Friday, October 4, 2024
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डॉ. प्रभु वि. उपासे की कलम से ‘बूंद-बूंद पानी’ काव्य कृति की समीक्षा

पुस्तक – बूंद-बूंद पानी (कविता-संग्रह); लेखक – अमित कुमार मल्ल
अमित कुमार मलल् द्वारा रचित ‘बूंद-बूंद पानी’ एक विशिष्ट एवं अनुभवजन्य कृति है। उनहोंने इसमें बहुत ही सरल एवं सुंदर रूप से शब्दों को छंदोबद्ध करके द्विपदी में अपने अनुभवों को ‘गागर में सागर भरने’ की चेष्टा की है। काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमे मनोभावों को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। अर्थात काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छंदों की श्रृंखलाओं में विधिवत बाँधी जाती हैं। कविता हमारी संवेदना के निकट होती है। वह हमारे मन को छू लेती है। कभी-कभी झकझोर देती है। कविता के मूल में संवेदना है, राग तत्त्व है। यह संवेदना, सम्पूर्ण सृष्टि से जुड़ने और उसे अपना बना लेने का बोध है। यह वही संवेदना है जिसने रत्नाकर डाकू को महर्षि वाल्मीकि बना दिया था।
‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।’
(हे निषाद, तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा प्राप्त न कर सको, क्योंकि तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से काम भावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला है।)
कवि कल्पना, वैयक्तिक सोच, परिवेश, परिस्थितियाँ, भाषा छंद, बिंब, रस आदि एक साथ मिलकर सुन्दर काव्य का निर्माण करते हैं। छंद कविता का अनिवार्य तत्त्व है। यह कविता का शरीर है। कविता में आंतरिक लय के लिए छंद की समझ ज़रूरी है। कविता छंदयुक्त और छंदमुक्त दोनों प्रकार से लिखी जाती है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में – कविता के द्वारा हम संसार के सुख, दुःख, आनंद और क्लेश आदि यथार्थ रूप से अनुभव कर सकते हैं। किसी लोभी और कंजूस दुकानदार को देखिए, जिसने लोभ वशीभूत होकर क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि मनोविकारों को दबा दिया है और संसार के सब सुखों से मूँह मोड़ लिया है। अथवा किसी महा क्रूर राजकर्मचारी के पास जाइए जिसका हृदय पत्थर के समान जड़ और कठोर हो गया है, जिसे दूसरे के दुःख और क्लेश का अनुभव स्वप्न में भी नहीं होता। ऐसा करने से आप के मन में यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि क्या इनकी भी कोई दवा है? ऐसे हृदयों को द्रवीभूत करके उन्हें अपने स्वाभाविक धर्म पर लाने का सामर्थ्य काव्य में ही है। कविता ही उस दुकानदार की प्रवृत्ति भौतिक और आध्यात्मिक सृष्टि के सौंदर्य की ओर ले जायेगी। कविता ही उसका ध्यान औरों की आवश्यकता
की ओर आकर्षित करेगी और उनकी पूर्ति करने की इच्छा उत्पन्न करेगी। कविता ही उसे उचित अवसर पर क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि सिखावेगी।(कविता क्या है, भाग-1) poetry “speaketh somewhat above a mortal mouth.” Ben Jonson.
बिंब कविता की दुनिया का महत्त्वपूर्ण उपकरण है। हमारे पास दुनिया को जानने का एकमात्र सुलभ साधन इन्द्रियाँ ही हैं। बाहरी संवेदना मन के स्तर पर बिंब के रूप में बदल जाती है। जब कुछ विशेष शब्दों को सुनकर अनायास मन के भीतर कुछ चित्र उभर आते हैं तो ये स्मृति चित्र ही शब्दों के सहारे कविता का बिंब निर्मित करते हैं। कविता में बिंबों का विशिष्ट महत्त्व है। जयशंकर प्रसाद प्रकृति का मानवीकरण करते बिंब की प्रस्तुती इस प्रकार करते हैं-
बीती विभावरी जाग री, अंबर पनघट में डुबो रही, ताराघट उषा नागरी।
कविता में चित्रों या बिंबों का प्रभाव अधिक पड़ता है। कवि ने यहाँ उषाकालीन बेला को पनघट पर जल भरती हुई स्त्री के रूप में चित्रित किया है। अतः कविता की रचना करते समय दृश्य और बिंब की संभावना तलाश करनी चाहिए। ये बिंब सभी को आकर्षित करते हैं। बिंब हमारी ज्ञानेन्द्रियों को केंद्र में रखकर निर्मित होते हैं, जैसे-चाक्षुष, घ्राण, आस्वाद्य, स्पर्श्य और श्रव्य।
