“मम्मा! इस वीकेंड पर कहीं जा नहीं रहे क्या?”
“क्यों? क्या हुआ?”
“नहीं वो मैं कह रहा था कि आप दो-चार दिन के लिए कहीं चले जाओ ना। घूम फिर आओ। चाहो तो गाँव में सब सम्भाल आओ।”
“अरे हुआ क्या? मुझे बता तो सही। मैं अचानक से क्यों चली जाऊँ? अभी तो मैंने कुछ प्लान ही नहीं किया! तुझे कहीं जाना है क्या?”
“नहीं…वो मेरे कुछ फ्रेंड आना चाहते हैं इस वीकेंड पर घर पर और आपके साथ थोड़ा ऑकवर्ड फील करेंगे। तो अगर आप भी कहीं घूमने फिरने चले जाओ तो हम लोगों को पार्टी-शार्टी करने में सुविधा होगी।” सचिन झेंपते हुए एक साँस में कह गया और माँ की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से ताकने लगा।
“सोचती हूँ कुछ…” संगीता अपने कमरे में जाने के लिए उठ गई सोफे पर से।
पिछले तीन महीनों में ये दूसरी बार था जब सचिन उससे अचानक ही कहीं चले जाने के लिए आग्रह कर रहा था। पिछली बार तो वह बिटिया के यहाँ चली गई थी पर हर बार तो नहीं जा सकती वहाँ…वो भी अचानक! गाँव तो बिल्कुल ही नहीं जाना है। और कहीं भी घूमने जाने के लिए बहुत तैयारी करनी पड़ती है! अब इस उमर में अचानक से कहीं भी उठकर घूमने जाया नहीं जा सकता है। भीतर जाकर कुछ घुटन-सी महसूस होने लगी तो उसने बालकनी का दरवाज़ा पूरा खोल दिया…गुजरते अक्टूबर की गुलाबी सर्दी की दस्तक सीधे भीतर की ओर आने लगी तो संगीता ने बालकनी के पर्दे लगा दिए। पर्दे करते ही उसे फिर घुटन महसूस हुई तो पर्दे हटा दिए। दो-तीन बार पर्दे लगाना पर्दे हटाना और झुंझलाने के बाद संगीता को समझ में आया कि घुटन कमरे में नहीं उसके दिल के भीतर है जो कि बालकनी के पर्दे खोलने बंद करने के असर से बेअसर है। उसने अलमारी से पतली-सी शॉल निकाली और बालकनी में आराम कुर्सी पर बैठ गई। हल्की-हल्की झूला झुलाती आराम कुर्सी पर बैठ कर आँख बंद करते ही उसे लगा कि वो एक सफर में है, बस का सफर है और पास की सीट पर बैठी हैं अचला आंटी…
बरसों पहले अचला आंटी उसे उदयपुर-माउंट आबू की एक सोलो ट्रिप पर बस में मिली थीं।
संगीता को बचपन से ही सोलो ट्रिप करने का बहुत जुनून रहा है। कॉलेज के समय से ही कितनी ही बार अकेले घूमने जाती रही है। पापा-मम्मी उसे भेजते हुए थोड़ा डरते थे पर दोनों भाई हमेशा उत्साहित करते थे। कभी-कभी वो तीनों मिलकर भी घूमते थे और कभी-कभी अकेले-अकेले भी। इसका खर्च उठाने के लिए वे तीनों कभी भी अपने माता-पिता पर निर्भर नहीं रहे। अपनी पढ़ाई के साथ-साथ ही ट्यूशन करते थे और जो भी उपयुक्त पार्ट टाइम जॉब मिल सकता था, करते थे और अपना घूमने फिरने का खर्चा निकाल लेते थे। बाकी कॉलेज का और दूसरे खर्चे तो पापा ही उठाते थे। जब तीनो घूमने जाते थे तो पापा-मम्मी की तो वैसे ही घर में ही पिकनिक हो जाती थी। अपने मन का खाना बनाते-खाते। दोनों को पिक्चर देखने का शौक था जो बच्चों की वजह से पूरा नहीं कर पाते थे, वो पूरा करते। अपने रिश्तेदारों के यहाँ मिलने-जुलने जाते। पापा-मम्मी उनके पीछे से जैसे तो अपनी स्वतंत्रता का आनंद ले रहे होते थे। कुल मिलाकर बात ये कि एक समझदार परिवार में सबको अपने हिसाब से जिंदगी जीने की स्वतंत्रता भी थी और उसके बाद भी सब एक-दूसरे से बहुत मज़बूती से जुड़े हुए भी थे।
