हम दो बहनों में केवल एक वर्ष का अंतर था. दीदी गोरी-चिट्टी … सुंदरता की मूरत … और मैं श्याम सलोनी … शायद इसलिए मेरा नाम ‘सलोनी’ रख दिया गया था और दीदी थीं ‘सिया’. उन्हें कभी गुस्सा नहीं आता था और मैं बात बात पर लड़ पड़ती थी. वे शालीनता की मूरत सी बनी रहती थीं. इसलिए सब लोग उनकी तारीफ़ करते थे, उनके शांत स्वभाव को सराहते थे और मैं मन ही मन उनसे जल-भुन जाती थी.
कॉलेज के दिनों से मैंने अपने कपड़े नए फ़ैशन के अनुसार अपनी पसंद से खरीदने शुरू किये. मैं हमेशा दीदी की अलमारी की चीज़ें इस्तेमाल करने में कोई कोताही नहीं बरतती थी पर मज़ाल उनकी कि वो मेरी कोई चीज़ ले लें. माँ हमेशा मुझे समझाती रहती थीं कि इस उम्र में लड़कियों को अपने व्यवहार पर नियंत्रण रखना चाहिए, ससुराल में कैसे निबाह होगा?
” मुझे तो ससुराल जाना ही नहीं है कभी”.…दलील दे कर अपना पल्ला झाड़ लेती थी.
पर यह क्या? कॉलेज के दिनों में ही दीदी की शादी के लिए रिश्ता आ गया. कॉलेज के ही एक लेक्चरार प्रो. वर्मा के बेटे मुक्तक के लिए, जो फ़ौज में सेना-अधिकारी था. अच्छा घर और वर देख कर पंद्रह दिनों में ही दीदी का ब्याह मुक्तक से हो गया था, फ़ौज़ में छुट्टी बड़ी मुश्किल से मिलती है और उन दिनों वह छुट्टी पर आया हुआ था.
शादी में दीदी को ससुराल से मिले गहने और कपड़े देख कर न जाने मेरे मन में न जाने कैसे कैसे भाव उठ रहे थे. अगर मैं शादी कर लूँ तो.… मुझे भी ऐसे ही सजने-संवारने को इतना साज-सामान मिलेगा? मेरी रातों की नींद उड़ चुकी थी और मैं मुक्तक जीजू जैसे सजीले नौजवान को पाने के सपने देखने लगी. अब पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता था. जब भी मन होता दीदी की ससुराल पहुँच जाती और वहाँ उन दोनों के प्यार के बीच कबाब में हड्डी बन जाती. जीजू ने तो मेरा नाम ‘के.में.एच’ ही रख दिया था, पर मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था. दीदी के सारे कपड़े-गहने पहन कर देखती और अपने शौक पूरे करती. एक ही शहर में होने के कारण कॉलेज की बजाय मुझे उनके घर जाना ज्यादा अच्छा लगता था. दीदी भी मुझ पर अपना सारा प्यार उँड़ेलती और मैं उनकी जिस चीज़ पर हाथ रखती मुझे बड़े प्यार से दे दिया करतीं थीं.
घर आने पर माँ की बहुत डाँट पड़ती ,वे पिता से शिकायत भी करतीं, पर मुझे क्या होना था? मैं जो कर रही थी उसमें ही मुझे बड़ा संतोष मिल रहा था क्योंकि इससे मेरी आत्मिक क्षुधा तो शांत होती ही, कुछ समय के लिये मैं अपनी ईर्ष्या प्रवृत्ति को थपकी दे कर सुला पाती थी. कुछ ही दिनों में जीजू की छुट्टियाँ समाप्त हो गयीं और दीदी उनके साथ चली गयीं.
