Monday, May 20, 2024
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सुदर्शन रत्नाकर की कहानी – अधूरी मूर्तियों का क्रंदन

कुछ देर हवाई पट्टी पर चलने के बाद जैसे ही हवाईजहाज़ ने उड़ान भरी नीचे धरती पर सभी कुछ सूक्ष्म दिखाई देने लगा बादलों के ऊपर जाते ही नीचे धरती का सब कुछ ओझल हो गया और इसके साथ ही उसके मन में शून्यता भरने लगी।क्यों हर बार उसका मन टूटता है, बिखरता है और हर बार उसकी  किरचें  उसे चुभ कर लहूलुहान कर देती हैं।उससे रिसते रक्त को बस वह ही महसूसती है।कोई और क्यों नहीं देख पाता, क्यों नहीं महसूस करता ।अकेली ही कर्तव्य और भावना की परिधि में घूमती रहती है।उसका अपना क्या वजूद है? सम्पूर्ण व्यक्तित्व होते हुए भी कुछ नहीं ।सोचती है रोने के लिए किसी दूसरे के कंधे पर सिर रखना क्या ज़रूरी होता है।
               उसका मन बोझिल होने लगा।वह खिड़की से बाहर देखने लगी।बादलों के अनगिनत टुकड़े कई कई आकृतियाँ लिए घूम रहे हैं।एक स्थान पर होकर भी दूरदूर हैं, बेजान ,चुप्पी साधे हुए ,श्रापग्रस्त ,उसकी तरह।तभी बादलों का एक बड़ा टुकड़ा सामने जाता है।सफेद चट्ट बालों की आकृति लिए हुए उसकी दादी का लग रहा है जिसने उसके जन्म पर कहा था ,”लो गई एक और छाती पर मूँग दलने।पहले क्या दो कम थीं यह माँ ने बताया था और वह बन गयी थी, अवांछित, अनचाही संतान।बड़ी दो बहनों ने तो फिर भी थोड़ा बहुत प्यार पा ही लिया था लेकिन उसके हिस्से में कुछ नहीं आया था ।माँ को घर के कामों से फुर्सत नहीं मिलती थी और दादी की अवहेलना तो मिलती ही रही।पापा ने भी कभी खुल कर प्यार नहीं किया ,जीभर कर गोद में नहीं उठाया, पुचकारा नहीं।घर आँगन में गिरती पड़ती चलती हुई बड़ी होने लगी।लड़के होने की आशा में एक और बच्चे को जन्म देने की इच्छा उनकी थी। इसमें उसका क्या दोष था, यही कि वह लड़का बन कर पैदा नहीं हुई।इसलिए सबके प्यार से वंचित रह गई।    
     बड़ी दीदी  रिजुता उससे पाँच वर्ष बड़ी थीं और मँझली केवल डेढ़ वर्ष ।इसलिए दोनों बराबर ही दिखती थीं।शायद इतने कम अंतराल में दो दो लड़कियों का आना सहन नहीं हुआ था सबको ।पर भेदभाव की भावना केवल उसके लिए ही थी।बचपन से ही जो कपड़े बनवाए जाते पहले वंजुला पहनती बाद में उसे पहनाए जाते।स्कूल की यूनिफार्म,किताबें,खिलौने सब पहले वंजुला को मिलते और बाद में उसे। उसका पूरा बचपन वंजुला की उतरन पर बीतता रहा और यह क्रम बड़ी होने पर भी चलता रहा।दोनों बराबर ही दिखती थी।उसका मन नए फ़ैशन के कपड़े पहनने का होता था पर पहले वंजुला पहनती उसके बाद उसकी बारी आती।वह मन मसोस कर चुप रह जाती।ईश्वर ने ही इन परिस्थितियों से जूझने के लिए धैर्य दिया था।उसका बचपन अवहेलना में कब बीत गया, पता ही नहीं चला।किशोरावस्था की बंदिशें भी उसी पर थीं। ज़ोर से मत हँसा करो, इतना  ऊँचा क्यों बोलती हो।पढ़ाई के साथ माँ के कामों में हाथ बँटाया करो।दादी का यह भाषण सुनतेसुनते उसके कान पकने लगते।
