उम्र के हिसाब से किसी को आंकना उन्हें अकसर चुभ जाता है। बच्चा, जवान, अधेड़, बूढ़ा…सबको गणित के पाले में रखा जाता है। बस दो और साल की बात है, फिर तुम भी जवानी की दहलीज पर कदम रख लोगे, 40 के अधेड़ हो तुम, थोड़े तो जिम्मेदार बन जाओ, पचास की उम्र में भी फैशन करने में पीछे नहीं रहती, कितनी लाल, सुर्ख लिपस्टिक लगाती है, चेहरा भी मेकअप से ढका रहता है, अरे साठ पार कर गए अब तो मान लो कि बूढ़े हो गए हो, उम्र के हिसाब से हर चीज तय करने की यह वाहियात सोच उन्हें बहुत चिढ़ाती है। मन की उड़ान को उम्र की कैंची से काटने में लगा रहता है समाज, सड़ी-गली रुढ़ियां अभी तक हवा में तैरती शान से उड़ती दिखाई देती हैं। आधुनिक हो जाने का दावा सब सीना ठोंक कर करते हैं, पर जह बात किसी की उम्र से जुड़ी हो तो पूरी महाभारत नए सिरे से लिखने की होड़ मच जाती है। मानो किसी की जिंदगी में दखल देने का अधिकार उस इंसान की अपेक्षा दूसरों के पास सबसे ज्यादा हो…
साली अनाधिकार चेष्टा…ज्वाला धधक रही थी उनके भीतर। और अगर साठ पार कर गई हो तो फिर तो बवाल हो जाता है…परामर्श देने वे भी आ जाते हैं, जिन्होंने बरसों से कोई सरोकार न रखा हो और अपेक्षाएं तो पहले से भी ज्यादा कहीं बढ़ जाती हैं। जवानी में तो केवल यही अपेक्षा होती है कि परिवार का भरण-पोषण सही तरह से वह करें, पर उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंचते ही अपेक्षाओं के पहाड़ खड़े हो जाते हैं, आखिर आप बूढ़े होने के पाले में जो वर्गीकृत कर दिए गए हैं। 
…हद होती है किसी बात की। जर्बदस्ती बूढ़ा बना दिया जाता है। महेंद्र नाथ को चिढ़ सी हुई इस गणितीय समीकरण से। उम्र न हुई किसी की इच्छाओं का पैमाना तय करने का मापदंड हो गई। 
तुम बहुत छोटे हो, अभी से यह सब करने लगे, अरे दाढ़ी-मूंछ क्या निकल आई, खुद को फन्ने खां समझने लगे हो…शर्म करो ऐसी हरकतें करते अब अच्छे नहीं लगते, अरे शादी हो गई तुम्हारी…दो बच्चों के बाप बन गए हो….
इस उम्र में ऐसा नहीं करना चाहिए, इस उम्र में वैसा करना अच्छा नहीं लगता, दुनिया क्या कहेगी। अरे इस उम्र में दिमाग थोड़ा सरक ही जाता है…बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम…बूढ़े को चढ़ी जवानी और न जाने क्या-क्या। 
माना कि वह 62 वर्ष के हो गए हैं, पर बूढ़े तो कतई नहीं हुए हैं। न तन से और न ही मन से। जवानी जैसा जोश अभी भी बरकरार है उनमें। शीशे के सामने जब भी खड़े होते हैं तो खुद पर रश्क हो जाता है। बाल तो रंगने ही पड़ते हैं आजकल, चलन जैसा हो गया है। और कोई आज से तो नहीं रंग रहे हैं…बहुत साल हो गए हैं। सो सफेदी कहीं नहीं दिखती बालों से। और कंधे भी एकदम सुडौल हैं, कहीं से झुके नहीं हैं। बरसों से सैर कर रहे हैं, फिट रहते हैं एकदम…खाने-पीने पर तो शुरू से ही कंट्रोल रहा है उनका। अभी भी जब जिस्म पर हाथ फेरते हैं तो हाथों की मछलियां फड़कती महसूस होती हैं। पैरों में इतनी तेजी है कि कोई भी उनकी चाल में उनके जोश और भीतरी तरंगों को नाप सकता है। चलते हैं तो लोग यही कहते हैं कि हवा से बातें कर रहे हैं…इतनी फुर्ती है उनके अंदर। 