पति रंजीत को शादी के वक्त ही संगीता के परिवार ने बता दिया था इसका एकमात्र शौक सोलो ट्रिप है। संगीता ने उस समय कहा था “अब हम दो हो गए हैं तो दोनों मिलकर घूमा करेंगे।” लेकिन रंजीत को घूमने-फिरने का बिल्कुल शौक नहीं था। छुट्टी का दिन आराम से घर पर पड़े रहने में बिताने में उसे विशेष आनंद आता था। ना उसे रिश्तेदारों से मिलने-जुलने का शौक था ना उसे बच्चों के साथ समय बिताने में आनंद आता था। उसका अपना खाली समय वह पूरा किताबों में खपा देता था। उसकी एक बड़ी सी लाइब्रेरी थी, बिल्कुल व्यक्तिगत, जिसमें किसी का भी किसी भी तरीके का कोई दखल नहीं होता था। अपने खाली समय में वो दिन-दिन भर किताबों के पन्ने पलटता रहता था। साथ में चलता रहता था ग़ज़लों और चायों का दौर। कभी-कभी संगीता चाय बना-बना कर थक जाती थी और कुछ झल्ला भी देती थी। अधिक चाय पीने के बहुत सारे हानिकारक असर गिनाकर कम पीने के लिए भी कहती थी। तब फिर एक दिन रंजीत ने इलेक्ट्रिक केतली लाकर अपनी चाय स्वयं बनाने का इंतजाम कर लिया। मतलब चाय छोड़ी नहीं बस बदल ली। डिप-डिप वाली चाय पीने लग गया और वो भी कागज़ के बड़े-बड़े डिस्पोज़ेबल गिलासों में। संगीता ने उसके कमरे में एक बड़ा डस्टबिन काली पॉलिथीन लगाकर रख दिया। लेकिन खाली करने के लिए उसके पूरा भरने और उपटने तक रंजीत इंतज़ार करता। तब फिर संगीता को खुद ही उसे खाली करने की भी ज़िम्मेदारी ओढ़नी पड़ी। इस तरह दोनों की दिनचर्या का, दोनों की पसंद-नापसंद का कोई तालमेल नहीं था। जहाँ संगीता को घर से बाहर दुनिया देखने और जानने का शौक था, जुनून था। वहीं रंजीत को अपने कमरे से बाहर निकल कर बाहर झाँकना तक पसंद नहीं था। बहुत मजबूरी में ही बस वो ऑफिस से घर और घर से ऑफिस की दूरी नापता था। बस इतनी ही देर को बाहर निकलता था। उसकी दुनिया किताबों से शुरू हो कर, ग़ज़ल और चाय के रास्ते वापस आकर किताबों पर ही खत्म होती थी। कभी-कभी पढ़ने के साथ ही वो खुद भी कुछ लेख और कहानियाँ लिख लेता था जो कि कभी-कभी कहीं प्रकाशित भी हो जाती थीं। यूँ वो अपने शौक को जीते हुए अपनी ज़िंदगी में प्रसन्नता पूर्वक आगे बढ़ रहा था। घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारी के नाम पर उसके हिस्से सिर्फ पैसा कमाना था। उस पैसे को कब, कहाँ, कैसे और क्यों खर्च करना चाहिए, ये देखने, समझने और तय करने की पूरी ज़िम्मेदारी संगीता की थी। अच्छी बात ये थी कि जिस कुशलता से संगीता ये सब करते हुए बच्चों के भविष्य की योजनानुसार बचत भी करती चल रही