जानते हुए भी कि ऐसा संभव नहीं है, अपनी ईर्ष्या के वश होकर एक दिन मैं माँ से ज़िद कर बैठी कि मुझे भी वैसे सारे कपड़े-गहने चाहिए जैसे दीदी को ससुराल से मिले थे.पिता की सारी जमा-पूँजी दीदी की शादी में खर्च हो चुकी थी. मेरी शादी के लिए उनके पास बस उनका प्रोविडेंड फण्ड का पैसा ही जमा था. इस फण्ड से वो मेरी शादी तो करवा सकते थे पर दीदी के ससुराल से मिली चीज़ों जैसी हर चीज़ नहीं खरीद सकते थे, खासतौर पर मँहगे कपड़े और गहने. पर मुझे तो वही सब चाहिए था. फिर भी माँ ने समझ-बुझा कर मुझे शांत किया. अब मैं भी सपने देखने लगी कि सफ़ेद घोड़े पर सवार हो कर एक खूबसूरत सा नौजवान मेरी दुनिया में भी आएगा, फिर मैं भी अपनी हसरतें पूरी कर सकूँगी. पर ऐसा नहीं हो सका. एक जगह से मेरे लिए शादी का रिश्ता आया, उन लोगों ने मेरी जन्म-पत्री माँगी. हमारे घर पर किसी को भी इन बातों पर विश्वास नहीं था इसलिए हम दोनों बहनों की जन्मपत्री बनी ही नहीं थी. दीदी की शादी में किसी ने भी लड़के-लड़की की कुंडली नहीं मिलाई थी और शादी हो गयी थी. मेरी माँ ने मेरे जन्म की तारीख़, समय और शहर का नाम लड़के के घरवालों को दे दिया. उन लोगों ने स्वयं ही मेरी जन्मपत्री बनवा ली और यह कह कर रिश्ता वापस कर लिया कि मैं मंगली थी. जिससे भी मेरा विवाह होगा वह वर जल्द ही मृत्यु को प्राप्त होगा.
ऐसा सुन कर मेरे तो होश ही उड़ गए, माँ और पिताजी ने मुझे बहुत समझाया और हमने मंदिर के पंडित जी से विचार विमर्श किया. पंडित जी ने बताया कि मेरी जन्मपत्री में ग्रहों की दशा देखते हुए अगर मेरा विवाह छत्तीस वर्ष की अवस्था के बाद किया जाये तो अशुभ नहीं होगा. हालाँकि मेरे माता-पिता इन बातों पर विश्वास नहीं करते थे पर फिर भी उन्होंने पंडित जी की बातों गंभीरता से लिया और मुझे समझाया कि मैं अपना ध्यान अपनी शादी से हटा कर पढ़ाई में दूँ. जब सही समय आएगा तो विवाह भी हो जायेगा. मैं अपने मन के सारे सपने मन में ही संजो कर फिर से नियमित रूप से कॉलेज जाने लगी. मेरे अरमान पूरे होने से पहले ही धूल धूसरित हो चुके थे. अमंगल होने की किरच तो मन में चुभी ही हुई थी, मैंने माँ से वादा लिया कि जब भी मेरी शादी होगी, मैं दीदी जैसे गहने जरूर बनवाउँगी.
समय बीतता गया. मैंने पढ़ाई पूरी की और नौकरी भी करने लगी, इसी बीच एक एक्सीडेंट में पिता चल बसे. अब घर की सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर थी. पिता की मृत्यु के बाद माँ को ऐसा आघात लगा कि वह हृदय-रोगी हो गयीं. मैंने भी अब निर्णय ले लिया था कि अपना सारा ध्यान माँ की देख-भाल में ही लगाऊँगी.
इसी बीच दीदी की ससुराल से सन्देश आया कि उनके देवर की शादी होने को थी. मेरे पास शादी में पहनने लायक न तो कीमती कपड़े थे न गहने. अपनी कमाई से घर चलाने से अब मुझे पैसों की क़ीमत समझ आ गयी थी. पिता का प्रोविडेंड फ़ंड का पैसा माँ ने अब तक संभाल कर रखा था, मैंने माँ को सलाह दी कि क्यों न मैं उन पैसों से अपने लिए क़ीमती कपड़े और गहने खरीद लूँ , दीदी के देवर की शादी में पहनने के लिए. माँ मेरी हसरतों को अच्छी तरह समझतीं थीं. उन्होंने हामी भर दी.
