हम एक संस्कृति प्रधान देश के नागरिक है। हमारे देश में विविध व्रत-त्यौहार, पर्व और उत्सव मनाए जाते है। अभी दो दिन पहले ही हम सब श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रंग में रंगे हुए थे।
कुछ जगहों पर इस दिन की शुरूआत अलसुबह निकाली जाने वाली शोभायात्रा से होती है। इसके बाद कहीं 56 भोग की तो कहीं अपनी सामर्थ्य अनुसार भोजन बनाने शुरू हो जाते है। घर और मंदिर को सजाने का क्रम चलता रहता है। यह सब पूरा होता है अपने, यानी हमारे खुदके सजने-संवरने के साथ। इस सब में कब शाम हो जाती है, पता ही नहीं लगता। शाम से लेकर आधी रात में श्रीकृष्ण के जन्म तक माहौल उत्सवमयी बना रहता है।
पूजन-अर्चना का ऐसा दिन, वर्ष भर के इंतज़ार के बाद आता है। मगर इस दिन कार्यों की अधिकता कहीं ना कहीं थका भी देती है। इसके बावजूद जोश बना रहता है। यानी नौकरीपेशा लोग भी अपनी नियमित दिनचर्या से इस तरह के आयोजन के लिए समय निकाल लेते हैं। यह और इस तरह के अन्य आयोजन थकाने की बजाय जोश जगाते है।
इस त्यौहार पर महाराष्ट्र में दही-हांड़ी फोड़ने की परंपरा रही है। इसके लिए गोपालों की टोलियाँ महीनों पहले से अभ्यास शुरू कर देती है। सोशल मीडिया पर हर ओर दही-हांड़ी फोड़ने के वीडियो छाए हुए है। इनमें गोपालों की एक टोली को देखकर मैं हैरान थी। विशालकाय समूह में गोपालों को बेहद ऊँचा मानव पिरामिड बनाते देखना, अचंभित कर रहा था।
गोपालों की इस टोली ने जोखिमपूर्ण उँचाई पर पहुंच कर हांड़ी फोड़ी। गिरने से चोट ना लगे, इसके लिए उन्होंने एक-दूसरे को जिस तरह सम्हाला, यह देखते ही बनता है। यानी जब हम कुछ करने की ठान लें, तब कोई भी अड़चन हमारी राह में अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती। इतनी उँचाई पर चढ़कर दही-हांड़ी फोड़ने हिम्मत करना, अचरज पैदा करता है।
हौसलों को चुनौती देता गोपालों का यह करतब आश्चर्यजनक तो है मगर असंभव नहीं है। क्योंकि सिर्फ यही वीडियो नहीं है जो वायरल हो रहा है। गली-मोहल्ले के, और छोटे जनसमूह के गोपालों के कारनामे भी देखने योग्य है। और तो और महिलाओं की मंड़लियाँ भी दही-हांड़ी फोड़ने निकलती है। इसका मतलब हुआ कि ऊँचाई से या हैरतअंगेज करतब करने से कोई भी नहीं चूकता। बल्कि कहा जाए कि जब, जिसको मौका मिलता है, वह अपनी सीमाओं को विस्तार देने में जुट जाता है।
बात यह है कि अपनी शारीरिक सीमाओं को चुनौती देने का काम वही कर सकते है जो मानसिक तौर पर सशक्त होते है। इसके लिए अपनी शारीरिक और मानसिक सीमाओं को चुनौती देते रहें। अपने लिए खींची सीमारेखा को लगातार आगे से आगे बढ़ाते रहें। दरअसल बात यह है कि प्रकृति ने किसी के लिए कोई सीमा निर्धारित नहीं की है। जितने भी सोच-समझ के दायरे है, वह सब हम इंसानों के बनाए हुए है। इसीलिए इन सीमाओं को, दायरों में क़ैद सोच को मुक्त करने की जिम्मेदारी भी आपकी है। आइए अभी, इसी वक्त हम खुदको दायरों से मुक्त करें और कामयाबी की नई परिभाषा गढ़ें।