उस दिन को बीते भी बहुत दिन हो गए। प्रत्यक्ष में सबकुछ सामान्य था। वो हादसा जो उनके जीवन को छिन्न भिन्न कर चुकने का माद्दा रखता था, जिसकी टाइमिंग इतनी खराब थी पर शायद उस अटपटे समय के कारण ही क्षति नहीं हुई या नहीं होने दी गई। 
           बेटे की शादी के एन एक दिन पहले, घर से होटल के लिए निकलने वाले थे सब तिलक चढ़ाने और ठीक उसी समय चार्जर पर लगे समर के फोन पर ध्यान गया था उसका। उसे निकाल कर पर्स में रखने बढ़ी ।जल्दी मे छूट न जाए। पर मोबाइल पर वाट्सेप मैसज चमका और कौतूहल में भरकर उसने वाट्सेप खोल लिया। लगा, मानो भरभराकर छत ही उसपर गिर पड़ी है। उसी समय समर दाखिल हुआ था कमरे में उसे पुकारते हुए – जल्दी करो नीला, अभी कितनी देर है?  
पत्नी को हाथ में उसका मोबाइल पकड़े आगबबूला देख सकपका गया। नीला ने खींचकर मोबाइल उसपर फेंका था और दाँत पीसते हुए चीखी थी – यू चीटर! और फिर उसका गुस्से से आगबबूला होना । उसके फोन से कुमुद के वाट्सेप पर मैसज करना । उसका नम्बर ब्लाक करना ।उसने कितनी मिन्नतें की।वह कमरे से निकल सीधी जाकर गाड़ी मे बैठ गयी थी। 
            शहर के नामी पार्लर में कुशल ब्यूटीशियन और हेयर स्टाइलिस्ट से कराये गए मेक अप और केश विन्यास के बावजूद उसका चेहरा राख पुता सा लग रहा था। पल भर में चेहरे की सारी रौनक बुझ गई थी। अभी कुछ देर पहले बेटे शादी के आयोजनों मे उत्साह से अपनी चमक बिखेरती उसकी शख्शियत अचानक विरान हो गई थी। सन्निपात की सी हालत में बेटे की शादी निबटाई उसने। उसका मन चीख चीख कर रोने का करता। मन करता समर को काट पीट दे। समर को देखते ही गुस्से से उसकी मुट्ठियाँ भींच जातीं। जी मे आता जो कुछ हाथ में है ,वही चलाकर उसे चोट पहुँचाये। 
समर सहमा सा था। शादी, रिसेप्शन के बाद घर बिल्कुल खाली हो गया था। इस पूरे दरम्यान स्वयं को नार्मल दिखाने की कोशिश ने दोनों को थका दिया था। दोनों चुपचाप अपनी तयशुदा भूमिका निभाये जा रहे थे। और आपसी बातचीत को होल्ड पर रखा था। समर जानता था, सबके जाते ही उसे कटघरे में खड़ा होना पड़ेगा। बचने की कोई सूरत नही। अपनी पैरवी उसे खुद करनी थी और वो अच्छी तरह जानता था, वो बाजी हार चुका है । उसके पास वो शब्द ही नहीं हैं जिनके सहारे वो अपने संगीन अपराध को झुठला सके। कैसी विडम्बना है, जीवन की सबसे निर्दोष प्राप्ति, सबसे खूबसूरत एहसास आज गुनाह के रूप में उसके सामने खड़ा है। जीवन क्या करवट लेगा इससे हम हमेशा अनभिज्ञ ही रहेंगे। 
बीसीयों बार उसने मन ही मन अपनी सफाई की भूमिका बनाई, पूरे संवाद मन ही मन दोहराये । कहेगा, वही पीछे पड़ी थी एक फैन की तरह… कि,  वो बहक गया था। उसके जाल में फंस गया… उफ भगवान, ये एक सीधा सा, छोटा सा बस कुछ सरल शब्दों का मेल कि, हाँ वो उस महिला से प्रेम करता है ,कह पाना इतना कठिन क्यों । लड़ना, झगड़ने और नफरतों की बातें कभी भी किसी के भी सामने कह देना सबसे सरल है पर प्रेम का होना प्रेम को स्वीकारना प्रेम को जीना जीवन का सबसे कठिन क्षण …! 
