‘‘मुझे सपने बहुत आते है यार।‘‘ 
शहर के पुराने स्टेडियम की आखिरी सीढ़ी पर बैठे हुए, उसने पहले ही दिन मुझे यही कहा था। तीन तरफ ही दीवारें, और चैथी तरफ कांटो वाले तार की बाड़ थी वहाँ, जिसके साथ-साथ ढेर सारे विलायती बबूल उग गए थे। रात होने के साथ-साथ स्टेडियम मे खूब अंधेरा होता, और एक, इकलौता बल्ब, वह भी गेट के पास वाले बरामदे में जिसकी गरीब सी रोशनी, थोडी सी दूरी पर जाकर पछाड़ खा कर गिरी होती और उस, झीनी सी रोशनी में, अंतिम सीढ़ी पर हम दोनों, और खुली-खुली काँटों वाली बाड़ के सामानांतर एक सड़क गुजरती थी, जिस पर आने जाने वाली गाडियों की बत्तियां, बीच-बीच में हम पर, स्टेडियम के रेत के सरोवर पर, और सामने की दीवारों पर गिरती और कुछ छायाएं पलक झपकते ही तैर जाती। ऊपर आसमान मंे ढेरों उदास तारे झुक आते, या चांदनी रातों में, दिन भर की गर्मी से झुलसा सा चाँद और सलेटी सी राख के रंग की चांदनी पूरे स्टेडियम में पसर जाती। काॅलेज के शुरूआती दिनों से ही, हम लाइब्रेरी से निकल कर शाम होते ही वहंा आ जाते और रात को नौ-दस बजे तक यूहीं बैठे रहते। 
शाम के ढलते-ढलते जब हम पहुंचते तब तक शाम का नीम अंधेरा घिरने लगता था। हम सीढ़ीयाॅ उतर कर आखिरी सीढ़ी पर बैठते। पूरे स्टेडियम में रेत ही रेत होती थी। वह घुटने मोड़ कर, उस पर ढुड्डी टिका कर बैठता था। रोजाना पता नहीं कहंा से उसे लकड़ी का एक टुकड़ा मिल जाता था, जिससे वह रेत पर कुछ न कुछ बनाता रहता था। रेखाएं, त्रिभुज, अबूझ सी आकृतियां। मैं भी पास में घुटनों पर दोनों हाथों को लिपटा कर बैठ जाता। दिन भर की भागम-भाग के बाद इस तरह बैठना, पता नही क्यों बेहद सूकून देता था, धीरे-धीरे धुंए जैसा अंधेरा स्टेडियम में पसरने लगता, जैसे कोई काला चितकबरा सा अजगर आलस से पसरता-पसरता फैल कर गहरी-गहरी संासें ले रहा हो। दूर सड़क पर दौड़ती गाड़ियों की बत्तियां लपकती-झपकती रहती और उनके हाॅर्न की आवाज, स्टेडियम की दीवारों से टकरा कर गूंजती और सन्नाटा तोड़ती। हम बिना बोले, बैठे-बैठे उस सन्नाटे और अंधेरी खामोशी को पीते रहते। कई बार बूंदा-बांदी होती तो भी बैठे रहतें, और जब बारिश तेज हो जाती, तब ही उठकर, स्टेडियम के बरामदें मंे लगी पत्थर की बंैच पर जा बैठते, और दीवार से पीठ टिका देते। तब हल्की-हल्की फुहारें हम पर गिरती रहती, और थोड़ी देर में स्टेडियम कीचड़ का तालाब बन जाता खुली तरफ से आने वाले पानी के रेले में, उधर की बस्ती की तमाम गंदगी बह कर उस तालाब पर तैरती, मिट्टी की अजीब सी खुशबू भी उसमें घुल जाती। पानी की बहुत छोटी-छोटी बूंदे हमारे बालों में टंग जाती, और फिर गालों पर, चेहरे पर पड़ी बूंदों से मिल कर नीचे टपकने लगती, कभी-कभी जब हमारे चेहरों पर दूर चलती गाड़ियों की रोशनी गिरती तो लगता था, हम चुपचाप बिना सुबके रो रहे हों! वहां बैठना बड़ा उदासी भरा लेकिन सूकून देता था। वह उदासी दिल और दिमाग में किसी गाढे़ द्रव सी भर जाती थी, लगता था हम उसे एक नशे की तरह लेने के आदी हो चुके थे।
अचानक वह उठ खड़ा होता और, मेरा हाथ पकड़ कर कहता ‘‘ले चल यार, बहुत देर हो गई।’’ हम उठकर बाहर आते, दीवार के सहारे रखी अपनी-अपनी साईकिलें उठाते और सड़क के आखिरी छोर तक चुपचाप चलते रहते। यहां सड़क दो भागों में बंटती थी। वह पेट्रोल पम्प की तरफ वाली सड़क के उधर कहीं रहता था। मैं दाई ओर शहर के भीतरी भाग में, हम अपने-अपने रास्ते पर बढ़ जाते। 
उस दिन भी स्टेडियम की सीढियों पर बैठे-बैठे उसने कहा ’’मुझे सपने बहुत आते हैं यार, हर रात सपने कोई भी रात मैनें बिना सपनों के नींद नहीं ली है।’’  मैनें, अंधेरे के झीने आवरण में उसके चेहरे को देखना चाहा। वह सर झुकाए, घुटने पर ढुड्डी टिकाए, लकड़ी के टुकडे़ से रेत पर त्रिभुज बना रहा था। उसके, सपनों का संसार, बड़ा ही विचित्र और विशाल था। पिछले सालों से उसने मुझे सैकड़ों सपने सुनाए थे, जो उसने देखे! अब तो यह हाल था कि जब वह सपने सुनाता तो मैं, उस स्टेडियम की अंधेरी चादर के पर्दे पर, उस सपने को साकार चलचित्र सा देखता रहता और सुनता रहता, उसकी आवाज फिर सुनाई दी.
