लेखिका : आर. चूड़ामणी
अपने आँखों के ऊपर बांए हाथ से आड बनाते हुए उसने पूछा ‘‘कौन है?’’ जैसे ही वे बोली वैसे ही ‘‘तुम अन्दर आ जाओ मां। कोई भी आएं तुम्हें क्या करना! आने वाले के बारे में पहले आकर उसके बारे में मालूम आपको करना है क्या?’’ माँ को डांट कर नडेशन ‘‘आईये बालू ’’ कहकर मेरा स्वागत किया।
‘‘बालू है क्या! कौन सा बालू ? कोई नया नाम लग रहा है? तुम्हारे ऑफिस का दोस्त है क्या?’’ ‘‘हाँ, आपको बताना जरूरी है क्या? उनका पूरा नाम जन्मपत्री बना कर दूं? अन्दर आओ ना अम्मा।’’ मुझे बड़ी परेशानी हुई। ‘‘आपकी अम्मा है क्या नडेशन?’’
‘‘हाँ ये है तो बहुत अच्छी पर उनका बकबक करना सहन नहीं होता आप यहां आकर बैठियेगा।’’
उस बात पर ध्यान न देकर मैं बोला ‘‘नमस्कार मामी। मैं मिस्टर नडेशन के ऑफिस का दोस्त हूं। हमारी पहचान थोड़े दिन पहले ही हुई। मैं नया बदली होकर यहां आया हूं। आज यहां आकर थोड़ी देर बात कर, खाना खाकर हम दोनेां ने दोपहर में एक अंग्रेजी पिक्चर देखने का सोचा है।’’
‘‘ऐसा है क्या बहुत प्रसन्नता हुई। बच्चों की जैसे स्कूल की शनिवार की छुट्टी रहती है वैसे ही आजकल ऑफिस की भी होने लगी है ना ! इसलिये दोपहर का शॉ जा सकते हो’’ हंसते हुए वह बोली। उनके हंसी में एक मित्रता का भाव था। सुनने वाले को भी हंसने के लिये प्रेरित करें ऐसी। नडेशन, बोला ‘‘अभी आप चुप नहीं रहोगी अम्मा?’’
“आप इसे गलत न समझना बालू’’ ये कहने की उन्हें जरूरत ही नहीं थी।
‘‘इसमें गलत क्या है ? आप बिल्कुल सही कह रही हो’’ मैं बोला।
उसकी अम्मा की उम्र साठ साल के लगभग होगी। गेहुंआ रंग। दूबला बदन पर चेहरे पर रौनक थी। आँखें जरूर भौंहे के अन्दर गड्ढे में धंसी हुई एक रेखा जैसे दिखी। बाल पूरे सफेद थे। इस उम्र में इतने पूरे सफेद होने की जरूरत तो नहीं थी। सिर की सफेदी जैसे माथे में आ गई हो वैसे माथे पर भभूति लगा रखी थी। हंसते समय पूरे दांत दिखे जो सही सलामत थे ऐसा लग रहा था सफेद बालों में न जचने वाला यौवन।
‘‘तुम्हारी शादी हो गई क्या?’’ दोनों आँखों को भिच कर मुझे देखते हुए पूछा।
‘‘अम्मा’’ कहकर नडेशन ने डांटा।
‘‘अभी नहीं’’ मैं बोला।
‘‘मैंने सोचा । तुम्हारे साथ एक लड़की नहीं आई ना? शादी हुई होती तो नडेशन तुम दोनेां को जोड़े से बुलाता। क्योंकि इसकी शादी हो गई है ना इसीलिये बोली। तुम्हारी शादी हो गई होती तो तुम दोनेां दोस्त पिक्चर जाने के बदले चार जने अर्थात् दोनों जोड़े से जाते की नहीं?’’
नडेशन मजबूती से मां को पकड़ कर ‘‘अन्दर जाओ माँ ।’’
‘‘छोड दे मुझे …. क्यों बालू तुम कितने साल के हो? तुम्हारे भाई बहन कितने है? माँ-बाप है क्या?’’
