आज सुबह सुबह ही बॉस का मूड ठीक नहीं। उसके कमरे से निकलकर अपनी सीट पर कंप्यूटर के सामने आ बैठती हूँ। कंप्यूटर पर बजट एलोकेशन की फाइल खोलती हूँ। एक गिलास पानी पीती हूँ, फिर बॉस की दी हुई डिक्टेशन टाइप करने लग जाती हूँ। पिछले वर्ष के आवंटन और व्यय के ब्यौरे बॉस ने खुराना से ले लेने को कहा है। मैं टाइपिंग छोड़कर इंटरकाम उठाती हूँ और बजट अनुभाग का नंबर डायल करती हूँ। घंटी बज-बज कर बंद हो जाती है। घड़ी की ओर देखती हूँ। सवा दस हो रहे हैं। ग्यारह से पहले न आने वाला आदमी इतनी जल्दी कैसे आ सकता है। चिकना घड़ा है खुराना। कोई असर नहीं होता उस पर। मेरे सामने कई बार बॉस की फटकार खा चुका है। मैं फिर टाइप करने लग जाती हूँ। बीच बीच में जो ब्यौरे खुराना से लेकर टाइप करने हैं, उनकी जगह छोड़ती जा रही हूँ।
इंटरकाम बजने लगा है। फोन उठाती हूँ। बॉस पूछ रहा है – “हो गया?“ मैं उत्तर देती हूँ, ”सर, कर रही हूँ। पर सर लगता है, खुराना जी अभी नहीं आए हैं। पिछले वर्ष का ब्यौरा तो उनके आने पर ही मिल पाएगा।“ बॉस ने गुस्से में फोन पटक दिया है।
चपरासी गिरधारी कुछ फाइलें उठाये मेरे केबिन में घुसता है। फाइलें मेरी कुर्सी के बगल वाले रैक पर पटक देता है। फाइलों का पहाड़ और ऊँचा हो जाता है।
“मैडम, आपने इन फाइलों की डायरी नहीं की?“ गिरधारी के कहने का अंदाज ऐसा है कि न मालूम होता है कि वह खीझकर पूछ रहा है या यूँ ही। मैं उसके चेहरे की ओर देखते हुए कहती हूँ, “देख तो रहा है, आज सुबह सुबह ही साहब ने डिक्टेशन दे दी। साहब का काम करूँ या तेरी ये फाइलें देखूँ?“
“मेरी फाइलें कहाँ हैं मैडम, ये तो सरकारी फाइलें हैं। इन्हें डायरी कर देतीं तो बाँट आता और आपका रैक खाली हो जाता है।“ गिरधारी मेरे गुस्से को देख मुस्करा देता है और केबिन के बाहर पड़ी अपनी कुर्सी पर बैठ दाईं हथेली पर खैनी मलने लगता है।
घड़ी में पौने ग्यारह हो रहे हैं।
“गिरधारी, देखना खुराना साहब आ गए क्या?“
“इंटरकॉम कर लो मैडम।“ गिरधारी पलटकर जवाब देता है।
“बस, कोई काम न कह दूँ तुम्हें?“ मैं बगल की रैक पर पड़ी फाइलों को डायरी कर एक तरफ पटके जा रही हूँ। इंटरकाम फिर घनघनाने लगता है।
“हो गया?“ बॉस पूछता है।
“सर, मैंने तो पूरा टाइप कर लिया, कहें तो ले आती हूँ। जब खुराना साहब आ जाएँगे तो उनसे फिगर्स लेकर भर लेंगे।“
“ये खुराना भी…।“ बॉस खुराना को गाली बकता हुआ फोन पटक देता है।
मैं उठकर फिर बजट अनुभाग की ओर चल देती हूँ। खुराना अपनी सीट पर बैठा फोन पर व्यस्त है। बातचीत से लग रहा है कि फोन पर कोई सरकारी बातचीत नहीं हो रही, किसी मित्र या रिश्तेदार से व्यक्तिगत बातें हो रही हैं। बीच बीच में हँसी-ठट्ठा भी। मुझे देखकर वह सामने वाली कुर्सी पर दायें हाथ की तर्जनी से बैठने का इशारा करता है। खुराना की बात लंबी होती देख मैं फिर उसका ध्यान नोट की ओर खींचना चाहती हूँ, पर खुराना मुझे घूरती नज़रों से देखने लगता है और गुस्से में फोन बंद कर मेरी ओर मुखातिब होता है, “हाँ बोलो… सुबह सुबह क्या पहाड़ टूट पड़ा?“
