प्रेम पर्व
यह लालिमा जो मुखमंडल पर छाई है
हूँ अचंभित कहाँ से यह गमक आई है!
कहीं उस मंदर पर निरभ्र नभ तो नहीं
अंकित करता ऐन्द्रजालिक नगर कहीं,
जहाँ मैं हूँ..तुम हो..किंतु है पूर्ण दूरत्व
मधु में द्रवीभूत..अल्प-अल्प लवणत्व
मृगतृष्णिका सी है.. किंतु है संभावित
दर्पण में होता एक स्वप्न भी प्रतिबिंबित।
अक्षरों से नादित इस प्रणय ध्वनि को
करती हूँ आत्मबद्ध। इस में भी तुम हो
लीन-विलीन।.. लुप्त-विलुप्त भावनाएँ
मेरी शून्यता में भरती तुम्हारी अल्पनाएँ।
प्रियतम!कुंज-निकुंज सा यह हरित मन
तुम पतत्रि-मैं मेघ,तथापि वह्निमय है वन।
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मृत्यु कलिका
इस प्रकार हुए..कई ग्रह-उपग्रह विलुप्त
अणुओं में रक्तकण हुए..तप्त-गतिशील
निष्कलंक आत्मा शून्य गर्त में रही सुप्त
हमारे क्षितिज का आकाश हुआ…नील।
अर्ध रात्रि का अपूर्ण स्वप्न.. हुआ क्षताक्त
प्रतिज्ञा..प्रतिवाद..प्रतिरोध..न! कहीं नहीं
अरुणित अरुषी के श्वास में सब..रक्ताक्त
नीरव स्वप्न का अंश स्यात्..नहीं था कहीं।
कैसी ज्यामिति है!क्षुद्र इस पृथी का व्यास
तुम सदा रहती हो समीप किंतु अनिश्चित
तुममें रहता है मेरी चेतना का… प्रतिवास
तुम होती हो तृष्ण..कर स्वयं को शब्दित ।
ऐ मृत्यु कलिका!अनादित्व है यह कल्पना
कल्पना में तुम रहोगी बन अनिंद्य अल्पना ।
अनिमा दास