थी, रंजीत बिल्कुल निश्चिंत और निष्फिक्र था। वो संगीता के इस काम में बिल्कुल भी हस्तक्षेप नहीं करता था। जब हमारी छोड़ दी गई ज़िम्मेदारियाँ कोई और हमसे भी बेहतरीन तरीके से निभाए तो हमारा तो हर तरफ से लाभ ही लाभ है। उस बचे हुए समय और एनर्जी को आराम से अपने शौक पर खर्च करके सुख उठाया जा सकता है। तो ऐसे में निष्फिक्र होना तो बनता ही है ना! संगीता की सलाह पर ही बेटे के पहले जन्मदिन पर होम लोन लेकर गुड़गाँव में ही अपना तीन बैडरूम का एक फ्लैट भी ले लिया था। अब दोनों बच्चे अच्छा पढ-लिख गए थे और बेटा अब पच्चीस बरस का कामकाजी नौजवान हो चला था। दो बरस पहले ही नोएडा में ही बेटी की शादी भी कर दी थी। शादी के बाद वो भी नौकरी कर रही थी।
लंबे समय तक एक ही जगह रहने के अपने फायदे और नुकसान हैं। फायदे पहले गिनें तो आसपास के लोगों से, दुकानदारों से आपका अच्छा परिचय हो जाता है जो आड़े वक्त आपके काम आ सकते हैं। आपकी कॉलोनी से आपका ऐसा जुड़ाव हो जाता है कि उसके रखरखाव में आप अपनी भूमिका निभाने की जिम्मेदारी समझने लगते हैं। नुकसान की बात करें तो मनुष्य को स्थायित्व कम पसंद आता है। उसे बदलाव की रंगीनियाँ यानि की जीवन में विविधता पसंद होती है। इसलिए एक ही जगह पर रहना थोड़ा उबाऊ हो जाता है। और संगीता जैसे घुमंतू जीवन जीने वाले मनुष्य के लिए तो ये और भी कठिन था।
संगीता को शादी के बाद इस घूमने फिरने पर थोड़ी रोक लगानी पड़ी थी। क्योंकि एकल परिवार था और बच्चों के पालन-पोषण की पूरी जिम्मेदारी उसी पर थी। कभी-कभी छुट्टी वाले दिन बच्चों को लेकर संगीता ही कहीं बाहर निकल जाती थी। तीनों घूमते-फिरते, कभी फिल्म देखते और कभी खाना भी बाहर खाते हुए घर लौटते। कभी-कभी जब संगीता और बच्चे छुट्टी वाले दिन घर पर ही रहते तो रंजीत को बड़ी बेचैनी महसूस होती थी। सारे दिन की चिल्लपों की उसे बिल्कुल आदत नहीं थी। सबको डाँट-डपट कर चुप बिठा देता था। इसलिए भी बच्चों को मम्मी के साथ बाहर जाना पसंद आने लगा था। लेकिन जब बच्चे बड़े हो गए, स्कूल-कॉलेज में पढ़ने लगे तब उनके लिए हमेशा तो बाहर जाना संभव नहीं था। सो बच्चे दोस्तों के घर पढ़ने चले जाते। तब संगीता फिर से अपने शौक को जीने लगी। बहुत छोटी-छोटी, डेढ़-दो दिन की सोलो ट्रिप से उसने शुरुआत की। कभी-कभी दोनों बच्चे या कोई एक बच्चा, जिसके पास समय होता था,वो भी साथ हो लेता था। रंजीत अक्सर तो अपना एकांत का सुख उठाता। पर जब से उसका लेखन प्रकाशित होने लगा था, उसके कुछ दोस्त बन गए थे और यदाकदा छुट्टी वाले दिन वो भी अपना झोला उठाए बाहर निकल जाता था।
तो यूँ एक अनकहे अनुबंध या कहें कि समायोजन के तहत सबकी ज़िन्दगी ठीक-ठाक ढर्रे पर चल रही थी।
संगीता का मानना था कि गुड़गाँव में बसकर उन्होंने ठीक ही किया था। बच्चों की पढ़ाई और बेटी की शादी सब अच्छे से हो गई थी।