   उसकी सफाइयों, माफियों का तत्कालिक असर बस ये हुआ कि, नीला बिना कोई हंगामा मचाये, अपनी दिनचर्या में लौट आई। उसी तरह बेटे बहू से बातें करके उनका हाल लेना। नियम से छोटे बेटे से बात करना। पर हृदय में एक कील सी तो गड़ ही गयी थी। लगातार प्रीटेन्ट करते रहने, तनाव और गुस्से ने उसे बीमार कर दिया। हाई बीपी की पेशेन्ट हो गई वो। समर और गिल्ट में हो गया। और फिर इसी समय ये महामारी का कहर। अब दोनों ही घर में बंद थे। 
समर का वर्क फ्राम होम चल रहा था। कंपनी हेड होने की वजह से वह व्यस्त था कभी अॉनलाइन मीटिंग लेने में, कभी फोन पर। फोन और लैपटॉप के साथ वह रात के नौ, दस बजे तक व्यस्त रहता। नीला लगभग खाली थी। कभी कभार ही उसे अॉनलाइन आकर बतौर प्रिंसिपल अपने स्कूल टीचरों की मीटिंग लेनी होती और अॉनलाइन चल रहे क्लासेज की स्ट्रैटजी पर बात करनी होती। पेरेंट्स टीचर मीटिंग में भी उसे मौजूद रहना होता। 
       समर चुपचाप सुबह की चाय बनाता और घर की सफाई कर देता। अक्सर जब वह किचन में जाता तो अगर सिंक में बर्तन होता तो उन्हें धुलकर रख देता। वह चाहता था नीला से खुलकर बात करे। पर, क्या वो समय पायेगी? इतना आसान है क्या दो लोगों के बीच की बात को किसी तीसरे को समझा पाना । नीला इस घर की धुरी थी। बेहद मजबूत स्तंभ भी। इस अकल्पनीय प्रकरण ने उसकी अना को चोट पहुँचाई थी जिससे वह बुरी तरह तिलमिलाई हुई थी । शायद समर की थोड़ी सी बदचलनी वो बर्दाश्त कर भी लेती, पर ये बेवफाई उससे बर्दाश्त नहीं हो रही  । लम्बे लम्बे बिजनेस टूर पे वो बाहर रहता था, क्या पता वहाँ क्या क्या करता है?  वो इन सब बातों की परवाह नहीं करती थी। इतने लम्बे दाम्पत्य में दोनों ने ही एक पल के लिए भी एक दूसरे में विश्वास नहीं खोया था। समर ने उसे एक निश्चिंत और सम्मान जनक जीवन दिया था। मतभेद, झगड़े, नोक झोंक में दोनों ने हमेशा एक दूसरे के सम्मान का ख्याल रखा था । कभी सीमा नहीं लांघी। दर असल उसकी समझ ने उसे स्थिति की पूरी सच्चाई समझा दी थी। ये सतही ,वक्ती संबंध नहीं था। अगर समर सच कह रहा है, कि वो उस औरत से महज कुछेक बार ही मिला है, कि वो जिस अनजान से कस्बे में रहती है वहाँ तक उसका जाना असम्भव है भविष्य में, कि, हाँ ये सही है उसके प्रति कुछ इनफैचुएशन सा रहा था थोड़े समय… बस्स और कुछ नहीं! 
पर वो कैसे झुठला दे उस आँखों देखे टेक्स्ट को – लव यू, मिस यू जान! ये चंद शब्द ही उनके रिश्ते की गहराई बयां कर दे रही ।  पति की ‘ एडल्टरी ‘ को शायद वह माफ भी कर देती पर पति का ‘ प्रेम ‘ उसके हृदय में काँटे की तरह गड़कर निरन्तर खून का रिसाव कर रहा । ये दर्द उसके बर्दाश्त से बाहर हो रहा। 
             पर अब दोनों के बीच एक बर्फ सी पसरी थी। वो अपने सीने में भी एक बर्फ की सिल्ली सी रखी महसूस करती है। चाहकर भी हटा नहीं पाती। पता नहीं कितने समय से समर ने बहुत कोशिश की इस बर्फ को पिघलाने की पर ये मुश्किल लग रहा था। दर असल समर डरता था नीला से। कहीं गुस्से और हताशा में वो कुछ कर न बैठे। जीवन की कहानी ब्रेकिंग न्यूज की तरह लोगों के की बातों का केंद्र बन जाए , अबतक का अर्जित सबकुछ मिट्टी में मिल जाए… ये सब सोच सोचकर वह पागल हुआ जा रहा था और कहीं न कहीं कुमुद को इस सब का जिम्मेदार ठहरा देना उसे आसान लगा था। या कहीं मन में बहुत गहरे वो कुमुद को लेकर, कुमुद और अपने बीच