Monday, May 20, 2024
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शिवानी की कहानी – तुम तो नहीं रहोगी ना देखने!

“चीज़ें सही जगह पर रखा करो। चाहे जहाँ टिका देते हो। मैं बस इसीलिए यहाँ हूँ कि तुम्हारी बिखराई हुई चीज़ें उठा-उठा कर ठिकाने रखती रहूँ? अरे एक बार में ही सही जगह पर क्यों नहीं रखते?” मालती ऊँची आवाज में पति पर झल्ला रही थी।
“जरा सा इधर से उठाकर उधर रखने में तुमको बहुत कष्ट होता है क्या? इतना बकबक कर के माहौल खराब करने से अच्छा तो ये होता कि उठा कर रख देती तुम।” विपिन भी उतनी ही तेज़ आवाज में चिल्ला कर बोला।
भीतर कमरे में बच्चों ने एक दूसरे की और देखा। और बेटे नीटू ने उठकर दरवाजा बंद करके भीतर से कुंडी चढ़ा ली।
“और चिल्लाओ…पढ़ने मत दो बच्चों को!” मालती ने दाँत पीसे।
“मतलब तुम तो कुछ करती ही नहीं? सब मेरा कसूर है?” विपिन ने स्कूटर की चाबी उठाई और बाहर निकल गया।
“बस कुत्ते से भोंकते रहो यहाँ… कोई सुनने वाला नहीं।” मालती को विपिन के इस तरह बात बीच में छोड़कर जाने से सख्त नफरत है। उसका गुस्सा इससे और भी बढ़ जाता है।
अक्सर छुट्टी का दिन ऐसे ही किसी न किसी बात पर खराब हो जाता है। कितनी ही बार मालती विपिन को समझाती है कि चीज़ें सही जगह पर रखा करो, अपने आप को और अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित रखो। पर क्या मज़ाल विपिन कभी गौर करे!
कितनी ही बार वह बड़ी शान से बताता है “पूरी दुनिया के मर्द ऐसा ही करते हैं। मैं अगर करता हूँ तो इसमें क्या अलग है!”
“कितनी आसानी से दुनिया की आड़ लेकर अपनी सुविधा चुन लेते हो तुम।” मालती अफसोस करती और चीज़ें सही जगह रखकर घर को ठीक-ठाक करने में जुट जाती।
इस सब के बीच एक बात जो मालती ने बहुत अच्छी की थी, वो ये कि अपने दोनों लड़कों को बहुत ही प्यार से समझाते हुए जिम्मेदार बना दिया था। न सिर्फ अपने आपको व्यवस्थित रखना बल्कि घर को व्यवस्थित रखना भी दोनों की आदत में शामिल था। और इसके अलावा खाना बनाने की भी ट्रेनिंग उसने दोनों बेटों को दे रखी थी। अक्सर ही दोनों किचन में मालती की मदद करते ही रहते थे।
“पढ़ने और नौकरी के लिए बाहर जाओगे तो हर काम के लिए दूसरों पर आश्रित नहीं रहना पड़ेगा इसलिए सब काम खुद करना सीख लेना चाहिए।” मालती बच्चों से हमेशा यही कहती थी। बच्चों को सही भी लगी और उन्होंने अमल भी किया। इसके अलावा अपने पापा की आदतें, उससे होने वाली मम्मी की परेशानी और झगड़े देखते हुए दोनों जुड़वाँ लड़के चीटू-नीटू, खुद ही व्यवस्थित रहने के महत्व को समझ गए थे।
फिलहाल दोनों बारहवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। मार्च का महिना चल रहा था और बोर्ड की परीक्षाएँ अगले हफ्ते से शुरू होने वाली थीं।
मालती जितनी सुघड़ थी उतने ही अव्यवस्थित और लापरवाह विपिन! इस नज़रिए से बिल्कुल ही बेमेल जोड़ी थी।
“तुम्हारी माँ तो खुद इतनी समझदार और सुघड़ औरत हैं। वे घर गृहस्थी कितने अच्छे से संभालती हैं। अपनी नौकरी के बावजूद उनके घर में कोई अव्यवस्था नहीं होती है। खाना भी इतना अच्छा बनाती हैं। मेहमान आ जाएँ तो वो मेज़बान भी ज़बरदस्त ही सिद्ध होती हैं। बिल्कुल ऑलराउंडर हैं। फिर भी तुम इतने लापरवाह और अस्त व्यस्त कैसे हो?” मालती कई बार आश्चर्य व्यक्त करती थी।
“घर में कोई एक ही इतना व्यवस्थित होता है। बाकी लोग तो केवल उस व्यवस्था को पालने वाले या कि सही मायने में ढोने होने वाले ही होते हैं।” माँ की सुघड़ता की तारीफ सुनकर अक्सर ही विपिन के मन में कड़वाहट भर जाती थी। बचपन से माँ के कठोर अनुशासन में बीते जीवन को याद करके विपिन को बड़ा पछतावा होता था, एक टीस-सी उठती थी मन में कि उन्होंने कभी बचपन में शैतानियाँ ही नहीं की। किसी भी तरह के कोई भी बचपन के उटपटांग अनुभव उसको याद ही नहीं थे। जब दूसरे लोग अपने-अपने अनुभव बताते थे, बचपन की उल्टी-सीधी, बे-सिर-पैर की बातें और शैतानियाँ बताते थे तो विपिन उस समय बगले झाँकने लगता। अफसोस करता और मन ही मन कुंठा से भर जाता।