सेवानिवृत्ति के बाद रंजीत के लिए पूरे समय घर में रहना बहुत मुश्किल था। साल भर बाद ही उसने अपने पैतृक गाँव में एक छोटा सा फार्म हाउस बनवाकर वहीं रहना शुरू कर दिया। संगीता भी वहाँ आती जाती रहती थी। पर पिछले कुछ समय से रंजीत के स्वयं में ही मस्त रहने की आदत के और भी बढ़ जाने के बाद से उसका मन अब वहाँ जाने का भी नहीं करता था।
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बाल्कनी में ठंड बढ़ने लगी थी। संगीता को देह में हल्की सी अकड़न जैसी महसूस होने लगी तो उसकी तंद्रा टूटी।
“अरे! अंधेरा हो गया!” उठकर संगीता ने बत्तियाँ जलाईं। सचिन अपने कमरे में ही था इसलिए हॉल भी अंधेरे में ही डूबा हुआ था। जब परिवार का हर सदस्य अपने-अपने उजालों में कैद होता है तो प्रायः घर अंधेरे में ही डूबा रहता है। घर में उजाला करने के लिए सदस्यों को अपने व्यक्तिगत उजालों की कैद से बाहर आना पड़ता है।
“सचिन…सचिन! खाना में क्या बनाना है?” संगीता ने दरवाज़ा खटखटाया।
“कुछ भी बना लो जो कई दिनों से नहीं बनाया हो। आपको तो पता ही है मैं क्या खाता हूँ।” सचिन दरवाज़ा खोलते ही माँ से लिपट गया।
“मेरे ही ऊपर डाल दे ये ज़िम्मेदारी भी बस!” संगीता ने हल्की-सी चपत लगाते हुए लाड़ जताया। “मटर पुलाव खाएगा? नये मटर आने लगे हैं।”
“अरे बिल्कुल खाऊँगा भई…” सचिन ने चटकारे लेने का अभिनय किया तो संगीता की बरबस ही हँसी फूट पड़ी। कुछ घंटे पहले की कड़वाहट का स्वाद भूल कर चौके में मटर पुलाव की तैयारी करने चल दी।
पर फिर भी हाथ अपना काम कर रहे थे और दिमाग अपना! दिमाग में चल रही थी अचला आंटी।
उदयपुर से माउंट आबू जाते हुए 2×2 वॉल्वो बस में सहयात्री थीं अचला आंटी। हल्के बुखार और ज़ुकाम से परेशान-सी वो कभी इन्हेलर सूंघती कभी थरमस में से थोड़ा सा गर्म पानी लेकर घूँट-घूँट पीतीं। संगीता को स्वयं से उम्र में कोई बीस बरस तो बड़ी लग ही रही थीं सो उसने आंटी संबोधित किया “आप इस हाल में अकेले ही कहाँ जा रही हैं आंटी?”
“नव जीवन आश्रम, माउंट आबू।” इन्हेलर सूंघते हुए संक्षिप्त सा उत्तर दिया गया।
“अच्छा! किसी से मिलने जा रही हैं वहाँ?” बातूनी संगीता बातचीत का सिरा छोड़ना नहीं चाहती थी।
“नहीं…” पहली बार आंटी ने सीधे संगीता की आँखो में देखते हुए कहा “मैं ही रहती हूँ वहाँ।”
“आप? वहाँ रहती हैं? तो यहाँ उदयपुर में कैसे आईं? और… और वो बस स्टॉप पर जो छोड़ने आए थे? मुझे लगा वो आपको मम्मी कह रहे थे।” संगीता घोर आश्चर्य में थी।
“हाँ वो मेरा बेटा ही है। पोते का एडमिशन सैनिक स्कूल में करवाने के लिए बेटे-बहू को कुछ दिन के लिए चंडीगढ़ जाना था। पोती आठवीं में पढ़ती है उसे स्कूल मिस नहीं करना था तो जितने दिन वो लोग जाकर आए मैं उसके पास रही। जब वो आ गए तो अब मैं वापस जा रही हूँ।” बंद काँच से बाहर देखने का असफल प्रयास किया जा रहा था। भरी आँखो से भला कब कुछ दिखाई देता है!
