“ए, देख नई छोरी|” 
मालवा अंचल के कस्बेनुमा गांव की इकलौती शान ‘रोज इंग्लिश मीडियम गर्ल्स स्कूल’ के गलियारों में आज कौतुहल उमड़ पड़ा था| आखिर, सन् 78 से अब तक, स्कूल के कुल जमा 7 वर्ष के इतिहास में ऐसे दृश्य विरल ही थे| नया एडमिशन, वो भी केजी में नहीं, तीसरी में| और तब जबकि स्कूल ही पांचवी तक हो और ‘लड़की का केजी समेत पांचवी तक अंग्रेजी पढ़ने’ का सदुपयोग शादी में डिग्री की तरह होता हो| 
“सहर से अई हे|” 
“सहर नी शहर…. गांवठी..!”            
“श्… इधर इ अइ री हे…”
“मेरा नाम निधि है, तुम्हारा?”
“म … मेरा नाम… किरन!”
“मैं इधर बैठ जाऊं?”
“ये गूंजी की जगे हे,…..पीछे लाली, नी फिर रेखा…”
“तो मैं कहां बैठूं?” नवागुंतक स्वर रुआंसा हो आया| 
“तू यहां आजा|” पीछे से आवाज आई|
“थैंक यू|” अपरिचय के सागर में डुबते को इतना सहारा काफी था|
खुसुर-पुसुर फिर शुरू हो गई, “इंग्लिस बोले हे|”
“किरन, तूने क्यों नी बिठाया अपने पास?”
“म्हारे तो कोई भाए नी, सहर की छोरीओन……इतराए हे|”
“एक अई थी न पेली में थे अपन जब, तिमाही के पेले इ चली गई थी वापिस|”
“वोई तो, सहर के लोगओन का मन थोड़ी न लगे गांव में|”
“ओर ये सरिता को तो देख, आते इ अपने कने बिठा लिया|”
“चली जइगी न, तब मालूम चलेगा|”
पूरी क्लास नई उपस्थिति से असहज थी| शहरी लड़की को इसका भान था| वह खुद नए परिवेश से सामंजस्य का यत्न कर रही थी| 
“साइंस का पीरियड है न, कौन-सा चैप्टर?” नई लड़की ने उस सह्रदय सहपाठीन से पूछा|
“दूसरा|”
“द नेचर एंड इट्स रिलेशन विथ ह्यूमन बीइंग’?”
“तू अंग्रेजी कित्ते फट-से पढ़ लेवे?” ये बात जानबूझकर जोर से कही गई| तेल सनी चोटियों वाली 4-5 मुण्डियां  पीछे पलटी| “हमारे इस्कूल में इत्ती अंग्रेजी मेडम को भी नी आए|” हंसी का एक गुब्बारा फूटा, जिसमें दूसरी लड़कियों की हंसी भी घुल-मिल गई| नई लड़की कुछ सहज हो गई| 
    भोले बचपन की गीली जमीन पर दोस्ती के बीज पड़ चुके थे| हालाँकि मेल कुछ भी नहीं था| एक अफसर की नाजुक शहरी गुड़िया, एक संपन्न किसान की ठेठ ग्रामीण छोरी| एक घर की छांह में खिली मधुमालती, दूसरी खुले आसमान में निखरा गुलमोहर, पर मन के तारों ने अनुबंध खोज लिया था| 
       अगले दिन अनुभवी सहेली ने नई लड़की को स्कूल घुमाया, वो नियम-कायदे समझाए जिनका पालन कभी नहीं होता था, ‘टीचरओन’ की चिडावनी बताई और गेट बंद होने पर बाजू के टीले से दीवार फांद कर आने की जुगाड़ समझाई| इस सद्भावना का प्रतिसाद शहर से लाए क्रीम बिस्किट से चुकाया गया| 
         दिन धीमे-धीमे सरकने लगे और नई मैत्री अपने लिए नए आयाम खोजने लगी|
“ये ले मेरे पेड़ के जामुन, भोत मीठे हे| फिर जबान देखना, निल्ली नट्ट….|”
“मैं टिफिन में वेज कटलेट लाई हूँ|”
“ये विद्या किताब में रख ले, पास हो जईगी|”
“तुमको इंग्लिश का लेसन समझ नहीं आया न, मैं समझाऊं?”
“देख रंगीन चपेटे, तेरे को सिखा दूंगी, फिर मन पड़े तो तू इ रख लेना|”
“और तुम ये लो, सेंट वाला रबर|”
“शाम को खेलने अइगी?”
