Tuesday, October 8, 2024
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सौम्या पाण्डेय “पूर्ति” की कलम से – सामाजिक सरोकारों का सशक्त स्वर: डॉ सन्तोष खन्ना का नाटक ‘तुम कहो तो!

पुस्तक-समीक्षा : “तुम कहो तो”
लेखक  : डॉ सन्तोष खन्ना”
समीक्षक  : सौम्या पाण्डेय “पूर्ति”
प्रकाशन वर्ष : 2005
मूल्य : ₹ 125 हार्डबाउंड, प्रष्ठ : 119
प्रकाशक : विधि भारती परिषद
भारत देश अपनी सांस्कृतिक विरासत के साथ-साथ साहित्य के लिए भी जाना जाता है । भारतीय जनमानस न केवल साहित्यानुरागी है अपितु साहित्य के प्रचार व प्रसार में सक्रिय भी है । विगत कुछ दशकों से साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अभूतपूर्व कार्य हुआ है, लेकिन साहित्य की प्राचीनतम विधा “नाटक” की अनदेखी हुई है । कारण चाहे सामाजिक विकास हो अथवा चलचित्र व दूरदर्शन का प्रभाव, परन्तु नाटक जैसी विधा आजकल लुप्तप्राय है जो कि साहित्यिक हित में नहीं है। ऐसे में वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय “सन्तोष खन्ना” मैम का नाटक “तुम कहो तो” पढ़ा तो पढ़ती ही रह गई । मात्र कुछ ही घंटों में पूरा नाटक पढ़ डाला क्योंकि पुस्तक की भाषा, शब्द विन्यास, पात्र प्रस्तुतिकरण ऐसा अद्भुत था कि सब कुछ मानो समक्ष जीवंत हो गया हो । लेखनशैली में पाठकों को बाँधने की अद्भुत क्षमता है ।
कहानी प्रमुख रूप से एक ज्वलंत सामाजिक मुद्दे “दहेज” को लेकर लिखी गई है । कहानी की मुख्य पात्र दमयंती जो एक मध्यम वर्गीय, अल्पशिक्षित महिला है जो कि अपने बड़े पुत्र बिशन की सुशिक्षित व कार्यरत पत्नी को सिर्फ इसलिए पसंद नहीं करती क्योंकि उसके माता-पिता ने दमयंती के इच्छानुसार दहेज नहीं दिया था । यहाँ बिशन का चरित्र कान के कच्चे व लालची पुत्र का है जो अपनी माँ की हर उल्टी-सीधी बात मानकर अपनी प्रेयसी व पत्नी आरती को हर सम्भव रुप से परेशान करता रहता है । आरती का स्वाभिमान सामाजिक दबाव में बहुत बार खंडित होता है व हर बार अपने विवाह को बचाने के लिए वो अपने मायके से कुछ न कुछ महंगे उपहार आदि लाकर दमयंती व बिशन की धन लोलुपता को शांत करने का प्रयास करती है, फिर भी वे लोभी तृप्त नहीं होते व आरती को मारकर बिशन का दूसरा विवाह करने की योजना बनाते हैं ।
बिशन के पिता दया प्रकाश पुरुष विमर्श का पर्याय हैं व सब जानते समझते हुए भी आरती की परिस्थिति को सुधार नहीं पाते हैं । यहाँ यह भी दर्शाया गया है कि एक ओर अल्पशिक्षित दमयंती है जो पूरे परिवार को अपनी उंगलियों पर नचाती है तो दूसरी ओर उच्च शिक्षित आरती है जो अच्छी तनख्वाह के बावजूद भी स्वयं को पारिवारिक दायित्वों में झोंके रहती है। लेखिका ने अपनी पारखी नज़र व अनुभवों के आधार पर पात्रों को गढ़ा है जो समकालीन अनेक परिवारों की जीवनशैली को सशक्त रूप से प्रस्तुत करने में सक्षम रहे हैं व संवाद उन्हें पुष्टि देते हैं, जैसे दमयंती, दया प्रकाश व आरती के निम्न संवाद की बानगी देखिए-