के उस कोमल से एहसास को लेकर बहुत आश्वस्त था… वो नहीं बिगड़ेगा, उसे कोई खतरा नहीं, उसे संभाल की कोई आवश्यकता नहीं । जरुरत तो सारी उस रिश्ते को है जो उसका नीला के साथ है। सब कुछ जो उसके जीवन में है, सब उसने नीला को दिया है। अपना साथ, अपने शरीर का वीर्य, अपनी संपत्ति… बैंक बैलेंस… अपनी परवाह… सबकुछ ! कुमुद को तो सिर्फ थोड़े से एहसास मिले हैं… एहसास बचाने के लिए भी थोड़ी सी परवाह दिखानी पड़ती है और उसमें वह चूक रहा है, उसकी उलझनों ने उसे ये सोचने की मोहलत नहीं दी थी। 
                     फिलहाल नीला महत्वपूर्ण थी। वह पूरा कंसर्न दिखाता । नाश्ता कर ली?  दवा खा ली? तुमने दूध ले लिया न? गरम पानी पीते रहना। गिलोय और तुलसी वटी एक एक गोली लेती रहना। छोटे छोटे सवाल, उनके हाँ या ना मे कहे गये छोटे छोटे उत्तर । एकदम से उनके बीच की बातें मानो खत्म हो गयीं। कुछ कहने को बचा ही नहीं । समर डरा हुआ भी था।  जितना वह नीला को जानता था, वह बहुत स्ट्रांग है। समर रात में कोशिश करता कि, बिस्तर पर नीला और अपने बीच की दूरी को खत्म कर दे पर अब ये संभव नहीं हो पाता। विवाह के शुरुआती वर्षों में कभी आपसी मन मुटाव होता भी तो बिस्तर पर एक दूसरे के शरीर की छुअन बर्फ को पिघला देती थी। शरीर की अपनी एक भाषा होती है। वो आपस में बोल बतियाकर सुलह कर लेते हैं ।पर अब बहुत अर्से से दोनों के शरीर आपस में कुछ कहना सुनना बंद कर चुके हैं। अब शरीर की बेमौका और बेलिहाज छुअन रोमांचित नहीं करती बल्कि असुविधा उत्पन्न करती है । नीला को भयंकर रुप से स्पॉन्डलाइटिस है। कभी कभी स्लीप डिस्क की समस्या भी उभर आती है। कभी दुलार में भरकर समर की बाहों पे सिर रख उसकी छाती से सटकर सोती भी है तो कुछ देर बाद ही कराहकर गर्दन के नीचे से उसकी बांह हटा देती है। शरीर अब अपने स्पेस का आदी हो गया है। छाती में मुंह घुसाकर पूरी रात सो सकना अब संभव नहीं। पति पत्नी के सम्बंधों की इमारत में गारे सिमेंट की तरह बहुत से अवयव जुड़े होते। समाज, परिवार, बच्चों के साथ एक दुसरे के शरीर की ऊष्मा भी इस सम्बन्ध को जोड़ने का काम करती है। दंपतियों के युवावस्था के सारे झगड़े मतभेद अक्सर बिस्तर पर सुलझ जाते हैं। 
      पर समय बीत चुका था । पिछले बहुत समय से शरीर में एक दूसरे के लिए कामनाएं जगनी बंद हो चुकी थीं। उम्र का ये हिस्सा ही सच्चे साहचर्य की कसौटी होता है। छुअन अब भले ही रोमांच नही जगाता, एकांत मिलते ही एक दूसरे के शरीर को महसूसने की उत्कंठा अब हिलोर नहीं मारती। पर मौजूदगी ढांढ़स देती है। कोई है जो साथ है हर पल। दो मिलकर एक होते हैं। उन दोनों ने मिलकर इस संसार के भीतर एक अपना निजी संसार रचा है। आज ये दो जवान पुरुष उन दोनों की रक्त मज्जा से बनकर इस संसार मे आये। दोनों ने साथ मिलकर इनका पालन पोषण किया है। इनके लिए रातों को जागे हैं ,चिंतित हुए हैं। उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और उज्वल भविष्य के लिए दोनों की परवाह और कोशिश एक ही धरातल पर थीं। ये सहभागिता ही परिवार नामक संस्था का यूटोपिया रचती थी उनके इर्दगिर्द। इससे दोनों को जो प्रीविलेज मिलती उसको दोनों ही उच्च स्तर के गर्व मे जीते थे। सबकुछ अच्छी तरह बिल्कुल प्लान के अनुरूप हो रहा था। ईश्वर की कृपा थी, कि परिवार उत्तरोत्तर प्रगति कर रहा था। 