’’उम्र तो सोच के फंडे के साथ जुड़ी है…बूढ़ा शब्द मेरे जीवन के शब्दकोश में कहीं फिट ही नहीं बैठता है,’’ पार्क में जब भी उनके दोस्त उनके जोश की तारीफ करते तो उनका सीना और चौड़ा हो जाता और वह उम्र पर एक तरह से लेक्चर ही देने लगते थे। उन्हें लगता है कि हर कोई चाहता है कि वह बूढ़े दिखें, बूढ़ों की तरह आचरण करें, रहें और बेचारगी का लबादा ओढ़ लें ताकि उन पर ‘बेचारे’ का लेबल लग जाए और बच्चे उस बेचारे की सेवा करने के अहं को अपने भीतर पोसकर गर्व महसूस कर सकें।
 पर उन्हें कतई पसंद नहीं यह सब। वह बच्चों पर न तो बोझ बनना चाहे हैं, न बेचारा कहलाना चाहते हैं और न ही स्वयं को बूढ़ा मानना चाहते हैं। साठ की उम्र पार कर ली तो क्या हुआ? उन्हें कोई अफसोस नहीं है।   
आखिर क्यों मानें वह स्वयं को बूढ़ा? उन्हें अपने भीतर तरंगों को महसूस करने का अधिकार है। उनके मन के तार क्यों नहीं झंकृत नहीं हो सकते? बस इसलिए क्योंकि वे साठ पार कर गए हैं और उन्हें वृद्ध की संज्ञा दी जाने लगी है। ये जब से सीनियर सिटीजन की तख्ती हर ओर लग गई है, तब से तो साठ पार होते ही…लोग सिर्फ श्रद्धा से ही देखने लगे हैं। बैंक हो या कोई अन्य कार्यालय, हर कोई फट से रास्ता दे देता है। सीनियर सिटीजन की अलग से लाइन लगती है। बस में, मेट्रो में हर जगह सीनियर सिटीजन के लिए अलग सीटें बना दी गई हैं। हद होती है…सम्मान देने के चक्कर में उनसे उनकी उमंगों को छीना जा रहा है। किसी सुंदर महिला को देख भर लो तो छिछोरा और सनकी जैसे शब्द उछाल दिए जाते हैं…‘साला बुढडा, अभी भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आता’, इन फिकरों को याद कर उनका मुंह कसैला हो गया। भई हमें भी जीने दो֫—उम्र बढ़ी है पर दिल तो जवान है। इच्छाएं ज्यों की त्यों हैं—क्यों नाहक अरमानों का गला घोंटने पर आमादा हो—बेकार की छीछलेदारी हो रही है। 
 सबसे खराब स्थिति तो बेचारी औरत की होती है, जो बच्चे पैदा होने के बाद उन्हें पालने में अपनी सारी इच्छाओं को होम कर देती है। आजकल बेशक बहुत देर से शादी होती है। तीस पार कर चुकी होती हैं लड़कियां, फिर दो-चार साल बेबी प्लान करने में निकाल देती हैं और जब तक बच्चा विवाह लायक होता है तो वे साठ पार कर चुकी होती हैं। पर उनका विवाह तो बहुत जल्दी हो गया था और जब उनकी पत्नी 40 साल की हुईं तो बच्चों की शादियां भी हो चुकी थीं। तो क्या 40 साल की औरत को अपनी दैहिक इच्छाओं के बारे में इसलिए सोचना छोड़ देना चाहिए क्योंकि बच्चों की शादी हो गई है? पर वे ऐसा तो तभी से करने लगती हैं, जब से बच्चे किशोर वय पार कर जवानी को छूने लगते हैं…पर पुरुष वह क्या करे…बाहर का रास्ता देखे या अपनी पत्नी के साथ ही जबर्दस्ती करे या बस मौका ढूंढता रहे। 
