नोक पर धावा बोला । पाँवों को अपने चेहरे से सटाये महाशय प्यार के गीत गाने लगे । अब महाशय के गले में सरस्वती का वास तो नहीं ही था । हारमोनियम के फटे पर्दे का अलबत्ता जरूर घर था । मोहतरमा कितना भी पैर समेटें महाशय अपने बलिश्ठ भुजाओं में दुगने जोश से उन्हें भींच लें । इस कुश्ती भरी और पेट फोड़ू हंसी की रात में आखिर मोहतरमा थक कर निढाल हुईं । महाशय उन्हें बाँहों में भींचे अपने प्रणय और टिड्डों के प्रणय के अद्भुत साम्य की व्याख्या करते रहे ।   रात बीती और सुबह तक गूमड़  समतल हुआ । अब ये गूमड़ का असर था या महाशय के सान्निध्य और प्रणय  का कि मोहतरमा लौटीं तो सखी ने पाया कि जिस फड़फड़ाती कड़ी छड़ी को विदा किया था उसकी जगह कोई छुई मुई छमक छल्लू नाजनीन लौटी है ।
मोहतरमा ने पहला काम ये किया कि सब मर्दाने कपड़े अनाथाश्रम को दान किये और टिड्डिया हरे रंग के तीस साला कपड़ों का अंबार लगाया । सब तरफ हरियाली फैल गई । मन भी हरा भरा ।  पहली बार ऐसा ही होता है फिर महाशय नाक आँख तक टिड्डों में डूबे हैं आगे सब ठीक होगा के अतिशय उत्साह से खुद को सँवारती रहीं । दिक्कत सिर्फ ये रही कि टिड्डों के बाद महाशय प्रोग्रेस कर गये मेंढकों पर । उत्साह से लार्वा टैडपोल कहते , मेढकों की प्रजातियों की तुलना करते और मोहतरमा बैठे बैठे , चेहरे को ठुड्डी में धरे इंतज़ार करतीं कि कब इन मुये मेढकों के बीच फिर डियरेस्ट हार्ट और आई डिज़ायर यू जैसा मधुर संगीत सुनने को मिलेगा ।
पाँच साल बीत चुके हैं । मोहतरमा पार्क में बैठीं इंतज़ार का रही हैं । महाशय हाथ में दो कोन पकड़े एहतियातन चलते मोहतरमा  की तरफ आ रहे हैं । कोन देखकर मोहतरमा चिड़चिड़ा जाती हैं । कहा था कुल्फी खाऊँगी कोन नहीं ।
आजकल मोहतरमा बेहद चिड़चिड़ी हो गई हैं । बात बात पर ज्वालामुखी फूटने को बेताब । वजन कम गया है , अपच और ऐसीडिटी की शिकार हैं । महाशय अलबत्ता कुछ वजन पेट और कमर पर बढ़ा चुके हैं । मगन रहते हैं । आजकल रिसर्च कर रहे हैं मछलियों  पर । मोहतरमा चिड़चिड़ा कर सोचती हैं महाशय की शकल कुछ कुछ उन्हीं गप्पी मछलियों जैसी नहीं हो गई है ? खासकर तब जब बेहद आंतरिक क्षणों में महाशय का अपने ऊपर झुका चेहरा कुछ कुछ मछलियों के खुलते बन्द होते मुँह की तरह फकफक करता है । मोहतरमा चिड़चिड़ा कर सोचती हैं  महाशय का प्रोग्रेस बहुत धीमा है । जाने कब रिसर्च आदमियों तक पहुँचेगा ।
तब तक कल्पना में हम्फ्री बोगार्ट चलेगा ।


प्रत्यक्षा  

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