उन पैसों से हम ज्यादा खरीदारी नहीं कर पाये,शादी में क़ीमती उपहार भी देने थे .सोने की कीमतें आसमान को छू रही थीं. शोरूम में कुछ गहने ऐसे भी थे जो चाँदी के थे और उन पर सोने का पानी चढ़ा हुआ था. देखने में हू-ब-हू सोने जैसे ही दिख रहे थे। मैंने अपनी ईर्ष्याजनित हसरतों को पूरा करने के लिए उन्हीं ज़ेवरों को ही ख़रीद लिया. दीदी के देवर की शादी निपटने के बाद एक दिन के लिए मैं उन्हीं के यहाँ रुक गयी. उनके घर पर नयी दुल्हन को देख कर मेरी उमंगें अंतर्मन में फिर से कोलाहल करने लगीं. ईर्ष्या की अग्नि ने नई दुल्हन को भी अपनी चपेट में लेकर मुझे उकसाया. मुझे लगा संसार में सभी खुश हैं मेरे सिवाय …मेरे अरमान …. पूरे होने से पहले ही मंगलीपन की सूनी गुफ़ा की किसी क़ब्र में दफ़न हो गए थे. समय पंख लगा कर सरपट दौड़ रहा था और मुझे असमय बूढ़ा किये जा रहा था. फिर भी मुझे प्रतीक्षा तो करनी ही थी अपने छत्तीसवें जन्मदिन की… तब शायद मुझे मेरे सपनों का राजकुमार मिल जाये. बस सोचते सोचते मैं दीदी के घर से वापस अपने घर आ गयी.
दीदी को ईश्वर ने सारे सुख दिए थे बस एक दुःख के सिवाय. विवाह के पंद्रह वर्ष बीत जाने के उनके कोई संतान पैदा नहीं हुई थी. कहते हैं, ईश्वर अगर सारे सुख दे दे तो फिर हम उसे याद ही क्यों करें? इधर दीदी अपने दुःख से दुःखी थीं, उधर मैं अपने दुःख से. जैसे जैसे समय बीतता गया हम दोनों ने अपने अपने दुखों से समझौता कर लिया था.पर दीदी के घर-बार की संपन्नता को देख कर अब भी मेरे मन में हूक सी उठती थी.
दुखों से समझौता करना उतना आसान नहीं होता. यह शरीर में कई बीमारियों का कारण बन जाता है.दीदी के साथ भी शायद ऐसा ही हुआ होगा. अचानक ही ज्ञात हुआ कि वे स्तन कैंसर से पीड़ित हो गयी थीं. उनके इलाज़ की प्रक्रिया चली पर ‘वे ज्यादा से ज्यादा छह महीने तक ही जी पायेंगी’ ऐसा डॉक्टरों ने उस समय बताया. अब हम सब के मन में दीदी की बीमारी और मृत्यु के सम्बन्ध में पीड़ा और संकट के बादल गहराने लगे. माँ चाहती थीं कि अपने अंतिम दिनों में दीदी हमारे पास ही रहें. उनके ससुरालवालों को भी इसमें कोई ऐतराज़ नहीं था. उसके बाद दीदी हमारे घर आ गयी थीं.
ईश्वर की कृपा से दीदी की आयु ६ महीने से बढ़ कर छह वर्ष और ज्यादा हो गयी क्योंकि उनका पहला ऑपरेशन सफल हुआ. पर कैंसर ने उनका दामन छोड़ा नहीं था. नियमित रूप से इलाज़ होने पर भी दोबारा कैंसर ने अपना सिर उठा लिया था. उस बीमारी से लड़ते लड़ते दीदी हार गयी थीं और स्वयं ही ईश्वर से प्रार्थना करते-करते अपनी मृत्यु का आवाहन करने लगीं थीं. इस नश्वर संसार से ऊब कर उनका मन निराशा के सागर में डूब चुका था. अपने कीमती कपड़ों और गहनों में भी उनकी कोई रूचि बाकी नहीं रह गयी थी. उन्होंने अपने सारी सुन्दर साड़ियाँ मुझे दे दी. ज़ेवर नहीं दे पाईं थीं क्योंकि वे ससुराल की ख़ानदानी तिजोरी में रखे थे.