“माँ ने अपनी वाली चला कर ही अपने जैसी बहू मेरे लिए ढूँढ ली। बचपन तो उनके अनुशासन के कोड़े खा-खाकर बर्बाद हुआ ही था कि जवानी तुम बर्बाद करने पर तुली हुई हो।” चिढ़कर विपिन आगे कहता “मुझे अपने हिसाब से अपनी ज़िंदगी जीने का मौका कब मिलेगा आखिर? यह मेरा भी घर है और मैं यहाँ अपनी मर्जी से ही जीऊँगा।”
“और बच्चे क्या सीखेंगे इससे? तुम्हारी तरह वो भी अगर ऐसे ही अव्यवस्थित हो गए तो ये गृहस्थी कैसे संभलेगी? और जैसे तुम अपने जीवन में दुखी हो ऐसे ही वह भी अपने जीवन में दुखी हो जाएँगे। बच्चों के मारे ही कुछ तौर-तरीके सीख लो।” मालती अपने बच्चों को लेकर के बहुत चिंतित रहती थी। “तुम्हारी ज़िंदगी तो जैसे-तैसे मैं संभाल रही हूँ, घर भी संभाल रही हूँ नौकरी के साथ ही। लेकिन ज़रूरी नहीं है कि बच्चों को भी ऐसी कोई जीवन साथी मिल जाए। और आने वाले समय में भी तो दोनों ही पति-पत्नी हर हाल में वर्किंग ही होंगे। पर लड़कियाँ मेरी तरह तो बिल्कुल नहीं होंगी कि दोनों मोर्चों पर डटी रहें और सब सम्भाल लें। तो कैसे इन बच्चों का काम चलेगा? अगर ये भी अभी से ही व्यवस्थित होना नहीं सीखेंगे तो इनके घर घर नहीं, किसी धर्मशाला के जैसे होंगे। और धर्मशाला के से घर में भला सुकून से नींद कैसे आ सकती है?”
“तुम मेरी जिंदगी नहीं संभाल रही हो। तुम मेरी ज़िंदगी की खुशियाँ छीन रही हो अपने नियम कानून मुझ पर ज़बरदस्ती लादकर।” विपिन बुरी तरह झल्ला उठता।
एक दूसरे को जली-कटी सुना कर, इस झगड़े का समापन विपिन के स्कूटर उठाकर बाहर जाने से ही होता था।
मालती जीवन पद्धति में, हर दृष्टि से व्यवस्थित थी और उसके इस गुण को देखकर विपिन और भी उद्दंड होता चला जा रहा था।
घर, नौकरी, बच्चे, पति और अपने खुद के लिए समय का हिसाब-किताब करना मालती को खूब आता था। विद्यालय में उसके साथ कार्यरत महिलाएँ जहाँ हर समय वक्त कम और काम अधिक का रोना रोती रहती थीं। वहीं मालती अपने पसंदीदा कामों के लिए भी समय निकाल लेती थी। शनिवार को शाम को टीवी पर आने वाला कोई पसंदीदा कार्यक्रम या कोई पिक्चर वो ज़रूर देखती थी। प्रतिदिन सुबह सात बजे घर से निकलने तक वो पूरी तत्परता और फुर्ती से काम करती थी। सुबह-सुबह पाँच बजे उठना और रात साढ़े दस-ग्यारह बजे तक सो जाने का उसका पक्का नियम था। उसका मानना था कि रात में पाँच से छह घंटे की गहरी नींद दिन भर चुस्त रहने के लिए बहुत पर्याय है। अब पर्याप्त होती है कि नहीं पर उसका इस बात पर विश्वास और दोपहर को स्कूल से लौटते समय बस में आधे घंटे की एक छोटी-सी झपकी, उसे पूरे दिन के लिए ऊर्जावान बनाए रखती थी। कहते हैं ना कि राम से बड़ा राम का नाम! हमारा विश्वास ही हमारी सफलता का सबसे महत्वपूर्ण कारक है। मालती का हर चीज़ के प्रति सकारात्मक रवैया और खान-पान के नियम उसे दूसरी कामकाजी महिलाओं से अलग खड़ा करते थे। दोपहर में तीन बजे घर आने के बाद एक घंटा बच्चों के साथ और बाकी समय शाम के खाने की तैयारी में बिताती थी। शाम को विपिन के घर आने से पहले आधा घंटा पार्क में टहल भी आती थी। वहीं उसकी अपनी कॉलोनी की सहेलियों से गपशप हो जाती थी और पूरी कॉलोनी की दिनभर की खबरें भी उसे मिल जाती थी। रात को खाने के बाद टीवी देखते हुए मालती सुबह की कुछ तैयारी कर लेती थी। सुबह पहने जाने वाले कपड़ों की गड्डी डाइनिंग की चेयर पर सज जाती थी। इसके अलावा विपिन और