’’वो जो खूब सारे ख्ंामों’’ वाला मंदिर है न, रेलवे लाईन के पार वाली बस्ती में, कल रात वही दिखा मुझे सपने में तू भी साथ था यार।
 गहरे अंधेरे में मैं सिहर गया।
’’पूरा मंदिर घूमा हमने और पिछवाड़े गए तो वहां खूब लम्बा चैड़ा तालाब था, उसमें एक नाव पड़ी थी, तभी एक पुजारी आया और बोला ’’ चलो तुम्हे घुमा लाते है, और हम उस नाव में बैठ कर तालाब में चल दिए। आगे इतना घना जंगल था, जैसा उस दिन हमने उस किताब में देखा था, ’’अमेजन फाॅरेस्ट’’ जैसा और पता है वह तालाब का रास्ता आगे एक नदी में मिल गया, भरपूर पानी से भरी विशाल नदी….।’’
और वह चुप हो गया, स्टेडियम का सन्नाटा, और अंधेरे की विशाल ठाठें मारती नदी। मैं रोमाचित हो उठा 
’’फिर क्या हुआ, आगे..’’
बस उसने कुछ भी नही बताया। वह कई बार ऐसा करता था, बोलता जाता तो बोलता ही रहता, लेकिन जब चुप हो जाता फिर, चुप ही रहता। मैं ज्यादा पूछता भी नही था, क्योकि मैं उसकी आदत से परिचित हो गया था। 
उसके सपने अजीब से होते थे, कभी रहस्य से भरे, कभी विचित्र जीवों के, कई बार वैज्ञानिक सिद्धान्तों के सपने, विभिन्न देशों की यात्रा के सपने एक सपना तो उसे कई दिन तक धारावाहिक की तरह भी आया जिसमें उसने वस्तुओं के अदृश्य होने का सिद्धान्त देखा था, कई बार मै सोचता कि क्या वाकई उसे सपने आते है, या वह अपनी कल्पना के आधार पर कहानीनुमा सपने बना-बना कर सुनाता है। धीरे-धीरे मैं उसके सपने सुनने का आदी हो गया, जो हमारी खामोशी के बीच सजीव हो जाते थे।
पहला मोड़ वो भरपूर गर्मियों की शाम थी, और तपते स्टेडियम की आखिरी सीढ़ी पर हम अपने पसीने और उड़ती धूल से नहाए बैठे थे। इस शहर में, गर्मी के दिनों में धूल भरी आंधी पूरे दिन भर चलती रहती थी, तेज हवा और लू की लपट। शाम होते-होते वह धूल, गहरे भूरे या हल्केे तांबई रंग की बड़ी सी पतंग सी, पूरे आसमान में पसर जाती थी, पूरा आसमान भी उस धूल से पुत जाता, रात घिरने पर हमारे नथुनों में एक सूखी सी गंध भर जाती थी, जैसे-जैसे रात घिरती, आसमान में वह रेत फैल जाती थी, और रात घिरने पर, वह रेत बारीक कणों के रूप में गिरने लगती। रेत का गिरना इतना खामोशी से होता था कि हमें पता भी नही चलता था और रेत के कण हमारे बालों में, कान के लवों में, नथुनों में, पलकों की बरौनियों पर जमा हो जाते थे। कपड़ों की सलवटों पर, खुली कोहनियों पर बरसते रहते, यहां तक कि खुली छत पर रात को सोते समय, बिस्तर पर भी रेत बरसती रहती और उस नमकीन रेत का स्वाद हमारे होठों पर होता था।
‘‘पता है, मुझें सपने, बचपन से ही आते थे यार।’’ स्टेडियम में आंधी के वेग से उठे, रेत के गुुबार के बीच, वह बोला मुझें सबसे पहला सपना तो आज तक याद है, तब मैं चारेक साल का रहा हुंगा। मैने क्या देखा कि मेरी मां साड़ी बांध रही है, और एक छोटा सा पिल्ला, उसके पल्लू को खींच रहा है, मैं उस पिल्ले को पकड़ने लगता हॅू तो वह दौड़ जाता था।‘‘
’’अब भी आते है तुम्हे मां के सपने’’ मैने उसके चेहरे को देखते हुए कहा, जो अंधेरे में साफ दिखाई भी नही दे रहा था। सिर्फ उसकी आंखों में दूर आती जाती गाड़ियो की बत्तियां दिख रही थी। उसने गहरी सांस ली।
’’नही, अब नहीं आते…. वह अब रही भी नहीं’’ मैं सकपका गया। इससे पहले कभी भी हमारे बीच, घर के किसी सदस्य का जिक्र आया ही नहीं था। मुझे पता नहीं था, कि सवाल पूछते ही उसकी मां के न होने का पता चलेगा। मैने बात मोड़ने के लिए कहा,
’’तू चल यार मेरे साथ हम किसी डाॅक्टर को दिखाते है।’’ 
’’सपने आना कोई बीमारी है क्या?’’ मैने बात संवारी ’’बीमारी तो नहीं यार, पर इतने सपने, और फिर हर रात आना! डाॅक्टर को पूछने में क्या है?’’