  आश्चर्य तो इस बात का है कि उनके बेटे ने ही उनसे अजीब सवाल कर डाला था। सवाल क्या जैसे उन्हें वह किसी कठघरे में खड़ा करने की जिद ठान बैठा है…सवाल सिर्फ अदालत में ही नंगा नहीं करते हैं, सवाल घर की चारदीवारी में भी अशिष्टता की कैंची से सारे कपड़े तार-तार कर देते हैं। जिस बेटे की अंगुली पकड़ मंजिल तक पहुंचाया, वही पिता के साथ मर्यादा की सारी हदें पार गया था। 
 “इस उम्र में भी आप चाहते हैं कि मां आपके साथ सोए या स्पष्ट शब्दों में कहूं तो आप अब भी मां के साथ सोना चाहते हैं…सोच कर ही शर्म आती है पापा। अब तो आपके पोता-पोती भी ब्याहने लायक हो गए हैं, उनका तो लिहाज कर लेते।”
महेंद्र नाथ अवाक खड़े बेटे को टकटकी लगाए देखते रह गए थे। क्रोध से नथुने फड़फड़ाने लगे थे, फिर उसके वाहियात सवाल पर पिता-पुत्र संबंधों की मर्यादा का मंथन करने लगे थे। उनकी पत्नी शर्म से गढ़ गई थीं। अपने पल्लू को सिर पर डालते हुए वह रसोई की ओर लपकीं। उनके कदमों में अब तेजी नहीं रही थी…बुढ़ापा बहुत तेजी से छू बैठा था राजरानी को, पचास की ही तो हुई है वह पिछले महीने। आजकल की नई पीढ़ी में 50 साल की औरतें इश्क करने से भी गुरेज नहीं करतीं। शादी होना भी आम बात हो गई है और एकदम फिट रहती हैं। पचास की उम्र आजकल कहां बुढ़ापे की निशानी मानी जाती है। दिन भर पार्लर पर गुजारने वाली वे औरतें थोड़े ही राजरानी की तरह चूल्हे की आग में झुलस अपने चेहरे को राख करती हैं। चमचमाती रहती हैं वे, पर राजरानी….
कोई जवाब दिए बिना वह अपने कमरे में आ गए थे। शीशे के सामने खड़े महेंद्र नाथ ने अपने अक्स को समझाया,“समझ लो, तुम बूढ़े हो गए हो…तुम अपनी मौत की ओर जाने के लिए तैयार हो और पत्नी को अपनी बगल में सुलाने की इच्छा तुम्हारी अभी तक मरी नहीं है…छिः छिः लानत है तुम पर। पचास साल की पत्नी जिसके शरीर से लेकर चेहरे तक पर झुर्रियां चमकने लगी हैं। यहां-वहां से थुलथुल लटकता मांस नजर आता है…थोड़ा सा चलते ही जिसकी सांस फूलने लगती है। जो थकी रहती है हमेशा—ऐसी पत्नी के साथ सोने की चाह अभी तक मरी नहीं तुम्हारी।”
तो क्या हुआ अगर वह बूढ़े हो गए हैं…जैसा कि उनके सिवाय बाकी सब मानते हैं, पर उनके भीतर न जाने कितने मौसम खिलते हैं, कितने ही भीतर पलते अरमान उन्हें जीवंत बनाए रहते हैं। गुस्से से उनके जबड़े खिंच गए। अपने शरीर को छू-छूकर देखने लगे। वह जवान हैं अभी भी और लंबे समय तक बूढ़े भी नहीं होने वाले हैं। वह खुश रहते हैं, अपना ख्याल रखते हैं। उन्हें मन मसोसकर जीना नहीं पसंद कि भई अब उम्र हो गई है, अब क्या अच्छे कपड़े पहनने या जो मिल जाए वही खा लेना चाहिए…वह इन बातों को खुद के नजदीक भी नहीं आने देते हैं। स्मार्ट तरीके से रहना क्या सिर्फ जवानों की बपौती होती है, और उसके लिए क्या ‘सो कॉल्ड मॉडर्ननिटी’ के दायरे में आना जरूरी है?