बच्चों के टिफिन-बॉटल, खुद के खाने पीने का सामान रखने के सारे डब्बे-डब्बी भी डाइनिंग टेबल पर निकाल कर रख लेती थी। फिर सब्ज़ियाँ काट कर फ्रिज में एयरटाइट कंटेनर में रख लेती थी। सुबह केवल बनाने और पैक करने का काम रहता था। शहर के नामी स्कूल में एकाउंट हैड मालती, स्टाफ बस से स्कूल जाती थी। नाश्ता सुबह बस में ही करती थी। मालती का खान-पान ऑफिस में महिलाओं के बीच चर्चा का विषय रहता था। ठूँस-ठूँस कर खाने वाली बेडौल महिलाएँ अक्सर उसके खाने को घास-फूस बताकर हँसती थीं। पर मालती अपने फिटनेस फंडे से कभी नहीं डिगती थी। ये सच है कि सही राह पर चलते हुए राही के पैरों के नीचे सबसे ज़्यादा काँटे बिछाए जाते हैं। ताकि वो सबसे अलग अपनी सफलता के झंडे न गाड़ सके। वो भी गिरता-पड़ता रहे तो बाकी लोगों के जलते हुए दिलों को कुछ आराम मिलता रहता है। पर मालती स्वयं पर अपने सहयोगियों के कटाक्षों का कोई असर नहीं आने देती थी।
अपने साथ-साथ बच्चों को भी आत्मनिर्भर बनाने की पूरी कोशिश के चलते छोटे-छोटे काम स्वयं करने की आदत डाल दी थी। बच्चे बचपन से ही अपनी-अपनी यूनिफार्म, जूते, बैग सब कुछ रात को ही जमा लेते थे। लेकिन विपिन ने ऑफिस जाते समय जूते-कपड़े ढूँढना और एन वक्त पर आयरन करना कभी नहीं छोड़ा। हमेशा एक अजीब-सी हड़बड़ी में रहता था। कभी एक-दो बार लाइट नहीं थी तो बिना आयरन की हुई जींस पहनकर ही ऑफिस चला गया। बोला “तुम सुखाती इतनी अच्छी तरह से हो कि आयरन की कोई खास ज़रूरत नहीं।” मालती ने अपना सिर पीट लिया था। वो जितनी कोशिश करती विपिन को सलीकेदार बनाने की,वो उतना ही विद्रोही होता जाता था।
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कभी-कभी ऐसा होता है कि बचपन में हम जो भी बाल सुलभ चंचलता करना चाहते हैं वो हमें तथाकथित अनुशासन के चलते, करने से रोका जाता है। डर या लिहाज़ से हम रुक तो जाते हैं, पर हमारे भीतर एक असंतोष भरता चला जाता है। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, गहरे जमे उस असंतोष की परतें कठोर होती चली जाती हैं। जब तक विश्वास के घरातल पर, स्नेह या प्रेम की आँच से उन परतों को परत-दर-परत, एक-एक कर के पिघलाया न जाए, वे अपनी कठोरता से अपने सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति को छीलती ज़रूर हैं। विपिन के साथ भी ऐसा ही कुछ था। अपने जीवन में ओढ़ी गई या कहें कि जबरन ओढ़ा दी गई गम्भीरता से स्वयं बाहर निकलना उसके लिए कतई सहज नहीं था। कभी कोशिश भी करता तो एक अजीब-सी ग्लानि, कुंठा और संकोच उसे घेर लेते। अपनी बनी बनाई छवि से बाहर निकल कर नई छवि बनाने में बहुत जोखिम होता है। और फिर जब पहली छवि सुविधा के खाँचे में फिट बैठती हो तो उसे तोड़कर कुछ नये का जोखिम नहीं ही उठाया जा सकता था।
जब तक विपिन नौकरी के सिलसिले में शहर से बाहर नहींं निकला था, तब तक वो घर में आदर्श बेटे के पद पर था। इकलौती संतान होना भी बड़ी मुश्किल बात है। अक्सर ऐसा होता है कि या तो माता-पिता सर चढ़ाकर बिल्कुल मनमौजी बना देते हैं। या फिर अपनी सारी आकांक्षाओं और सपनों का केंद्र बिंदु बच्चे को बनाकर उसे उनके बोझ तले इस तरह से दबाए रखते हैं कि बच्चे का स्व कुछ पनपता ही नहीं! वो कठपुतली बनकर रह जाता है। स्वाभाविक विकास की संभावनाएँ अधिकांश मामलों में कम ही दिखाई देती हैं। बाल मनोविज्ञान में ऐसा माना गया है कि बच्चा स्प्रिंग की तरह होता है। जब तक उस पर दबाव बना रहता है,वो दबा रहता है। जिस दिन ऊपर से दबाव हटता है, वो एकदम से उछलकर, छिटककर दूर हो जाता है। विपिन के साथ भी ऐसा ही हुआ। घर से बाहर निकलते ही उसने सबसे पहले घर के नियम कानूनों को ताक पर रखा और अपने हिसाब