     दोस्ती को विस्तार मिल गया| नई सखी नए खेल सीख रही थी, चपेटे, सितौलिया, पौआ..|
        इस अलसाए कस्बे में गढ़ती दोस्ती की ऊर्जा से आषाढ़ के सूरज में भी चमक आ गई थी| दोनों साथ आती-जाती, खेलती, खिलखिलातीं| सूरज देख मुस्काता, उजास के आशीष लुटा विदा होता|
   नई लड़की यहां रमने लगी| अन्य सखियां उसके साथ सहज हो रही थी पर अपनी पुरानी सहेली को नई दोस्ती में मगन देख थोड़ा इर्ष्या-भाव भी कायम था|   
      बूंदों की सरगम बजने लगी, कोयल तान देने लगी, धरती की हथेली पर हरियाली मेहंदी रचने लगी| सावन ने दस्तक दे दी थी| शहरी परिवार गांव के सावन को कौतुक से निहार रहा था| गांव की बहन- बेटियों, बहुओं को सावन में इन्तजार रहता था, तो सावन तीज की पूर्व संध्या पर सरिता के बगीचे में होने वाले आयोजन का| सरिता के घर से सारी व्यवस्थाएं होती, खाना-पीना, नाच-गाना, झूले, मेहंदी, चूड़ियां, एक छोटा-सा मेला ही सजता| माँ-बेटी को भी विधिवत निमंत्रण मिला| 
     गांव की सारी सुंदरता, चंचलता, उमंग वहां सिमट आई थी| सब इंतजाम बड़े शौक से किए गए थे| चहकती सखियाँ अमराई में डले झूलों की ओर चली तो शहरी माँ ने ताकीद की, “बेटा चलो, हमें जल्दी जाना है|” पर बेटी के लिए उत्सव नया था| उसने इसरार किया, “मम्मी, मुझे झूला झूलना है, मैं सरिता के साथ आ जाउंगी, प्लीज..|” 
झूले के लिए लड़कियां रोमांचित थीं|
“पेले सीमा, फिर में, फिर किरन…हे न सरिता?”
“नी, सब में पेले निद्दी, फिर सीमा, फिर तू…|” ये सरासर अपमान था| लड़कियों ने कनखियों से एक-दूसरे को देखा| तब तक झूले को ‘निद्दी’ के रूप में अपना सवार मिल चुका था| झूला बचपन के ख्वाब-सा हो गया था, इतना ऊंचा उठता, जैसे क्षितिज छू लेना चाहता हो| 
इधर सरिता को अकेले पाकर लड़कियों ने छेड़ा, “क्यों रे, हर बार तो अपन ऐसे ई झूलते हे न?”
“इस बारी उसको झूल लेन दे| नोरात्रि के मेले में तू पेले झूल लेना”
“किरन, झूल लेन दे उसको| नोरात्रि तक वो तो रेगी नी, फिर …”
“क्यों नी रेगी वो….?” सरिता चौंक पड़ी| 
“मेरे चाचा ने बताया, बड़े साब ने गुस्से से इसके पिताजी की बदली कर दी हे, खूब कोसिस कर रए हे वापिस जाने की|” ‘वापिस जाना’ इन शब्दों ने हथौड़े-सा प्रहार किया| तुरंत सखी को पुकारा गया, “निद्दी  ….. ए… निद्दी ……. सुन….”
“हाँ….बोलो” जब झूला नीचे आया, तब पुकार सुनाई दी|
“तू वापिस जई री क्या?”
“नहीं तो…”
“सच्ची ना? विद्या कसम..?”
“हाँ! सच… विद्या कसम…” अब तक झूला फिर पींग भर ऊपर पहुंच चुका था, “मैं नहीं जा रही अभी वापस| मैंने मम्मी को बोल दिया है कि मैं तुम्हारे साथ घर आउंगी|” आखरी वाक्य हवा में कहीं गुम हो गया, जिसे नीचे खड़ी सखियां सुन ही नहीं सकी| ‘विद्या कसम’ अभी घर न जाने की बात पर ली गई है या शहर वापसी के लिए, इसे दोनों अपने-अपने सन्दर्भों के साथ जोड़ कर निश्चिंत थी|   
“देख, वो झूठ नी बोलती और विद्या कसम भी ले ली उसने| नी जा रई वो शहर| तू भी पूछ ले?”
“मेरे को क्या, तू ही पूछ लेना, वो आए तो|”
“नी, मेरे को भरोसा हे|”
सहेलियों ने खूब खेला, खाया, फिर हाथों में मेहंदी रचाए, नई चूड़ियां खनकाती घर आईं|
“मम्मी, आज बहुत मजा आया|” बेटी किलककर बोली|
“हाँ, बेटा| आज का दिन सचमुच अच्छा रहा| पापा को दुबारा शहर में पोस्टिंग मिल रही है, अभी खबर मिली है|”
बेटी की ख़ुशी तत्क्षण गायब हो गई| गांव में बात फैलते कितनी देर लगती| अगले दिन स्कूल में नजारा बदला हुआ था| लड़कियां उसे कनखियों से देख रहीं थीं पर किसी ने बात नहीं की| अपनी जगह पर बस्ता रखा| सरिता सर झुकाए बैठी थी| नहीं.. वह तो रो रही थी! आँखे सूजी, नाक लाल …. 