इस बार नडेशन मुंह से कुछ न बोल कर अम्मा को खींचकर अन्दर कमरे में धकेलते हुये ले गया व बोला ‘‘तेरे वजह से मैं शर्मिदा हूं।’’ कह कर घूरने व डांटते लगा।
‘‘मैंने ऐसा क्या किया ? जो तेरा अपमान हो गया?’’ वह लड़का अच्छा है ऐसा लगता है। थोड़ी देर उस लड़के से बात नहीं कर सकती क्या?’’ मुझे उसकी अम्मा की आवाज सुनाई दी।
मैंने लेकर आए ब्रिटेनियां के बिस्कुट के पैकेट को वहां जो भेज थी उस पर रख दिया। उस छोटे से बैठक के कमरे में मैं इधर-उधर निगाहें दौड़ाने लगा। मेज-कुर्सी, एक कैलेण्डर, एक काँच की अलमारी में पुस्तकें दिखी। उसके पास जाकर उनके नामों को पढ़ा। तमिल व अंग्रेजी में इतिहास तत्व, कविता अनूदित कहानियां आदि की किताबें रखी थी। ये उनके पिताजी के समय की होगी। क्योंकि उसके पिताजी स्कूल अध्यापक से सेवा निवृत्त हुए थे ऐसा नडेशन ने मुझे बताया था। वे अच्छे पढ़ने वाले होगे।
इतने में नडेशन कमरे में आया व बोला ‘‘सॉरी बालू ’’
‘‘किस लिए सॉरी ? लिजियेगा ये बिस्कुट आपके बच्चे के लिए लेकर आया।’’
‘‘ये सब क्यों ?’’
‘‘रहने दो। बच्चों के घर में खाली हाथ थोड़े ना आते है।’’
घर के अन्दर के भाग से एक युवती आई। इसके पीछे उसका गुड्डा उसी का मॉडल हो जैसे चार पांच साल की बच्ची आई।’’
‘‘मेरी पत्नी सरोजा है। सरो ये मेरे नये कलिग है मिस्टर नडेशन’’ दोनों का परिचय कराया।
‘‘वनकम’’ प्रणाम मैं बोला।
‘‘वनकम’’ बैठियेगा। काफी लेकर आ रही हूं।’’
‘‘नहीं काफी नहीं चाहिए। अभी थोड़ी देर में हमें खाना ही खाना है। ग्यारह बजे तो पिक्चर के लिये रवाना होना है ना ?’’
‘‘बेबी ये अंकल तुम्हारे लिये बिस्कुट लाये है देखा क्या?’’ आप ही दीजियेगा बालू |’’
मैंने किया।
‘‘कोई कुछ दें तो क्या कहना चाहिये ?’’
‘‘थैक्यू’’ वह मां के पल्ले में छुपकर बोली।
‘‘थैक्यू फिर ?’’
‘‘थैक्यू अंकल’’
‘‘हां गुड गर्ल !’’
‘‘अच्छा फिर में रसोई में जाकर खाना तैयार करती हूं।’’ कहकर सरोजा के अन्दर जाते ही साथ में उसकी मॉडल भी बिस्कुट को गले में दाबे अन्दर चली गई। 
‘‘मेरी अम्मा ने आपको बहुत बोर किया। उसको मिस अण्डरस्टैड मत कीजियेगा बालू ।’’
मैं बैठे हुए ही बोला ‘‘इसमें मिस अण्डरस्टैड करने का क्या है? वह अचानक फट पड़ा।
‘‘बड़े लोगों को कुछ बड़प्पन तो होना चाहिये ? पिताजी का पेन्शन के 300 रूपये हर महिना आता है। उसे रखकर मैं जावे बड़ा मकान बना लूंगा, ऐसी अम्मा की सोच है। पेन्शन न भी हो तो मैं उन्हें सड़क पर तो छोडूंगा नहीं मैं ऐसा भी आदमी नहीं। यहां उन्हें क्या कमी है? बालू, मैं यहां अम्मा को भूखा नहीं रखता। खाना देता हूं। साड़ी लेकर देता हूं। कोई बुखार, सिरदर्द हुआ तो डाक्टर के पास लेकर जाता हूं। सरोजा अम्मा को अच्छी तरह संभालती है। यदि वह उसे न सम्भाले तो मैं सरों का छोड़ दूंगा क्या? इससे ज्यादा उसे और क्या चाहिये? फिर भी उन्हें मुझसे बहुत शिकायते हैं…. दोनों समय वक्त पर खाना खाकर एक कोने में बैठे नहीं रहना चाहिए? नहीं। वो नहीं। कोई भी आए कोई भी बात करे तो उन्हें आगे आकर अपना नाक जरूर घुसेडना है। चबड़ चबड़ कर पूरे समय बात करते रहना है। अपनी बातों से चार जनों के सामने मरेी इज्जत उतारती रहती है। छीं!’’
नडेशन के बोलने के बाद मैं क्या करूं न समझ मैं अपने शरीर को इधर-उधर हिलाता रहा। ये सब बातें मुझे क्यों बता रहे है मेरी समझ में नहीं आया। ‘‘कुछ नहीं छोड़ो नडेशन। कुछ भी हो वे बड़े बुजुर्ग हैं …….. हमें ही इनसे समझौत करके चलना चाहिये।’’ 
‘‘बड़े है तो थोड़ा बडप्पन भी हो तो हो ! बालू ।’’
मैंने बात को बदलकर दूसरे विषय पर बात शुरू कर दी। दुबारा सरोजा आकर बोली ‘‘खाना तैयार है।’’ उसके आने तक हम सामान्य विषय पर ही बात करते रहें।
नडेशन ने उठकर अपने माँ के कमरे की ओर झांक कर देखा व बोला ‘‘अम्मा खाना खाने आ रही हो?’’ 