मैं नोट उसकी ओर बढ़ा देती हूँ। कहती हूँ, “पिछले साल के अलोकेशन और एक्सपेंडीचर की फिगर्स इस नोट के लिए चाहिएँ।“ वह नोट लेकर रख लेता और कहता है, “छोड़ जाओ। लंच तक भेज दूँगा।“
“सर, डायरेक्टर साहब को यह अभी चाहिए, जरूरी है।“
“फिगर्स क्या मेरी टिप्स पर पड़ी हैं? ढूँढ़नी पड़ेंगी। टाइम तो लगता ही है।“ खुराना खड़ा होकर मोटी तोंद से नीचे खिसकती पेंट को ऊपर खींचने लगता है। लगता है, उसे कहीं जाना है।
“सर, आप डायरेक्टर साहब से बात कर लें।“
“तुम उनकी पी.ए. हो, खुद ही बता देना कि खुराना साहब ये कह रहे थे।“ और वह बिना मेरी ओर देखे कमरे से बाहर निकल जाता है।
मैं बॉस को वस्तुस्थिति से अवगत कराती हूँ तो वह भन्ना उठता है, “तुम्हें वहीं बैठकर खुराना से फिगर्स लेनी चाहिए थीं। मुझे यह नोट दोपहर से पहले सचिव महोदय को भेजना है।“
“सर, आप खुराना से बात कर लें। मेरे पास फिगर्स आएँगी तो मैं फिल करके नोट आपको दे दूँगी।“ यह कहकर मैं बॉस के कमरे से बाहर निकलने को होती हूँ तो बॉस बैठने को कहता है।
“सर, सीट पर बहुत सारी फाइलें पड़ी हैं।“
“कोई बात नहीं। लंच के बाद कर लेना।“
“कोई काम, सर?“
“तुम्हारा केबिन मेरे रूम से दूर है। तुम्हें आने-जाने में परेशानी होती है। मैंने एडमिन को तुम्हारी टेबल यहीं मेरे कमरे में लगाने को कहा है।“ बॉस एक फाइल में सिर गड़ाये कह रहा है।
“पर सर, मैं वहीं ठीक हूँ। मुझे कोई परेशानी नहीं है।“
“पर मुझे तो है, तुम्हें बुलाता हूँ तो तुम पंद्रह बीस मिनट लगा देती हो आने में।“
“सर, सीट पर और भी काम होता है, पाँचेक मिनट तो लग ही जाते हैं।“
“कई बार तुम सीट पर भी नहीं होती हो। तुम्हारा टी टाइम और लंच टाइम भी लंबा खिंचता है। दफ्तर की दूसरी महिला कर्मचारी भी तुम्हारे पास आकर बैठ जाती हैं, गप्पें मारने। यहाँ रहोगी तो ये सब नहीं होगा।“ बॉस लगता है, मुझे सबक सिखाने के लिए यह सब कर रहा है।
बॉस मुझे यह सबक क्यों सिखाना चाहता है, मैं अच्छी तरह समझती हूँ। रेखा ने इसकी रंगरलियों की कहानी मुझे बता रखी है। यह हर पी.ए. को एक जैसी समझता है। मुझसे पहले जो इसकी पी.ए. थी – मगलानी, रेखा बता रही थी, मगलानी को सरकारी टूर पर अपने साथ ले जाता था। दिखावे के लिए दफ्तर के एक-दो पुरुष अधिकारी या कर्मचारी भी टूर का हिस्सा बनते थे। उनके ठहरने की व्यवस्था कहीं किसी गैस्ट हाउस में होती थी और मगलानी तथा बॉस किसी फाइव स्टार होटल में ठहरते थे। कमरे बेशक अलग अलग बुक होते थे पर मगलानी बॉस के कमरे में ही… । आज वह प्रोमोशन पाकर पी.एस. बन गई है और सचिव स्तर के अधिकारी के साथ तैनात है।
मगलानी के बाद प्रशासन ने एक पुरुष पी.ए. इसके साथ तैनात कर दिया। इसने उसे इतना तंग और परेशान किया कि उसने खुद ही लिखकर दूसरी जगह तबादला करवा लिया। बॉस ने प्रशासन से साफ कह रखा है कि उसके लिए पी.ए. तैनात करते समय ध्यान रखा जाए कि पी.ए. मेल न हो। फिमेल हो। वह भी देखने में ठीकठाक।
मैं अपने केबिन में आकर कंप्यूटर के सामने बैठ जाती हूँ और मन ही मन भुनभुनाने लगती हूँ। तभी मैं चीखकर केबिन से बाहर की ओर दौड़ती हूँ, “गिरधारी…भगा तो इसे! यह फिर आ गया कमबख्त।“ गिरधारी ततैये को देखकर हँसने लगता है और केबिन में घुसकर उसे खिड़की से बाहर कर देता है।