                उसने खिड़की बंद कर दी।पर खिड़की के बंद करने से उसके मन के दरवाज़े बंद नहीं हुए।बाहर के सफ़ेद बादल, काले बादल बन कर उसके भीतर उमड़ने लगे।उसकी रुलाई फूटने लगी पर उसने अपने पर क़ाबू पा लिया।आँखों की कोरें गीली हो गईं तो उसने पलकें बंद कर लीं।
        रिजुता दीदी की शादी हो गई थी और वंजुला की होने वाली थी।वह एम.बी. के प्रथम वर्ष में थी तभी रजत से उसकी मुलाक़ात हुई थी।सुदर्शन व्यक्तित्व, सारी क्लास का चहेता पर वह उसकी चहेती बन गई थी।दोनों की रुचियाँ एक सी थी।रोज़रोज़ मिलते रहने से मित्रता तो बढ़ती रही पर वह अपनी भावनाएँ कभी प्रकट नहीं कर पाई।शायद यह उसका दबा व्यक्तित्व था जो उसे मुखर ही नहीं होने देता था।कितनी ही चाँदनी रातों में उसका मन करता वह रजत की गोद में सिर रख कर चाँद को निहारते हुए उसे अपने मन की बात कहे लेकिन वह ऐसा कभी कर ही नहीं पाई।
              वंजुला ने अपनी पसंद के लड़के से शादी की थी।घर में सभी मान गए थे।वह अपने मन को सांत्वना देती  कि जब वह घर में रजत के बारे में बतायेगी तो माँपापा ज़रूर मान जाएँगे ।दादी तो रही नहीं थी तभी तो वंजुला अपने मन की कर पाई थी।इसी आशा में वह अपनी पढ़ाई पूरी करने में लगी रही।यह उसका अंतिम वर्ष था। वंजुला के विवाह के बाद उसके साथ बाँटे कमरे में अब वह अकेली रहती ।उसने वंजुला का सारा सामान जो वह साथ नहीं ले गई थी ,दीदी के कमरे में रख दिया था।अपनी पसंद की चीजों से उसने कमरा भर दिया।कोई भी ऐसी चीज़ जो वह वंजुला के साथ साँझा  करती थी, कमरे में नहीं रहने दी।जिस दिन उसने यह सब कुछ किया था उसे बहुत अच्छा लगा था।उसे लगा वह पूरी तरह जीने लगी है।माँ भी उसकी ओर ध्यान देने लगी थी।पर यह सब कुछ तो क्षितिज को छूने जैसा था ,कोरा इल्यूजन,मृगतृष्णा
        शादी के चार वर्ष बाद दीदी माँ बनने वाली थी।माँ उन्हें कुछ महीने पहले ही डिलीवरी के लिए घर ले आई थीं।जीजी के घर में कोई बड़ा बुज़ुर्ग नहीं था दूसरा माँ का कहना था कि पहला बच्चा मायके में ही होगा, ऐसी परम्परा है।दीदी के आने से  माहौल ख़ुशनुमा हो गया था ।घर में चहलपहल होने लगी थी।माँ का अधिकांश समय उनके साथ बीतता।डॉक्टर को दिखाना, खानेपीने का ध्यान रखना।बच्चे के लिए सामान एकत्रित करना।उसके आने की ख़ुशी में फ़ंक्शन में क्या क्या करना है।यही सब सोचते करते डिलीवरी का समय गया था।
           दीदी ने चाँद सी बेटी को जन्म दिया लेकिन वह उनके जीवन के लिए ग्रहण बन गई।डिलीवरी के बाद उन्हें ज्वर हुआ और चार दिन के बाद उस नन्ही सी जान को मातृविहीन बना कर चली गई।यह सब इतना आकस्मिक हुआ कि किसी को कुछ समझ नहीं आया ।माँपापा, जीजू, वह, वंजुला सब का दुख रिश्तों के अनुसार था।कौन किसको सांत्वना देता और उसका दुख जो दीदी की मृत्यु का कारण बनी थी, जो जीवनमरण का अर्थ भी नहीं जानती थी ,जिसके लिए माँ की ममता और उसका स्पर्श ही अपरिहार्य था इससे ऊपर कुछ नहीं।
            जीजू जो दीदी और अपनी बच्ची के साथ खुशियों भरा जीवन जीने की सोच रहे थे ख़ाली हाथ लौट गए और रह गए वह और माँ, विन्नी को सम्भालने के लिए।माँ की उम्र ऐसी नहीं थी कि वह अकेली उसे सम्भाल पातीं।आया भी रखी लेकिन उसे ही सबसे अधिक देखभाल करनी पड़ती थी।
      