से, अपनी आज़ादी से, मनमाने तरीके से अपनी ज़िन्दगी को जीने लगा। नियमों की अवहेलना करने का सुख उसके लिए दुनिया का सबसे बड़ा सुख था। जिन नियम कायदों में माँ ने बचपन से बाँधकर पाला था उन सब की धज्जियाँ उड़ाना शुरू कर दिया। छोटे से छोटा काम जो बड़े आराम से व्यवस्थित तरीके से किया जा सकता था, वो जानबूझकर उसे टालता था। जैसे बिस्तर के पास मोजे उतार कर पटकना, झूठे बर्तन टेबल पर छोड़ना और जब पूरी टेबल भर जाए तब उनको सिंक में पटकना। ऐसे ही कमरे में गंदे कपड़ों का ढेर लगा लेना उसका पसंदीदा काम हो गया था। सारे कपड़े गंदे हो जाएँ तब इकट्ठे कर के धोबी के डालता था। लेकिन क्या मजाल कि कपड़े एक जगह ढंग से इकट्ठे कर ले। खूंटियो पर टंगे रहते, बिस्तर के पास एक कोने में पड़े रहते। कोई आने जाने वाला नहीं था घर में। ये उसका अपना संसार था। जिसे वो अपने हिसाब से, अपनी जरूरत के अनुसार, अपनी पसंद और सहूलियत के अनुसार चलाता था। और ऐसा करके उसे एक अजीब सा सुकून महसूस होता था। होने को तो उसके अपने घर से बहुत छोटा था उसका यह एक कमरे का घर, लेकिन उसे लगता था कि वो एक विशालकाय सुनहरी पिंजरे से निकल कर खुले आकाश में आ गया है। जहाँ चाहे वहाँ पंख पसार कर उड़ सकता है! घूम सकता है! बैठ सकता है! खा सकता है! पी सकता है! उसकी नज़र में फिलहाल यही तो आज़ादी थी।
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एक बार किसी काम में उलझकर जब विपिन लंबे समय तक घर नहीं जा पाया तो उसके मम्मी-पापा ने वहाँ आने का फैसला किया। विपिन को युद्ध स्तर पर घर में साफ सफाई और व्यवस्था करनी पड़ी। इसके बावजूद उसकी मम्मी उसके रंग-ढंग देखकर बहुत नाराज हुईं “बचपन से जो सलीकेदारी, तौर-तरीके तुमने सीखे, वो कुछ समय अकेले रहने में बिल्कुल ही भुला दिए? कुत्ते भी पूँछ फटकार कर बैठने जितनी जगह बना लेते हैं! तुमसे तो वो भी ठीक से नहीं हुआ।”
“टाइम नहीं मिलता है मम्मी! सब काम खुद करने की आदत नहीं है। धीरे-धीरे होता है और फिर भी सब गड़बड़ हो जाता है।” विपिन ने कुछ इस तरह से भावुक होकर कहा उसकी मम्मी एकदम से पिघल गईं।
“चल ठीक है। नौकरी तो लगी गई है तेरी। अब एक अच्छी लड़की देख कर मतलब घरेलू लड़की देख कर तेरी शादी कर देते हैं। घर संभाल लेगी तो तू भी चैन से नौकरी कर सकेगा।” मम्मी ने लाड़ से सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
“इतनी जल्दी नहीं मम्मी…अभी कुछ दिन मुझे आराम से जीने दो!” उसने कहना चाहा लेकिन उसके बोल मन में ही घुट कर रह गए। मम्मी के रौबदार व्यक्तित्व के सामने विपिन तो क्या उसके पापा की भी कभी बात काटने की हिम्मत नहीं होती थी। कहने को पति-पत्नी दोनों बराबर की सरकारी नौकरी में थे। लेकिन पापा जहाँ बहुत ही सहज और हँसमुख स्वभाव के थे, वहीं मम्मी रौबीले व्यक्तित्व की स्वामिनी थी। दिल की बुरी नहीं थीं पर सत्ता अपने हाथ में रखने और सबको अपनी व्यवस्था में फिट बिठाने की अपनी आदत या चाहत के चलते वो अक्सर कुछ कटु हो जाती थीं।
कुछ दिन रहकर उसकी मम्मी ने वहाँ सब चीजें व्यवस्थित जमाईं। उसके कबाड़खाने को घर बनाया और इस सख्त हिदायत के साथ वापस गईं कि अब इस घर को ऐसे ही बनाए रखना।