अपने अंतिम दिनों में दीदी अस्पताल में थीं वहीं से उनके पार्थिव शरीर को उनकी ससुराल लाया गया. मुझे ज़िम्मेदारी दी गयी थी कि उनकी अंतिम विदाई पर उनका साज-सिंगार करूँ. मैंने उन्हें दुल्हन की तरह सजाया.वही लाल साड़ी और चुनरी पहनायी जो उन्होंने अपनी मुँह-दिखाई की रस्म के दिन अपनी ससुराल में पहनी थी . घर से चलते समय मैंने अपने सारे ज़ेवर पर्स में रख लिए थे. दीदी को दुल्हन की तरह सजा कर वही गहने उन्हें पहना दिए. लगता ही नहीं था कि वे अब इस दुनिया में नहीं रहीं. उनका चेहरा आत्मतृप्ति से दमक रहा था. उनकी सुंदरता में और भी निखार आ गया था. लग रहा था कि अभी उठ बैठेंगी और पूछेंगी, “अरे! सलोनी, तुमने ये क्या किया? अपने ज़ेवर मुझे पहना दिए.… अब तुम अपनी शादी में क्या पहनोगी?”
“उहूँ! मेरी शादी… विधाता मेरे भाग्य में लिखना ही भूल गए. किसको दोष दूँ?” अनायास ही मेरे मुँह से निकला, जैसे मैं दीदी से बतिया रही थी और दीदी हमेशा की तरह ख़ामोशी से मेरी बात सुन रही थीं. तभी जीजू ने कमरे में प्रवेश किया. उनकी आँखें आँसुओं से भीगी हुई थीं. दीदी को अंतिम यात्रा में ले जाने का समय आ गया था. जैसे ही उन्हें कमरे से बाहर ले जाया गया मैं फूट-फूट कर रो पड़ी.
समय बीतता गया. एक दिन जीजू की माता जी हमारे घर आयीं. माँ उन्हें देख कर दीदी की याद में रो पड़ीं. उन्होंने माँ को ढाढ़स बँधाते हुए अपने पल्लू से उनके आँसू पोंछे, फिर उनसे जीजू के लिए मेरा हाथ माँगा. माँ स्तब्ध रह गयीं. इससे पहले कि वह कुछ कह पातीं मैं ही बोल पड़ी, “मेरी शादी जीजू के साथ? पर मैं तो मंगली हूँ.” अपने मंगली होने के चक्कर में मैं यह भी भूल चुकी थी कि अब मेरी उम्र छत्तीस की आँकड़ा पार कर चुकी थी.
“हम लोग इन बातों को नहीं मानते.” जब उन्होंने ऐसा कहा तो मेरे मुँह से अचानक निकला, “पर मैं अपनी माँ को अकेला छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगी.” हालाँकि मेरे मन में जीजू को पाने की लालसा जाग चुकी थी.
“सभी लड़कियों को अपना घर छोड़ कर ससुराल जाना ही पड़ता है” उनके ऐसा कहने पर माँ ने भी हामी भर दी, तब तक वह शायद मन ही मन मेरी उम्र का हिसाब लगा चुकी थीं.
जीजू की माता जी मेरी हर शर्त मानने को तैयार थीं. पर मेरी माँ शादी के बाद मेरे साथ रहने की बात को लेकर को राज़ी न हुई.
जीजू की माता जी पूरी तैयारी से आयी थीं. उन्होंने अपने पर्स में से दीदी के सारे सोने के ज़ेवर निकाले और मेरी गोद में रख कर मेरी गोद भर दी. दीदी के ज़ेवरों की सौगात पा कर मेरे आँसू छलक पड़े.सारी ईर्ष्या आँसुओं की अविरल धारा में बह गयी.
आज वही ससुराल है, वही जीजू हैं जिन्हें मैं मन से अब भी जीजू ही पुकारती हूँ. अगर कमी है तो दीदी की जो मेरे मन की ईर्ष्या अपने साथ ले गईं और अपना सब कुछ मुझे सौंप गईं.