‘‘तुम व तुम्हारा दोस्त खाना खा लो। तुम्हें ही बाहर जाना हैं मैं बाद में खा लूंगी।’’
हम खाना खाते बैठे। सरोजा ने बड़े मनुहार करके हमें खाना परोसा। खाना खाने के बाद नडेशन बोला ‘‘मैं जाकर ड्रेस बदल कर रेडी होकर आता हूं बालू । आटो स्टैण्ड पास ही है। आप बैठक में जाकर बैठ जाओ। स्मोक करना चाहो तो कर लो।’’
‘‘ऐसी कोई खास बात नहीं’’ कहकर मैं फिर बैठक में आया।
पुस्तक की अलमारी खुली पड़ी थी। उसके पास नडेशन की अम्मा खड़ी हुई थी। पुस्तकों को सहला-सहला कर देख रही थी। पैरों की आहट सुन सिर घूमा कर ‘‘नडेशन’’ बोली।
‘‘नहीं मामी बालू हूं।’’
बालू  है क्या? बहुत खुशी है बेटा।’’ आंखों को सिकुड़ कर मुझे मुस्करा कर देख बोली – ‘‘घर पर कोई आए तो मुझे बहुत खुशी होती है। थोड़ी बातें कर सकते है ना! तुम्हारी अभी तक शादी नहीं हुई? क्यों नहीं किया? शादी के लिये तुम्हरी कोई बहन है क्या? तुम्हारे अम्मा अप्पा है की नहीं? मैं क्यों पूछ रही हूं क्योंकि बड़े लोग हो तो वधु देखने का जिम्मा उनका हो जाता है…..’’ बातें करती हुई दो कदम आगे आई तो वहां रखी कुर्सी से टकरा कर गिरने लगी, तो मैं दौड़ कर उन्हें कन्धे से पकड़ कर खड़ा किया।
‘‘देखकर मामी !’’
‘‘कुर्सी थी ना ? आँखों पर पर्दा सा आ जाता है कुछ भी दिखाई नहीं देता…. घर के अन्दर कुछ सम्भल कर चलती हूं। फिर भी कभी-कभी टकरा जाती हूं।’’ वे फिर अलमारी के पास जाकर किताबों को हाथों से सहलाने लगी। उनकी उंगलिया पुस्तकों के उपर चिपक रही थी, जैसे उन्हें अलग होने का मन न हो। 
‘‘ये सब पुस्तकें नडेशन के अप्पा ने मेरे लिये खरीदी थी पता है बालू ? उनको पढ़ने का शौक था – स्कूल के अध्यापक थे ना? परन्तु उनसे ज्यादा तो मैं पुस्तकों के लिये पागल थी। मैं उस जमाने में एस.एस.एल.सी. थी। पढ़ना ही नहीं मेरी लिखाई भी बहुत सुन्दर है। वे जब थके होते तो आराम से लेट कर मुझे पाठों के नोटस डिक्टेट करते मैं उन्हें लिखती। तुम्हारा अक्षर मोती जैसे है कहकर मेरी तारीफ करते…….
मुस्कराते हुए वे पुस्तकों को अंगुलियों से सहलाती रहीं। अंगुलियां बीच-बीच में कांप रही थी। पर क्यों कमजोरी की वजह से या भावा अतिरेक के कारण या दोनों वजह से मैं समझ नहीं पाया।
‘‘अब….. अक्षर दिखाई नहीं देते। आँखों में पर्दा आ गया। मनुष्य तो फिर भी थोड़े बहुत परिछाई सी हल्की सी नजर आ जाते है। पर अक्षर बिल्कुल भी दिखाई नहीं देते……. और अभी तीन महीने से बिल्कुल भी दिखाई नहीं देते। अक्षर के मामले में तो अन्धी ही हूं….’’
‘‘मोतियाबंद है क्या मामी ?’’
‘‘हां’’
‘‘उसके लिए आपरेशन करके चश्मा लगा लो तो ठीक हो जायेगा ना ?’’