दया प्रकाश- “बेटी चाय पीकर थोड़ा आराम कर लो । सब्जी दे दे अपनी माँ को । बैठी- बैठी छील देंगी… रसोई में तो वह घुसने से रही…”
दमयंती- ” किस जन्म का बैर निकाल रहे हो जी… मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है, तुन्हें सब्जियां सूझे हैं ।
आरती- “माँ जी, मैं सब कर लूंगी… आप आराम करें ।”
इन संवादों के माध्यम से मध्यम परिवार की वह तसवीर उजागर होती है, जहाँ कामकाजी बहू दफ्तर से थकी – थकाई आने के बाद भी घरेलू कार्य कर रही है, उसके ससुर को उसकी चिंता है पर सास मजाल है जो किसी काम को भी हाथ लगा जाए, ऐसे में दिनभर अपनी बच्ची से दूर रहने का दंश भी आरती को सालता है और उसकी ममता भी कचोटती है, लेकिन वर्जनाएं हैं जो यथावत् हैं ।
इसी प्रकार,  दमयंती व बिशन के मध्य एक संवाद देखिए, जिसमें दमयंती जब उसे आरती के बारे में भड़का रही थी तब बिशन कहता है-
“ठीक कहती हो माँ । आरती यही नहीं समझती – सच कहा है, औरतों की अक्ल उनकी एड़ी में होती है ।”
दमयंती- “तूने ही तो पल्ले डाल ली यह बदअक्ल ।”
बिशन- “अब तो गले पड़े ढोल बजाने पड़ेंगे- कुछ दिन के लिए टली । अच्छा हुआ ।कुछ दिनों में महीना खत्म हो रहा है – वेतन मिलने वाला है ।”
इन संवादों के माध्यम से बिशन औरतों की अक्ल उनकी एड़ी में होने की बात करता है, जो उसकी संकीर्ण मानसिकता को दर्शाता है तो वहीं उसको उकसाने वाली दमयंती उसका समर्थन करते हुए यह नहीं सोच पाती कि वह भी तो एक औरत है ?? माँ जब सास बनकर अपनी बहू के विरुद्ध षणयंत्र रचती है तो स्वयं स्त्री होकर भी अन्य स्त्री की तकलीफ व दशा को समझना तो दूर बल्कि दरकिनारे कर देती है, जिसे इस नाटक में विभिन्न संवादों द्वारा मुखर रूप से चित्रित किया गया है । 
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि ऐसी कम अक्ल पत्नी की तनख्वाह को पाने की लालसा पुरुष मानसिकता के दोहरे चरित्र को उभारने में सक्षम रही है ।
कहानी का परिदृश्य बदलता है।  इस परिवार के छोटे पुत्र किशन के व्यक्तित्व के विकास से, जिसकी धुरी बनती है अनुराधा जो एक परम् विदुषी व सुलझी हुई लड़की है । उसके संपर्क में आकर किशन का न केवल आत्मिक विकास होता है वरन् समाजिक रूप से भी वो दहेज त्यागकर व स्त्रियों का सम्मान व समाज सेवा करके न केवल अपनी सोच व अन्य लोगों की विचारधारा को बदलने की सामर्थ्य प्राप्त करता है । वो एक आदर्श उदाहरण के रूप में भी उभरता है, जो आज के नवयुवकों के लिए प्रेरणास्रोत है।
यह नाटक संवेदना के अनेकों भाव समेटे है, जिसमें वैज्ञानिक तत्व व आध्यात्मिक पुट भी है, जिसके लिए वृहद ज्ञान व अनुभव सिंचित होने के कारण आदरणीय मैम ने एक ही नाटक में उन सबको समाहित कर लिया है । नाटक के एक अन्य पात्र अनुराधा के पिता “रामसुजान” के माध्यम से उन्होंने यह दोनों तत्व उजागर किये हैं एक संवाद देखिये-
रामसुजान-