वह चुप था। हम काफी देर तक उस कण-कण बरसती रेत मे गर्मी और पसीने से नहाए बैठे रहे। अचानक उसने मेरा हाथ पकड़ा और उठ खड़ा हुआ,
’’चल यार, देर हो रही है।’’
उसके कुछ दिन बाद ही, वह चलने को तैयार हो गया। काॅलेज से सीधे हम डाॅक्टर के पास ही गए। शहर के बडे़ अस्पताल के सामने ही उसका बड़ा सा बंगला था। ज्यादा भीड़ भी नहीं थी, उसकी क्लिनिक में। वह शहर का जाना-माना मनोचिकित्सक था। उसके गंजे सर के दोनों कोनों के पास सफेद बालों के गुच्छे थे, आखों पर चश्मा और, घूर-घूर कर देखती उसकी चमकती आखें और भट्टी सी खरखरी आवाज। जब वह घूर कर देखता तो रीढ की हड्डी तक में सिहरन होती थी, मेरे कहने पर वह डाॅक्टर को बताता रहा और डाॅक्टर पेंसिल से कागज पर कुछ न कुछ बनाता रहा, पूरी बात कह कर चुप हो गया।
’’कोई खास बात नहीं सपने आते हैं तो, हा पेट खराब हो तो ज्यादा आते है। कुछ दवाईयां लिख रहा हू। पंन्द्र्रह दिन बाद मिलना’’ और पर्ची पर हमारे पढने में नही आने वाली दवाईयां लिख कर पर्ची थमा दी।
हम बाहर आए, उसके पर्ची को देखा और फाड़कर पास की नाली में फेंक दी।
मैने टोका ’’यार एक बार दवाई तो ले के देखता?’’ वह रूक गया और मेरी ओर देखने लगा. एकटक बिना पलक झपकाए, उसका चेहरा गोल और कोमल था, उसका रंग सांवला और बाल एक दम काले, आखिर में जाते-जाते घंुघराले से। बस आंखे ही थी जो उसके पूरे चेहरे पर किसी गहरी झील सी लगती थी, कभी-कभी जब वह मुझे एकटक देखता तो मैं सिहर जाता था, उसकी आंखे नीलिमा लिए हुए, सलेटी रंग की थी, जो भीतर से गहरी उदास, पर रहस्यमय चमक लिए हुए थी।
’’मुझे लगता है, ये सपने कभी खत्म होगें भी नही,’’ हम अपनी-अपनी साइकिल पकड़े दूर तक आ गए थे। उस दिन हम चुपचाप उस दो भागों में बटने वाली सड़क से अपने-अपने घर चले गए। स्टेडियम नहीं गए हम।
पर अगली ही शाम हम फिर अपनी रोजाना की जगह पर ही बैठे थे, वैसी ही धूल भरी, थपेड़े मारती गर्म लू वह रही थी, जो धीरे-धीरे आंधी का रंग ले रही थी। हमारे रंेत से सने शरीरों से पसीने की गंध, और दूर जगह-जगह सूखते कीचड़ की गंध आपस मंे मिल गई थी।
’’पता है कुछ दिनांे पहले मुझें क्या सपना आया था।’’ मैनें उसके मुह की ओर देखा, वह नीचे देखता बोल रहा था। ’’जैसे मैं एक खुब बड़ी चट्टान पर लेटा हूॅ और आसमान को देख रहा हू। अचानक एक बाज उड़ता हुआ आया और मेरे पर मंडराने लगा, जैसे चीलें अपने शहर के किले पर मंडराती है। हवा में उसके बडे़-बडे़ पंख फटकार रहे थे। तभी वह नीचे आया और उसने मेरे पेट पर चोंच मारी! तुझे पता है उसने पेट फाड़ कर मेरी आंत ही खींच ली। वह उसे ले उड़ा मेरी आंत लम्बी होती गई पतंग की डोर की तरह! मैं चीखना चाह कर भी चीख नही पा रहा था और पसीने से तरबतर मेरी आंख खुल गई’’
मै उसके सपने से बिल्कुल भी चकित नहीं हुआ, क्योकि उसके सारे सपने ऐसे ही विलक्षण होते थे। वह फिर बोला 
’’उस बाज का चेहरा इंसान से मिलता जुलता था, और पता है उसकी शक्ल किससे मिलती थी।’’
मैने इनकार में सर हिलाया।
’’मेरे बाप से’’ इतना कह कर वह चुप हो गया. मै उसके चेहरे को देख रहा था. उस लू के थपेड़ों मे तपते हुए अंधरे में हम खामोशी से बैठे थे. अकसर ऐसा ही होता था, जब भी वह अपना सपना सुनाता, तो बाद में वह शांत हो जाता, मानो सपने का बोझ उतार कर थकान से हांफ रहा हो.