“मैडम, लगता है, आपसे इसको लगाव हो गया है।…हें…हें…हें…“ वह फिर अपनी कुर्सी पर बैठकर खैनी मलने लगता है।
ऐसा कई बार हो चुका है। जब तक यह ततैया मेरे केबिन में मंडराता रहता है, मैं डर के मारे केबिन में नहीं घुसती।
लंच होने में अभी पंद्रह मिनट शेष है, पर रेखा अपना लंच बॉक्स उठाकर मेरे पास आ जाती है। हम दोनों एक साथ कैंटीन में जाकर लंच किया करती हैं। पहले हम तीन थीं- मैं, रेखा और मालती। मालती का किसी दूसरे आफिस में तबादला हो गया। मैं अपना लंच बॉक्स उठाकर रेखा के साथ चल पड़ती हूँ। लंच करते हुए मैं अपनी परेशानियाँ रेखा से साझा करती रहती हूँ। दो साल की मेरी बेटी है जिसे मेरी बूढ़ी सास दिनभर रखती है। पति का शादी के एक साल बाद ही मुंबई तबादला हो गया। बीच बीच में फोन करके मैं अपनी सास से बेटी के बारे में पूछती रहती हूँ। शाम को मेरी हरसंभव कोशिश होती है कि समय से घर पहुँच जाऊँ। पर ये बॉस है कि ऐन छुट्टी से दस मिनट पहले ही बुला लेता है, अर्जेंट काम कहकर। मैंने उसे कह रखा है कि मेरी पाँच दस की चार्टेड बस है। वह छूट जाती है तो घर पहुँचने में दो ढाई घंटे लग जाते हैं। पर बॉस को मुझे तंग करने में मज़ा आता है जैसे। बॉस का यह रवैया तब से कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है जब से मैंने इसके साथ शाम को किसी रेस्तरां में बैठने से साफ़ इन्कार कर दिया था। एक दिन शाम को बॉस के कमरे से निकलने लगी तो पीछे से मेरा हाथ पकड़ कर खींच लिया। मैंने आँखें तरेरीं तो बोला, “तुम्हें कुछ देर बैठने को कह रहा था। एक छोटी-सी डिक्टेशन ले लो। कल सुबह आते ही टाइप करके फाइल के साथ भेज देना।“ उसकी आँखों में नाचती शरारत को मैं पकड़ लेती हूँ, पर चुप रहती हूँ।
रेखा लंच के समय मुझे बहुत-सी बातें समझाती रहती है। मुझसे पुरानी है इस दफ्तर में। जब मैं उसे बताती हूँ कि बॉस मेरी सीट अपने रूम में लगवाने जा रहा है तो रेखा मुझे सतर्क रहने को कहती है, “बॉस के कमरे में जाया करो तो अपना मोबाइल वॉयस-रिकार्डर पर लगा लिया करो। बहुत ज्यादा तंग करे तो ‘वुमैन हराशमेंट कमेटी’ की चेयरमैन बैनर्जी को इसकी करतूत लिखकर दे देना और एक कॉपी एडमिन में भी। हरामी है साला…। तुम कोई टेम्प्रेररी नहीं हो। एक्जाम पास करके परमानेंट लगी हो इस दफ्तर में। ज्यादा से ज्यादा तुम्हारी रिपोर्ट खराब कर देगा। पर वो भी इतना आसान नहीं है…।“
रेखा की बातें मुझे हौसला देती हैं। मेरे अंदर की औरत मजबूत होती है।
लंच के बाद घर से फोन आता है। मेरी सास कहती है, “शाम को दफ्तर से समय पर आ जाना। बेटी की तबीयत आज ठीक नहीं।“ मैं साढ़े चार बजे तक सब काम निपटा देती हूँ। गिरधारी साहब के पास जाने वाली फाइलें उठाते हुए कहता है, “मैडम, और तो कुछ नहीं है, बाँटने वाला।“
“नहीं, अब जो भी फाइल आएगी, मैं कल सुबह करूँगी। आज मुझे समय से घर पहुँचना है, बेटी की तबीयत ठीक नहीं।“ मैं गिरधारी को सुनाकर कहती हूँ। गिरधारी साहब के कमरे से लौटकर कहता है,“मैडम, साहब बुला रहे हैं, कह रहे हैं, जरूरी काम है। अभी भेज दो।“
