Saturday, July 27, 2024
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महेश शर्मा की कहानी – महाप्रयाण

अचानक मोबाइल फिर बज उठा . अभी अभी साले साहब से बात की थी कि  , इंदोर जाना है, भतीजी – के लिये लडका देखने . मैने तय किया था कि आफीस से 3 बजे छूट कर निकल जायेंगे और देर रात तक वापस अपने घर . अब किसका फोन है ? मैने नजर डाली . गाँव से बडे भाई के बेटे का फोन था . काका साब ये दादी से बात करो . दादी यानी माँ थी उस तरफ. बडी कमजोर  आवाज मेँ कह रही थी – तू  कहाँ है दीपू  ? म्हारी तबियत बहुत खराब है डाक्टर के बतानो है तू जल्दी से आ . मैँ चौंका हालांकि मुझे मालुम था कि माँ की तबियत कुछ खराब हो गई  हे . अभी आठ दिन पहले ही तो  बडे भाई के यहाँ गई थी  .                                                                                                                                                
मैंने माँ को  जल्दी आने का कहा और बडे भाई से बात की , पता चला दो दिन से बुखार है .और कमजोरी आ गई है डाक्टर को बताना पडेगा . 
मैने भाई को बता दिया था कि ,मैँ अभी इंदौर जा रहा हूँ एक काम निपटा कर रात तक आ जाउंगा . .मैने तय भी कर लिया था कि ,वापसी मेँ  माँ को साथ ही लेता आउंगा और जरूरी हुआ तो अगले दिन किसी डाक्टर को बता भी देंगे .
मै और पत्नी तीन बजते बजते  निकल चुके थे . इंदौर पहुंचते पहुंचते फिर एक बार भाई का फोन आया , यार दीपू  ये माँ बहुत परेशान कर रही है तू जल्दी आ जा मैंने  आश्वासन दिया भाई को कि 2 घंटे मेँ आता हूँ . हालांकि मै जानता था कि मुझे  कम से कम  3-4 घंटे तो लगेंगे ही . मैंने इंदौर पहुंचते ही साले साहब को जल्दी चलने और काम निपटाने का बोला . उन्हे माँ के बारे मेँ बताया . साले साहब ने तत्काल यात्रा आरम्भ की ताकि  हम गंतव्य तक जल्दी पहुंचे  .                                                       और दो घंटे बाद ही हम लोग लड़के वालों के घर पहुंच कर  हमारी  बातेँ शुरू कर चुके थे .
मैं लड़के के पिता से कुछ जानकारी लेता कि , मेरा मोबाइल फिर एक बार बज उठा . माँ ही थी  उधर . बोली कईँ पैदल आई रियो है ? कितनी देर लगेगी  ? मैं मर रही हूँ  थारा पता नहीं है                                                                                                                                                            
शुद्ध घरेलू अंदाज में मालवी भाषा में मैंने माँ की डाँट सुनी . नही माँ मैँ बस आ रहा हूँ एक घंटे मैं बस पहुंच रहा हूँ . मैने माँ को आश्वासन तो दिया पर मैं विचलित हो गया . मैं समझ रहा था कि स्थिति गंभीर है  .  मुझे दुख हुआ कि मैँ झूठ बोला हूँ  मुझे घर पहुंचने में कम से कम 3 घंटे अभी लगना थे . साले साहब भी मुझे देख कर परेशान हो रहे थे  .वह समझ रहे थे मेरी स्थिति .  हमने जल्दी-जल्दी नाश्ता और बात खत्म की लडके वालोँ से विदा ली और बाहर निकले . एक जगह और जाना था . लेकिन सब कुछ निरस्त करते हुए मैंने साले साहब से कहा कि अब  जल्दी से घर पहुंचा जाए . साले साहब ने कहा गाड़ी में चलाता हूँ , आप बैठें  .            
हमारी गाड़ी वापसी के लिए चल पड़ी गाड़ी चली ही थी कि , फिर एक फोन आया . बड़े भाई साहब थे . वह कह रहे थे यार तू जल्दी से जल्दी आजा भाई , माँ बहुत परेशान है . मुझे आश्चर्य था . दोनो भाई भाभी और सारा अपना परिवार था वहाँ . और मैं यहां इतनी दूर था फिर भी मेरा ही  इंतजार क्योँ  किया जा रहा था  ? कोई भी माँ को लेकर अस्पताल की ओर रवाना क्यों नहीं हो रहा है ? मैंने भाई साहब को कहा भी कि आप माँ को  लेकर अस्पताल चलो इंदौर तक . मैं पहुंच रहा हूँ . पर भाई साहब का कहना था कि माँ मान नहीं रही है कहती है मैँ दीपू   के साथ ही जाऊंगी . इसलिये तु सब काम छोड़ कर जल्दी से निकल आ  . मैँ अंतर्मन मैँ मुस्कराया. मुझे यह  आश्चर्य से ज्यादा गर्व का विषय महसूस हुआ कि कोई ऐसा भी है जो दुनिया में सबसे ज्यादा मुझ पर विश्वास करता है .                                            
मैने भाई साहब को सच बताया कि हम  निकल चुके हैं और 2 घंटे में पहुंच जाएंगे . तभी मुझे सुनाई दिया उधर माँ भाई साहब से मोबाइल छुड़ाने की कोशिश कर रही थी और कह रही थी कि  मुझे बात करने दे . वह  जिद कर रही थी और अंततः माँ ने फिर मोबाइल हाथ में ले लिया मुझे फिर डाँट पिलाई कई मरी जाउंगा तब आयगो ?  मैंने माँ को फिर आश्वासन दिया कि मैं पहुंच रहा हूँ . साले साहब  भी मौके की नजाकत समझते हुए तेज स्पीड में गाड़ी चला रहे थे .  मेरी माँ, जिसे मैं ईश्वर से पहले अपने दिल में स्थापित करता था , सारी दुनिया मेँ जो मेरे लिये श्रद्धा और पूजा के लिये प्रथम स्थान रखती थी . वो सारे परिवार और  अपने तीनों बेटे बेटियों से कहीं अधिक मेरे ऊपर विश्वास और अपेक्षा रखते हुए मुझे पुकार रही थी और मैं यहाँ अपने ससुराल के काम मेँ व्यस्त था . . मैं बेचैन हो गया था और जल्दी से जल्दी उसके पास पहुंचना चाहता था .                                                                                      
मैँ गाडी की पिछली सीट पर बैठा अपने विचारोँ मेँ अपने और परिवार के वर्तमान और भूतकाल  के बीच झूलने लगा .  मुझे याद आने लगा मेरा बचपन.                                                                                                                                       
हालांकि बचपन की ज्यादा कुछ ऐसी यादें तो नहीं है जिससे लगता हो कि मैं माँ का सबसे लाडला बेटा था . ऐसा कुछ था भी नहीं  . हम सात भाई बहन थे . समान रूप से माता-पिता को प्रिय थे  और आपस में भी बहुत प्रेम से रहते थे . लेकिन बडे भाईयोँ के नौकरी और व्यवसाय प्रारंभ करते करते और मेरी शिक्षा पुरी होते होते पिता का व्यवसाय कमजोर होकर लगभग बंद सा हो चला था . घर की आय में गिरावट आ चुकी थी . उम्र के प्रारम्भिक दौर मेँ जो प्रबल आत्मविश्वास और सक्षम आर्थिक क्षमता पिता मेँ हुआ करती थी वो शायद ढलती उम्र और गिरते स्वास्थ्य के कारण कुछ तटस्थता और समjझौतावादी स्वभाव मेँ बदलने लगी थी  यानि पिता की पारी समाप्त होकर बेटोँ की पारी प्रारम्भ होने जा रही थी .                        