लेकिन उनका बेटा मानता है कि उन्हें अपनी उम्र के हिसाब से जीना व व्यवहार करना चाहिए। चुपचाप बैठकर चिंतन-मनन करना चाहिए न कि अपनी लालसाओं की गठरी को ढोना चाहिए।  
“रामायण या कोई धर्म ग्रंथ पढ़ने में अपना मन लगाएं, और कुछ नहीं तो टीवी पर आने वाले धार्मिक गुरुओं के प्रवचन तो सुन ही सकते हैं। सत्संग पर जाया कीजिए, कुछ तो मन शांत होगा उससे। भक्ति में रमने का समय है। कहें तो चार धाम की यात्रा का प्रबंध कर देता हूं। आध्यात्मिक यात्रा की जरूरत है आपको,” बेटे का सुझाव सुन उन्हें हंसी आ गई थी। 
“देखा नहीं कैसे धार्मिक गुरू एक-एक कर पकड़े जा रहे हैं। सेक्स स्कैंडल, रेप केस…और न जाने किन-किन मामलों में फंसे हुए हैं। ये तुम्हारे गुरु आलीशान घरों में रहते हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमते हैं, विदेश यात्राएं करते हैं, लड़कियां पालते हैं। आध्यात्मिक यात्रा की जरूरत है इन्हें है मुझे नहीं। भक्ति मन का विश्वास है, उसके लिए मंदिरों के चक्कर लगाने में मैं विश्वास नहीं रखता। पंडित-पुजारी, सब पाखंड हैं। मैं तो बस खुश होकर जीने में यकीन रखता हूं। इस सृष्टि पर आए हैं तो मौज-मस्ती करो, नाहक के चोंचलों में पड़कर क्या मिलेगा। सत्संग में जाने वालों को भी देखा है…न जाने कितनी तरह की ग्रंथियों से ग्रस्त हैं वे, न जाने कौन-सी गुत्थी सुलझाने के लिए मंदिरों के चक्कर लगाते रहते हैं,” महेंद्र नाथ इस बारे में धाराप्रवाह बोल सकते हैं।
 “आपसे तो बात करना ही व्यर्थ है,” झल्ला उठता है नलिन हमेशा। 
पर महेंद्र नाथ खुद से बहुत प्यार करते हैं और अपनी पहचान को सम्मान देते हैं, अपने मन और शरीर की तरह। उन्हें तो आज तक यह नहीं समझ आया कि बूढ़ों का धार्मिक होना अनिवार्य क्यों है? बूढ़े चारपाई पकड़ लें तो इन बेटों को दिक्कत होने लगती है, बहुएं ताना मारती हैं और अगर फिट रहें तो उनके एहसासों को पाप माना जाता है। बूढ़ा यानी अब वह श्रद्दा करने की वस्तु बन गए हैं। उनके मुंह से केवल आशीर्वाद निकलें और ज्ञान की बातें ही वे करें। वह अपने बच्चों के बच्चों को बैठकर सिर्फ कहानियां सुनाएं, उन्हें पार्क ले जाएं या बेबी सिटिंग करें। इसी से उनकी उपयोगिता सिद्ध होगी और कहने वाले कहेंगे, ‘बहुत ही अच्छे ढंग से बुढ़ापा बीत रहा है, नाती-पोतों के साथ, वाह क्या बात है।’
 महेंद्र नाथ ने कुर्सी को खींचा और पलंग पर पांव पसार कर कुर्सी पर बैठ गए। उन्हें लगा की उनका बेटा ही उनका मजाक उड़ा रहा है–“ऐ बुढ्डे, अपनी सीमा में रह…अपने जिस्म को कंट्रोल में रख, यह अशोभनीय है, एक बूढ़े के आचरण के विरुद्ध। अश्लीलता के दायरे पार करना इस उम्र में…पिता की छवि क्यों खराब कर रहे हो?” 