अचला आंटी के स्वर की उदासी संगीता को भावुक कर गई “और कोई बच्चे नहीं हैं आपके? किसी और के पास रह लेते।”
“एक बेटी है ना। जयपुर में रहती है। जब उसे ज़रूरत होती है वो भी ऐसे ही आने-जाने का टिकट करा देती है।” उदासी दुख में ढलने लगी।
“ओह् ऐसा!” संगीता नि: शब्द थी।
बस की गति बता रही थी कि कोई स्टॉप आने वाला था।
“आप चाय पिएँगी आंटी? सर्दी में कुछ आराम मिलेगा।” संगीता पर्स में से खुल्ले पैसे निकालने लगी।
“फीकी चाय कहाँ मिलती है कहीं? मैं तो थरमस में साथ लेकर चलती हूँ। तुम पियोगी? चीनी भी है मेरे पास।” बैग में से दूसरा थरमस निकालते हुए पूछ लिया गया।
“अरे वाह!” संगीता ने खुल्ले पैसे वापस रख दिए।
दोनों ने चाय के साथ ही अपने सुख-दुख भी साझा कर लिए।
अचला आंटी के पति सरकारी नौकरी में थे। जगह जगह स्थानांतरित होते रहे थे। सेवानिवृत्ति के पश्चात बसने के लिए उन्होंने उदयपुर में मकान बनवाया था। पर बच्चों की उच्च शिक्षा के समय से अचला आंटी बच्चों के साथ स्थाई रूप से उदयपुर रहने लगी थीं।पति अपने कार्य स्थलों पर रहते रहे। नौकरी में रहते हुए ही दोनों बच्चों की पढ़ाई पूरी हो गई। बिटिया बड़ी थी उसकी नौकरी और शादी भी सेवानिवृत्ति से दो वर्ष पूर्व हो चुकी थी। सब कुछ अच्छा चल रहा था कि एक सड़क दुघर्टना में अचला आंटी के पति की आकस्मिक मृत्यु हो गई। ज़िन्दगी तीन सौ पैंसठ डिग्री पर घूम गई। विभाग द्वारा अचला आंटी को नौकरी की पेशकश की गई। पर बेटी दामाद और स्वयं बेटे की इच्छानुसार नौकरी बेटे के हिस्से आई । साल भर में ही बेटे की नौकरी, शादी और बेटी भी हो गई। अचला आंटी अपना दुख भूलकर इन्हीं सब में रम गईं। बहू भी निजी विद्यालय में विज्ञान पढ़ाती थी सो घर वही सम्हालती थीं। देखते-देखते पाँच-छह साल निकल गए। बेटे के अब चार साल का बेटा भी था। दोनों बच्चे अपनी माँ के साथ ही स्कूल जाते और साथ ही लौटते। लौटने के बाद भी बच्चे अपनी माँ के साथ ही बने रहते। साथ ही खाते,सोते,खेलते और बाहर आते-जाते। धीरे-धीरे अचला आंटी का काम खाना बनाने तक ही सीमित रह गया। फिर एक दिन खाना बनाने वाली भी रख ली गई। आंटी की अब घर में कोई आवश्यकता नहीं रह गई थी।
उनकी बेटी अक्सर इस बात का ताना देती थी कि भाई मम्मी को उसके पास रहने नहीं देता। सो अब भाई ने बहन को कहा कि मम्मी को अपने पास रख लें। बहन के तेवर चढ़ गए “जब मेरे बच्चे छोटे थे और मुझे ज़रूरत थी तब तो तुमने भेजा नहीं! अब जब तुम्हें ज़रूरत नहीं रही तो मम्मी मेरे सिर! अरे वाह रे होशियार!” बेटी की दो टूक बात सुनकर अचला आंटी अवाक रह गईं। जिन बच्चों के लिए माँ अपने सुख भुला देती है, वही बच्चे अपने सुख के लिए माँ को भुला देते हैं। बच्चों को याद रखना चाहिए कि उनके भी बच्चे हैं जो यही देखते हुए बड़े होंगे।
अचला आंटी को बेटे ने उनकी पसंद की जगह पर यात्रा करने भेज कर तात्कालिक रूप से उनसे छुटकारा पा लिया।