यह मनुष्य का  स्वभाव है कि जब तक वह सक्षम हो  संपन्न हो  तब तक किसी  सहारे के बारे मेँ या किसी से  सहायता लेने के बारे में ज्यादा चिंतित नहीं होता है . बल्कि उसे इसकी कुछ याद भी नहीं आती है लेकिन  जैसे ही वह कमजोर अक्षम और  अभावोँ की स्थिति महसूस करने लगता है  अपने आसपास  कोई सक्षम विश्वस्त और अपने प्रति समर्पित पात्रोँ को खोजना शुरू कर देता है . और ऐसे मेँ उससे उपकृत पात्रोँ का यह प्रथम और पवित्र कर्तव्य है कि उनकी अपेक्षाओँ का पुर्णत; सम्मान हो .  हमारे परिवार मेँ भी इस बात का  लगभग पालन किया जा रहा था .                                                                           
मैं उस दौर में बैंक मैनेजर था . आर्थिक रूप से सक्षम और  वैचारिक रूप से इस बात का प्रबल पक्षधर  कि बेटे बेटियों को माता-पिता का पूरा पूरा ध्यान रखना चाहिए . मेरे स्वभाव और माता-पिता से लगाव के कारण माँ की बहुत इच्छा होती थी कि , मेरे साथ रहे लेकिन  पिता को अपने गाँव से और घर से बहुत मोह था उन्हे  गाँव में बहने वाली चंबल नदी और शिव मंदिर पर रोजाना जाना बहुत पसंद था इसलिए वह बचा करते थे बाहर जाने से .और बाहर जाते भी तो जल्दी लौट आने की इच्छा रखते थे .
माँ का बस चलता तो वे लगातार  मेरे यहाँ ही रह लेती लेकिन पिता के आग्रह और उन्हे घर की याद आने के कारण वो स्थाई रूप से तो मेरे साथ नहीं रही  पर  अक्सर हर चार छ; महीने मे माँ और पिता मेरे साथ महीने –बीस दिन के लिये आ कर रह जाते थे .                                                       
समय इसी तरह बीत रहा था लेकिन पिता का स्वास्थ्य लगातार खराब रहने लगा था  इंदौर भी बताया गया . बीमारी कुछ ज्यादा बढ़ चुकी थी जिसका परिणाम यह हुआ कि कुछ ही दिनो मे हम अपने पिता  को खो चुके थे .                                                    
पिता की मृत्यु के बाद कुछ समय तक माँ हमारे गृह ग्राम में रहने वाले भाई के साथ रहने लगी थी .और बीच-बीच में कभी बडे भाई के यहाँ और कभी मेरे यहाँ आ जाती थी चुंकि अब माँ को वापस जाने की जल्दी नहीं होती थी माँ मेरे साथ कुछ ज्यादा समय रहने लगी.
और उसका  मेरे प्रति भौतिक और आत्मिक रूप से भी मोह बढ़ने लगा जो मेरे सौभाग्य का सूचक था . इसे मैँ अपने लिए स्वर्णिम अवसर मानता था कि , मैँ अपनी माँ से निकट हूँ और  मुझे माँ का ध्यान रख पाने का उसकी सेवा कर पाने का या उसकी इच्छाओं को जानकर उन्हें पूरा करने का अवसर मिल रहा  था . शारीरिक रूप से कमजोर होती  माँ अब प्रयास करती थी कि उसका ज्यादा समय मेरे पास रहते हुए बीते और मैं भी यही चाहता था कि माँ मेरे पास ज्यादा रहे . मैं इस बात मेँ  भाग्यशाली भी था कि ,पत्नी भी इसमें सहमत और सहायक थी  माँ के मेरे साथ रहने के दौरान हमने माँ के कई रूप देखे कई कई सुख दुख के क्षण आये माँ से अंतरंगता गहन हुई . हालांकि “अपनी माँ से अंतरंगता बढना “, यह कहना विचित्र माना जा सकता है क्योकि माँ बेटे का रिश्ता तो दुनिया का सबसे सहज सबसे मजबूत सबसे पवित्र और महान होते हुऐ ऐसी किसी भी  परिभाषा से बिल्कुल विमुक्त ही माना जायेगा . लेकिन मेरा संकेत एक अन्य भौतिक और व्यावहारिक बिंदु की और है . वो यह कि रिश्ता कोई भी हो कितना भी महान उच्चतम और मुल्यांकन से परे हो लेकिन उसमे सजीवता , आकर्षण और मोह्पाश तब तक जागृत नही रहेगा , जब तक उसमे निरंतर सम्पर्क , लगातार प्रकट होता आत्मिय बोध और एक दूसरे के प्रति बिना लाग लपेट के साफ स्वछ स्नेह्पुर्ण और सम्मानजनक लगाव ना हो .