       वह एक संभ्रान्त और प्रतिष्ठित परिवार से ताल्लुक़ रखती थी , देहरादून के कान्वेंट स्कूल और बाद में वनस्थली से उच्च शिक्षा प्राप्त की। समय पर विवाह तय हो गया। ससुराल और पति भी मनोनुकूल ही थे। उसके इर्दगिर्द का सारा कुछ उसके अभिभावकों द्वारा चुना गया था और वही चुना गया जो उसके लिए सर्वश्रेष्ठ समझा गया। पढ़े लिखे आधुनिक और परम्परागत परिवारों के रिवाज़ के अनुसार उसकी राय ली गई थी। ऐसे परिवार, जो बेहतरीन स्कूलों में अंग्रेज़ी मैनर्स के साथ तो शिक्षित हुए रहते हैं, मगर अपनी परम्परागत पृतसत्तात्मक सोच से भी जकड़े होते। अपने सामंतवादी मूल्यों से इन्हें बड़ा प्रेम होता है । विवाह जैसे सम्बंधों के लिए उनकी सोच दायरा संकीर्ण ही होता है। बेटे, बेटी कितनी भी उच्च शिक्षा प्राप्त हों पर इस विषय पर उनकी स्वतंत्रता सीमित थी। प्रेम विवाह की कल्पना भी असम्भव थी। 
अपने परिवार के मिजाज के अनुकूल ही उसका भी मिजाज था। पर अब सबकुछ खत्म हुआ जान पड़ रहा था । वो दो शब्द -‘ लव यू… मिस यू जान ‘ हवा में टंगे उसे मुंह चिढ़ाते हैं। अपना अब तक का सारा किया धरा मिट्टी लगता है । इकतीस साल का रिश्ता झूठा लग रहा था। जाने कब से ये आदमी उसे चीट कर रहा था।  कितनी निश्चिंत थी वो अबतक। सबकुछ अच्छा चल रहा था फिर कब ये सब शुरू हो गया। अब वो क्या करे ? खुद को मकड़जाल में फंसा महसूस कर रही। ये बड़े यत्न से संवारा गया घर, काबिल बच्चे , खूबसूरत टैरेस गार्डन, जिसके एक एक पौधे गमले कुर्सियां उसने कहाँ कहाँ से खोजकर मंगाईं  थीं। वार्डरोब में भरे कपड़े, डिजाइनर साड़िआं, मंहगे फुटवीयर, ब्रांडेड हैंडबैग्स। कितना कुछ अगड़म बगड़म। इन सब से बनी थी उसकी दुनियां। लॉकर में रक्खी जूलरी, बचत खातों, दोनों फ्लैट्स के कागजों, ये सब अबतक उसकी दुनिया थी। ये सब सहज ही उन दोनों का था उनके परिवार का था। अचानक सभी तरह के दावों से वह अपने को अपदस्थ महसूस कर रही थी।  अब सब वैसा नहीं रह गया था। 
  सब झूठा हो गया था। और इस झूठ को जानते हुए लगातार प्रीटेन्ट करना , करते रहना असहनीय था।  
               
                                                                ******
            
                हद है, प्रेम हमेशा 
                     मुसीबत की तरह आया, 
                       कोई मुसीबत कभी 
                        प्रेम की तरह नहीं आई। ‘ – गीत चतुर्वेदी 
                                 उस वाकये को गुजरे अनगिनत दिन बीत गये थे। वह निरन्तर कोशिश मे था कि, नीला के मन से किसी भी तरह, कुछ भी करके वो कांटा निकल सके। उसने वाट्सेप पर उसका नम्बर ब्लॉक कर दिया था। कितने महीनों तक उसकी कोई खबर खुद तक न आने दी थी । 
               वह अचम्भित था। उसने मिलने के लिए कोई एकांत जगह नहीं, बल्कि ये भीड़ वाला रेस्टोरेन्ट चुना था । दोनों ने आजकल की सबसे जरूरी चीजों का पूरा ख्याल रखा था। दोनों के चेहरे पर मास्क था। कुर्सी खींचकर बैठने के बाद उसने सेनेटाइजर की दो बूंद हाथ पर डाली और उसकी तरफ बढ़ा दिया, उसने अपने हाथ खोलकर उसके सामने फैला दिये, उसने उसके हाथ पर भी सेनेटाइजर की दो बूंद डाली। दोनों ने अपने अपने हाथों को अच्छे से रगड़कर सेनेटाइज कर लिया। 
                    ” यहाँ क्यों… होटल ठीक रहता…! “उसने कहा था। ऐसा पहली बार था जब वो दोनों इस तरह खुले में सार्वजनिक स्थल पर मिल रहे थे। 