उनकी कनपटी गर्म हो गई, शिराओं से खून का प्रवाह तेजी से चक्कर लगाने लगा। मांसपेशियां फड़कने लगीं। माना घर में बहु है, पोती है, पोते हैं…पर उस वजह से क्या अपनी पत्नी को न देखें…उसे छुए तक नहीं…हद होती है। कौन सी जिम्मेवारी नहीं निभाई उन्होंने। बच्चों को पालने में जवानी कट गई। राजरानी के पास वक्त ही कहां था उनके लिए और वह भी नौकरी के चलते अकसर दौरे पर ही रहते थे। रंगीन सपनों पर तो दायित्व का चश्मा चढ़ा रहा हमेशा। घर-गृहस्थी की अपनी खुशी होती है, इसलिए राजरानी की व्यस्तता कभी चुभी नहीं उन्हें। बच्चे उन दोनों के बीच आकर सो जाते तो दोनों बस कसमसा कर रह जाते…पर सुकोमल बांहों का उनसे लिपट जाने के सुखद एहसास को न तो वह खोना चाहते थे न ही राजरानी। बच्चों को सीने से चिपटा कर सोने का मजा ही कुछ और होता है। उस समय उनके अंदर कुछ हलचल होती और बगल में लेटी राजरानी भी उनकी बांहों में समा जाने को मचलती तो कभी नलिन, कभी मीता, तो कभी विपिन का रुदन उनकी भावनाओं के समुद्र में उठती लहरों के उफान को शांत कर देता। राजरानी के चेहरे की चमक गायब हो जाती और अगली सुबह तक…आने वाले कुछ दिनों तक एक ठंडापन उसके अंदर पसरा रहता। 
वह उसे छेड़ते,“ अब तो बाहर ही आंखें सेंकनी पड़ती हैं, अरे किराना स्टोर की मालकिन है न …क्या खूब लगती है। तुमने गौर नहीं किया आजकल मैं बार-बार वहां जाने लगा हूं। तुम जो भी लिस्ट बनाकर देती हो, एक बार में चीजें नहीं लाता और तुम्हें कह देता हूं कि खत्म हो गई थी, कल लाऊंगा।”
 राजरानी पलकें झपकाती हुई मुस्करा पड़तीं। उसके गाल ऐसे सुर्ख हो जाते मानो ऐसा काम वही कर रही हों। 
“कहीं भी चले जाओ, लौटकर यहीं आना पड़ेगा मेरे पास,” वह उनकी चिकोटी काटते हुए कहती, “तुम मर्दों का क्या…यहां-वहां नजरें मटकाने की आदत तो जैसे घुट्टी में पीकर आते हो।”
“ तो तुम औरतें नहीं करतीं ऐसा कुछ…कुछ नएपन की इच्छा तो तुम लोगों में भी उठती ही होगी?” क्या रास्ता निकालती हो तुम लोग?”
“राजरानी बनावटी गुस्से से आंखे तरेर उन्हें देखतीं और अंगूठा दिखा देतीं मानो कह रही हों,“बूझो तो जानो।” 
दोनों बेवजह हंसते रहते बस। बच्चों के सामने शायद अपने शरीर की जरूरतों पर इसी तरह आवरण डालने का प्रयास करते रहते। कभी अचानक रात में नींद खुल जाती और किसी बच्चे की मां से लिपटने के चक्कर में उसकी साड़ी घुटनों तक सरक जाती तो वह देर तक उसकी गोरी पिंडलियों और पैरों को ताकते रहते…अपनी ही पत्नी के शरीर की मुलामियत देखने के लिए रात के अंधेरे में छिपकर देखना…झल्लाहट होती थी बहुत। पत्नी को कैसे जी भर कर महसूस करें, यही सोचते रहते और उनके वापस जाने का समय जाता। नौकरी की वजह से हमेशा दूसरे शहरों में रहना पड़ा उन्हें। 