मेरे वैचारिक सफर को अचानक झटका लगा. गाड़ी मेरे गृहग्राम की सीमा में प्रवेश कर रही थी . अब तक पिछले 1 घंटे में चार पाँच बार फोन आ चुके थे  . भाई साहब का कहना था कि , तबीयत लगातार बिगड़ रही है . और माँ लगातार मुझे याद कर रही है . इस दौरान  माँ से भी मेरी बात कराई गई माँ कमजोर और अस्पष्ट शब्दोँ में  मुझे  डाँट पिलाती रही . गाड़ी घर के आगे रुकी . सभी बाहर बेचैनी से मेरा इंतजार कर रहे थे .  मैंने तत्काल माँ को गाड़ी की पिछली सीट पर बिठाया और श्रीमति और मैं भी पीछे उसके आस पास बैठ गये .  भाई साहब और भतीजा राजू  आगे बैठे . और हम चल पड़े मैरे वर्तमान निवास की ओर जो गृहग्राम से  25-30 किलोमीटर दूर होकर एक जिला स्तरिय चिकित्सा सुविधाओँ से युक्त मध्यम किस्म का शहर था. पिछली सीट पर मेरे नजदीक बैठी माँ मुझे देख कर रो पड़ी .
कित्ती देर कर दी तुने आने मेँ ?  थारे कोई चिंता नहीं हुई म्हारी . म्हके कईँ हुई जातो  तो ?  मैंने अब उसे सही कारण बताया कि मैं बहुत दूर गया था . खबर पाते ही चल पड़ा . लेकिन दूरी के कारण पहूँचने में देर लगी  . अच्छा चल अब जल्दी म्हके डॉक्टर के पास ले चल  .  माँ ने अपना हाथ  मेरे हाथ पर रखते हुए कहा .मैने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए सहलाते हुए उसे दिलासा दिया कि अभी अस्पताल पहूँचते हैं और सब ठीक हो जाएगा . मैँ लगातार माँ के चेहरे को देख रहा था . माँ बहुत अच्छी लग रही थी . वह आश्वस्त थी कि अब उसका बेटा उसके पास है लेकिन उसके चेहरे पर कुछ सूजन भी आ रही थी . बहुत दुबली भी हो चुकी थी . उसकी त्वचा कई जगह से लटक रही थी . मैंने महसूस किया कि वह क्षीण हो रही है , उसकी शारीरिक शक्ति घटती जा रही है . उसके दोनों हाथ मेरे हाथों में थे . उसने अपना सिर मेरी और झुकाते हुए मेरे कंधे से टिका दिया . मैं बड़ी तेजी से भावुक होने लगा . माँ मेरा सहारा ले रही है .  मुझे लगा जैसे उच्चतम आकाश या विशाल धरती जैसा कोई  विराट व्यक्तित्व किसी नन्हे से तृण समान पौधे का  सहारा ले रहा  है .
मैने अपना एक हाथ माँ के सिर के पीछे से घुमाकर उसके दूसरे कंधे पर रखते हुए उसे अपनी और खिंच लिया माँ और तिरछी होकर मेरी और झुक गई थी.  तभी अचानक  माँ ने  मेरी ओर देखा या यूं कहें कि मुझे मेरे परम सौभाग्य का एक अवसर उपहार में दे दिया . माँ  बोली दीपू  मैं थारी गोद में सो जाऊं थोडी देर मैने तत्काल कुछ पैर फैलाते हुए उसे तिरछा कर अपनी गोद में सुला लिया . 65 वर्ष की  उम्र लिए  माँ का अशक्त शरीर मेरे हाथोँ पर  टिका हुआ था . उसका उन्नत ललाट लिए सिर मेरी गोद में रखा आराम कर रहा था . मैं अभिभूत था. मैं हतप्रभ था. 
मुझे लग रहा था साक्षात ईश्वर अपने किसी भक्त किसी सेवक की गोद में आराम कर रहा था  . मैंने अपना एक हाथ माँ  की पीठ पर और दूसरा हाथ उसके सिर पर रखते हुए उसे हल्के से थपथपाने का उपक्रम किया . 3– 4 मिनट तक मुझे वह अनिर्वचनीय सुख लूटने का मौका मिला . लेकिन माँ इस मुद्रा में आराम से नहीं लेट पा रही थी .  अब वह बोली बेटा मुझे सीधा बिठा दे . मैंने उसे फिर सीधा बिठा दिया . वह फिर मेरे कंधे से अपना सिर टिका कर पूरे सुकून के साथ टिकी रही . मैँ सौल्लास उस महान हस्ती को एकटक देख रहा था . ईश्वर की उस अनुपम कृति को देख रहा था जो आज से 
लगभग 50 साल पहले  अपना बचपन , अपना घर बार और अपने माता पिता को छोड़कर अपनी ससुराल आई थी तब उसकी उम्र महज 13 वर्ष थी , और ससुराल में थे केवल ससुर और पति याने मेरे पिता . उस 13 वर्ष की उम्र से अपना वैवाहिक जीवन प्रारंभ करती हुई माँ कई उतार-चढ़ाव देखती सात  बच्चों और पति को सम्हालती घर की सारी जिम्मेदारी निभाती हुई धीरे धीरे उम्र की सीढ़ियां चढ़ती गई  और आज उम्र की  60-65 वीँ पायदान पर फिर 13 साल की अबोध बालिका सा व्यवहार करने लगी थी , तथा मुझ अकिंचन , अपने साधारण से पुत्र की गोद मेँ अपना सकुन संतोष खोज रही थी . एक आश्वस्ति सी महसूस कर रही थी. और मैं मानो सम्पूर्ण  पृथ्वी का कोमल सा भार अपने कंधे और शरीर से उठाए स्वर्ग  सी अनुभूति में आकंठ गोते लगा रहा था .                                                            
मेरा निवास आने वाला था माँ के दूसरी ओर बैठी मेरी जीवनसंगिनी मेरी पत्नी यह सब देख रही थी एक चिंता और आश्चर्य के साथ . हम माँ बेटे का यह तमाशा कुछ विचित्र भी लग रहा होगा उसे . लेकिन वह भी माँ थी . वह समझ रही थी कि उसके पति यानी मेरे और माँ के बीच का यह सारा उपक्रम गूंगे के गुड़ के समान था , जिसके स्वाद की अनुभुति  गुड़ खाने वाले गूंगे को ही हो सकती थी .