” आप कुछ बताना चाहते थे न  …” 
” हाँ…।  शायद सुनकर तुम्हें खुशी हो…। ” 
” मेरे लिए आपके पास बस एक खुशी होती थी… जब आप मुझसे मिलने आने वाले होते। अब ये भी बात खुश नहीं कर पाई… फिर भी, बताइए। “
” नीला ने मुझे छोड़ने का फैसला कर लिया है… ” 
” और आपको लगा, ये खबर मेरे लिए खुशख़बरी है। ” उसके स्वर में गहरा अविश्वास था 
” मैने भरसक कोशिश की, कि सबकुछ ठीक हो जाए। मैने इतने दिनों तक तुमसे कोई सम्पर्क नहीं रखा… पर कोई नतीजा नही निकल सका ! नीला ने मुझे माफ नही किया ।  ” 
” फिर  ? “
” तुम्हें खुशी नहीं हुई…।” 
” आपकी पत्नी ने आपको छोड़ने का फैसला कर लिया है, इस बात पर मुझे खुशी होनी चाहिए आपने ये सोचा… अच्छा ये बताओ, मुझे दुःख किन बातों से हुआ या होगा, आपने ये भी तो सोचा होगा न… या नहीं।  शायद नहीं ही सोचा। मेरे दुःख के बारे में सोचते तो बहुत कुछ सोचते आप ” 
 वह अन्यमनस्कता से भर उठा  । इस समय दोनों ने अपने मास्क चेहरे से हटाकर गले में लटका लिया था । वह उसकी डबडबाई आँखों को देख रहा था । आज न वो गले मिले थे न ही उसने उसका हाथ पकड़ा था। दोनों के बीच में काफी चौड़ी मेज थी जो दोनों के बीच की सोशल डिस्टेंसिंग को मेन्टेन रखे हुए थी। 
          ”  मुझे तुम्हें प्रेम करते हुए, तुम्हारे वियोग का दर्द मंजूर था। कभी मैने तुम्हें अपनी किसी बात से असहज नही करना चाहा। मेरे लिए बस इतना ही महत्वपूर्ण था कि तुम मुझे प्यार करते और उतना ही दर्द तुम भी सहते हो जितना मैं। इस प्रेम मे राहत बस ये एक बात की थी कि हम साझे का दर्द सह रहे थे। पर अचानक मैं अकेली हो गयी…छोड़ दी गई अकेली एक अनन्त रेगिस्तान में। हमारे प्रेम मे हम साथ नहीं थे ,फिर भी मैं भरी रहती थी तुम्हारे साथ होने के एहसास से। वो जो थोड़ा सा वक्त हम अपनी अपनी अलहदा जिंदगियों से मैनेज करके साथ बिता पाते थे… उस वक्त को मै थामें रहती थी कसकर… उसे बीतने नही देती थी , बीतने नही देना चाहती थी। और हर क्षण इस गुमान में रहती थी, कि तुम भी बिल्कुल ऐसा ही सोचते हुए मुझसे दूर जाते थे। वही मरोड़ जो मेरे भीतर कहीं उमड़ती थी पलट कर अपनी दुनिया की ओर जाते हुए, वही मरोड़ तुम्हारे भीतर भी ठीक उसी तरह उसी जगह उठती है … ” 
” प्रेम में की जानी वाली बेवकूफियां दर असल प्रेम के न मिटने वाले शिलालेख होते हैं।  मैने भी वैसी बेवकूफ़ी की है। ” 
वह कभी उससे कुछ नहीं कहती थी ,इस तरह तो कभी नहीं। ये उसका तरीका नहीं था। वह बहुत विटी थी। बड़ी से बड़ी बातों को मजेदार तरीके से कहने में माहिर !  इस तरह शिकायती होना , उसे स्वयं को उसके आगे निरीह कर रहा है, जो वह कतई नापसन्द करती रही है। वह तो अपनी बेवकूफ़ी भी उनसे बता कर हंसती थी। वह जितने बार भी उनसे मिली थी, उस समय पहने अपने कपड़ों को वो बिना धोये अपनी अलमारी में सहेज कर रखती है, और जब जब उसकी याद आती, उनमे से कोई कपड़ा निकाल कर पहन लेती है।कि,एक बार एक प्रसिद्ध धर्म स्थान का कलावा उसने उसकी कलाई पर बांधा था और उसकी कलाई पर बंधे पुराने कलावे को खोलकर अपने पर्स में डाल लिया था। 
उसने पूछा था क्या करोगी इस धागे का? 
तावीज़ बनवाकर पहन लूंगी । 
कुछ दिन बाद उसने मैसज किया था – कलावा पहना है न!  
उसने रिप्लाई दिया – नहीं, उसका कलर छूट कर उसकी सारी शर्ट खराब हो रही थी ,इसलिए निकाल दिया! 