उनके जाने के बाद विपिन ने अपने कमरे में एक नजर डाली… चारों तरफ मम्मी के अनुशासन की छाप थी। पता नहीं विपिन को कैसा दौरा पड़ा उसने पूरे कमरे को तहस-नहस कर दिया। बिस्तर की चादर हटा कर फेंक दी। तह किए हुए कपड़ों की गड्डी नीचे ज़मीन पर पटक दी। जूते के रैक में से सारे जूते-चप्पल कमरे में बिखेर दिए। यह सब करने में सर्दी के मौसम में भी उसे बुरी तरह पसीना आ गया था। तब थक कर वो उन सबके बीच में कुर्सी लगाकर बैठ गया। कुर्सी पर बैठ कर उसने रिलैक्स मूड में दोनों पैर लंबे फैला लिए, हाथों को कुर्सी के साइड में झूलने डाला और गर्दन को कुर्सी के सिरहाने पर टिकाकर जैसे ही ऊपर देखा, उसकी नजर साफ-सुथरे पंखे पर पड़ गई। “उफ़…ये भी! मम्मी को साफ-सफाई, व्यवस्था, इसके अलावा कुछ भी नहीं सूझता। एक बार भी उन्होंने मुझसे बैठ कर के बात नहीं की। नहीं पूछा कि घर से दूर मुझे कैसा लगा रहा होगा? मैं कैसा हूँ? मेरे ऑफिस में कैसे लोग मुझे मिले हैं? वहाँ मेरा काम कैसा चल रहा है? मन लगता है कि नहीं? कुछ भी नहीं… केवल घर, व्यवस्था, साफ-सफाई, अनुशासन… यही उनका जीवन है और यही वह दूसरों से अपेक्षा करती हैं। उसका मन हुआ कि मुट्ठी भर धूल उठाकर के पंखे की पंखुड़ियों पर उछाल दे। जिस तरह मम्मी ने उसके कमरे में अपनी छाप छोड़ी है, वो उससे सहन नहीं हो रही थी। उसे घर में वापस अपनी छाप देखनी थी। उसे लग रहा था कि एक बार फिर मम्मी उसके वजूद पर हावी हो गई हैं। अपने वजूद को मम्मी की गिरफ्त से या कहें कि चंगुल से निकाल कर मुक्त करने का यही एक तरीका उसे समझ आ रहा था कि मम्मी का अनुसरण न करके, अपने मन से, अपनी पसंद और सुविधा से रहा जाए। उसने पलकें मूँद लीं और थोड़ी देर यूँ ही निढाल पड़ रहा। बीच में एक बार उसने आँख खोली और साफ-सुथरे पंखे को देखा। थोड़ी देर तक उसको घूरता रहा… फिर पलके बंद कर कुछ सोचने लगा… फिर उसने एक नजर अपने अस्त-व्यस्त कमरे में दौड़ाई। चारों तरफ बिखरे सामान को देखकर उसे सुकून सा महसूस हुआ। मन ही मन उसने सोचा कि दो-चार दिन में पंखा फिर से गंदा होना शुरू हो जाएगा। बाकी कमरा तो मैंने ठीक कर ही लिया है। एक अजीब-सा सुकून और मुस्कान उसके चेहरे पर थी।
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विपिन की मम्मी ने जैसा कहा था वैसा ही किया भी। दो-चार महीने में उन्होंने उसके पास कई तस्वीरें और बायोडाटा भेजे और अंत में उसकी सहमति से मालती के साथ उसका रिश्ता तय कर दिया। शादी के बाद कुछ दिन तो घर में मेहमानों से भरा रहा। मालती को कुछ काम करने को नहीं कहा गया। धीरे-धीरे जैसे-जैसे मेहमान जाते गए, सास-बहू को एक-दूसरे को जानने समझने का मौका मिलता गया। मालती की समझदारी के चलते ही उन्होंने मालती को बहू के रूप में पसंद किया था और जब वाकई में देखा कि मालती उन्हीं की तरह सफाई पसंद, व्यवस्था पसंद समझदार लड़की है तो उनके दिल को तसल्ली हुई। कुछ दिन और उन्होंने उसे अपने पास रखा और समझाया “जैसे शादी से पहले नौकरी करती थी वैसे ही करती रहना। योग्य और अनुभवी हो ही। तो जल्दी ही वहाँ भी कोई अच्छी नौकरी मिल जाएगी।”
“जी मम्मी जी…” मालती का मन उनके प्रति श्रद्धा से भर आया।
बहू को ढेर सारे आशीर्वाद और हिदायतों के साथ उन्होंने विपिन के साथ भेज दिया।
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दिन भर के सफर के बाद शाम को दोनों घर पहुँचे। सफर की थकान बहुत थी। जब मालती ने घर में कदम रखा तो बदबू के एक तेज झोंके से वो दो कदम पीछे हो गई। कमरे की दशा देखकर मालती भौंचक्की रह गई। उसे चक्कर आने लगे वह समझ नहीं पाई कि यह सफर की थकान से चक्कर हैं या फिर इतना गंदा घर देख कर के उसे चक्कर आ रहे हैं। बस स्टैंड और रेलवे प्लेटफॉर्म से टक्कर लेता हुआ गंदा और अव्यवस्थित! बिस्तर पर दिखाई दे रही चींटियों की कतार का पीछा करती हुई उसकी नज़र कमरे के दूसरे कोने में ज़मीन पर पड़े मिठाई के एक डब्बे पर जम गई। उसके पास पड़ी थीं कोल्ड ड्रिंक की खुली पड़ी खाली बोतलें! ज़मीन पर बेतरतीब अनाथ बच्चों से पड़े उनके ढक्कन जैसे उसे ही मुँह चिढ़ा रहे थे। मालती को दरवाज़े पर ही ठिठका हुआ देख कर विपिन थोड़ा शर्मिंदा हुआ। पर उसने बात को संभालते हुए कहा “वो मैं छुट्टी पर जा रहा था उस दिन कुछ दोस्तों को यहाँ पार्टी दी थी। सब शादी में तो नहीं आ सकते थे इसलिए पार्टी देनी पड़ी थी। फिर सब ठीक करने का टाइम ही नहीं मिला और मैं घर चला गया था। अभी मिलकर ठीक कर लेते हैं।”