हम डॉक्टर गुप्ता के क्लीनिक पर पहुंच चुके थे . माँ बहुत अशक्त थी उसे अंदर क्लिनिक मेँ नहीं ले जाया जा सका . डॉक्टर स्वयं  गाड़ी में देखने आये और  मरीज को देखते ही चिंता ग्रस्त हो गए . स्थिति गंभीर बताकर  तत्काल हॉस्पिटल में भर्ती होने का कहा गया . आवश्यक दवाईयाँ लिख कर  तत्काल ब्लड देने की बात बताई गई और यह भी कहा गया कि यह रात इनके लिए बहुत खतरोँ भरी है , कुछ कहा नहीं जा सकता कुछ बुरा हो भी सकता है और नहीं भी .
हम गंभीर हो चुके थे ,आशंका ग्रस्त हो चुके थे . घर से चलने तक भाई साहब या मैँ या अन्य कोई इतना गंभीर मामला नहीं समझ रहे थे . मेरे दिलो-दिमाग में पश्चाताप की एक लहर उठने लगी . यदि  आज माँ को कुछ हो जाता है तो मैं स्वयं को जीवन भर माफ नहीं कर सकूंगा . हम तत्काल अस्पताल पहुंच चुके थे . उपचार प्रारंभ हो गया था कुछ देर बाद माँ के चेहरे पर कुछ राहत दिखाई देने लगी थी .   
भाई साहब और राजू वापस घर लौट  जाना चाहते थे . उनके जाने के बाद अस्पताल में मैं पत्नी और बच्चे ही रहते  . मुझे लगा रात में परेशानी हो सकती है मैने भाई साहब की और देखा और वे  समझ गए उन्होने तत्काल हामी भरी में रुक रहा हूँ, और राजू को रवाना कर दिया . हमने तय किया कि दोनों भाई अस्पताल में रहेंगे माँ के पास . और ललिता  बच्चों के साथ घर रहेगी .
वह रात अभी चिंताजनक थी  . ब्लड चढाने के बाद रात भर स्लाईन चढ़ती रही .माँ कराहते हुए  सोती जागती रही . हम दोनो भाई कुर्सियोँ पर बैठे माँ की हालत पर नजरेँ टिकाए हुए थे . धीरे धीरे भाईसाहब भी अर्धनिंद्रीत से आँखे मूंद चुके थे . तभी अस्पताल के काउंटर से बुलावा आया कि फाईल बनवा लेँ और कुछ राशी जमा करेँ हमने एक दुसरे की और देखा और तय किया कि एक भाई यहीँ रहे और दुसरा निचे जाकर अस्पताल की भरती होने की सारी प्रक्रिया पुरी करे . भाई साह्ब निचे काउंटर पर जा चुके थे माँ अभी भी निन्द्रित अवस्था में ही थी और मेरा रुका हुआ वैचारिक सफर फिर शुरु हो चुका था .                                                           
मैने एक आश्चर्यजनक तथ्य पाया कि जब एक माता पिता के दो या तीन या चार बच्चे होते हैं वे बड़े हो जाते हैं . आत्मनिर्भर हो जाते हैं . और माता पिता अक्षम और असहाय होने लगते हैँ तब  एक व्यावहारिक प्रश्न पैदा होता है कि माता-पिता कहाँ रहे ? किसके पास रहैँ . उनका सारा खर्च कौन वहन करे ? गिने-चुने अवसर ही ऐसे होते हैं जब सभी बेटे सहर्ष उन्हें अपने पास रखना चाहे या उन्हे अपने पास रखने की होड़ लगाएं  .                                                   
आमतौर पर यह होता है कि , इस बात के निर्धारण मेँ आपसी स्वभाव के अलावा कुछ विवाद कुछ एक दूसरे पर टालने की प्रवृत्ति , जवाबदारी से बचने की प्रवृत्ति या संपत्ति के बंटवारे के आधार पर निर्णय या माता पिता की सेवा को भी समय काल पर विभाजित कर सकने  का विचार इत्यादि बिंदु पैदा होते हैं .                                                     
लेकिन वही बच्चे जब पैदा होने के बाद अपने बाल्यकाल मेँ अक्षम असहाय होते हुए माता पिता पर पुर्ण आश्रित होते हैँ  . और  वही माता-पिता जब अपने सारे बच्चोँ का  बडे चाव से , बड़े लाड प्यार से , बड़ी गंभीरता से उनका पालन पोषण करते हैं तब कोई विचारणीय बिंदु ,बच्चों को पालने से नकारने की बात की संभावना या कोई बहस कोई विवाद या जवाबदारी के बंटवारे जैसा कोई अवसर ही नहीं आता . बल्कि यह सिद्धांत सर्वमान्य घोषित रुप से माना जाता है कि  बच्चों की हर बात के लिए उनके लालन पालन के लिये उन्हे बडा करने उनकी शिक्षा और वैवाहिक जवाबदारी को पूर्ण करने यानि उनके संपूर्ण विकास की जिम्मेदारी माँ-बाप की ही होती है  .                                                                       
और तो और  यही माँ बाप अपने द्वारा कमाई से बनाई गई संपत्ति अपने आखरी वक्त आने के पहले ही  बच्चों में  बराबर बाँट देते हैं और फिर अपने अक्षम , असमर्थकाल खंड मेँ उन्हीँ बेटोँ पर इस आशा और अपेक्षा से  दृष्टि डालते हैं कि वे उन्हें आसरा देंगे .