कबीरदास जी ने अपने दोहे में ठीक ही कहा है कि जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
अमितकुमार मल्ल अपने जीवनानुभवों को बहुत ही मार्मिक रूप में अपनी कविताओं में खींच लाया है। 
…लगा लिया है
एक मुखौटा
न हँसता है
न रोता है
अपना हुआ नहीं एक शब्द। (बीते हुए दिन)
कवि अपने ही लोक में रमा रहता है। उसकी पहचान करना हो तो उनकी रचनाओं के द्वारा ही हम कर सकते हैं। उनके जीवनानुभव की अनुभूति इस प्रकार मिलती है-
…मुझे पहचानना चाहते हो
तो देखो
जमीन में घुलते और बिजते बीजों को
उगूँगा मैं
फोड़कर वही पथरीली धरती
जहाँ खिलते हैं, बंजर-काँटे-झाड़ियाँ (मुझे पहचानना चाहते हो)
प्रस्तुत बूंद-बूंद पानी रचना में इसी प्रकार की अपने भोगे हुए यथार्थ को कवि विभिन्न परिवेश के अनुसार चित्रित करते हैं। कवि अमितकुमार मल्ल ने स्वयम्  कहा है ‘ये मुक्तक दो पंक्तियों में हैं और ये छंद या बहर के बंधन से मुक्त हैं। पंक्तियाँ दो ही हैं लेकिन इनका प्रभाव गहरा व धारदार है और कभी-कभी हतप्रभ भी कर देती है।’ जो पाठक को महसूस करा देते हैं कि वह खुद उसमें रम गया हो! सच्चाई का हम उन्हीं के छंद में देखते हैं – 
आरोपों-प्रत्यारोपों के शोर में
बेचारा सच घिसटकर रेंग रहा है।
कवि का अनुभव प्रत्येक परिवेश में अलग रूप से देख सकते हैं। मन मुदित होकर प्रेमी का विरह वर्णन इस छंद में वर्णित है।
सारी रात चांदनी में, मैं नहाता रहा
ख्वाहिशें सुलगती रही, कशिश जलती रही।
कवि की यह खूबी है कि इस प्रत्येक बूंद का संबंध अन्य से जोड़ा नही जा सकता। अपने आप अलग परिवेश, अलग भाव से भरा है। 
थके कदम, झुके कंधे, ठंडी आँखें बताती हैं
वक्त ने तोड़ा है, हौसला इस इन्सान का।
मैं अपना सिर अपनी हथेली पर रखकर सोता हूँ
दुनिया बिना बताए जान गयी, अब माँ नहीं रही।
पाठक को एक-एक बूंद को चख कर रसास्वादन की अनुभूति होती है। 
समझदार दुनिया में समझदारी भरी पड़ी है
ना समझ प्यार, पनाह ढूँढ़ रहा है।
कवि अपने गांव की याद में कभी-कभी भावावेश हो जाता है। अपने बचपन की यादें सताती हैं। ‘मेरा गांव’ कविता में उनकी भावनाएं व्यक्त होती हैं।  
मेरे गाँव में/ पहाड़ नहीं है/झरने नहीं है/हर तरफ़ हरियाली नहीं है/ लेकिन/ मिस करताहूँ/ अपने गाँव को/ वहाँ के/ खेत/ खलिहान/ दुआर को/ जहाँ मैंने वक़्त गुज़ारा/ खेतों में/ धान की रोपाई/ रोपाई के समय/ गाए जाने वाले गीतों को/ गेहूँ की बुवाई/ दवाई/ तथा/ डेहरी में भरने पर/ होने वाली ख़ुशी को/ वहाँ के बांगर /कछार/ देवार को जो/ जीवन की/ कई ज़रूरतों को पूरी करते थे। … वहाँ के/ गुल्ली डंडा/ कबड्डी/ चिक्का को/ जिसको खेलता था/ लेकिन जीत नहीं पाता था/ …
कवि भावुक होकर महसूस करते हैं कि रोजगार के वास्ते गांव छोड़कर शहर आने पर  गांव की यादें उन्हें सताती हैं। वे वहाँ के माहौल, संबंधों को मिस करते हैं। ठीक उसी प्रकार बूंद-बूंद पानी में व्यक्त है-
किसी के वादे पर ऐतबार कर शमा रात भर जलती रही
आने वाले ने, शराफत की आड़ लेकर घर से निकला ही नहीं। 
कवि आधुनिकता के फलस्वरूप सामान्य जनता के जीवन में होने वाले परिणामों को गहनता देखा है। रोज़गार ढूँढते हुए शहर आते हैं, काम तो मिलता है किंतु न  शहर में घर-बार बना सकते हैं और न ही फिर अपने गांव की ओर जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में उनकी रूहे जिंदादिली एक ठिकाना ढूंढते भटकती रहती हैं।
बेचैन रूहें भटक रही हैं, एक ठिकाने के लिए
जिंदा रहने पर भी तलाश है, मरने पर भी तलाश है।
हर एक व्यक्ति वहुत सारी कामनाओं के साथ जीता है। शहरी जीवन सब के बस की बात नहीं बनती। किसी भी तरह से बंगला-कार पाने की चाह में उनको पता भी नहीं चलता कि जीवन गुजर चुका है और कुछ भी हासिल नहीं कर पाए हैं। 