ओह! उसे भीतर कहीं एक दर्द का एहसास हुआ था। वो रेशम का कलावा था। लोग सालों उसे पहने रहते थे। आसानी से गांठ भी नहीं बंधती थी उसमें ,रेशम खुल जाता था । जिस मंदिर से वो उस धागे को लाई थी, वहाँ उसे बांधकर गांठ में दो बूंद फेवीक्वीक जैसी चीज टपका कर हमेशा के लिए उसे अटूट बना दिया जाता था। वो भी छोटी कैंची और फेविक्वीक पर्स में रखकर ले गयी थी धागे के साथ। और उसने…? उसे ये सब याद आया था। वह आहत थी फिर भी उनसे उसने यही कहा, वो उसे नयी कमीज ला देगी। कि, उसकी कीमती शर्ट के बरबाद होने का उसे अफसोस है, कि, वह उस शर्ट की कीमत अदा कर देगी। 
                      फिर उन्हीं उदास दिनों में वो ब्लंडर हो गया… और फिर बहुत दिनों के लिए उनके बीच सारे संवाद बंद हो गए। फिर ये वायरस, इससे जूझती मानवता। वो रातों को सो नहीं पाती, जब कभी सोच में किसी दिहाड़ी मजदूर का परिवार आ जाता। सड़कों पर चलते प्रवासी मजदूरों को उसने अपने साथियों के साथ मिलकर खाना पानी मुहैया कराया। इसी बीच पिता बीमार हुए। उन्हें लेकर चिंता। कितने बार लम्बी ड्राइव करके वो पिता को शहर के हॉस्पीटल लाई। पूरा परिवार परेशान हुआ। उसके पति को करोना हुआ , राहत की बात थी कि, वो ठीक भी हो गए  । पर सभी तो इतने भाग्यशाली नहीं थे। कुछ युवा साथी इस वायरस की भेंट चढ़ गए। वो आजकल मृत्यु के विषय में सोचने लगी थी। मनोबल बनाए रखना कठिन, जब चारों ओर मृत्यु तांडव कर रही हो। प्रकृति अपने को स्वतः रिवाइव कर रही थी। आश्चर्य था जीवन कितने संक्षिप्त चीजों में चल सकता है, इस वायरस ने समझा दिया था। अप्रैल, मई में चिड़ियों की चहचहाहट, साफ आसमान, और सूदूर स्थित पहाड़ भी लोगों को अपने शहरों से दिखने लग पड़ीं थीं। गर्मी का प्रकोप कम था।  पर अब नवम्बर आते आते दुनियां फिर उसी पुराने ढर्रे पर चल पड़ी थी।
                        चिंता अवसाद के उन पलों में वो बड़ी शिद्दत से उसके फोन कॉल का इंतजार करती रही। अपने हालात एक दूसरे को जना देना, इससे ज्यादा और क्या चाहना था। अवसाद ने उसे भी बीमार कर दिया था। कोई अनजाना सा भय हर वक्त पसलियों में धड़कता था और सामने बैठा ये व्यक्ति, जो उससे प्यार करता था, ऐसा उसी ने उससे कहा था, और उसने बस इतना किया था कि, उस कहे पर विश्वास कर लिया था, वो व्यक्ति उस सारे समय एक निर्दय चुप्पी ओढ़े रहा।
                      कुमुद ने ये सब समर से नहीं कहा । नहीं कहा कि, कितनी कितनी जरुरत थी उसे उसकी एक परवाह भरी फोन कॉल की। कि, इस एहसास की कि वो है हर पल उसके संग साथ, अपनी अनुपस्थिति के साथ भी उपस्थित ! क्या उसे पता भी है वह कितना टूटी… ? और जो बची खुची दिख रही वो अब वही कुमुद नही रह गयी। 
          हाँ,ये सच था। कुमुद अब वैसी नही बची थी ,और उसका ये जेस्चर उन्हें असहज कर रहा है… वह उसे रोकना चाहते हैं, कुछ कहना चाहते हैं … पर वह हाथ के इशारे से उन्हें मना कर बोलना जारी रखती है 
” नहीं स… मुझे रोकिए नहीं कहने से… ” वह उन्हें उनके पूरे नाम से नहीं पुकारती सिर्फ ‘ स ‘ कहती है । उन्होंने सोचा था, उनके नाम को छोटा करके कहने का ये उसका अपना ढंग है, पर उसने दूसरी वजह बताई थी – मेरी अम्मा की गाँव में एक सहेली थीं उर्मिला मौसी। अम्मा और मौसी बचपन में अपनी कुछ चीजों की अदला बदली करके सखी  बनी थीं। सखी लोग एक दूसरे का नाम नहीं लेतीं, सखी कहती हैं। अम्मा और उनकी सखी ने एक दूसरे को कहने के लिए ‘ स ‘ का चुनाव किया था। क्यूट है न… मैं तुम्हें स कहूँगी, मेरे सखा ही तो हो न तुम ।