तो हमारे परिवार मेँ भी पेतृक सम्पत्ति के बंट्वारे का यह अवसर आया  और अपने गृह ग्राम में मेरे हिस्से में आया पैतृक संपत्ति के रुप मे एक पुराना मकान , जिसे मैने नवनिर्माण कर चार कमरे बना लिये थे . उन चारों में किराएदार थे .  यहाँ यह उल्लेखनिय है कि हमारी पेतृक सम्पत्ति का आपसी बंटवारा करने मेँ हम चारोँ भाईयो को केवल  पँद्रह मिनिट लगे .और सब कुछ शांतीपुर्ण रुप से हो गया था ..                                                     
एक दिन  माँ ने 4 कमरों में से एक कमरे का किराया स्वयं के पास रखने की इच्छा मेरे सामने जाहिर की . मैंने सहर्ष सहमति देते हुए ( मुझे हँसी आई मैँ अपनी माँ को उस सम्पत्ति के एक हिस्से के किराये के उपयोग के लिये अपनी सहमति दे रहा था जो पूरी सम्पत्ति उसी माँ ने मुझे दी थी .) माँ को आश्वस्त किया कि आवश्यकता पड़ने पर वह पूरे मकान का किराया भी ले सकती है . और इसके अलावा भी कुछ आवश्यकता हो तो मैं सहर्ष तत्पर  हूँ  .                        
बस यहीँ से भारतीय परिवारवाद के गुण अवगुण उसकी महानता और उन्नति/अवनति के कई कई उदाहरण दर्शित होने लगते हैं . जो माँ-बाप पैदा होने से लेकर बड़े होने तक ब्याह शादी करवाने और नौकरी लगाने तक बच्चे की सारी जवाबदारी बिना किसी कानून , बिना किसी बाध्यता , बिना किसी लालच या असमंजस से करते हैं . जिसके लिए वह बच्चों को कोई ताना उलाहना या बँधन मे नही रखते हैँ , उन्हीँ माँ बाप को  अपनी वृद्धावस्था मेँ अपने जीवन यापन की सुविधा के लिये आग्रह करना पडता है . कहीं-कहीं जद्दोजहद भी करना पड़ती है . क्या यह स्थिति कारुणिक और लज्जास्पद नहीँ मानी जानी चाहिये
तो खैर माँ ने उस चार कमरों वाले मकान के एक कमरे का मासिक किराया खुद के पास रखने की मंशा जाहिर की थी जो उन्हीं के द्वारा मुझे दिया गया था अपनी विरासत के रूप में . अचानक मेरी सोच मजबूती के साथ सकारात्मक रूप लेते हुए पैदा हुई कि यह कैसा सौदा है ? यह कैसा महान व्यवहार है ? जब एक पक्ष बल्कि यूं कहें कि एक महान पक्ष दूसरे क्षुद्रपक्ष को अपनी बहुमूल्य संपत्ति उसे  अपना वारीस मानते हुए यूँ ही दे दे . और फिर अपनी आजीविका के लिए उसी सम्पत्ति में से कुछ भाग की अपेक्षा करे ? ये कौन महान लोग हैँ ? यह किस मिट्टी से बने इंसान हैं ?  जो अपने सारे शौक सारी सुविधाएं अपना बहुमूल्य युवावस्था का समय बच्चों को समर्पित कर देते हैं ,  स्वयं की आवश्यकताओं और रुचि के ऊपर नियंत्रण करते हुए आर्थिक और शारीरिक तकलीफ उठाते हुए भी बच्चोँ को सक्षम और समर्थ बनाने में जुटे रहते हैं .   और जब अपना  दायित्व पूरा कर चुके होते हैं . तब आर्थिक विपन्नता एवं शारीरिक अक्षमता के बीच बच्चों से खुद के लिए अपनी न्युनतम जरूरत  और आवश्यक सुविधा प्राप्त करने के लिये करुण भाव से अपेक्षा दर्शाते हैं .  यह कौन सी मानव सभ्यता है ?  मैँ गहन सोच मेँ डूब गया .                                                            
इन्हीँ वैचारिक झंझावातोँ मे सोते जगते सुबह हुई . ललिता घर से चाय लेकर आ चुकी थी . दोपहर तक भाई साहब वापस जा चुके थे . माँ के स्वास्थ्य मेँकुछ सुधार था अगले तीन चार दिन तक परिवार के सारे लोग माँ से मिलने उनके स्वास्थ्य का हाल जानने आ चुके थे .  माँ को सात आठ दिन  अस्पताल में रखना पड़ा .  इस दौरान  माँ को संभालने के लिए मुख्यत; हम पति पत्नी लगे रहे . कभी कभार कुछ तकलीफ  कुछ अव्यवस्था भी बनी.  लेकिन यह बातें नगण्य थी . किसी महान महत्वपूर्ण निधि की सुरक्षा के लिए किसी अपने स्वजन की तकलीफों को दूर करने के प्रयासो मेँ कुछ तो असुविधा होना ही थी . लेकिन ये असुविधाएँ अपने उन अग्रजोँ द्वारा हमारे लिये उठाई गई तकलीफोँ के आगे रत्ती भर भी मायने नही रखती थी . 
