इंसान भावनाओं के अधीन होकर जीवन भर पेंडुलम बना इधर से उधर झूलता है। कभी वही लोग जिन्हें आप बहुत महत्व देते रहे है, उनका कोई व्यवहार आपको खुश कर देता है। इसके उलट कभी-कभी वही लोग, तनाव का कारण भी बनते हैं। यह इसलिए होता है कि आप भावनात्मक रूप से लोगों से जुड़ाव महसूस करते है। भावनाएं हर समय एक जैसी नहीं रहती। असलियत यह है कि भावनाओं के साथ अपेक्षाएं जुड़ी रहती है। यही अपेक्षाएं सुख-दुःख का कारण भी बनती हैं। आप दोष सामने वाले के व्यवहार को देते हैं जबकि खेल, भावनाओं का होता है और भावनाएं व्यक्तिगत मअसला है। एक समान व्यवहार, अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह से सोचने, प्रतिक्रिया देने को प्रेरित करता है।
असल में बात यह है कि रिश्ते थकाते तो हैं ही। कभी-कभी या अक्सर दिल दुखाते भी हैं। जब-जब ऐसा होता है, मन टूट जाता है। सबसे दूर हो जाने को, सबको खुदसे दूर कर देने को मन भी चाहता है। कभी तो मन करता है कि सबसे दूर किसी पहाड़ पर जा कर बस जाएं जहाँ कोई हमें सताने, बेवकूफ बनाने या अपना स्वार्थ साधने ना आए। सच बताइये, क्या यह संभव है? सबसे दूर जाकर भी किसी ना किसी के नज़दीक तो रहना ही होगा। कोई इंसान या पशु-पक्षी आपके नज़दीक होगा ही। और क्या यह संभव है कि बिना किसी संपर्क के आप रह लेंगे? यदि यह सच है कि कोई ना कोई तो जीवन में होना ही है… तब जो लोग पहले से आपके जीवन में है, उन्हीं में से अपने मिज़ाज के कुछ लोग क्यों ना चुन लिए जाएं। यक़ीन मानिए कि कोई भी सौ प्रतिशत आपके मन मुताबिक नहीं मिलेगा। अब इसी स्थिति को ऐसे देखिए कि क्या आप ख़ुदको किसी ओर के लिए, उसकी पसंद के मुताबिक ढ़ाल लेंगे? क्या यह संभव है कि आपकी कोई रूचि ना रहे, आपकी कोई पसंद ही ना बची रहे। जब यह संभव नहीं है तब पहले वाली स्थिति भी संभव नहीं हो सकती।
जब पहली और दूसरी स्थिति सच है तब ‘सब कुछ बदल देने’ की इच्छा को खत्म कर देते है। आइये अब आगे बढ़ते है। एक बड़ा सच यह भी है कि भावनाओं के बिना सामाजिक जीवन असंभव सा लगता है। जब समाज में रहना है, तब बिना भावनाओं  के कैसे व्यवहार किया जाए? दरअसल अपने मस्तिष्क को इस तरह ट्रेन करने की ज़रूरत है जिससे ख़ुदको कम से कम दुख मिले। इसका एक ही उपाय है कि आप अपेक्षाएं पालना बंद कर दें। जब तक किसी के कुछ अच्छा करने की उम्मीद मन में रहेगी, और सामने वाला आपके पैरामीटर के अनुसार व्यवहार नहीं कर रहा होगा, आप दुखी रहने वाले हैं। इस पहली कड़ी को ठीक कर लीजिए, आगे की यात्रा सरल-सहज और सुगम बन जाएगी। आप दुख से दूर और सुख के नज़दीक रहने लगेंगे।


1 टिप्पणी

  1. इस बार आपके मन की बात हमें अपने मन की बात की तरह लगी।
    हम लोगों का समय ऐसा समय था,तब हम लोग बड़ों की, परिवार और स्कूल में शिक्षकों की भी हर बात मानते थे और जो पढ़ते थे उससे सीखते भी थे।
    वह समय ही अलग था।
    अपनी किशोरावस्था में हमारी माँ, जिन्हें हम बाई कहते रहे, हमेशा हमें यह बात समझातीं रहीं कि ,”हमें कभी भी किसी से कोई अपेक्षा नहीं करनी चाहिये। क्योंकि अपेक्षाएँ जब पूरी नहीं होतीं या ग़लत साबित होती है तो बहुत तकलीफ पहुंँचती है। और इस बात को हमने गाँठ बाँध के रखा है।
    पर हैं तो इंसान ही !सच कहते हैं,जहाँ से कल्पना भी न हो,अपेक्षा भी न हो ,अनपेक्षित ने हमें बहुत तकलीफ दी है।

    यह जीवन है। हर पल, हर इंसान भावनाओं में ही जीता है क्योंकि आजकल किसी में भी संयम नहीं है। भावनाओं और मन को साधने के लिए जिस संयम की जरूरत है वह इतना सरल नहीं।
    एक बात और ;
    स्त्रियाँ स्वयं को परिस्थितियों के अनुरूप ढालने में माहिर होती हैं। अगर ऐसा ना होता तो परिवार संभल नहीं पाते। कुछ सहन परिवार को बचाने और रिश्तों को बचाने के लिए सदा हो जाता है भले ही वह मजबूरी क्यों ना हो, जहाँ ऐसा नहीं होता वहाँ परिवार टूट जाता है और जहांँ दोनों ही समझदार होते हैं-पति और पत्नी वहाँ गाड़ी सही चलती है।
    हमारी समझ और अनुभव तो यह कहता है कि अगर ऐसी स्थिति कभी बनती है कि साथ रहना है और सामने वाला आपकी तरह से नहीं सोच रहा तो पहले आप उसकी सोच के अनुसार चल दीजिए और उसे विश्वास में लेकर उसे अपनी सोच में ढाल लीजिये।यही सकारात्मक सफलता का आयाम है।
    हर शख्स एक सा नहीं होता। एक ही माता- पिता की दो संताने भी एक सी नहीं होतीं ।सबकी अपनी- अपनी प्रवृत्ति और अपनी- अपनी सोच होती है। झुकना इतना बुरा भी नहीं होता।
    पेड़ की नरम डाल को जितना अधिक झुकाते हैं वह उतना ही अधिक ऊँचा उठती है और पेड़ की सूखी लकड़ी नहीं झुक पाने के कारण टूट जाती है। हम नरम डाल बन रहें यह बेहतर है।
    बस विवेक साथ रहे और स्वाभिमान भी बचा रहे यह ध्यातव्य है।
    मन की बात मन की तरह कहने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया वंदना जी! आभार पुरवाई

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