“नमस्ते शब्द तीन भागों में बांटा जा सकता है “नम” “नमस” एवं “ते” । नम का अर्थ है झुकना, अथवा समर्पण, “नमस” सम्मानपूर्वक अभिवादन और ‘ते’ है आप, अतः मैं आपके प्रति सम्मानपूर्वक झुकता हूँ ।”
यहाँ सिर्फ नमस्ते शब्द का अर्थ और महत्व नहीं दर्शाया गया बल्कि  उन्होंने आगे के सम्वादों के माध्यम से अन्य अनेक सांस्कृतिक और दार्शनिक आयामों को वृहद रूप से विश्लेशित किया है, जिसे पढ़कर ही आनंद लिया जा सकता है।
साथ ही लेखिका क्योंकि स्वयं ही साहित्यकार होने के साथ-साथ प्रतिष्ठित वकील एवं “उपभोक्ता फोरम” में जज के पद को गौरवान्वित कर चुकी हैं अतः संवादों के माध्यम से दहेज उन्मूलन के कानून की संवैधानिक जानकारी भी इस नाटक को समृद्ध बनाती है ।
कहानी अपने चरम पर होती है जब बिशन व दमयंती अपनी कुटिल चाल के द्वारा आरती को मारने की योजना बनाते हैं, जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, पाठक की चिंता भी बढ़ती जाती है कि कहीं आरती को कुछ हो न जाए..!! ऐसे में दमयंती की पुत्री करुणा का पदार्पण व उसका उसके ससुराल वालों द्वारा  सुनियोजित ढंग से दुःखद अंत से कहानी में न केवल त्रासद मोड़ आता है अपितु दमयंती के पश्चाताप से बिशन का हृदय परिवर्तन व आगे की परिस्थितियां कहानी को संतोषजनक व प्रेरक मोड़ प्रदान करती हैं, जो पाठकों के लिए सुखद है।  
इस पूरे प्रसंग का घटनाक्रम संपूर्ण नाटक का सार भी समेटे हुए है । दमयंती और उसकी बेटी करुणा के मध्य वार्तालाप, उनका एक दूसरे से मिलना, यह सब काल्पनिक था या वास्तविक या फिर दमयंती के अपने मन का गिल्ट (अपराध बोध) था, जिसकी वजह से करुणा के साथ वो घटना घटी जो उसने अपनी बहू आरती के लिए सोची थी । वो आरती को जलाकर मारने की योजना बना रही थी और उसी रात उस योजना को कार्यान्वित भी करने वाली थी कि अचानक उसे अपने कमरे में करुणा दिखी, वो उससे बात करती है और आरती को कुछ न करने की सलाह भी देती हैं । दमयंती जहाँ एक ओर आश्चर्यचकित थी कि करुणा कमरे में आई कैसे, वहीं उसका काला चेहरा देखकर सशंकित भी, फिर जब उसे पता चलता है कि वास्तव में करुणा के साथ कुछ गलत हो गया है, उसे उसी प्रकार जलाकर मार डाला गया है जैसे दमयंती आरती को मारना चाहती थीं तो वो विचलित हो जाती है और बेहोश होकर गिर जाती है, जिसकी वजह से सारा परिवार उसकी देखभाल करने लगता हैं व उसे अस्पताल ले जाते हैं । इस वजह से आरती को मारने की योजना धरी की धरी ही रह जाती है, लेकिन दूसरे दिन ही करुणा की मार्मिक हत्या की खबर परिवार को मिलती है, जिसका कदाचित दमयंती को अहसास था, पर वो कोमा में चली जाती है और अपना अनुभव किसी के भी साथ शेयर नहीं कर पाती, लेकिन जब भी होश आता है वो “आरती को मार डाला”, पुलिस.. हथकड़ी.. आदि शब्द बोलती है, जिसका अर्थ बिशन के अतिरिक्त किसी को भी समझ में नहीं आता है व किसी को भी अंत तक इस बात का पता नहीं चल पाता कि आखिर उस रात दमयंती को हुआ क्या था?