वह उठ खड़ा हुआ। मैं भी उठा और सीढियां चढ़़ने लगा। अचानक वह रूका और मेरी ओर देखने लगा, ’’अगले दिन’’…. वह चुपचाप एकटक मुझे  देख रहा था. स्टेड़ियम के बरामदे की एक मात्र बल्ब की रोशनी में उसकी सलेटी नीलिमा लिए हुए उदास आॅखें चमक रही थी.
’’मेरा बाप एक अठारह-उन्नीस साल की लड़की से शादी करके आ गया. अब वह मेरी मां है?’’
दूसरा मोड़ परीक्षाएं सर पर आगई थी. हमारा सारा समय लाइबे्ररी मे. ही निकल जाता. एक सप्ताह से हम स्टेडियम भी नही गए थे, पहला पेपर हो जाने के बाद, तीन दिन की छुट्टियां थीं। शाम को हम वहीं थे, अपनी चिरपरिचित जगह पर वही सीढियों का अंतिम सिरा, वही रोशनी की लुकाछुपी, दूर आती जाती गाड़ियों के हाॅर्न की आवाजें, गर्म हवा के थपेड़ों से गूंजता अंधेरा और हमारे पीछे से आती, एकमात्र बल्ब की रोशनी.
’’पेपर कैसा हुआ तेरा आज का?’’ मैने ही सन्नाटा तोड़ा 
’’एक सवाल रह गया, यार’’
’’कौन सा’’
’’वही तीसरा स्पायरोगायरा की लाइफ साइकिल वाला’’
’’फिर भी तूने दो सप्लीमेंट्री काॅपी भरी, मैं देख रहा था’’
वह कुछ नही बोला, मिट्टी पर कुछ अस्पष्ट सा उकेरने लगा। उसकी स्मृति बड़ी विलक्षण थी। केमिस्ट्री के फार्मूले, फिजिक्स के इक्वेशन, और डायग्राम उसे मिनटों में याद हो जाते। सारी की सारी कोर्स की किताबें, विदेशी लेखकों की ही थी और अंग्रेजी मे. उसे सारी स्पेलिंग मिनटों में याद हो जाती यहंा तक कि थ्योरीज वह मुझे समझाता था। जब वो मुझे पढ़ा रहा होता तो मैं उसका चेहरा देखता था। घने लेकिन हमेशा बिना संवरे, हल्के उलझे से बालों से भरा सिर, सांवला रंग, पर जैसे पूरे चेहरे पर उसकी सलेटी नीली आंखे अलग से उकेरी गई हो। उसकी सिर्फ ठुड्डी पर थोड़े से बाल थे और हल्की-हल्की मूंछे। वह जब मेरी ओर देखता और धीरे-धीरे बोलता तो उसकी आॅंखों का सम्मोहन मुझे जड़ कर देता था। कुछ ही पलों में चारों ओर का वातावरण, स्टेड़ियम, वो अंधेरा, वो चमकती रोशनीयां अलोप ही जाती और दिखाई देती रहती, सिर्फ और सिर्फ सलेटी नीलिमा लिए हुए, उसकी आखंे। पर वह हमेशा, बोलता ही कहाॅ था ज्यादातर दिनों में, हम सिर्फ बैठे ही रहते, अबोले, एक दूसरे की उपस्थिति को अनुभव करते रहते। इसी बीच कभी-कभी वह अचानक ही बिना किसी भूमिका के अपने सपने सुनाता था।
लेकिन उस दिन वह मेरी ओर देख कर बोला, ’’पता है कल क्या हुआ?’’ मै सवालिया नजर से तकने लगा ’’कल मेरा बाप खूब दारू पी कर आया, और मुझे पीटा, फिर घर से बाहर निकाल कर, दरवाजा बन्द कर दिया’’ मै चैंका उसने पहलेे कभी भी अपनी घरेलू बात की नही थी।
’’मै रात भर चबूतरे पर सोया, यार।’’
मैने वैसे ही पूछ लिया
’’तूने किया क्या था?’’
