नई दिल्ली में जन्मी शिखा वार्ष्णेय मोस्को स्टेट यूनिवर्सिटी से टीवी जर्नलिज्म में परास्नातक। अब वे लंदन में स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन कार्य में सक्रिय हैं। देश के लगभग सभी मुख्य समाचार पत्र-पत्रिकाओं में उनके आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। 'संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय, अमरावती' के बी.कॉम. प्रथम वर्ष, हिन्दी (अनिवार्य) पाठ्यक्रम के अंतर्गत विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत टेक्स्ट बुक में कविता शामिल. ‘लन्दन डायरी’ नाम से दैनिक जागरण (राष्ट्रीय) में और लन्दन नामा नाम से नवभारत में नियमित कॉलम लिखती रहीं हैं। एक काव्य संग्रह ‘मन के प्रतिबिम्ब’ और एक पुस्तक "देशी चश्मे से लन्दन डायरी" भी प्रकाशित। संपर्क -
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….आना ही था, तो जाता ही क्यों!” यही बात तो समझ नहीं आती !
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निकल जाता
निकल जाता
नहीं निकला
नहीं निकला….
मन को छू लेने वाली व्यथा कथा।
उस जमाने में कितने ही लोगों को घर छोड़कर जाते हुए हमारी पीढ़ी ने देखा है।
कुछ लोग साधु बनने जाते थे कुछ अपनी जिम्मेदारी से भागते थे।
शिखा वार्ष्णेय की कहानी जब पढ़ना शुरु की तो ऐसा लगा कि मेरा बचपन ही लौट आया हम बहिन भाई दादी से कहानी सुनने को लालायित रहते। रात को कौन दादी के पास सोचेगा को लेकर झगड़ा भी होता।फिर दादी हमारी तरफ़ कि आंचलिक बोली में कभी मीरा कभी टुंइया और कभी कोई लोक कथा सुनाती। बोली बिल्कुल ऐसी ही थी जैसे इस कहानी की है।
पर इसमें कहानी सुनाने वाली की व्यथा है बालपन में शादी का अर्थ जिसे कपड़े गहने ही पता हो। पति का मुख तक नहीं देखा और वो छोड़कर साधन बन गये जाने क्यूँ?
फिर भी उसी ड्योढी पर उम्र गुज़ार देना विधवा की तरह। उस समय की स्त्री की दशा का चित्रण करती है।
बहुत सुंदरता से गढ़ी गई। साधुवाद!
बहुत सुन्दर कहानी…वैसे संस्मरण प्रतीत हो रहा है मानो स्मृतियों में दबा कोई पन्ना खोजकर निकाला हो। लोकभाषा का तड़का कहानी को सुन्दर बना रहा है। पहले के समय में प्राय: गाँवों में ऐसे बहुत किस्से सुनने में आते थे कि घर छोड़कर साधु बन गए।