               जब यह सब कुछ हुआ, उसकी परीक्षा हो चुकी थी।रजत से मिलना कम हो गया था।विन्नी की देखभाल करने में उसका समय निकल जाता था।फ़ोन पर ही बात होती थी।उस दिन रजत ने उसे फ़ोन करके मिलने के लिए बुलाया था।वह  भी मिलना चाहती थी इसलिए उसने स्वीकृति दे दी थी।
      वह पूरा दिन उसने रजत के साथ बिताया था।प्रतिदिन की दिनचर्या से हट कर, बाहर आकर और वह भी रजत के साथ।उसे अच्छा लगा था।रजत को लायब्रेरी जाना था इसलिए सबसे पहले वे वहाँ गए।उसके बाद मॉल में गए।विंडो शॉपिंग की, खाना खाया और फिर पिक्चर देखी।इतने समय में उन्होंने ढेरों बातें की लेकिन अपने मन की बात  दोनों में से किसी ने नहीं की।बाहर निकले तो साँझ हो चुकी थी।हवा में हल्की ठंडक थी।शरद पूर्णिमा का चाँद आकाश में दिखाई देने लगा था।रात होते ही  वह तारों के संग धरती को उजास से भर देगा।उसे चाँदनी रात हमेशा ही आकर्षित करती है।उसका मन मचल उठता है और वह रोमांटिक दुनियाँ में पहुँच जाती है।अब वे मॉल के बाहर पार्क में गए थे।रजत ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया था ।थोड़ी दूर वे ऐसे ही चलते रहे।चलतेचलते रजत के हाथ की पकड़ कसती गई।उसके बदन में कंपकपाहट होने लगी जिसे रजत ने भी अनुभव किया।उसने रुक कर दूसरा हाथ भी सके हाथ पर रख कर कहा,” अंशुला ,यह हाथ अब छोड़ोगी तो नहीं, मैं इसे हमेशा के लिए थामना चाहता हूँ, तुम मेरी बनोगी?” वह सिमट कर रजत के और निकट गई।जो वह चाहती थी, रजत ने कह दिया था और जो रजत सुनना चाहता था वह उसने अपनी भावभंगिमा से बता दिया था।
          उस रात देर तक उसे नींद नहीं आई।रजत के साथ बिताया दिन और उसका स्पर्श उसे रोमांचित करता रहा और जब नींद आई तो शेष रात उसकी सपनों में निकल गई।उसने देखा उसका अपना एक छोटा सा घर है ।भीड़भाड़ और कोलाहल से दूर।घर के आँगन में चन्द्रमा की चाँदनी फैली है और वह रजत की गोद में सिर रख कर चाँद को निहार रही है।उसे अपना यह सपना सच होते लग रहा था।
      सुबह उठी तो उगते सूर्य की सुनहरी  किरणें उसमें अलग ही तरह की ऊर्जा भर रही थीं।प्रफुल्ल मन से वह अपने काम में लग गई।इतने में माँ कीं आवाज़ सुनाई दी, “अंशुला देख तो ज़रा विन्नी ने दूध  उल्ट दिया है, उसका शरीर भी गर्म है।
          वह अपने में इतनी उलझी कि उसे विन्नी का ध्यान ही नहीं रहा ।रात माँ ने ही उसे अपने पास सुलाया था।उनके कमरे में जाकर देखा, वह निढालसी पड़ी थी। थर्मामीटर लगा कर देखा तो उसे 103 डिग्री बुख़ार था।वह बारबार उल्टी भी कर रही थी। घर में रखी दवाई से काम नहीं चल सका। इसलिए हॉस्पिटल ले जाना ज़रूरी हो गया।डॉ.ने बताया कि आप समय पर ले आएँ है नहीं तो कुछ भी हो सकता था।इमरजेंसी में उसका इलाज शुरू हो गया। तबीयत कुछ स्थिर होने पर उसने माँ को घर भेज दिया और वह विन्नी के पास ही रुक गई। वह उसकी हर छोटी बड़ी हरकत को देखती रहती।वैसे तो अधिकतर वह सोती रहती थी पर जब आँखें खोलती तो उसे देखकर धीरे से मुस्कुरा देती।उसका मन ममता से भर उठता।बेचारी दीदी उसकी मुस्कानें देख ही नहीं पाई और  जीजू, वे  भी उसका बचपना कहाँ देख पा रहे हैं। हाँ, विन्नी के बीमार होने की सूचना पाकर वह गये थे।दिन में वह हॉस्पिटल में रुकते और रात को वापिस चले जाते थे।पाँच दिन हॉस्पिटल में लग गए।घर आने के  बाद जीजू वापिस चले गए थे।