अब इसका दूसरा पक्ष देखें तो यह पारलौकिक घटनाक्रम नज़र आता है, जिसमें करुणा की आत्मा मृत्यु के पश्चात अपनी माँ को अपनी स्थिति बताने आती है एवं उसे सचेत भी करती है कि बहू को परेशान न करें क्योंकि उसकी बेटी भी वही भोग कर मरी है, जो वो अपनी बहू के साथ कर रही है, और करना चाहती है । लेकिन साथ ही इस बात का कोई आधार भी नहीं है कि करुणा की आत्मा वास्तव में दमयंती के पास आई थी या नहीं ।
यहाँ नाटक का एक अन्य पक्ष दमयंती के गिल्ट के रूप में सामने आता प्रतीत होता है, क्योंकि वो जो करना चाह रही थी उसको रोकने के लिए शायद उसकी अंतरात्मा ही करुणा का रूप धरकर उसे सचेत कर रही हो, जो उसे उसके अपराध का बोध कराना चाह रही हो । यहाँ एक अन्यत्र पक्ष भी उभरता है जो मनोवैज्ञानिक है, क्योंकि मानव मन अपनी उन सभी बातों व विचारों को अपने सब कॉन्शियस (अवचेतन) मष्तिष्क में समेटे रहता है, जो स्वप्न के द्वारा अथवा प्रत्यक्ष भी तभी उजागर होता है, जब हम उस विषय पर लगातार चिंतन करें परन्तु किसी से भी उसकी चर्चा न कर सकें । यहाँ यह अवधारणा भी सही सिद्ध हो सकती है कि दमयंती शायद करुणा को स्वप्न में या अपने अवचेतन  मष्तिष्क के द्वारा महसूस करा रही हो, फिर भी यह सारे तथ्य ही उस एक घटनाक्रम को इस नाटक का सबसे महत्वपूर्ण भाग बनाते हैं, जहाँ से नाटक की दिशा ही बदल गई और अंत में दमयंती कोमा से निकलने के बाद भी जब तक अपनी बहू आरती के मुँह से अपने लिए माफी नहीं सुन लेती तब तक अपने प्राण नहीं त्यागती। एक विचार कि हमें हमारे कर्मों का फल अवश्य मिलता है, यदि हम दूसरों के लिए गड्ढा खोदते हैं तो स्वयं ही उसमें गिर जाते हैं का सशक्त प्रस्तुतिकरण “दमयंती” के माध्यम से किया गया है, जिसमें वह तब तक तड़पती रहती है जब तक “आरती” से क्षमा नहीं माँग लेती । और यहीं पर नाटक का शीर्षक “तुम कहो तो…!” स्पष्ट होता है । पूरा नाटक पढ़ने के बाद ही शीर्षक का महत्व व उपयोगिता का पता चलता है । यह भी इस नाटक की विशेषता है ।
नाटक का पूरा कथानक दृश्य व संवादों के माध्यम से प्रवाहमयी है, विशेष रूप से करुणा व दमयंती के मध्य के वो अंतिम वार्तालाप के संवाद बेहद मार्मिक व हृदयग्राही हैं । सभी पात्रों व उनकी भूमिका से पूरा न्याय किया गया है, जो नाटक विधा के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । पात्रों की मनोदशा का सटीक चित्रण पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देता है। 
समाज को दिशा दिखाने वाले इस प्रेरक सृजन के लिए मैं “आदरणीय सन्तोष खन्ना” मैम को बहुत – बहुत बधाई एवं धन्यवाद भी प्रेषित करती हूँ कि उन्होंने बड़े ही सरल, स्वाभाविक व प्रभावी रूप से विभिन्न सामाजिक मुद्दों को उठाते हुए उनका निराकरण (सामाजिक एवं आध्यात्मिक) दोनों ही माध्यमों से दर्शाया है। पुस्तक निस्संदेह पठनीय है, विषय वस्तु बाँधे रखती है, अतः लगभग 18 वर्ष पूर्व प्रकाशित  यह रचना एक बार फिर सुधी पाठकों तक अवश्य पहुँचनी चाहिए । यही मेरी शुभकामना है।
सौम्या पाण्डेय “पूर्ति”
संपर्क – [email protected]


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1 टिप्पणी

  1. नाट्य पुस्तक “तुम कहो तो” की अच्छी समीक्षा की आपने।यह विडंबना ही है कि स्त्री की पीड़ा को स्त्री ही नहीं समझ पाती है।
    पर यह भी ठीक है कि अंत भला तो सब भला। आपकी समीक्षा को पढ़कर नाटक का केन्द्रीय भाव महसूस हुआ सौम्या जी। शुक्रिया आपका।

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