मेरा ये मानना था कि वे भाग्यशाली होते है जिन्हे इस कर्ज का रंचमात्र भी चुकाने का अवसर मिल जाये . अंततः हम सात आठ दिन बाद माँ को घर पर ही ले आए . अस्पताल में रहने के दौरान मैं और माँ जब  अकेले होते तो वह कुछ अंतरंग बातें  मुझे बताती . हर तीसरे दिन अन्य बातों के साथ एक बात का जिक्र  माँ जरूर करती थी कि जो दो-तीन सोने के छोटे-मोटे आभूषण हैँ उनका बंटवारा किस प्रकार करना है . मैं मन ही मन मुस्कुराता इस छोटे से कार्य के बारे में माँ के गंभीरतापुर्ण निर्देश सुन कर समझ रहा था उसका अपने सभी पुत्रों  और स्वजनो के प्रति स्नेह भाव .                                                          
घर पर लाने के बाद भी माँ की तबीयत में ज्यादा सुधार नहीं हो रहा था .  कमजोरी वैसी ही बनी हुई थी . यद्यपि उसे तकलीफ नहीं थी , लेकिन वह भरपूर सो रही थी . सुबह लगभग 9:00 बजे तक सोती थी . राम जी  और  बजरंगबली की प्रार्थना दिन भर करना  हल्का फुल्का खाना लेना और  सो जाना . शाम को 4:00 बजे उठकर बिस्किट या चिप्स के साथ चाय पीना  ,कुछ देर बैठना फिर शाम का खाना खा कर  सो जाना . यही दिनचर्या थी . अस्पताल से घर पहुंचने के तीन दिन बाद ही उसने एक विशेष आग्रह मुझसे किया .
उसने मुझसे कहा कि बेटा तू अब रात को यहाँ हाल में मेरे सामने ही सोना तेरे कमरे मेँ मत जाना . ललिता भी चाहे तो यहीँ सो जाए .  शुरू दिन मैंने माँ की बात को उसकी भावुक इच्छा समझते हुए हल्के में लिया .12 बजे तक उसके पास हम बैठे रहे और फिर अपने कमरे में सोने चले गए . सुबह माँ ने मुझे टोका . उलाहना दिया यहाँ नहीं सोया तू ?  अब आज से  मैं हाल में ही सोऊंगा  .  मैने उसे आश्वस्त किया .और हाल मे ही सोना शुरु भी कर दिया .बहुत छोटी सी ही तो बात थी यह मेरे लिये लेकिन इसमेँ उसकी किसी अनहोनी के प्रति बहुत बडी आशंका और मेरे प्रति अगाध विश्वास था शायद . ऐसा पहले भी कभी कभी होता रहा है .  पिछले वर्षोँ मेँ  माँ का दो बार आँख का ऑपरेशन हो चुका था . तथा एक बार बाएं पैर की हड्डी टूटी थी.  दूसरी बार दाहिनी हाथ की हड्डी टूटी थी . हर बार आपरेशन करवाया गया था  .  मेरा सौभाग्य यह था कि इन दुर्घटनाओं के समय चुंकि वह मेरे पास रह रही थी .  इसलिये  यह सुअवसर मुझे ही मिला था तब भी माँ इसी प्रकार मुझे अपने नजदीक बने रहने की इच्छा प्रकट करती थी .और मैं इसी दौरान बिल्कुल सरलता से यह समझ चुका था कि , बुजुर्गों को खुश रखना और उन्हें संतुष्ट भी रखना ज्यादा कठिन नहीं होता है . थोड़ा सा पैसा , बिल्कुल थोड़ा सा , और थोड़ा सा ज्यादा समय , उनके पास बैठकर यानी उनकी प्रशंसा , उनके पूराने कार्यकाल का सकारात्मक बखान और उनकी छोटी-छोटी आवश्यकता को समय पर पूरी कर देना जो आर्थिक रूप से बहूत अल्प मुल्य वाली ही होती है . बस यही उनकी आवश्यकता होती है . और इसके बदले में आप पाते हैं उनकी दिली आशीषों  के भँडार . रात दिन उनके आशीर्वचन  उनके मुँह से अपनी प्रशंसा और अपने बच्चों के बीच रखा गया एक सकारात्मक अनुकरणीय पाठ  जिससे आपका भविष्य भी सुरक्षित होता है .                                            
तो जो व्यक्ति सिर्फ कुछ पैसा और कुछ समय श्रद्धा भक्ति के साथ देकर इस व्यवहार को नहीं निभा पाए  उनसे बड़ा बुद्धिहीन और कौन होगा . मैं ईश्वर को आभार प्रकट करता हूँ कि  उसने मुझे सद्बुद्धि दी और मैंने उसका उपयोग किया तथा एक भी ऐसा मौका नहीं छोड़ा जब मुझे इन धरती पर बसने वाले देवताओं की सेवा का , उन को प्रसन्न करने का  अवसर मिला हो या  मेरी मुद्रा का कुछ उपयोग उनकी सुख सुविधा मेँ खर्च हुआ हो .                                                    
इस दौरान परिवार के बाहर रहने वाले सारे सदस्य , दोनों तीनों बहनें  आई सारे भतीजे  भांजे मेरा बेटा रवि और घर के अन्य सभी सदस्य मिलने आते रहे . वापस जाते रहे . माँ  ने आग्रह करके मामी जी को और छोटी बहू को वहीं पर रोक लिया और परिवार के दूसरे सारे सदस्यों को भी समय समय पर रुकने का कहती रही .                                        
एक दिन दोपहर मेँ ,यह शायद अस्पताल से घर आने का आठवाँ दिन रहा होगा माँ ने सभी से यह कहा कि आज सब लोग पूरे 25 के 25 यहीँ हाल में मेरे आस-पास सोना , नही तो पछताओगे . घर के लोगों ने माँ की बात को हंसी मजाक में लिया . शाम तक  घरवाले सभी जा चुके थे मामी जी और छोटी बहू पुष्पा वहीं पर थे .                                                                             
चूंकि हाल में माँ के साथ सोने के लिए पुष्पा छोटी बहू और  मामी जी  दोनों थे अतः मैं अपने बेडरूम में ही सोया था . माँ की सोने की अवधी रोजाना बढ़ती जा रही थी दूसरे दिन सुबह 8:00 बजे हम हाल में बैठकर चाय पी रहे थे . मुझे  अस्पताल जाना था माँ के अस्पताल के खर्चे के बिल बनवाने के  लिये ताकि माँ के इलाज पर खर्च हुए पैसों का अपने विभाग से पुनर्भुगतान ले सकूँ . माँ यद्यपि सो रही थी लेकिन मेरे अस्पताल के लिये निकलने की आहट सुन कर   माँ ने मुझे टोका  ,,अभी मत जा मैँ नहा लूँ उसके बाद जाना ,, . मैं वापस बैठ गया माँ के पलंग के पास सोफे पर आधे घंटे बैठा रहा . माँ फिर गहरी नींद में सो चुकी  थी . मुझे लगा अभी और सोएगी . नहाने में देर लगेगी तब तक मैँ अस्पताल  हो आता हूँ मैंने अपनी बेटी को साथ में लिया और अस्पताल के लिए निकल गया . अस्पताल से बिल बनवा कर वापस घर आ रहा था 9:00 बजने वाली थी . एक ऑफिस का काम याद आया , सोचा निपटा लिया जाए आधे घंटे में . लेकिन बेटी निक्की साथ में थी इसलिए फिर विचार किया कि पहले घर जाकर निक्की को छोड दूँ फिर उस काम के लिए जाऊंगा . यह विचार शायद ईश्वर प्रदत्त एक उपहार था जिसने मुझे भविष्य में होने वाले एक बहूत गम्भीर अफसोस से बचाया .