        विन्नी अब उसकी गोद से उतरती ही नहीं थी।माँ बाँहें फैला कर उसे लेने की कोशिश करती लेकिन वह मुँह दूसरी ओर घुमा लेती और अपनी बाँहें उसके गले में डाल देती।माँ कहती,” अंशुला यह तो तुम्हारे साथ ऐसे हिलमिल गई है ,लगता है तेरी शादी में तुझे दहेज में देनी पड़ेगी।सुन कर वह मुस्कुरा देती।
      विन्नी के बीमार होने से वह अपनी और रजत की बात तो भूल ही गई थी ।सोचती अवसर देख कर वह माँ को  अपने मन की बात बता देगी पर पता नहीं क्यों अभी तक भी वह माँपापा के साथ खुल कर बात करने का साहस क्यों नहीं जुटा पायी थी।बचपन की अवहेलना और हिचक की भावना अभी भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी ।रिजुता दीदी रही नहीं और वंजुला जिसमें सदा ही उसके लिए हीन भावना रही है वह रजत के लिए भला क्यों सिफ़ारिश करेगी ।वंजुला के मन की कड़वाहट उसका साथ कभी नहीं देगी।उसकी ज़िद्द करने पर पापा मान तो गए थे पर रोमिल उन्हें पसंद नहीं था।रजत हर कोण से रोमिल से बेहतर है तो वे मानेंगे क्यों नहीं।यह उसके अपने मन का संकोच था जो वह कह नहीं पा रही थी और इसी संकोच ने उसकी दुनिया बदल दी।उसके सारे सपने टूट कर बिखर गए।उसके संकोची स्वभाव के कारण रजत उसकी ज़िंदगी से दूर हो गया।वह तो उसके उत्तर की प्रतीक्षा ही करता रहा और उसने माँपापा के निर्णय के आगे अपने घुटने टेक दिए।अपनी पसंद और अपना निर्णय तो वह बता ही नहीं पायी।अपनी इच्छा, अपनी खुशी का उसने उनके लिए बलिदान कर दिया जिन्होंने उसे कभी पूरी तरह प्यार ही नहीं दिया था।
         माँपापा ने उससे पूछा नहीं ,बस बता भर दिया कि वे उसका विवाह  रितुजा दीदी के पति अर्थात् जीजू से कर रहे हैं।विन्नी उसके साथ हिलमिल गयी है और फिर दुष्यंत एक अच्छा लड़का है ।आयु में उससे थोड़ा बड़ा है पर उससे क्या होता है।वह उसके साथ खुश रहेगी। यानि बिन पूछे उन्होंने उसकी खुशियों का बीमा भी करवा दिया।एक और त्याग, एक और खुरचन।उसका मन विद्रोही होने को कर रहा था पर विद्रोह कर नहीं पायी बस दबी आवाज़ में कहा,” माँ, वह दीदी के पति हैं, मैं उनसे शादी कैसे कर सकती हूँ मैं
माँ ने उसकी बात बीच में ही काटते हुए कहा,”पति थे, हैं नहीं ।विन्नी को तुम से अधिक और कौन प्यार दे सकता है।तुम्हारे बिना हम उसे सम्भाल नहीं सकते और ही दुष्यंत उसे अकेला सम्भाल पाएगा।दुबारा किसी से तो शादी करेगा और विन्नी सौतेली माँ की छाया में पलेगी, इससे अच्छा है सगी मौसी उसे सम्भाले।