“बाथरूम कहाँ है? मुझे उल्टी आ रही है।” परेशान सी मालती अंदर की ओर जाने को आगे बढ़ी।
“रुको… मैं एक मिनट… मैं थोड़ा बाथरुम भी ठीक कर देता हूँ।” और वो लपक कर बाथरूम में गया। फर्श पर और वॉशबेसिन में पानी डाल कर एगज़ॉस्ट फैन चलाया। वाइपर से पानी बहाकर पीछे मुड़ा तो उबकाई लेती हुई मालती से टकरा गया।
“हटिए जल्दी से” कहते हुए मालती ने फर्श पर ही उल्टी कर दी।
विपिन भागकर सफर में साथ लाई पानी की बोतल ले आया।
“आप बिस्तर सोने लायक करिए मैं यहाँ सफाई कर के आती हूँ। बाकी कमरा मैं साफ कर दूँगी।”
नितिन कमरे में आकर खड़ा हो गया। दो पल को उसने सोचा, फिर पलंग से चादर हटाई और नीचे पटक दी। तकिए के कवर हटा के नीचे पटक दिए। फिर अलमारी से साफ धुली हुई चादर निकाल कर बिस्तर तैयार किया।
मालती ने बाथरूम के साथ ही खुद को भी मुँह-हाथ-पैर धोकर फ्रेश कर लिया। तब तक विपिन भी कपड़े बदलकर बिस्तर तैयार कर चुका था। “झाड़ू-पौंचा कहाँ है?” मालती ने इधर-उधर देखते हुए कहा।
“अब क्या रात में सफाई करोगी? बिस्तर तैयार है, चलो सो जाते हैं।”
“इस कमरे में मैं एक पल ठहर गई ना वही बहुत है। सोना तो बहुत दूर की बात है। मुझे बहुत कम समय लगेगा। पाँच-दस मिनट में सफाई करके फिर आराम से सोएँगे।” वो बाल्कनी का दरवाज़ा खोलने लगी तो विपिन ने उसका हाथ पकड़ कर नज़दीक खींच कर लिपटा लिया “फिलहाल बस यहीं रहो… मेरे पास…”
लजाती हुई मालती कुछ देर ऐसे ही रही फिर अपने आप को प्यार से छुड़ाती हुई बोली “बस थोड़ी-सी झाड़ू लगा लेती हूँ। चलना फिरना भी मुश्किल हो रहा है। फिर बिस्तर आपने सही कर दिया है तो उस पर भी गंदे पैर जाएँगे। बस दो मिनट।” वो मुस्कुराई और विपिन की पकड़ ढीली पड़ गई।
“वो वहाँ दरवाज़े के पीछे है झाड़ू।” विपिन बिस्तर पर पहुँच चुका था।
मुँह पर कपड़ा बाँधकर मालती ने साफ-सफाई की तब तक विपिन उस प्यार से देख रहा था। विपिन के चुपचाप रहने का फायदा उठाते हुए मालती ने पौंछा भी लगा दिया। तभी विपिन को कुछ याद आया और वह बिस्तर से नीचे उतरने ही लगा था कि मालती ने टोका “दो मिनट रुकिए ना, अभी पौंछा गीला है।”
अचानक विपिन को लगा कमरे में मालती नहीं मम्मी हैं। वो एकदम से बिस्तर में सिमटकर बैठ गया। मालती ने मुस्कुराते हुए थैंक्यू बोला और फिर कपड़े बदलने और हाथ मुँह धोने चली गई। वापस आकर विपिन के पास बिस्तर में बैठ गई। नई जगह नये जीवन की खूबसूरत शुरुआत की पहली रात बेहद यादगार रही। सुबह विपिन की आँख खुली तो देखा मालती उसके सीने से लगी बेसुध सो रही थी। उसने एक नजर मालती पर और एक नजर कमरे पर डाली। वो मुस्कुराया “वैसे ये साफ-सुथरा कमरा लग तो अच्छा रहा है।” विपिन को मालती पर बेहद लाड आ रहा था। उसने झुक कर मालती के माथे पर एक चुंबन रख दिया और उसके बाल सँवारने लगा। मालती की नींद खुल गई तो दोनों बातें करने लगे। ढेर सारी बातों में ये भी शामिल था कि आज ही टू बी एच के फ्लैट देखना शुरू कर देंगे और जल्दी ही शिफ्ट हो जाएँगे। साथ ही मालती ने ऑफिस की बजाय किसी शिक्षण संस्थान में नौकरी करने का फैसला लिया। बिस्तर की सभा बर्खास्त करते हुए दोनों नित्यकर्म में लग गए। पहले विपिन फ्रेश हुआ और उसने दोनों के लिए चाय बना ली। तब तक मालती भी फ्रेश हो गई। चाय पी कर के नितिन ने अखबार के लिए बालकनी का दरवाजा खोला। वहाँ धूप में बदरंग हुए अखबारों का ढेर लगा हुआ था। “आप छुट्टी पर गए थे तो अखबार बंद नहीं कर के गए थे?”