कभी भीगे वस्त्रों में लिपटी नहाकर बाहर निकली राजरानी को खींचकर कमरे में ले जाना चाहते तो वह रसोई की ओर भागती,“ बच्चे क्या सोचेंगे, हटो भी। नाश्ता बनाना है अभी।” सारा फोकस बच्चों पर रहता था—ठीक है जिन्हें नौ महीने कोख में रखा हो, वे मां के लिए सबसे अहम हो जाते हैं, पति बाद में, बच्चे पहले…मां स्वार्थी कैसे हो सकती है। यह कोई विदेश थोड़े ही है जहां बच्चे थोड़े बड़े हुए नहीं कि उन्हें इंडिपेंडेट हो जाने के लिए कहा जाता है। यहां तो बच्चों के बच्चे…उनके भी बच्चे…जब तक मां-बाप जीवित रहते हैं, पंखुड़ियों की तरह उन्हें सहेजते रहते हैं। कोई कांटा न चुभ जाए, कोई टीस न सहनी पड़े उन्हें…उनके दर्द का फाहा बन खुद पीड़ा सहते रहते हैं।   
 विदेश में बच्चों को हमेशा छाती से कोई चिपकाए नहीं रहता। सारा दिन मां बच्चों के पीछे नहीं लगी रहती कि बेटा खा ले, बेटा सो जा, बेटा पढ़ ले, बेटा अपना ध्यान रख…हजारों हिदायतें और फिक्र तो हमारी ही परंपराओं का हिस्सा बनी हुई हैं। मां की एक अलग ही छवि है। मां एक आदर्श स्त्री होती है, मां को देह की भूख नहीं हो सकती है, मां की इच्छाएं नहीं हो सकतीं, मां अपने बारे में नहीं सोच सकती… मां अपने शरीर के उभारों पर रश्क नहीं कर सकती…मां का मतलब है कोई देवी जो केवल पूजा तुल्य है…उससे छोटी-छोटी त्रुटियां होने की भी अपेक्षा नहीं की जा सकती है। ऐसे में अगर मां बच्चों को छोड़ पिता के साथ जा बैठे या दोनों निकट होना चाहें तो इससे बड़ी अजीब बात और क्या हो सकती है। और पिता, वह तो जिम्मेदारियां निभाने, बच्चों की मांगे पूरी करने के लिए होता है। पैदा किया है तो कर्तव्यों की पूर्ति करना अवश्यंभावी ही तो है। 
सारा रोमांस, ग्लैमर, और सच कहें तो सेक्स, बच्चों के मां-बाप के जीवन में आगमन के साथ ही चुक जाता है। उम्र बढ़ती है तो उम्मीद की जाती है या मान लिया जाता है कि बूढ़ों की सारी अनुभूतियों तो अब फड़फड़ाना छोड़ चुकी होंगी। रंगीन सपने, यहां तक कि रंगीन चश्मे तक लगाने की बात किसी को हजम नहीं होती है।
 “एक जवान बेटी का पिता शीशे की तरह होता है, कहीं से चटका तो उसका असर बेटी के जीवन पर पड़ता है,” पता नहीं राजरानी ने यह बात मजाक में कही थी या उन्हें याद दिला रही थी कि ऐ बूढ़े खूसट संभल जा। 
राजरानी के शरीर ने ही नहीं, मन ने भी शायद स्वीकार कर लिया है कि वह एक बूढी औरत के पाले में सरक आई है। जब उनकी जरूरतों के तराजू पर बच्चों का पलड़ा भारी होने लगा था, तभी से शायद उन्होंने खुद को रंगीन कल्पनाओं और एहसासों की कैद से मुक्त कर लिया था। 
महेंद्र नाथ अपने मन के चोर दरवाजे में घुस जब-तब अपने शरीर की उत्सुकता के साथ खेलते रहते थे। उनका मन होता कि राजरानी से पूछें कि कभी तुम भी गई हो उस चोर दरवाजे के अंदर। जाओगी तो तुम्हारी सांसें गर्म होने लगेंगी, तुम्हारे वक्ष बेकाबू होने लगेंगे और जिस्म का हर रेशा भीगने लगेगा…जाओ तो एक बार उसमें…फिर मुझे उसके भीतर आने से नहीं रोक पाओगी। जो बूढ़ी औरत तुम्हारे अंदर उतर आई है वह बाहरी आवरण की तरह परत-दर-परत गिर जाएगी। एक बार तो विरोध करो, अपने बेटे की बातों का। वह तुम्हारे