बादलों को नज़दीक से जानने की चाहत में
पता ही नहीं चला, कब ज़मीन से पैर उखड़े।
आज आत्मनिर्भरता की बात जोरों से चल रही है। कवि मल्ल ने इसकी पुष्टी अपने इस कप्लेट में की है। अपने तन-मन को संतुष्ट कर रहना सबसे बेहतरीन है। हम देखते हैं कि बेकार लोग खुद कुछ नहीं करते किंतु दूसरों की और समाज की चिंता बहुत करते हैं। बेकार दुनियादारी की चिंता करने की बजाय अपना काम संभालने की और स्वावलंबी बनने की ओर ध्यानाकर्षित करते हैं।
सड़क सड़क मैं घूमा, मिला न मन को ठिकाना
दुनिया के करम मौला देखेगा, अपना करम संभालना। 
कवि अपने दुःखों से समाधान पाने के लिए इशारा करते हैं। हम हँसते तो दुनिया हँसती है। हम रोते तो अकेले ही होंगे। इसलिए कुछ सुखद विषय हो तो दूसरों के साथ शेयर करे न कि दुःख को। रात के बाद दिवा जरूर आयेगा। सदा ही अंधकार नहीं रहेगा। उजाले की इंतजार करने की ओर इशारा करते हैं।  
दर्द को सड़क पर लाकर मत रोओ
वक्त आयेगा, कयामत का इंतजार करो।
मायानगरी की बात करते कवि कहते हैं कि यहां सांस लेने के लिए भी फुरसत नहीं है। हर शख्स धोखेबाज ही मिलेंगे किंतु चेहरे से बहुत ही नूरानी लगेगी। आज की व्यवस्था में यह आम बात है। कवि यहाँ पर नागरिक को सावधानी बरतने की चेतावनी देते हैं। 
जिस तिलस्मी शहर में हम साँस लेते हैं
हर शख्स फरेबी है, हर चेहरा नूरानी है।
आदमी की तमन्नाएँ असीमित हैं। उसकी ज़रूरतें एक के बाद एक बढती जाती हैं। रोटी-कपडा-मकान मूल आवश्यकताएं पूर्ति हो जाए तो कुछ और विस्तार की मांग करती हैं जिसके लिए कोई अंत नहीं है।
आदमी की तमन्नएँ गज़ब जुल्म करती हैं
ये रोटी के साथ-साथ चाहत की मांग करती हैं।
युवा पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए कवि कहते हैं कि किताबों की कीड़े बनने पर सब कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। उसके लिए कौशलों की  आवश्यकता है।कौशलों को सीखना चीहिए। बिना कौशल के कुछ हासिल करना ना मुमकीन है। 
किताबों से पूछता हूँ एक सवाल
क्यों होता नहीं, वही जो होना चाहिए।
राजनीति में चुनाव के समय आते ही हर एक दल वाले कई तरह के वादे करते हैं, आश्वासन दिलाते हैं और मुख्यतया किसानों को ध्यान में रखकर हर बार चुनाव में यही होता है। किसान अपने सपनों को बुनना प्रारंभ करता है। अच्छे दिन आएँगे, अच्छे दिन आएंगे। अंधियारे के बाद उजाला जरूर आयेगा। किंतु हम देखते हैं कि किसान का हाल जो तब था अब भी उसी प्रकार है। 
आते समय रात ने वादा किया था, सुबह ज़रूर आयेगी
इस वादे पे भरोसा कर, हम आज भी अंधेरे में बैठे हैं। 
होड़ा-होड़ी के संघर्ष में एक-दूसरे से जलना ही हम देखते हैं। एक-दूसरे को गिराने की प्रक्रिया में लगे रहते हैं। राजनाति में यह होड़ा-होड़ी सामान्य है। कवि कहते हैं ऐसी स्थिति में खुशी चौराहे पर टके भाव बिक रही है। 
होड़ लगी है जलने और जलाने की
खुशी चौराहे पर, टके भाव बिकती है।
इस तरह कवि जीवनानुभवों को इस बूंद-बूंद पानी कृति में भर दिया है। प्रत्येक द्विपदी एक कहानी बोलती है। सहृदय पाठक इसका रसानुभूति अवश्य कर लेता है। व्यक्ति समाज से भिन्न नहीं है। समाज में संतुष्ट जीवन बिताने के लिए ये द्विपदीय ‘बूंद-बूंद पानी’ एक सशक्त कृति है। जीवनानुभव से जो पाठ सीख लेते हैं वे सफल हो जाते हैं। 
ज़िंदगी स्लेट नहीं है कि सारे घाव मिट जाये
वक्त के घाव जिंदगी को ही बदल देते हैं।
कवि जीवन के विभिन्न कोनों से राग, द्वेष, प्रेम, घृणा, ईर्ष्या, होड़, हार जीत अवलंबन आदि विषयों पर बहुत कम शब्दों में गहन विस्तार प्रस्तुत कर दिया है। मेरा विश्वास है कि सुधी पाठक अवश्य इसे अपनाएंगे। 
समीक्षक :

डॉ. प्रभु वि. उपासे
प्रोफेसर एवं हिंदी विभागाध्यक्ष
गवर्नमेंट फर्स्ट ग्रेड कालेज,
चेन्नपट्टण-562160

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