“हाँ यार भूल गया था।” नितिन ने बहुत सहजता से कहा और उसमें से सबसे नया चमकता हुआ अखबार उठाकर कर अंदर आ गया। मालती ने सारे अखबारों को रबर बैंड हटाकर करीने से जमा दिया और फिर बाल्कनी साफ कर दी।
“जब तक शिफ्ट नहीं होते हैं, यहाँ के लिए कुछ अच्छे पौधे ले आते हैं। कितनी सुंदर बालकनी है और कितना सुंदर व्यू दिख रहा है।” मालती चहकी।
“ठीक है। चलो तैयार हो जाओ। नाश्ता बाहर करेंगे कुछ फ्लैट मैंने मार्क किए हैं, और फोन पर बात भी कर ली है। वो भी देख लेते हैं।”
“आप तैयार हो जाओ पहले तब तक मैं कमरा साफ कर लेती हूँ।”
“अरे रात को ही तो सब साफ करके सोई हो। अब क्या सुबह-सुबह गंदा हो गया? चलो ना…दोनों नहाते हैं साथ-साथ!” विपिन की शरारत आँखों में और आवाज़ में साफ झलक रही थी और वो मालती को पकड़ कर बाथरूम में खींच ले गया।
किसी भी शादी के शुरुआती दिनों को देखकर उसका भविष्य बताना मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं। उस समय ये नहीं कहा जा सकता है कि आगे भी ऐसा ही चलता रहेगा। समय, स्थान, परिस्थितियों और परिवेश का प्रभाव बदलाव लेकर ही आता है, दम्पत्ति चाहें या न चाहें।
सो कालांतर में विपिन और मालती के बीच व्यवस्थित और अनुशासित रहने के मुद्दे पर टकराव ने इतना वृहद रूप ले लिया कि विपिन ने अपना कमरा अलग ही कर लिया। वहीं सोता, खाता-पीता और देर रात तक पड़े-पड़े मोबाइल चलाता रहता। मालती और बच्चों को कमरे में घुसने की मनाही थी। कोई भी सामान इधर से उधर नहीं होता था। बाई आकर साफ-सफाई कर जाती। मैले कपड़े वॉशिंग मशीन में और चाय के कप सिंक में धर देती। कभी किसी काम से मालती उस कमरे में चली जाती तो उसका मन उस अव्यवस्था को देखकर बहुत दुखी होता। पर वो जानती थी कि कुछ भी कहने को विपिन को अपनी आज़ादी में खलल मानते हुए भड़क कर बहस ही करनी थी, जिससे घर का माहौल तो बिगड़ता ही, बच्चे भी बहुत दुखी होते, इसलिए चुपचाप उल्टे पैरों लौट आती।
जिंदगी इसी ढर्रे पर चल रही थी कि अचानक ही एक दिन मालती की तबीयत बहुत खराब हो गई। उसे अस्पताल ले गए वहाँ पता चला उसका ब्लड प्रेशर और शुगर दोनों बहुत बढ़े हुए थे। तीन-चार दिन अस्पताल में भर्ती रहने के बाद मालती घर आ गई। घर लौटने के बाद से मालती की अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंता है बहुत बढ़ गई। एक दिन शाम की चाय पर उसने विपिन से कहा “शुगर और ब्लड प्रेशर एक बहुत ही खराब कॉम्बीनेशन है किसी भी इंसान के लिए… दुनिया भर की बीमारियों की जड़ होती हैं ये दोनों बीमारियाँ। सारी बड़ी बीमारियाँ इन दोनों ही बीमारियों की वजह से पेचीदा हो जाती है सीवियर हो जाती हैं। मुझे कुछ हो गया तो…”
“हर वक्त कुछ न कुछ बकवास ही सूझती रहती है तुम्हें। अरे लाखों लोग जी रहे हैं इन बिमारियों के साथ… और तुम तो पहले से ही डायट और योग फॉलो करती हो, इसलिए कोई कॉम्प्लिकेशन्स नहीं होंगी।” विपिन ने अखबार यह करते हुए बेफिक्री से कहा।
“मुझे मेरी चिंता नहीं है, मुझे तुम्हारी चिंता है। घर-बाहर का, तुम्हारा, बच्चों का हर काम मैं करके देती हूँ। तुम कैसे अपने आप को मैनेज करोगे मेरे बाद? तुम तो अपना कमरा तक ठीक से व्यवस्थित नहीं रख पाते हो?”
“शुरू कर दी ना फिर वही बकवास… तुम्हारे पास तो बैठकर चाय पीना भी एक गलती ही है। मैं जैसा हूँ वैसा ही मर जाऊँगा लेकिन बदलूँगा नहीं।”
“दुख पाओगे…बता देती हूँ।”
“तुम तो नहीं रहोगी ना देखने! तो फिर कैसे भी रहूँ, तुम्हें क्या?” विपिन उठकर भीतर अपने कमरे में चला गया।
कुछ बढ़े हुए रक्तचाप, कुछ मधुमेह और कुछ विपिन के व्यवहार से मालती एक दम ही हायपर हो गई। हमेशा शान्त रहने वाली मालती गुस्से में विपिन को कोसने लगी “कुछ समझ नहीं आता।अब भी समय है। आने वाले समय के लिए तैयारी शुरू कर दो।”
विपिन ने भड़ाक से ज़ोरदार आवाज़ के साथ दरवाज़ा बंद कर के भीतर से कुंडी लगा ली। मालती से ये अपमान और अवमानना सहन नहीं हुई।
टपकते नल के नीचे अगर खाली बाल्टी रख दी जाए तो देर सबेर वो भर ही जाती है और फिर उसमें से पानी बहने लगता है। ऐसे में आखिरी बूँद को दोष नहीं दिया जा सकता। जो बहता है वो सारे भराव का मिला-जुला प्रभाव रखता है।