पति पर आक्षेप लगा रहा है। कोई लाख असभ्यता दिखाए राज, पर जान लो मैं बूढ़ा नहीं होने वाला और न ही मैं तुम्हारे बिना सोऊंगा। अपने साथ मैं नलिन के बेटे को सुलाने से रहा और तुम पूजा वाले कमरे में रहो। जगह नहीं है तो चाहे कहीं कमरा बनवाएं या कहीं और जाकर रहें। मैं तुम्हारे बिना नहीं सो सकता…तुम्हारी खुशबू बिस्तर पर मेरे लिए नींद की गोली का काम करती है। तुम चाहती हो मैं भी औरों की तरह नींद की गोलियां लूं। 
 उनके भीतर जैसे एक अंधड़ चल रहा था…एहसासों के पत्ते झरें…वह ऐसा नहीं होने देंगे। महेंद्र नाथ को कुछ कमजोरी सी महसूस हुई। रसोई में जाकर राजरानी का हाथ पकड़ लिया…मानो एक मजबूत संबल मिल गया हो।
“क्या कर रहे हैं? बच्चे क्या सोचेंगे? सुना नहीं नलिन ने क्या-क्या सुनाया है आपको। मैं अब से पूजा के कमरे में ही बिस्तर लगा लूंगी।
 “ऐसा कुछ नहीं करोगी तुम।” उनके स्वर में एक लपट थी जो बच्चों ने भी सुनी। नलिन और विपिन अपने-अपने कमरों से बाहर निकल आए। बहुएं कमरों के दरवाजों पर कान लगाकर खड़ी हो गईं। 
“अगर किसी को इतनी ही दिक्कत है तो बड़ा घर देख लें। मैं अपने घर से कहीं नहीं जाने वाला। खून-पसीना एक कर एक-एक ईंट जोड़ी है, मुझे यहां से निकालने की सोचना भी मत। अगर हमारे बच्चों के लिए हम बोझ बन गए हैं तो वे जान लें कि अभी भी मुझमें इतना दम है कि तुम्हें और अपने को पाल सकता हूं। बुढ़ापे में पति-पत्नी एक-दूसरे का सहारा होते हैं…,” उन्होंने जानबूझकर बुढ़ापे पर जोर देकर कहा। मानो जताना चाह रहे हों कि भई समझ लो मैंने मान लिया है कि मैं बूढ़ा हो गया हूं…यही एकमात्र अस्त्र बचा था उनके पास। वरना राजरानी का संग कैसे मिलेगा। 
“मेरी तबियत का ख्याल तुम्ही रखती हो, दवाई कब देनी है, तुम्हें ही पता है…रात को जब तक तुम्हें पुकारूंगा, मेरे प्राण ही न निकल जाएं।” उदासी की असंख्य परतें चेहरे पर चढ़ा उन्होंने आखिरी पत्ता फेंका। पता था उन्हें कि उनका यह पत्ता उन्हें जिताकर ही रहेगा। 
 “कैसी अशुभ बातें कर रहे हैं आप? देखो नलिन, तुम्हारे बाबूजी, न जाने क्या-क्या बोल रहे हैं। अगर इन्हें कुछ हो गया तो मैं कैसे जिऊंगी,” राजरानी ने थोड़े रौब से पर आवाज में दर्द के बहुत सारे तरकशों को छोड़ते हुए कहा। कोई शर्म नहीं थी उनके स्वर में। 
 “तुम पुनीत के लिए छत पर कमरा बनवा दो। इस उम्र में उन्हें मैं अकेला नहीं रहने दे सकती।” 
“पर मां…? पुनीत रहेगा न बाबूजी के पास। वह देख लेगा कुछ होगा तो।” नलिन के जिद्दीपन के बारे में राजरानी को अच्छे से पता था और उससे कैसे निबटना है, यह भी उन्हें पता था। बचपन से ही अड़ियल घोड़ा रहा है। पर अब वह झुकने वाली नहीं हैं।
“ कह दिया, सो कह दिया…तुम्हें बाबूजी की जरा भी चिंता नहीं है।”
उन्होंने महेंद्र नाथ को कंधे का सहारा दिया और कमरे में ले आईं। “बहू, गैस पर दाल चढ़ी है, देख लेना।” राजरानी में ऐसा साहस पहले कभी क्यों नहीं आया। महेंद्र नाथ ने सोचा। उन्हें अपने ऊपर गर्व महसूस हो रहा था। जानबूझकर थोड़े लड़खड़ाकर चलते हुए उन्होंने राजरानी का हाथ मजबूती से थाम लिया। 
