पहली दफ़ा पढ़ी जब गीता
तो ये गुमां था
योद्धा वही है असली, जो युद्ध से डरे ना
अर्जुन जपे अहिंसा,
अपनों को कैसे मारे !
गांडीव गिर पड़ा है,
हैं हाथ पाँव बेहिस
अर्जुन लगा बेचारा
हिंसक लगे थे कृष्णा
उकसाते हैं मुसलसल
“अर्जुन उठो, लड़ो ! तुम ये धर्मयुद्ध समझो
है धर्मयुद्ध प्यारे, तुम धर्मयुद्ध समझो”
बरसों के बाद अब मैं,
अक्सर ये सोचता हूँ
क्या होता सामने गर अपने न कोई होते ?
क्या तब भी वीर अर्जुन, बेबस निढाल होता ?
अर्जुन को तब क्या सच में अपनत्व ही सुहाता ?
शायद नहीं !
नहीं बिल्कुल भी नहीं,
तो फिर, क्या सारा ‘ममत्व’, ‘अपनापन’, हिंसा की ही छवि है?
“मेरा” कहूँ मैं जब कुछ, इक हक़ सा उसपे होता
फिर लाज़मी ये लगता वो बात मेरी माने
गहरी है ऐसी हिंसा, ख़ुद भी ख़बर नहीं है
ये भाँप कृष्ण ने, अर्जुन को बहुत उकेरा
अर्जुन यदि ये कहता,
अपना हो या पराया, लाखों की जान लेकर,
ये राज्य क्या भला है !
या मान लेता आज्ञा भगवन की गर जो अर्जुन
चुपचाप युद्ध करता, न प्रश्न ही उठाता
बन जाता पल में दुर्योधन, या कि कृष्ण बनता
या बुद्ध गर जो होते अर्जुन की ही जगह पर
होती न कोई गीता, न भेद कोई खुलता
इंसान बनने में ही, दुविधा बनी पड़ी है
ये द्वन्द ही है कारण, अर्जुन के मन में जो है
वो प्रश्न ही है मथनी, जिससे कि सत्य निकला
कहना ग़लत नहीं है,
अर्जुन ने गीता लिखवाई
द्वन्द से डरो न, सारे सवाल पूछो
इससे सवाल पूछो, उससे सवाल पूछो
कोई भी न मिले तो, ख़ुद से सवाल पूछो
पूछो कि, कुछ सवालों की देन है ये गीता ।
प्रशांत ‘बेबार’ का जन्म कृष्ण-नगरी मथुरा में हुआ है। आपकी कविताएँ, कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। आपका प्रथम काव्य संग्रह ‘दरीचे’ वर्ष 2020 में प्रकाशित हुआ। प्रशान्त बेबार विश्व हिंदी अकादमी द्वारा ‘2022 हिंदी सेवा सम्मान’, पोयट्री वर्ल्ड ऑर्गनाईज़ेशन के ‘अल्फ़ाज़ 2019′ और ‘विंगवर्ड काव्य पुरस्कार 2019’ से पुरस्कृत हैं तथा अनेक साहित्यिक संगोष्ठियों में भागीदारी रखते हैं। सम्प्रति में प्रशान्त मुम्बई में रहते हैं एवं पटकथा व गीत लेखन का कार्य कर रहे हैं।
सार्थक कविता