हम 9:10 पर घर पहूँच रहे थे . मैंने निक्की को घर के बाहर ही उतार कर अपने काम के लिए वापस जाने की सोंची . निक्की उतरी घर की ओर बढ़ी और मैंने गाड़ी की कीक लगाई तभी घर के अंदर से ललिता की जोरदार चीख सुनाई दी माँजी माँजी को क्या हो गया  . साथ ही बेटी निक्की की तेज आवाज गूँजी पापा रुक जाना ….  और मैंने फुर्ती से गाडी साइड स्टैंड पर टिकाई और अंदर की ओर भागा . मैंने देखा ललिता और मामी जी  के हाथों में माँ का मृत होता शरीर झूल रहा था मैने तत्काल माँ को अपने  दोनों बाहों में लिया गालों पर हाथ लगाया शरीर की उष्मा अभी महसूस की जा सकती थी  किंतु आँखें बंद हो चुकी थी स्पष्ट लग रहा था कि कुछ ही सेकंड पहले  माँ ने आखिरी सांस ली थी शरीर की गरमाहट भी अभी बाकी थी मैं चीख उठा . चिल्ला पड़ा बच्चे और महिलाएँ रोने लगी थी  . मैं 2 मिनट तक तो हतप्रभ था और अचानक रोने लगा .
लेकिन अब हमारा विलाप हमारी चित्कारेँ सुनने वाला कोई नहीं था . मामी जी ने रोते हुए कहा ,“माँ के शरीर को अब बिस्तर पर नहीं लिटाना है बल्कि जमीन पर लिटाना . उस समय मैंने देखा माँ के शरीर पर  सिर्फ एक पेटीकोट था जिसका नाडा भी नहीं बाँधा गया था और ऊपर की तरफ एक छोटा सा टावेल कंधे पर पडा हुआ था मैंने माँ के गालोँ को आँखों को और पीठ को छूकर देखा सब कुछ अभी भी गर्म था . चेहरा बहुत शांत और चमकदार लग रहा था गालोँ की त्वचा स्निग्ध थी अभी अभी नहाई थी इसलिए , बल्कि ललिता से आग्रह करके खूब साबुन रगड़ रगड कर नहाई थी . पूरे शरीर से एक कोमल  भीनी भीनी पवित्र सुगंध आ रही थी .
ललिता ने बताया कि अभी 15–20 मिनट पहले ही माँ की नींद पूरी हुई . नहाने का बोला . हमने समझाया की तबीयत खराब है आज मत नहाओ . लेकिन माँ कभी भी किसी भी दिन  बिना नहाए नहीं रहती थी . आज भी उसकी जिद थी कि नहाना तो उसे है . मामी जी और ललिता उसे उठाकर बाथरूम में ले चले .माँ  बजरंगबली के फोटो की ओर देखते हुए खुद हंसते हुए बोली आलकी  की पालकी जय कन्हैया लाल की . फिर  बाथरूम में माँ ने ललिता से आग्रह किया कि मेरे सिर मेँ साबुन लगाकर रगड़ रगड़ कर मुझे नहला दे  और बदन में भी साबुन लगा दे मामी जी और ललिता दोनों ने मिलकर बड़े प्यार से लगन से  माँ को नहलाया भजन गाते हुए भगवान का नाम लेते हुए बदन पोंछा और  पेटिकोट पहनाया ( पहनाया क्या उसे बदन पर डाला )और उसे उठाकर वापस आगे बैठक में लाये इस दौरान पुरे समय माँ ने पत्नी ललिता को दुनिया भर के आशीर्वाद दे डाले आशिषेँ दे डाली बाथरूम से आगे हाल में आते हुए बीच मेँ हमारा जो छोटा सा मंदिर है उसमें लगे हनुमान जी की फोटो को देखकर लंगुरिया हनुमान म्हारी लाज रखना ऐसा कुछ बोला .