 “बहुत अच्छा नाटक कर लेते हो तुम,” वह धीरे से बुदबुदाईं। 
महेंद्र नाथ पल भर को हिचकिचाए, फिर धीरे से मुस्करा दिए। खूब जानती है अपने पति को…एक बार फिर गर्व हुआ उन्हें अपने पर।
 रात को जब राजरानी उनसे सट कर लेटीं तो बहुत दिनों बाद मीठा सान्निध्य मिला। उस सुख से भर उन्होंने राजरानी को आगोश में ले लिया। राजरानी ने न तो उन्हें दूर धकेला न ही बांहों से मुक्त होने की कोशिश की। तपिश का आनंद लेते हुए वह उनके प्यार से सराबोर होने लगीं। एक सुख उन्हें भीतर तक घेर गया…चोर दरवाजे के भीतर पति को आने की इजाजत बिना कुछ कहे-सुने उन्होंने दे दी थी। 
सुबह उठे तो राजरानी के चेहरे पर छाई रौनक में उन्हें नई-नवेली दुल्हन का अक्स नजर आया। कमरा धूप के रेशों के उजास से भर गया था। शीशे में उन्हें अपना रूप और ज्यादा चमकता हुआ लगा। चाय की प्याली महेंद्र नाथ को पकड़ाते हुए राजरानी के चोर दरवाजे भीतर छिपी औरत मानो नृत्य कर रही थी। 

सुमन बाजपेयी
पिछले 32 सालों से कहानी, कविता व महिला विषयों, पर्यटन तथा बाल-लेखन में संलग्न; 800 से अधिक कहानियां व कविताएं, 1000 से अधिक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशितहिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखनआकाशवाणी से निरंतर कहानियों का प्रसारण। 
प्रकाशित कृतियां
कहानी संग्रह: ’खाली कलश’, ‘ठोस धरती का विश्वास’, ‘अग्निदान’, ‘एक सपने का सच होना,’  ‘पीले झूमर’, ‘फोटोफ्रेम में कैद हंसी’, ‘हमारी-तुम्हारी लव स्टेरीज-40 प्रेम कहानियां’, ‘मौसम प्यार के’
पेरेटिंग: ‘अपने बच्चे को विजेता बनाएं,  ‘सफल अभिभावक कैसे बनें’
जीवनीः ‘मलाला हूं मैं’, ‘इंडियन बिजनेस वूमेन’, ‘इंदिरा प्रियदर्शिनी’
लोककथाः ‘नगालैंड की लोककथाएं,’ ‘असम की लोककथाएं’
बाल पुस्तकः ‘पिंजरा,’ ‘सीक्रेट कोड और अन्य कहानियां,’ ‘गार्डन ऑफ बुक्स व अन्य कहानियां,‘मंदिर का रहस्य’, ‘चुलबुली कहानियां’
अनुवादः 160 से अधिक पुस्तकों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद 
सम्मानः बाल साहित्य में योगदान के लिए साहित्य मंडल, श्रीनाथद्वारा प्रदत्त; श्रीमती शकुंतला देवी व्यास सम्मान 2022 के अंतर्गत बाल साहित्य भूषण की मानद उपाधि; सलिला संस्था, सलूम्बर, (राजस्थान) द्वारा नगालैंड की लोककथा के लिए सलिला साहित्य रत्न अलंकरण पुरस्कार; अखिल भारतीय डॉ. कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार-2021
संप्रतिः स्वतंत्र पत्रकारिता व लेखन व पर्यटन पर लेखन
संपर्क – 9810795705 और sumanbajpai@gmail.com

 

1 टिप्पणी

  1. स्त्री और पुरुष के मन को गहराई से समझते हुए कहानी में आपने ढ़ाला है। अनछूए से विषय को बहुत अच्छे से उकेरा है आपने । बधाई।

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