      मेरा प्यार, मेरे सपने उनका क्या? उसने मन में सोचा पर चाह कर भी वह कुछ नहीं कह पायी और परम्पराओं की डोर से बंधी वह दुष्यन्त के नाम का सिंदूर लगाने के लिए विवश हो गई।किसी ने भी उसकी भावनाओं को नहीं समझा।रजत के साथ अपने सम्बंध को वह भूल भी जाए पर दुष्यंत जिसे वह वर्षों से जीजू के रूप में देखती आई है उन्हें तो वह पति के रूप में देख पाएगी ही वह उसे अपना पाएँगे।पर वह इसे अपनी नियति समझ विन्नी को गोद में लिए वह दुष्यंत के घर गई।एक सादे समारोह में उसका विवाह हो गया।चाहते हुए भी वह रजत को बता नहीं पाई।
      विवाह के बाद वे कितनी कठिन परीक्षा के दिन थे।एक छत के नीचे रहते हुए, पतिपत्नी होते हुए भी वे अजनबियों की तरह रहने लगे।घर ,दुष्यंत और विन्नी के बीच उसकी ज़िंदगी एक ही ढर्रे पर चलती रही।उन दोनों के बीच बातचीत की कड़ी थी तो विन्नी जो अब एक वर्ष की होने वाली थी और उसने चलना सीख लिया था।अपनी शरारतों और मोहक मुस्कान से उसके मन की पीड़ा को हर लेती थी।
          बस ऐसे ही दिन निकलते जा रहे थे और उसने जीवन के साथ समझौता करके जीना सीख लिया था।दुष्यंत ने भी  गृहप्रवेश के समय उसे कह दिया था कि वह उसके और अपने रिश्ते को समय देना चाहेगा।कोई ज़बरदस्ती नहीं, जब मन स्वीकार करे तभी वे एक दूसरे को पतिपत्नी के रूप में स्वीकारेंगे ।यह स्वीकृति दोनों ओर से होगी तभी।दुष्यंत ने उसे पर्याप्त समय दिया था और उसने स्वयं भी समय लिया था ।एक साथ रहते, एक दूसरे को समझने में ,अपने मन को समझाते समझाते एक दूसरे को समर्पित कर दिया था।पर वह उसके बाद बहुत रोई थी ।वंजुला के साथ तो वह कमरा और चीजें साझा करती थी, उसके उतरे कपड़े पहनती थी और अब पति का प्यार भी मिला तो वह भी शेयरिंग में।दुष्यंत को उन क्षणों में क्या रितुजा दीदी की याद नहीं आई होगी।उसकी ओर से भी यह समर्पण तन का था, मन  तो स्वीकार नहीं कर पाया था।वह सब कुछ भूल कर नया जीवन शुरू करना चाहती थी पर उसकी  तो मन की गाँठ खुली और ही उसकी चाहना पूरी  होती थी।वह दुष्यंत में रजत को देखना चाहती थी।जो सपने वह रजत के साथ देखती थी वही सपने वह दुष्यंत से पूरा करने चाहती थी।चाँदनी रात में, ओस भीगी घास पर, तारों की छाँव में दुष्यंत की गोद में सिर रख चाँद को निहारती रहे।पर दुष्यंत ठहरे शांत, गंभीर स्वभाव के, चुप्पी का लबादा ओढ़े अपने में ही व्यस्त रहते तब उसे रजत की बहुत याद आती जो अब भी उसके दिल में कुंडली मारे बैठा था।दुष्यंत उससे पूरी तरह से खुल जाते, उसकी इच्छाओं को समझ जाते तो शायद रजत की याद उन दोनों के बीच आती।पर वह    तो उसके मित्र बन पाए और   पूर्ण रूप से पति।
       कई बरस बीत जाने के बाद भी दुष्यंत नहीं बदले।विन्नी बड़ी हो रही थी और उसके साथ ही  दुष्यंत और भी प्रौढ़ होते गए। पर वह उसका पूरा ध्यान रखते थे ।उसने नौकरी कर ली थी इसलिए समय निकाल कर वह विन्नी को भी देखते, उन दोनों को घुमाने भी ले जाते हैं लेकिन वो सब कुछ नहीं हुआ जो वह चाहती है ।दुष्यंत की गोद में सिर रख कर चाँद को देखना।बस इतना सा ।रात के अंधेरे में पतिपत्नी का समर्पण ही प्यार नहीं होता।वह तो केवल रिश्ता है, ज़रूरत के लिए।दोनों के बीच मन की चाहत की भी ज़रूरत होती है।