और ऐसी स्थिति में केवल 5 मिनट पहले नहलाने ,हनुमान जी के फोटो देखने के बाद बिना बंधे पेटीकोट से , शरीर पर बिना किसी बंधन के माँ को जब  पलंग पर बिठाना चाहा तभी एकदम माँ का शरीर एक तरफ तिरछा होकर झुकने लगा था ,आँखें बंद हो गई थी तभी पत्नी  चिल्लाई माँजी माँजी और उसी क्षण घर में घुसते ही निक्की चिल्लाई पापा पापा और मैंने दौड़ कर अपनी मृत होती माँ को अपने दोनों हाथों में थाम लिया .उस महान आत्मा के महाप्रयाण के यह अंतिम क्षण इतने सात्विक इतने शुद्ध और पवित्र होंगे मैँ हैरत मेँ था आश्चर्यचकित था दुखी था और अंततः निराश  भी था कि मैं उन आखिरी क्षणों का प्रत्यक्ष भागीदार ना बन सका निश्चित रूप से ही मेरी कुछ त्रुटि कुछ अपराध रहा होगा . उसके प्रति श्रद्धा भक्ति में कुछ कमी रही होगी ऐसा मैं मानता हूँ   .                                                          हमारे द्वारा फर्श पर लिटाया गया माँ का मृत शरीर जो साफ स्वच्छ पवित्र श्वेत धवल होकर  चमक रहा था . मेरे मन में तत्काल दो भाव आ चुके थे पहला मेरा सौभाग्य कि मैं समय पर घर आ गया और मृत होती माँ को अपने हाथ में लेने का अवसर मिला . उसकी मृत होती देह की उष्मा ऊर्जा और सजीवता को महसूस किया यदि मैं अस्पताल से सीधे अपने बैंक के काम से चला जाता  ,तो घरवाले मुझे खोजते रहते और मैं आधे – एक घंटे बाद ही घर आता तब शायद जो अफसोस होता वह जीवन भर नहीँ भुला पाता .इस बात का तो मुझे सुकून मिला . 
लेकिन यह सोच तो जीवित था कि मुझे वह सौभाग्य नहीं मिला कि माँ मेरी बाहों में मुझ से नजर मिलाते हुए कुछ कहते हुए या चुप भी अपनी अंतिम यात्रा पर प्रस्थान करती . यह सौभाग्य मिला मेरी पत्नी ललिता और मामी जी को जिनके हाथों में माँ ने प्राण त्यागे.  हां मुझे उनके प्राण जाते शरीर की उष्मा मिली वह ऊर्जा जो मैंने महसूस की मैँ  इतने में ही धन्य हो गया . मैंने अपने जीवन मेँ ऐसी शुद्ध स्वच्छ पावन पवित्र मृत्यु किसी की भी नहीं देखी  .  किसी मृत शरीर की ऐसी सुवासित सुगंधीत अनुभुति नही हुई . मैने अपने आपको एक स्वर्गीय अनुभूति से सरोबार पाया . घर के सभी लोगों का रुदन जारी था इसी बीच स्कूल से गौरव को भी  बुला लिया गया था . पड़ोसी पाटिल साहब ने  पैतृक घर खबर कर दी थी जहाँ से भाई साहब गाड़ी लेकर चल चुके थे बड़े बेटे रवि को इंदौर फोन लगा दिया था पाटिल साहब ने ही  मेरे अन्य रिश्तेदारों को फोन लगा दिया था अब हमने माँ को कुछ कपड़े पहना कर व्यवस्थित किया अंतिम संस्कार माँकी इच्छा अनुसार गृहग्राम में ही किया जाना था.
मुझे याद आया माँ ने पिछले 10 वर्षों में कम से कम 3 या 4 बार इस बात की घोषणा की थी कि बेटा मैं मरूंगा तो तेरे घर पर तेरे सामने , पर मेरे सब कार्यक्रम मेरे पैतृक घर पर ही करना जहाँ मेँ अपने पति के साथ पहली बार आई थी जो मेरे पति का घर था और मेरा भी .माँ का यह संकल्प था जो उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति के उनके चाहे अनुसार वैसा ही हुआ . भाई साहब आ चुके थे हमने माँ को गाड़ी में सवार किया सभी घर के लोग बैठे और चल पड़े  . माँ के महाप्रयाण की अंतिम यात्रा मेरे घर से प्रारंभ हो चुकी थी जो माँ के घर याने हमारे ग्रह ग्राम में जाकर चम्बल किनारे अपनी पुर्णता को प्राप्त होना थी.

महेश शर्मा
लगभग ४५ लघुकथाएं ६५ कहानियां २०० से अधिक गीत २०० के लगभग गज़लें कवितायेँ लगभग ५० एवं अन्य विधाओं में भी..
प्रकाशन — दो कहानी संग्रह १- हरिद्वार के हरी -२ – आखिर कब तक
एक गीत संग्रह ,, मैं गीत किसी बंजारे का ,,
दो उपन्यास  १- एक सफ़र घर आँगन से कोठे तक   २—अँधेरे से उजाले की और
इनके अलावा विभिन्न पत्रिकाओं जैसे हंस , साहित्य अमृत , नया ज्ञानोदय , परिकथा ,  परिंदे  वीणा , ककसाड,  कथाबिम्ब ,  सोच विचार , मुक्तांचल , मधुरांचल , नूतन कहानियां , इन्द्रप्रस्थ भारती और एनी कई पत्रिकाओं में  एक सौ पचास से अधिक रचनाएं प्रकाशित
एक कहानी ,, गरम रोटी का श्री राम सभागार दिल्ली में रूबरू नाट्य संस्था द्वारा मंचन  मंचन
सम्मान — म प्र . संस्कृति विभाग से साहित्य पुरस्कार , बनारस से सोच्विछार पत्रिका द्वारा ग्राम्य कहानी पुरस्कार , लघुकथा के लिए शब्द निष्ठा पुरस्कार ,श्री गोविन्द हिन्दी सेवा समिती द्वाराहिंदी भाषा रत्न पुरस्कार एवं एनी कई पुरस्कार
सम्प्रति – सेवा निवृत बेंक अधिकारी , रोटरी क्लब अध्यक्ष रहते हुए सामाजिक योगदान , मंचीय काव्य पाठ  एनी सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से सेवा कार्य
संपर्क — धार मध्यप्रदेश – मो न ९३४०१९८९७६ ऐ मेल –mahesh [email protected]
वर्तमान निवास – अलीगंज बी सेक्टर बसंत पार्क लखनऊ पिन 226024
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