‘‘ये बात पता है डाक्टर भी बोले। पर आपरेशन, चश्मा….. इन सबके लिए खर्चा होगा ना? नडेशन की इच्छा नहीं है। अब तुम्हें पुस्तक पढ़कर क्या करना है? बोलता है। बैठकर तुम्हें किसे पत्र लिखना है कहता है…. उसकी भी गलती नहीं है। हजार खर्चें हैं उसके ….. पहले बहू भी नौकरी करती थी, पर बच्ची होने के बाद छोड़ दिया। अब पैसों की खिल्लत। कितना भी आये पूरता नहीं। बहु दुबारा गर्भवती है। बहुत से खर्चे है।
वे एक बार चुप हुई तो मैं भी मौन ही था। 
‘‘फिर भी बालू …… मैं बालू, बालू  कर बुला रही हूं तुम्हें कोई परेशानी तो नहं?’’
‘‘वो सब कुछ नहीं है।’’
‘‘वहीं तो मैं बुढ़ी हूं। छोटों का नाम लेकर बुलाओं तो कोई गलती नहीं। मैं उनसठ साल की हूं। तुम्हारी अम्मा कितने साल की होगी ? नडेशन मुझे अच्छी तरह रखता है। बहू भी अच्छी है। उनसे मुझे कोई शिकायत नहीं। बस एक ही दुख है। नडेशन मुझे ठीक से समझ नहीं सका। वहीं एक दुख है। मुझे पेट भर खाना खिलाता है। कपड़े खरीद कर देता है। पर क्या यहीं एक मनुष्य के लिये सब कुछ है? एक मनुष्य को खाने के समय व पहनने के समय के अलावा बाकी समय भी तो होता है उसके पास। उसे मैं कैसे खर्च करूं? एक दिन में चैबीस घंटे है। पूरे दिन सो सकते है क्या? मेरे आँख का आपरेशन करवा दें तो फिर मैं क्यों किसी के बीच जाउं? कृष्णा रामा बोल एक कोने में हमेशा पुस्तकें पढ़ते अपने समय को काट दूंगी। अब मैं क्या करूं बोलो? आँखों की ज्योति मंद पड़ गई व हाथ कांपने लगा पर दिमाग तो सही है ना? समय तो काटना पड़ेगा ना ? रेडियो में गाने सुनती हूं। घर में कोई आएं तो उनसे बात करना शुरू कर देती हूं। तुम ऐसे बक बक क्यों करती हो? कहकर नडेशन नाराज होता है। जो भी आते है तुम उनसे बेवकूफ जैसे बातें करती हो तो मुझे शर्मिदा होना पड़ता है वह कहता है। उसकी भी गलती नहीं है। पर मैं क्या करूं बोलो…..’’’
‘‘क्यों बालू चले? सवा ग्यारह बजने वाला है।’’ कहता हुआ नडेशन घर के अन्दर से आया। लुंगी व शर्ट बदल कर पेंट व टी शर्ट पहनकर बाल बनाकर चेहरे पर थोड़ा पाउडर लगा कर तैयार होकर आया। ‘‘क्यों फिर अम्मा ने आपको पकड़ लिया? फिर तो बुरी तरह से बोर किया होगा आपको! अम्मा! तुम अन्दर जाकर खाना खाओ सरो ने तुम्हारे लिए खाना लगा दिया है।’’
‘‘अभी जा रही हूं।’’
इतने में बाहर साईकिल की घंटी की आवाज सुनाई दी।
‘‘सर पोस्ट ! कल्याणी अम्मा का मनी आर्डर है।’’
‘‘ओ, आज तीस तारीख है ना ? अम्मा तुम्हारा पेन्शन का रूपया आ गया।’’ बोल कर नडेशन अन्दर देख ‘‘सरो थोड़ा आकर अम्मा को बाहर तक लेकर आओगी? हमें देर हो रही है।’’ आवाज दी।
उसकी पत्नी आकर मामी के कन्धे को पकड़ कर बाहर लेकर आई? बाहर के निकट आने के पहले ही उसकी अम्मा आँखों को निचे कर उसके उपर हाथों से आड लगाकर ‘‘धूप को देखा नहीं जाता….. कहने लगी।
मैं व नडेशन उन लोगों को पार कर बाहर आये। तभी गली में एक खाली ऑटो को आते देख नडेशन ने “ऑटो’’ कहकर आवाज दी।
ऑटो आने तक कुछ देर हम खड़े रहे तब मैं सिर घुमाकर, पढ़ने की उत्सुकता लिये, मोती जैसे अक्षर की मालकिन उस बुजुर्ग महिला को देखा। जो बहु के सहारे से वहां आकर मनिआर्डर के लिये अंगूठा लगाया। 
अनुवाद : एस. भाग्यम शर्मा
बी-41, सेठी कॉलोनी, जयपुर-302004

2 टिप्पणी

  1. आर चूड़ामणि जी आपकी कहानी एक दिन चोबीस घंटे, बहुत अच्छी लगी जीवन और सम्बन्धो का सुंदर चित्रण है ,अनुवाद भी बेहतरीन है
    Dr Prabha mishra

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