दो महिने बाद लौटीं तो बेटी ने उन्हें अपने पास बुला लिया। उसकी बड़ी बेटी बीमार थी। अचला आंटी के वहाँ रहने से उनके बेटी-दामाद में से किसी को भी छुट्टी नहीं लेनी पड़ी। महिने भर में ही बेटी पूर्ण रूप से स्वस्थ होकर स्कूल जाने लगी तो अचला आंटी एक बार फिर घर में फालतू हो गईं। दामाद जी ने उन्हें फिर दूसरी जगह यात्रा पर भेजने की व्यवस्था कर दी। दो महिने फिर वे घूमती रहीं। लौटीं तो उन्हें फिर उदयपुर भेज दिया गया। अवांछित चीज़ को घर में भला कौन रखता है! दस पंद्रह दिन बाद ही उनसे फिर पूछा जाने लगा कि अबकी बार कहाँ जाना चाहती हैं। किसी को ये जानने की, पूछने की आवश्यकता नहीं थी कि उनका इस तरह घूमने का मन है भी कि नहीं! पति की पेंशन में से बचत कर के जोड़ी धनराशि घूमने फिरने में खर्च हो रही थी तो उन्हें अपने भविष्य की चिंता होने लगी। न रहने को स्थाई निवास और न हाथ में पैसा! ऐसे कैसे चलेगा जीवन? एक दो बार सोचा भी कि वहीं कहीं धर्मस्थलों में ही मर-खप जाऊँ तो मोक्ष पाऊँ। पर मोहमाया के बंध इतनी आसानी से कहाँ खुलते हैं। मनुष्य स्वयं को ही भरमाने के हज़ारों हज़ार बहाने खोज निकालता है। अचला आंटी ने भी स्वयं को अपने बच्चों और उनके बच्चों की आपातकालीन आवश्यकता मानकर सुरक्षित और संरक्षित करने का निश्चय कर इसी क्रम के चलते रहने में ही सुख खोज लिया था कि एक बार एक दुर्घटना में उनका बेटा गंभीर रूप से घायल हो गया। तब वे इतनी दूर थीं कि जैसे-तैसे कर के चार-पाँच दिन में उदयपुर पहुँच सकीं। ये उनकी ज़िंदगी का अगला टर्निंग पॉइंट था। बेटे ने ठीक होते ही माउंट आबू में एक आश्रम में उनका स्थाई निवास करवा दिया। घूमना फिरना बंद। जब जिसको ज़रुरत पड़ती थी माँ को बुला लेते थे, काम निकलते ही वापस आश्रम भेज देते ये कहकर कि थक गई हो कुछ आराम भी कर लो। वे किससे कहतीं कि थक तो मैं इस निरर्थक जीवन से गई हूँ। फिर सोचतीं निरर्थक कहाँ है मेरा जीवन? मैं तो बच्चों के बहुत काम की हूँ। जो कोई नहीं कर सकता मैं वो काम करती हूँ अपने बच्चों के। और एक माँ के जीवन की सफलता इससे अधिक और क्या होगी!
अपने नाम के बिल्कुल विपरीत जीवन जीती अचला आंटी से वो मुलाकात हमेशा के लिए संगीता के भीतर कहीं अंकित रह गई थी।
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पुलाव तैयार हो चुका था। संगीता ने मुँह-हाथ धोकर आईने में देखा तो अपने चेहरे में उसे अचला आंटी की झलक दिखाई दी। एक पल को तो वो घबरा गई पर अगले ही पल उसने वापस चेहरे पर पानी छिड़का और मुस्कुराते हुए आईने में फिर से देखा। अबकी बार वहाँ वो स्वयं ही दिखाई दी। संगीता ने मन ही मन स्वयं से कुछ वादा किया और डायनिंग टेबल पर खाना लगाने लगी।
“कौन-कौन आ रहा है?” खाना परोसते हुए संगीता ने बात शुरू की।
“ऑफिस के कुछ दोस्त हैं, आप नहीं जानते।”
“पिछली बार भी तो ऑफिस के ही दोस्त थे ना?”