जीवन भी एक खाली बाल्टी की तरह होता है। जो उसमें भरेगा, वही छलकेगा। कब और कितनी तेज़ी से छलकेगा, ये उसके भरने की तीव्रता पर निर्भर करता है। आखिरकार वही छलका जो मालती के भीतर भरता रहा था और उसके आसपास इतने बरसों से विद्यमान था।
गुस्से में वो पैदल ही घर से बाहर निकल गई। पास के खाली प्लॉट में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। कॉर्क की बॉल आकर मालती के सिर पर लगी…वो वहीं गिर पड़ी। लोग दौड़े आए, पर सिर में भीतर जाने कहाँ कैसी चोट लगी कि पल भर में ही उसके प्राण निकल गए। विपिन अवाक्-सा बैठा रह गया। न रो पाया न वहाँ से उठ पाया। फिर उसे याद नहीं कब किस ने उसे वहाँ से उठाया और कैसे मालती अंतिम संस्कार हुआ। वो तो ठीक से विदा भी नहीं कर पाया मालती को। सब कुछ इतना अप्रत्याशित और दुखद था कि विपिन का मानसिक संतुलन ही गड़बड़ा गया। चीटू-नीटू यकायक ही अपनी उम्र से कहीं अधिक बड़े और संजीदा हो गए। लगभग हफ्ता लग गया उस को सदमे से बाहर आने में।
******
घर रिश्तेदारों से भरा हुआ था। विपिन की मम्मी सबसे अधिक दुखी थीं। इतनी समझदार बहू के इस तरह यकायक चले जाने से वो जितनी व्यथित थीं, उससे कहीं अधिक वो अपने बेटे की आदतों को लेकर चिंतित थीं। सब उनको ढाढस बंधाते। कुछ लोग दबे मुँह घर सम्हालने और चीटू-नीटू की देखभाल के लिए, जल्दी ही दूसरी शादी कर देने की बात भी कहते थे। तब विपिन बड़े से फ्रेम में लगी, मालती की मुस्कुराती हुई तस्वीर की ओर देखता… भीतर से कहीं कोई आवाज़ आती “कितने जतन से मालती ने ये घर-गृहस्थी बसाई थी और अपने सुव्यवस्थित आचरण और अनुशासन से सब कुछ इतने अच्छे से सम्हाल रखा था कि उसने स्वयं को सदैव स्वतंत्र ही पाया था। सिर्फ पैसा कमाने के अलावा उसने कभी कोई ज़िम्मेदारी उठाई ही कहाँ थी? बच्चों की पढ़ाई,अपनी नौकरी और घर-गृहस्थी के साथ ही सारी फाइनेंशियल प्लानिंग और इन्वेस्टमेंट्स तक की ज़िम्मेदारी मालती ने भलीभाँति उठा रखी थी। क्या वाकई मालती के बिना सब कुछ बिगड़ जाएगा? क्या वो इतना काबिल भी नहीं कि अपने बच्चों को एक सुव्यवस्थित और सुरक्षित जीवन दे सके?”
*****
तेरहवीं के बाद बच्चों को सम्हालने के लिए विपिन की मम्मी-पापा वहीं रुक गए। विपिन अभी भी छुट्टी पर ही था। कुछ दिन बाद, एक सवेरे विपिन सबसे पहले उठ गया। फ्रेश हो कर, अपनी चाय बनाई और बाहर बरामदे में लेकर आ गया। थोड़ी खटर-पटर की आवाज़ सुनकर उसकी मम्मी बाहर आईं। विपिन को वहाँ देखकर कुछ अचकचाईं “तबियत ठीक है बेटा? इतनी जल्दी उठ गया? चाय भी बना ली! कैसी शक्ल हो रही है। रात भर सोया नहीं था क्या?”
विपिन ने एक नज़र उन पर डाली और भीतर चला आया। मम्मी भी पीछे-पीछे चली आईं “कुछ बोल तो…” कमरे में पहुँच कर उनके आगे के शब्द उनके मुँह में ही रह गए। आश्चर्य से उनकी आँखें फटी रह गईं। उसके बिस्तर के सामने की दीवार पर मालती की मुस्कुराती हुई तस्वीर टँगी हुई थी! और कमरा ऐसा साफ-सुथरा और व्यवस्थित था जैसे कि बस उन्होंने या मालती ने ही जमाया हो…
शिवानी
शिवानी
संपर्क - shivani6370@gmail.com
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5 टिप्पणी

  1. जीवन भी एक खाली बाल्टी की तरह होता है। जो उसमें भरेगा, वही छलकेगा। कब और कितनी तेज़ी से छलकेगा… घर के काम स्त्री पुरुष दोनों की साझा जिम्मेदारी हैं l आम जीवन में अकेली जिम्मेदारी ढोती स्त्री और पति -पत्नी की खटपट का अच्छा चित्रण किया है l कहानी अंत तक आते -आते मार्मिक हो गई l आखिर क्यों हम स्त्री और उसके द्वारा किए गए कामों को उसके जाने के बाद ही समझ पाते हैं l अच्छी कहानी , बधाई शिवानी

    • आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
      आपसे हमेशा ही प्रेरणा मिलती है

  2. ये कहानी एकदम से मन को छू गई। ये अपनी मर्जी से चलने वाले पुरुष वर्ग एक पिछली पीढ़ी तक ही ज्यादा थे। आज की पीढ़ी जो घर से बाहर पढ़ने जाते हैं तो खुद को और आवास को व्यवस्थित करना सीख जाती है।
    सही चित्रण किया।

  3. कहानी बहुत शानदार समसामयिक सन्दर्भ के समावेशन की सुन्दर अभिव्यक्ति है बहुत बहुत बधाई

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