        घर ,ऑफिस ,दुष्यंत और  विन्नी  के बीच उसकी ज़िंदगी एक ही ढर्रे पर चल रही थी।इससे अलग भी कोई दुनिया है ,वह तो भूल ही गई थी।माँपापा के पास भी नहीं जा पाती।या वह जाना ही नहीं चाहती शायद।रजत कहाँ है, कैसा है वह नहीं जानती।पिछले सप्ताह उसे  महाबलिपुरम में एक कांफ्रेंस में हिस्सा लेने के लिए ऑफ़र मिला था ,उसने स्वीकार कर लिया।बरसों बाद महानगर के भीड़भाड़ भरे वातावरण से अलग यह शांत स्थान उसे पसंद आया था।पूरा दिन तो मीटिंग में निकल गया।शाम के समय वह रिजॉ़र्ट से निकल कर सागर के किनारे गयी जहाँ से महाबलिपुरम के आधे अधूरे मंदिर दिखाई दे रहें थे ।उसने सुन रखा था कि रात के समय लहरें जब उन अधूरी मूर्तियों से टकराती हैं तो एक दर्दभरी आवाज़ आती है ।सदियों से अपूर्णता के श्राप को झेल रही मूर्तियों को आज भी प्रतीक्षा है उस राम की जिनके  स्पर्श से अहिल्या श्राप मुक्त हुई थी। फिर भी वे मूर्तियाँ अपनी अद्भुत स्थापत्य कला से आकर्षित करती उन लहरों से खेलती रहती हैं।
        
             लहरों की अठखेलियाँ उसके मन को भी तरंगित कर रही थीं।लौटते हुए अंधेरा हो गया था पर  शरद पूर्णिमा का चाँद बादलों की ओट से बाहर रहा था।वह अभी कमरे में नहीं जाना चाहती थी इसलिए  स्वीमिंग पूल के पास गई।उसका मन हमेशा पानी में मछली की तरह तैरने को करता था पर वह तैरना कहाँ सीख पायी।कट्टर परम्परावादी दादी की हिदायतों में यह भी तो  था, लड़की हो सो लड़कियों की तरह रहा करो।रिजुता दीदी और वंजुला भी तो लड़कियाँ थी जिन्होंने डांस सीखा था।दादी हमेशा उसके और उसकी खुशियों के बीच दीवार बन कर खड़ी रही ।पर वह ये सब बातें किसे बताए।वह बताए भी क्यों वह उस समय विरोध कर पायी थी और ही दुष्यंत से विवाह के समय तब तो दादी भी नहीं थी ।इतनी भावुक क्यों हो गई थी वह। विन्नी के बारे सोचा ,अपने बारे में नहीं ।दुष्यंत की घर गृहस्थी देखी ,अपना प्यार, अपने जीवन के बारे में क्यों नहीं सोचा उसने
           वह चेयर पर अधलेटी बैठ गयी।मंद मंद शीतल पवन के झोंकों के स्पर्श से उसकी आँखें मुँदने लगीं।तभी उसके कानों में एक मधुर आवाज़ गूँजी, “कैसी हो अंशुला?”वह सतर्क हो, उठ कर खड़ी हो गयी।ट्यूब की जगमगाती रोशनी में उसने देखा सामने रजत खड़ा था।बिलकुल वैसा ही जैसा उसने अंतिम बार देखा था, जब वे फिर मिलने का वायदा करके अलग हुए थे।
रजत तुम यहाँ!”उसने असमंजस से पूछा
रजत दूसरी चेयर पर बैठ गया।उसने बताया वह चेन्नई में एक मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करता है और यहाँ एक सेमिनार  अटेंड करने आया था।अंशुला ने अपने आने का प्रयोजन बताया।कुछ और औपचारिक बातों के बाद रजत ने उसे एक साथ डिनर लेने के लिए कहा तो उसने अपनी स्वीकृति दे दी।डिनर लेकर वे लॉन में थोड़ी देर टहलते रहे।बातें करते रहे लेकिन अपने बारे में दोनों मौन रहे।
           दूसरे दिन मीटिंग ख़त्म होने पर वे दोनों फिर मिले ।डिनर एक साथ लिया।कल की चुप्पी को उसने ही तोड़ते हुए कहा,” रजत ,तुम मुझसे कुछ पूछोगे नहीं कि मैं तुमसे मिलने क्यों नहीं आई?”