’’मै उस लड़की, यानी मेरी मां से बातें कर रहा था। जब मेरा बाप आया तब हम दोनो हंस रहे थे।’’ और वह मुस्करा दिया। मैने उसके चेहरे पर, पहली बार मुस्कराहट देखी थी। ज्यादा नहीं सिर्फ एक हल्की सी झलक, जैसे दूर घने बादलों में हल्की बिजली चमकती हो, जैसी। उसकी सलेटी, नीली आंखे भी कुछ गहरी नीली हो गई।
मैने भी मुस्कराते हुए कहा,
’’धत् तेरी की. तू पिटा और हंस रहा है।’’ वह अब पूरा मुस्कराने लगा। बादलों के छितरा जाने पर आई धूप सा। 
’’यार, उस लड़की को जब मां कहता हू, तो मुझे हंसी आ जाती है, और वह भी हंसने लगती है।’’
मुस्कराहट, जैसे पानी में घुलते रंग सी उसके चेहरे के एक-एक छोर से फूट रही थी। मैने उसे ऐसा खुश पहले कभी नहीं देखा था। मैं चाह रहा था, यह खुशी उसके चेहरे पर कुछ देर और बनी रहे। मैने बात चीत जारी रखी।
’’क्या बातें हुई थी, ऐसी हंसने की’’
’’बस यूूं ही, मैने उसे अपना सपना सुनाया था, और हम हंसने लगे’’
वह सामने अंधेरे की तरफ देखने लगा था, मानो सपने का कोई बिम्ब उस अंधेरे के पर्दे पर अभी बनेगा और वह सुनाने लगेगा! धीरे-धीरे उसके चेहरे की हंसी गायब होने लगी और जैसे वही पुराने चेहरा वापिस उग आया। उसने मेरा हाथ पकड़ा वह उठ खड़ा हुआ।
’’चल यार बहुत देर हो गई’’
हम एक दूसरे का हाथ पकड़े स्टेड़ियम के गेट से बाहर आए अपनी-अपनी साइकिलें उठाई।
’’कल लाइब्रेरी आएगा क्या?’’  मैने धीरे से पूछा! उसने सिर्फ सिर हिलाया, और अपनी साइकिल पकड़े दूसरी ओर बढ़ गया।
इस पत्र के भीतर कुछ न रखिए बारिशें शुरू हो गई थी। बारिश में तो पूरा शहर ही कीचड़ से लिथड़ जाता। जिधर भी जाओ शहर में एक ही तरह की गंध आती थी, और स्टेड़ियम में तो बस्तियों का सारा गन्दा पानी आकर जमा हो जाता था, और कई दिनांे तक सड़ांध मारता रहता। किनारे के बबूल उस पानी को पीकर ख्ूाब घने हो कर हवा में झूमते रहते थे। उस गंदले तालाब में शहर के खुले संडासों का मलबा, जूते, कपडे़, बस्ते और न जाने क्या-क्या तैरते रहते थे। सुअरों की पूरी मण्डली किनारे के कीचड़ में लोट लगा कर मस्ती करती और चिंधाड़ती थी। कुछ दिनांे में ही मच्छरों की पूरी काॅलोनी पैदा होती, और रात में स्टेड़ियम के इकलौते बल्ब की मरी हुई रोशनी के चारों और झुण्ड बना कर, जैसे उसमें घुस जाने के लिए फड़फडाती रहती। तब हम बरामदे की किसी पत्थर की बैंच पर अंधेरे में बैठा करते थे।
उस दिन भी वहीं बैठे, मेंढकों की आवाजें सुन रहे थे। गाड़ियों की बत्तियाॅ, उस पानी के तालाब पर बीच-बीच में गिरकर हमारें चेहरों पर, चमकीला प्रकाश डाल रही थी। आसमान बादलों से अटा पड़ा था, उमस भी थी पर बरस नहीं रहा था। हवा एकदम से रूकी हुई थी। हमारे शरीर के पसीने में उस संड़ाध सरोवर की गंध भी मिल गई थी।
’’कल रात मुझे अजीब सा सपना आया यार।’’
रोज ही आते है तेरे को, तू पूरा रजिस्टर भर सकता है उनसे’’, कहते हुए मैने एक पत्थर सामने पानी में जोर से फेंका, गाड़ियों की रोशनियां उसमें गड्ड-मड्ड होने लगी
’’यार वह एक हरी भरी पहाड़ी थी। ये जो अपना किला है न उसके बगल में तालाब के पास वैसी है। मैं चढ़ कर दूसरी और उतर गया था। वहां एक पानी का झरना बह रहा था। एक दम कांच की तरह का साफ सफ्फाक पानी, मैं नंगे पांव था और मेरे पांव उस पानी में डूबे हुए दिख रहे थे। सामने खूब घने पेड़, एक तालाब की पाल पर उगे थे, मै उस पाल पर चढ़ गया और वहीं एक बरगद के पेड़ के नीचे वो खड़ी थी।