                 ” मुझे कहने दीजिए प्लीज… बहुत हर्ट हुई हूँ पिछले दिनों… शायद मेरी मूर्खतापूर्ण अपेक्षा ने मुझे ये महसूस करवाना सुनिश्चित किया हो पर समान्य सी दोस्ती समान्य से जान पहचान वालों से भी हमने इस मुश्किल समय में उनकी खैरियत जानी, उन्हें अपने खैरियत की ख़बर दी। कितना छोटा सा दो शब्दों का बेजान सा मेल है – कैसी हो? …पर दो शब्द किसी के लिए लाइफ सेविंग मैडिसिन भी हो जाते हैं ,मैने इस दो शब्द का इंतजार महीनों किया जिसे आप कैसे भी मुझ तक पहुंचा सकते थे पर… ” उसकी आवाज फंस रही थी , वह भरभराकर रो पड़ना चाह रही थी, पर जान एलिया ने चेहरे पर मुस्कान ला दी 
      – हैं दलीलें तेरे ख़िलाफ मगर 
        सोचता हूँ तेरी हिमायत में। 
कभी इस तरह सोचूंगी, इस तरह ये बातें कहूँगी सोचा नही था। आपके लिए किसी भी तरह की नकारात्मक बात सोचने से खुद को बरजती रही। कितना आसान बना लिया था मैने खुद को आपके लिए। बहुत आसान से लोग बेपरवाह हो जाते नही जानती थी । सब मेरे सामने था पर मै अंधी थी जो देख नही पा रही थी। मार्च से इस महामारी का कहर बरपा है। इस बीच कितने निजी झंझावात से जूझी हूँ। हर दिन एक मासूम सी आशा का दीपक कंपकंपाता – शायद किसी अननोन नम्बर से फोन आ जाये और उधर से दुनिया में मेरी सबसे प्रिय आवाज मे पूछा जाए – कैसी हो? सब ठीक तो है न?  …पर हर दिन आशा का वह कंपकंपाता दीप बुझ जाता। ” 
” क्या मै समझ नहीं सकती थी कि, आपको उन्हें कंविंस करने के लिए किस हद तक प्रयत्न करना पड़ रहा होगा, कि अपना घर बचाना, आपके लिए कितना जरुरी है, आपकी पत्नी किस मनोदशा से गुजर रही होंगी, कितना हर्ट हुई होंगी, क्या मै नहीं समझ रही थी… पर इस सब का इलाज क्या मुझसे रुड होकर हो जाता। बरसों बरस मैं चुप रहती, कोई राबता न रखती आपसे… आपकी सहूलियत के लिए। एक बार कहते तो… बताते तो…! “
” जब हम किसी सम्बन्ध को अपनी प्राथमिकता में रखते हैं  तो तर्कातीत होते हैं…तो इस संगदिल दुनियां के तमाम सितम सहते भी बेतार के तार से  जुड़े होते हैं आपस में। हमारी सोने जागने, बोलने चलने की दुनिया बेशक अलग हो पर फिर भी हमारे भीतर कहीं एक हमारी अपनी दुनिया थी न जो सिर्फ हमारी थी। “
” स, इतनी उदासीनता? जिनसे समान्य सा भी परिचय था, इस विकट समय में हमने उनका भी हाल जाना…और मेरे लिए इतनी निष्ठुरता? कभी मन नही हुआ जानने का?  कैसी हूँ मै? जी रही हूँ या मर गई? परिवार में एक युवा की अकाल मौत के सदमें में मै बीमार पड़ी। इस महामारी काल में हॉस्पीटल के चक्कर, टेस्ट और इन सबसे उपजा तनाव, हताशा। मेरे एक मात्र संबल थे आप। कितना जी चाहता था आपको फोन करूँ, आपसे बातें करूँ …अपने दुःख साझा करूँ… पर आप तो थे ही नहीं। आप वो फिर नहीं थे, जिससे मुझे प्यार था जिसकी हर बात मुझे पसंद थी। आप बदल चुके थे, मतलब मेरे लिए बदल चुके थे … । मेरी बदनसीबी देखें, फिर भी मुझे प्रेम है आपसे पर उससे भी बड़ी बदनसीबी है कि, मैं अब आपको पसंद नहीं करती।  नापसंदगी के बावजूद प्रेम का होना शाप जैसे ही ढोना है मुझे। मुझे इस तरह क्षत विक्षत करने के लिए आये थे आप? आखिर मैने ऐसा क्या चाहा था आपसे? शायद कुछ न चाहना ही अपराध बन गया। मुझे अपनी कीमत तय करनी नहीं आई। आपके साथ होने के लिए आपसे विनियम करना था, कुछ कीमती चुकाते मेरे लिए तो शायद कीमत समझते। उफ, इतनी सस्ती क्यों हो गई मै? “
 ” जिस दिन से मै तुम्हारे प्रेम में हुई, उस दिन से तुम हर पल मेरे साथ थे। मैने स्वयं को क्षण मात्र के लिए भी तुमसे विलग नही पाया। मैं अपने भीतर कहीं ये सच जानती थी कि, मेरे जीवन में तुम्हारी मौजूदगी एक भरम है फिर भी मै इस भरम को बचाए हुए थी। अपने दिमाग को डांटती थी, दिल पर विश्वास था। स्वयं पर सबसे ज्यादा विश्वास था। तुमसे कुछ भी दुनियावी न चाहने के अपनी नीयत पर विश्वास था। पर… सब खत्म कर दिया आपने। लव आलसो हैज़ सम एथिक्स ‘ स ‘ …!”