मैं कसमसाकर रह जाती हूँ। कॉपी-पेन उठाकर भन्नाई हुई बॉस के कमरे की ओर चल देती हूँ। तभी मुझे रेखा की कही बात याद आ जाती है। मैं अपना मोबाइल उठाती हूँ, उसे वॉयस रिकार्डर पर सैट करती हूँ और बॉस के कमरे में घुस जाती हूँ, खुद को संयत रखने का प्रयास करते हुए पूछती हूँ, “सर, कोई काम है?“
“हाँ, बैठो। अभी दफ्तर की छुट्टी का समय नहीं हुआ है।“ बॉस एक फाइल के पन्ने पलटता हुआ कहता है।
“सर, आज मुझे घर समय से पहुँचना हैं। मेरी बेटी की तबीयत…।“
“अच्छा… ओह! पर थोड़ा बैठो।“ मैं बॉस के सामने वाली कुर्सी पर बैठ जाती हूँ।
फाइल पढ़ना छोड़ वह मेरी ओर एकटक देखता है। देखता क्या, घूरता है। फिर मुलायम बनकर पूछता है, “क्या हुआ बच्ची को?“
“पता नहीं सर, घर से फोन आया था कि आज सुबह से तबीयत ढीली है, कुछ भी खा-पी नहीं रही।“
“च्च…च्च… । कितने साल की है?“
“सर, दो साल की।“
“दूसरे की तैयारी नहीं की?“ वह मसखरी के अंदाज में आ जाता है। मैं चुप रहती हूँ। कोई जवाब नहीं देती।
“तुम पर साड़ी का यह कलर खूब फबता है।… बहुत सुंदर लगती हो।… वैसे तुम हो भी खूब…।“ वह कुछ आगे की ओर झुककर धीमे स्वर में कहता है और मेज पर स्टेनो-कॉपी के ऊपर रखे मेरे दायें हाथ पर अपना बांया हाथ रख देता है। मैं एकाएक उठने को होती हूँ, “सर, मेरे जाने का समय हो रहा है। मैं चलती हूँ।“
उसके बायें हाथ की पकड़ कुछ मजबूत हो उठती है, “तुम्हारी नाक पर जो हर समय गुस्सा बैठा रहता है, जानती हो, वह भी तुम्हारी खूबसूरती को बढ़ा देता है।“
“मेरा हाथ छोड़िये सर!“ मैं दाँत पीसते हुए कसमसाकर कहती हूँ।
“तुम मगलानी की तरह इस दफ्तर में ऐश कर सकती हो, अगर…।“
तभी, कमरे में जैसे कोई बम फूटता है। मैं हाथ छुड़ाकर एक ज़ोरदार तमाचा उसकी बांयी गाल पर जड़ देती हूँ और कहती हूँ, “हर औरत मगलानी नहीं होती… समझे।“ और तेजी से बॉस के कमरे से बाहर निकल आती हूँ। अपने केबिन में घुसती हूँ तो फिर ठिठक जाती हूँ। वही ततैया फिर मेरी सीट के ऊपर मंडरा रहा है। मैं एक फाइल बोर्ड उठाकर उस पर दे मारती हूँ। निशाना सही बैठता है। वह फर्श पर अधमरा-सा होकर तड़प रहा है।
मैं अपने दायें हाथ के अंगूठे और तर्जनी को मिलाकर उसकी बारीक-सी टांग को दबोच लेती हूँ और उठाकर खिड़की से बाहर फेंक देती हूँ, “कुछ ज्यादा ही तंग कर रखा था इस हरामी ने…।“
गिरधारी फटी आँखों से मेरी ओर देख रहा है। मैं घड़ी देखती हूँ, अभी छुट्टी में कुछ समय शेष है। मैं कंप्यूटर पर वुमैन हराशमेंट कमेटी की चेयरमैन और एडमिन के नाम शिकायत टाइप करने लगती हूँ।
बहुत ही संवेदनशील कहानी..कामकाजी महिलाओ की विवशता व कार्यस्थल पर होती परेशानिया को रेखांकित करती एक सशक्त कहानी .बधाई
कामकाजी महिलाओं के जीवन की विसंगति को प्रकट करती हुई एक बहुत सार्थक कहानी के लिए बधाई!
बहुत सुंदर व सार्थक संदेश युक्त कहानी। अंत खूब ज़ोरदार है, ततैये को मारने का चित्र जैसे सामने ही सब घटित हो रहा है। साधुवाद आपको