’’वो कौन?’’ मैने टोका, आजतक उसने किसी लड़की का सपना सुनाया तक नहीं था।
’’सुन तो सही! उसने साध्वी जैसा सफेद लम्बा चोगा पहना हुआ था। एक दम गोरी चिट्टि, तपस्वी सा चमकता चेहरा, और सिर भी मुंड़ा हुआ। मै उसकी मुस्कान देख रहा था। फिर वह बोली ’’तुम यहां तक आ गए? मैं भौचक्का खड़ा था।
’’हाॅ, क्या तुम यहा रहती हो’’
वह कुछ नहीं वोली, बस मुस्कराती रही। उसमें अजीब सी रोशनी निकल रही थी। वही पास से एक ओर रास्ता घने पेडों के झुरमुट मंे जाकर खो गया था। वह बोली ’’पर तुम्हे तो आगे जाना है न बहुत दूर।’’ मैं चुपचाप उसे देखता रहा ’’आओ तुम्हे वहां का रास्ता दिखाती हूं। वह आगे चलने लगी। मै उसके पीछे-पीछे चल रहा था वह नंगे पैर थी उसके पांव बहुत ही सुन्दर थे और लम्बे चोगे के बावजूद उसके साफ सुथरे टखने और पांव की उंगलियां दिख रही थी। कुछ दूर चल कर वह रूक गई। मैं उसके बराबर आकर खड़ा हो गया। यह एक उंची सी पहाड़ी जगह थी। यहां से एक पथरीली पगडंडी नीचे घेर घुमेर पेड़ों के बीच जाती हुई खो गई थी। उसने दाहिने हाथ से उंगली का इशारा करते हुए बताया,
’’इस रास्ते पर चले जाओं, यही रास्ता वहां जाता है?’’ मैने पूछा ’’कहा, वह सौम्य मुस्कराहट से बोली, ’’जहा तुम्हे जाना है।’’ और फिर मुड़कर थोडी दूर जाकर खड़ी हो गई। मैने आखिरी बार उसकी और देखा और उस पगडंडी पर उतरने लगा। कुछ देर जाकर मैने पीछे मुड़ कर देखा तो वो वही खड़ी थी। वैसी ही अद्भुद, मुस्कराहट लिए। मै धीरे-धीरे घने पेड़ों के बीच आगे बढ़ता गया अचानक मेरी नींद खुल गई।’’ 
वह चुप हो गया। मै अभी भी उसके सपने के सम्मोहन से बाहर नहीं आ पाया था। उसकी चमकती सलेटी नीली आखों के सिवाय, उस अंधेरे में मुझे कुछ नही दिख रहा था। चारों और उमस थीं, गंधाता तालाब जैसा स्टेड़ियम सामने अंधेरे में धीरे-धीरे हिल रहा था। 
मैने फिर पूछा ’’पर वो थी कौन यार?’’
उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह अंधेरे को ताकता रहा धीरे से वह उठा, उसने कोमलता से मेरा हाथ पकड़ा और हम बिना बोले ही बाहर आ गए। गेट पर मच्छरों की पूरी फौज का हमला जारी था। हमने अपनी-अपनी साइकिलें उठाई और सड़क पर चलने लगे। अब हवा चलने लगी थी, और बारिश की छोटी-छोटी बूंदें गिरने लगी थी। लगता था जल्दी ही बारिश आ जाएगी। सड़क के आखिरी सिरे पर आकर हम अलग-अलग रास्तांे पर निकल लिए
भेजने वाले का नाम और पता
आधे अंधेरे, आधे उजाले की शतरंजी रोशनी के बीच, साइकिल थामें, भूल भुल्लैया सी घुमावदार गलियों में मैं आसूराम जमादार का घर ढूंढ रहा था। उसके एडमिशन फार्म में उसका यही पता लिखा था। वार्ड नं. सात, पुराना हरिजन मौहल्ला, जाटावास। इतने बरस इस शहर में जीकर भी, मैं शहर का यह हिस्सा कभी नहीं देख पाया। मुझे अफसोस हो रहा था। पूछ-पूछकर ही आगे गलियों में बढ़ रहा था। बारिश रूक चुकी थी, और हवाएं भी। आसमान इन दिनांे गंदले खाली बादलांे से अटा रहता था, और शाम से उमस भरी हवा भी रूकी हुई थी। रात के आठ बजने वाले थे, पर अंधेरा घिर आया था और मैं पसीने से सरोबार चल रहा था, उसकी गंध में खुली नालियों, संडासांे और सुअरों की गंध भी मिल चुकी थी। इस गंध का सम्मिश्रण एक नई उबकाई आने वाली बास, मेरे साथ-साथ ही चल रही थी।