मैं जानता हूँ अंशुला, वह तुम्हारी  विवशता थी।दोष मेरा भी तो था।मैंने ही तुम्हें पाने में देर कर दी थी शायद।अपने करियर के बारे में ही सोचता रहा।तुम्हारे लिए तो मैं आश्वस्त था।प्यार में एक विश्वास की बात भी होती है, जो मुझे था।हम दोनों के परिवार शिक्षित हैं, जहाँ आज के समय में लड़के या लड़की के जीवन का इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले पूछा जाता है।तुम से भी पूछा होगा और तुमने कुछ सोच कर ही तो निर्णय लिया होगा।यूँ ही तो कोई अपनी भावनाओं का त्याग नहीं कर देता, उसकी अर्थी निकलते नहीं देखता अंशुला।
      “तुमने शादी की,”, उसने  बात को बदलते हुए पूछा।
    “ नहीं, अभी नहीं, पहले मन को स्थिर कर लूँ, थोड़ा समय लगेगा
   रजत का उत्तर सुन कर उसे अच्छा लगा था, पर क्यों?,शायद इसलिए कि वह अब भी उसकी यादों में बसी है, जैसे वह उसके दिल से जाता ही नहीं, वह उसके और दुष्यंत के बीच मज़बूत दीवार बन कर खड़ा रहता है।
थोड़ी देर दोनों के बीच खामोशी छाई रही।
   
         अनायास रजत ने कहा, “बीच पर चलोगी अंशुला ?”कह कर उसने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया ।वहीं हाथ जिसे सदा के लिए पकड़ने को रजत ने उससे पूछा था और उसने उसे मौन स्वीकृति भी दे दी थी।वे होटल की सीढ़ियाँ उतर कर बीच के रास्ते पर गए। ।होटल की बत्तियों की रोशनी की सीमा समाप्त हो गयी थी लेकिन  चाँद  ऊपर तक गया था और धरतीआसमान को अपनी मधुर चाँदनी से नहला रहा था। उसके मन में सागर की लहरों की तरह भावनाओं के कई कई ज्वार उठ रहे  थे चलते चलते वे रुक गए ।अठखेलियाँ करतीं लहरें आतीं और उनके पाँवों तक आकर लौट जातीं।वह बच्चों की तरह मचल रही थी ।लहरें सागर की  सीमा को लाँघ कर धरती की ओर आने लगीं तो , वे वहाँ से दूर रेत पर जाकर बैठ गए।रजत ने अभी भी उसका हाथ पकड़ा हुआ था।उसने भी अलग करने का प्रयास नहीं किया।अपितु रजत के साथ सोचा सपना देखने लगी जो सदा से उसकी चाहना रही थी।चाँदनी रात में वह उसकी गोद में सिर रख कर लेटी हुई चाँद को निहार रही है और फिर रजत उसे अपनी बाहों में भर लेता है। वह यह सब कल्पना करने में इतनी तल्लीन थी कि उसे पता ही नहीं चला कि कब रजत ने उसके हाथ और फिर माथे को  चूम लिया इससे पहले कि वह भावनाओं के सागर में बह ,सब कुछ भूल कर रजत की गोद में अपना सिर रखती एक बड़ी लहर आई और  उन्हें पूरी तरह से भिगो कर लौट गई।पता नहीं क्यों उस  लहर में उसे विन्नी को गोद में लिए दुष्यंत  की आकृति दिखाई दी जो रजत और उसके बीच दीवार बन कर खड़ा था वह भीतर तक सिहर उठी।  चेतना में लौटते  हुए वह बोली,“ रात बहुत हो गई है, चलो रजत लौट चलें।उसने अपना हाथ उसके हाथ से धीरे से अलग कर लिया। 
     रजत कुछ समझ नहीं पाया।असमंजस में था।
   “ अभी यहाँ हो , कल शाम मिलोगी?”रजत ने उठते हुए पूछा
           वह ख़ामोश रही।
             बिखरी चाँदनी आग की लपटों में परिवर्तित हो गई थी। बार बार उसके पाँव रेत में में धँसते पर वह भीगे वसन और बिखरा मन लिए चलती रही। 
     रजत उसे उसके कमरे तक छोड़कर लौट गया।वह उसे जाते हुए देर तक देखती रही और फिर कमरे में आकर फफक कर रो पड़ी।
    कांफ्रेंस ख़त्म होने के बाद वह वहाँ रुकी नहीं ।रजत के आने से पहले ही उसे बिन बताए वह लौट आई है।
अधूरी मूर्तियाँ अभी भी लहरों की चोट को सहन कर रही हैं।

सुदर्शन रत्नाकर
-29, नेहरू ग्राँऊड ,फ़रीदाबाद -121001
मो. 9811251135
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