” आपसे ये आशा नहीं थी …बहुत निराश किया आपने । अपने सारे कहे सुने से हम भले पीठ फेर लें पर ध्वनियाँ तो दिग दिगांतर तक ब्रह्मांड में गूंजती रहती है। आप भूल गए हो सकते अपनी सारी कही बातों को, मेरे कान जिन्होंने वो सारे शब्दों को सुना, मिट जायेंगे ये भी काल के चक्र में खोकर। हम दोनों ही नहीं रहने वाले हमेशा के लिए इस दुनिया में, पर हमारा कहा सुना रहेगा अनंत तक अंतरिक्ष में । ”  
” आपकी पत्नी को मै नहीं जानती, पर आज उनके निर्णय को जानकर, उनके लिए मन में बहुत सम्मान महसूस हो रहा । अगर वो सचमुच अपने निर्णय पर अडिग हैं तो वो निश्चित ही बेहद ताकतवर औरत हैं। झूठे रिश्ते को किसी भी भुलावे में पड़कर ढ़ोते रहना उन्हें बहुत से प्रिविलेज देता ।सारे विशेषाधिकार, सुविधाएं त्यागना, बहुत से प्रश्नों से भरे बहुत अपने चेहरों का सामना करने के लिए खुद को तैयार करना आसान नहीं है।  आसान तो होता है मुखौटों के साथ जीते रहना। मुझे अपने भीतर भी ऐसी ही ताकत चाहिए… ” 
                उसका गला सूखने लगा था। अपने बैग से बोतल निकाल कर कुछ घूंट पानी के उसने गले में उतारा, समर से इशारे में पूछते हुए बोतल उसकी तरफ बढ़ाया । समर ने बोतल लेकर गटागट उसे आधा खाली कर दिया। उसने महसूस किया,  भले लगातार वो बोल रही थी पर गला उसका सूखा हुआ था। 
” वैसे आप चिंता मत करिए। वो अभी गुस्सा हैं। शायद ये गुस्सा लम्बा खिंच जाए पर वो आपको छोड़ेंगी नहीं ये तय मानिए । आप दोनों से आप दोनों  को जो प्रीविलेज मिलता है उसे आप दोनों ही नहीं छोड़ सकते। जब प्रेम ये काम नहीं कर सका, तो बाकी किसी की कोई औकात नहीं।… थोड़ी मुश्किल मेरे लिए हो गई बस। मुझे अपने लिए ये दुआ करनी होगी कि आपको प्रेम करने की मेरी आदत छूट जाए। पता नहीं ये कैसे मुमकिन होगा…मुझे अपने लिए ये भी दुआ करनी है कि, मेरे भीतर फिर भी प्रेम बचा रहे बहुत सारा … प्रेम से खाली हो जाना नहीं चाहूंगी कभी भी, हालांकि प्रेम ने मुझे खाली कर दिया है। शायद कभी लौट आऊँ, पर अभी जाना होगा।किसी ने क्या खूब कहा है न – “तेरे ही लिए आयेंगे तेरे पास …किसी से बिछड़ कर नहीं आयेंगे। ” पर खैर, खुश रहो… अलविदा। ” 
   कहते हुए वह उठ गई। आँखें उसकी आँसुओ से भरी थीं और हलक हिचकियों से । आँसुओ को तो उसने बहने से नहीं रोका था पर हिचकियों को भीतर ही घोंट लिया था। उठकर उसने मुँह पर मास्क लगाया, पर्स से निकालकर आँखों पर गॉगल रखा सिर को दुपट्टे से कवर किया और चलने के लिए तैयार हो गई। क्षण भर ठिठकी, मास्क के भीतर होंठ हिले मानों अलविदा कह रही हो, और मुड़कर चल दी। वो ठक बैठा उसे जाते हुए देखता रहा। उसके जीवन में वह वैसी ही रहती आयेगी जैसे अंग्रेज़ी के कुछ शब्दों में साइलेंट लेटर रहे आते हैं।  साइकोलॉजी के ‘ पी ‘ की तरह, नॉलेज के  ‘ के ‘ की तरह, अॉनर के ‘ एच ‘ की तरह …! अपने जीवन में जिसे जीवन भर के लिए ‘ साइलेंट लेटर ‘ की तरह बचा कर रख लेने की चाह थी , उसे इस तरह जाने कैसे दे रहा… उसे रोक कर कहता क्यों नहीं …वो उसे अब भी उतना ही प्रेम करता है। उसके प्रति उसका प्यार झूठ नही था। प्रेम को परीक्षायें क्यों देनी पड़ती है…। वो क्यों नहीं कह पाया, कि उसने जो नतीजे निकाले वो गलत हैं। उसे रोकना था… वो रुक जाती। प्रेम ही क्यों जाता है जीवन से… ? प्रेम को ही क्यों जाना पड़ता…? प्रेम का जाना ही क्यों सबकुछ बच जाने  के लिए सबसे ज़रूरी है …? 
सपना सिंह
10/1467, अनहद,
अरुण नगर, रीवा,
मध्यप्रदेश, 486001
मोबाइल -9425833407.
हिंदी की चर्चित कहानीकार. हंस, कथादेश, परिकथा, कथाक्रम, सखी(जागरण), निकट, अर्यसदेंश, युगवंशिका, माटी, इन्‍द्रपस्‍थ भारती आदि देश की प्रमुख पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित. आकशवाणी से कहानियों का निरतंर प्रसारण. संपर्क - sapnasingh21june@gmail.com

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