हनुमानजी के थान के पास वाली गली बताई थी, एक औरत ने जो आधे अंधेरे में खुली नाली, पर बैठी पेशाब कर रही थी। बस आगे मुड़ते ही, सामने खंभे पर लगे मुर्दा बल्ब, जिस पर हजारों पंतगों का झुण्ड आपस में उलझ रहा था, के नीचे चबूतरे पर बने छोटे से मंदिर में सिंदूर से लिथडे़, बेड़ोल से, उदास मुंह वाले हनुमानजी बड़ी-बड़ी आखों से मुझे घूर रहे थे। एक बुझने के कगार पर झिलामिलाता दीया और सस्ती पांच दस जलती अगर बत्तियों के धुंए के बीच चार पांच लड़के बीड़ी पी रहे थे।
’’आसूराम जमादार का मकान यहीं होगा?’’ मैने पूछा ’’क्या काम है’’ एक लड़का उठकर मेरे पास आया। दारू के भमके के साथ बीड़ी का धुआ भी गंधा रहा था।
’’उनका लड़का मेरे साथ काॅलेज में पढता है।’’
उसने बीड़ी का आखिरी सुट्टा लगाया, नीचे फेंकी और पाॅव से मसल कर, अपने साथियों की ओर देख कर बोला 
’’अरे वो धन्नू है ना रे, उसका पूछ रहा है।’’
उन्होने भी सिर हिलाया, जैसे कह रहे थे हाॅ वही है। एक लड़का चबूतरे से और उठ कर आ गया। हम तीनों चलने लगे।
’’वही है रे, वह साईकिल लेकर जाता है कहता है, काॅलेज में पढ़ता हू।’’ दस कदम पर ही पट्टियों से बना कमरा था, जिस पर, डामर के ड्रमों को पीट कर, पतरों का बनाया दरवाजा जड़ा था, उसकी फांको से रोशनी आ रही थी, उपर टिन की चद्दरों की छत पर खूब कबाड़ रखा था।
साथ आने वाले लड़कों में से एक ने दरवाजा खटखटाया जो किसी घायल जानवर की आवाज की तरह बज उठा। कुछ देर बाद ’’कौन है’’ की आवाज के साथ दरवाजा खुला और एक अठारह उन्नीस साल की सावंली लड़की खड़ी थी, सस्ती सी साड़ी, बालों में सिंदूर और बड़ी सी बिदियां से उसे औरत कहा जा सकता था।
’’क्या काम है?’’
’’ये घन्नू का पूछ रहा है, उसके साथ पढ़ता है’’ वह मुझे देखने लगी, मैने धीरे से कहा ’’वह मेरे साथ एक ही क्लास में पढ़ता है। कई दिन से काॅलेज नहीं आ रहा है।’’ वह सूनी सूनी नजरों से देख रही थी। 
’’वो बीमार है, अस्पताल में भरती’’ मै सन्न रह गया। मैने फिर धीरे से पूछा ’’कौन से अस्पताल में’’
’’बडे़ अस्पताल में।’’ मैं चलने लगा था, तभी फिर पूछा ’’किस वार्ड में है वो’’ वह चुप हो गई, उसने एक हाथ से दरवाजा पकड़ लिया था, जिसका अर्थ था, अब वह उसे बन्द करने लगी थी ’’उसे निमोनिया हो गया था, कई नलियां लगी है उसके’’ और धीरे से दरवाजा बंद कर दिया। मैं मुड़ चुका था। दोनो लड़के वापिस चबूतरे पर जाकर बीड़ी सुलगा रहे थे।
मैं साइकिल पकड़े गलियों के मकड़जाल से निकल कर बाहर सड़क पर आ गया था। सामने पान की दुकान पर लगी घड़ी में नौ बज रहे थे। सोचा अस्पताल जाकर पता ले ही लेता हूॅ, और साइकिल पर चढ़ कर तेजी से पैडल मारने लगा। हवा से पसीना सूखने लगा था। अस्पताल के आगे साइकिल रोकी, तब साइकिल स्टैण्ड पर तीन साईकिल पड़ी थी, यानि अब अन्दर जाना संभव हो पायगा या नही कहना मुश्किल था। फिर भी साइकिल रख कर, अन्दर वाले बड़े से हाॅल में गया। गांधीजी की मूर्ति खूब तेज रोशनियों में चश्में में मुस्कराती लग रही थी। हाॅल एकदम खाली था और सन्नाटा था। आगे वार्ड के भीतर जाने वाले गेट पर बैठे चैकीदार ने देखते ही हांक लगाई।