“हाँ वो दूसरे डिपार्टमेंट के थे, ये दूसरे के हैं।”
“हम्म्म्म्म्… सबको मेरे ही घर क्यों आना है?” कुछ सोचते हुए संगीता ने ‘मेरे’ पर कुछ ज़ोर देते हुए पूछा।
“क्योंकि सबको आपके बेटे की कंपनी पसंद है मम्मी। यू आर ए प्राऊड मदर!” सचिन ने अपनी कॉलर ऊँची करने का अभिनय करते हुए ठहाका लगाया।
“सबको तेरी कंपनी ही नहीं, ये घर भी पसंद है पर तेरी माँ पसंद नहीं! और तू है कि उनके लिए मुझे ही बाहर भेजने की बात सोचता है?” सपाट और सधा हुआ स्वर था संगीता का।
“कुछ भी मम्मी!” सचिन ने हवा में हाथ उठाकर हँसी उड़ाई। “आप तो बस कुछ ज़्यादा ही दिमाग़ लगा रहे हो!”
“हाँ लगा रही हूँ क्योंकि ज़रूरी है।”
“क्या? क्या ज़रूरी है मम्मी?” संगीता के इस नये रूप और रवैए पर सचिन अचंभित था।
“तू नहीं समझेगा। तू तो बस सुन ले…क्योंकि फिलहाल मेरा कहीं भी जाने का कोई विचार नहीं था। इसलिए यूँ बेवजह अपने घर से बाहर जाने में मुझे भी ऑकवर्ड फील हो रहा है और इंसल्टिंग भी। इसलिए मैं कहीं नहीं जा रही इस वीकेंड पर।” जवाब की प्रतीक्षा किए बिना सचिन को आवाक छोड़ संगीता प्लेट उठाकर दृढ़ता से परिपूर्ण चाल से चौके की ओर चल दी।
बहुत सुंदरता से बुनी गई कहानी। मुझे लगता है कि हम औरतों “ख़ास तौर पर भारतीय ” के ज़हन-ओ-दिल में बल्कि उनके “डी एन ए” में जड़ गई है कि घर, पति, बच्चे,रिश्ते सम्भालना उसकी ही ज़िम्मेदारी है । पति और बच्चे यदि कुछ सहायता कर दें भूले भटके तो उसे उनका एहसानमंद होना चाहिए। संगीता ख़ुश है
कि उसने अपने घर को और बच्चों को लगभग अकेले ही पर अच्छी तरह संभाला है और यदा कदा अपना एकल भ्रमण का शौक भी पूरा कर लेती है। जहाँ एक बार उसकी मुलाक़ात बस में एक बुज़ुर्ग महिला अचला से होती है जिनके बच्चे उन्हें तब ही बुलाते हैं जब उन्हें कोई आवश्यक्ता होती है अन्यथा वो अवांछित हैं । बेटे ने उनका प्रबन्ध एक वृद्धाश्रम में कर दिया है जहाँ वो बच्चों द्वारा बुलाये जाने तक रहती हैं।
जब संगीता का बेटा दूसरी बार उन्हें कहीं बाहर घूम के आने की सलाह देता है क्यूँकि उसके ऑफ़िस के दोस्त वहाँ पार्टी करना चाहते हैं तो संगीता को अपनी दशा अचला से मिलती नज़र आती है और वो दृढ़ता से कहीं भी जाने से इंकार कर देती है।
मुझे उसका निर्णय सही लगा। अब समय है कि हम अपने प्रति भी संवेदनशील हों। अपने मन की बात सुनें और मन की मानी भी करें। हाँ ! अपने पति और बच्चों के सुख दुख में काम आना चाहिए। पर ये ताली दोनो हाथ से ही बुनी चाहिए।
सुंदरता से बुनी गई ,चेताते हुई कहानी के लिये शिवानी जी को साधुवाद।
—ज्योत्स्ना सिंंह
आपकी महत्वपूर्ण टिप्पणी मेरे लिए अनमोल है। बहुत बहुत धन्यवाद आपका
घर भी चलायें
नौकरी भी करे
माँ बाप की सेवा भी करें
बच्चों की परवरिश भी करें
उन्हें प्राइवेट स्कूल में भी भेजें
…..
आजकल की युवा पीढ़ी की पीड़ा कम नहीं, माँ बाप से भी मार और बच्चों के भी नख़रे!
अब मुँह मत खुलवाओ जीजी! ☹️
आपकी महत्वपूर्ण टिप्पणी मेरे लिए अनमोल है। बहुत बहुत धन्यवाद आपका