“क्या हुआ सरिता?” 
“तू जा रई हे, वापिस शहर..?”
“हाँ…|”
“तो, तू मेरे से झूठ क्यों बोली?”
“कब?”
“अच्छा..? कब..? कल पूछा नी मेंने तेरे को, तू झूले पे थी तब कि वापिस जइगी क्या, तो क्या बोली तू?” इतना बोलते हुए आवाज भर आई| प्रिय सखी से विछोह का दुःख, उस पर दूसरी सखियों के ताने और सबसे बढ़कर कल जो भरोसा जताया था, उसके टूटने की पीड़ा| बाल मन इतनी भावनाओं को संभालने में असमर्थ था|
“झूले पर थी, तब? वो मैंने घर वापस जाने के बारे में बोला था| ट्रांसफर का कल घर जाने पर मम्मी ने बताया, सच में…”
“रेने दे, झूठी…! जा वापिस अपने शहर, मेरे को नी बात करनी तेरे से……..जा तेरा खुशबू वाला रबर भी ले ले, नी चिए….” 
“सरिता…प्लीज, सुनो न| मैंने झूठ नहीं बोला…” पीड़ा यहां भी थी| शहर वापस जाना होगा, इसका अंदाजा था, पर इतनी जल्दी? प्यारी सहेली को छोड़ने का दुःख और उस पर ये तोहमत? धूल में पड़े तोहफे को उठाकर साफ़ किया और बस्ते में डाल लिया|  
सरिता ने जगह बदल ली| रिसेस में भी नहीं आई| पूरा दिन उदासी और अबोले में बिता| छुट्टी में फिर कोशिश की गई, “सरिता, बात तो करो, मैंने झूठ नहीं बोला, विद्या कसम |”
“तूने बोला नी जाएगी ओर अभी जा रही हे न ओर झूठी विद्या कसम खाएगी तो फेल हो जईगी|”
“अरे, मैंने शहर नहीं घर जाने के लिए बोला था…..बदली का मुझको नहीं मालूम था|” शिष्टता का बांध तोड़ रुलाई फूट पड़ी और वह दौड़कर घर पहुंची| घर में उत्सव का माहौल था| सामान की पैकिंग शुरू हो चुकी थी| छोटा भाई बक्सों पर कूदा-फांदी कर रहा था| बेटी की उदासी की और किसी का ध्यान नहीं गया| अगले दिन बेटी ने स्कूल न जाने का एलान किया तो भी सहजता से मान लिया गया, कि अब यहां स्कूल जाकर फायदा भी क्या| यहां तक कि जब नन्ही-सी जान को बड़े से दोष के भार से बुखार हो आया, तब भी किसी ने कुम्हलाए मन की ओर लक्ष्य नहीं किया| 
 चार दिन बाद बृहस्पत को निकलना तय हुआ| आते मंगल दूसरे अफसर को इनकी जगह लेने पहुंचना था| लेकिन मंगल का बुध हो गया, वो नहीं आया तो खटका हुआ| दफ्तर से ट्रंक-कॉल किया तब पता चला, उसने मंत्री की सिफारिश से तबादला रुकवा लिया और अब अगले साल तक कोई उम्मीद नहीं| घर में मायूसी छा गई| लेकिन कोई था घर में, जिसकी मुस्कान लौट आई थी, मन का बोझ उतर गया था, हाथ में कुछ दबाकर वह दौड़ पड़ी “मम्मी मैं अभी आई ….|” पैरों में पंख लग गए हो जैसे, दौड़ सीधे रुकी सरिता के घर के बाहर, “सरिता …सरिता …”
इस वक्त आवाज सुन नाराज सखी भी भागी आई|
“मैं नहीं जा रही शहर, सरिता| देखो मैंने झूठ नहीं बोला था न?”
“क्या बोल रई, सच्ची…? खा विद्या कसम!” 
“सच, विद्या कसम! ट्रांसफर कैंसिल.. इस साल यहीं रहेंगे हम| ये लो, अपना खुशबू वाला रबर|”
“ओर जो आते बरस तेरी बदली हुई तो?…..तो… में फिर से कुट्टी कर लुंगी और खुशबू वाला रबर भी वापिस कर दूंगी|”
“हाँ, कर देना, तो फिर से बदली रुक जाएगी|” 
“उसके आते बरस हुई …तो फिर कुट्टी और रबर वापिस|”
“तो फिर बदली कैंसिल …..|” दोनों सखियां की उन्मुक्त हंसी, रबर की भीनी मीठी खुशबू के साथ हवा में बिखर रही थी| 

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