’’मिलने का टैम खतम हो गया भाया। अब क्यू आया है? कल आणा टैम पे।’’ मै फिर भी उसके पास पहुॅचा हांफते और सहमते हुए कहा,
’’जरूरी दवाई देनी है’’
वह हथेली के बीच तम्बाकू मलते-मलते मुझे गौर से देखने लगा। शायद वह पिघल गया। होठों के बीच तम्बाकू दबा कर दोनो हाथों की ताली बजाते हुए झाड़ा और बोला
’’जा जल्दी भाग, दस मिंट में आ जाणा’’
मैं सरपट अंदर भागा। सूने बरामदे, रोशनी से जगमगा रहे थे। सुनसान और थोडे़ से भयावह। एक-एक कर के सारे वार्ड घूम गया मैं, सारे बैड देख डाले पर उसका कोई अता-पता नही था। अजीब सी उदासी ने सारा उत्साह ही निचोड़ लिया। वापसी में बरामदा पार कर गेट पर आया तब तक चैकीदार ने चद्दर बिछा कर, टिफिन खोल लिया था और कुछ झुककर खाने में व्यस्त था। उसने मुझे नहीं देखा। मैं भारी पावों से साईकिल स्टेण्ड की तरफ चला आया। साइकिल उठा कर मुड़ने ही वाला था कि, सामने के बरामदे से कुछ आवाजें आने लगी। मेरा हाथ साइकिल के हैडिल पर था और रूक गया।
एक स्टेªचर, चड़-चड़ड की आवाज करता बाहर आया जिसे एक व्यक्ति धकेल रहा था। पायजामा कुर्ता पहने हुए, बिखरे बालों और बढ़ी हुई ढाढी वाले आदमी के साथ, दो आदमी और थें, बाहर आते ही उन दोनों ने बीड़ी सुलगाई। वे वहां रूक गए। स्टेªचर पर पुरानी चद्दर से ढका एक मरीज लेटा था। लगता था उसे छुट्टी मिल गई थी, वह आदमी फिर थके पांवों से, स्टेªचर को धकेलते मेरी ओर ही आने लगा, तभी पीछे से सफेद वर्दी में कम्पाउडर, तेज कदमों से हाथ में कुछ कागज लिए हुए आया
’’रूक रे! इस कागज पर दस्तखत कर’’ 
स्टेªचर को धकलने वाला आदमी रूक गया। स्टेªचर पर चद्दर को थोड़ी सरका कर, कम्पाउडर ने कुछ कागज रखे उनमें से दो कागज निकाल कर पूछा,
’’आसूराम नाम है न तेरा?’’ कुर्ता पायजामे वाले आदमी ने थकी आवाज में कहां ’’ हां साहब’’ और वह भी कागज को देखने लगा। कम्पाउडर ने उसे पैन पकड़ाते हुए कहा- ’’इस पर दस्तखत कर दे।’’ उसने झुककर काॅपते हाथों से दोनों कागजों पर दस्तखत किए। कम्पाउडर ने एक कागज पकड़ा  कर कहा ’’ये डैथ सर्टीफिकेट है, पीछे वाले गेट के पास एम्बुलेंस खड़ी है उसे दिखा देना, बाॅड़ी घर तक छोड़ देगा’’ बाकी के कागजों को समेट कर कम्पाउडर, वापिस अंदर चला गया।
मै वापिस पसीने से तरबतर हो गया था। कुर्ता पायजामें वाला आदमी सूनी आंखों से उस कागज को देखने लगा, साथ में खड़े दोनों आदमियों ने बीड़ी का आखिरी कश लगा कर फेंकी और उसके कंधे पर हाथ देकर स्ट्रेचर को आगे धकेलने लगे। वे मेरी और ही आ रहे थे, मै स्ट्रेचर पर रखी देह को एकटक देखे जा रहा था। हवा में चद्दर फड़फड़ा रही थी। वह कुछ नजदीक आये तभी…..
तभी लाईंटंे चली गई। एक दम घुप्प अंधेरा, आसमान में बादलों का झुण्ड, हवा रूकी हुई और घनघोर अंधेरा। सारा अस्पताल अंधेरे में डूबा था। स्टेªचर के पहियों की आवाज भी थम गई थीं। अंधेरे में स्ट्रेचर और तीन आकृतियां दिखाई दे रही थी, उनमें से कोई बोला।
’’रूक जाओ रे अभी जैनरेटर शुरू हो जाएगा।’’ फिर किसी ने बीड़ी जला ली। मैने साइकिल घुमाई और बड़े गेट से सड़क पर आ गया सिर्फ आती जाती गाडियों की रोशनी थी। मैने साइकिल के पैड़ल मारे और आगे बढा। तभी जैनरेटर की तेज आवाज के साथ, पूरा अस्पताल रोशनी से भर उठा। मै तेजी से पैड़ल मारता घर की और चल दिया।

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