• संदीप नय्यर

(विश्व हिन्दी दिवस के अवसर पर)

मुझसे अक्सर यह पूछा जाता है कि आप तो ब्रिटेन में रहते हैं, आपकी अंग्रेज़ी भी अच्छी है तो फिर आप हिंदी में क्यों लिखते हैं (अंग्रेज़ी में क्यों नहीं लिखते यह प्रश्न इस प्रश्न में ही छुपा होता है.)
यह प्रश्न बहुत चुभता है. दुःख होता है ऐसा प्रश्न सुनकर. कायदे से प्रश्न तो भारत के अंग्रेज़ी के लेखकों से पूछा जाना चाहिए कि आप भारतीय हैं, आपकी हिंदी भी अच्छी है फिर आप अंग्रेज़ी में क्यों लिखते हैं.
दुर्भाग्य से हम हिंदी के लेखकों को ही यह उल्टा सवाल झेलना पड़ता है. कई बार मन करता है कि प्रश्न पूछने वाले से पूछूँ कि यह क्या बेतुका प्रश्न है. हिंदी मेरी मातृभाषा है. मैं हिंदी में क्यों न लिखूँ. अपनी भाषा पर गर्व करने वाले किसी भी राष्ट्र में वहाँ के लेखक से यह प्रश्न नहीं किया जाएगा कि वह अपनी मातृभाषा में क्यों लिखता है.
 मगर यदि व्यवसायिक तौर पर देखूँ तो यह प्रश्न इतना बेतुका भी नहीं लगता. भारत में अंग्रेज़ी साहित्य की तुलना में हिंदी साहित्य की बिक्री बहुत कम है. हिंदी के पाठक बहुत कम हैं. विडम्बना यह भी है कि अंग्रेज़ी की किताबों के हिंदी अनुवाद हिंदी के मूल लेखन से अधिक बिकते हैं.
 लोगों का मानना है कि इसका कारण अंग्रेज़ीपरस्ती है, अंग्रेज़ी का ग्लैमर है. मैं इससे पूर्णतः सहमत नहीं हूँ. हिंदी की स्थिति हिंदी साहित्य के बाहर कहीं भी इतनी बुरी नहीं है. बल्कि मुझे तो हिंदी का विस्तार होता ही दिख रहा है. हिंदी फिल्मों का अच्छा-खासा ग्लैमर है. विदेशी कलाकार हिंदी फिल्मों में काम करने के लिए हिंदी सीख रहे हैं. हिंदी के अख़बार खूब बिकते हैं. हिंदी के टीवी सीरियल और वेब सीरीज़ खूब देखी जाती हैं. सीरियल्स के अलावा भी टीवी पर हिंदी का विस्तार ही हुआ है. मुझे याद है कि दूरदर्शन के ज़माने में टीवी पर अंग्रेज़ी के कार्यक्रम अधिक हुए करते थे. फिर उसके बाद आए ज़ी टीवी, सोनी टीवी आदि ने हिंगलिश का प्रयोग करना शुरु किया. अब तो सब शुद्ध हिंदी पर उतर आए हैं. यहाँ तक कि अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनलों के न्यूज़ रीडर और एंकर भी अब हिंदी बोलने लगे हैं. अरनब गोस्वामी जो मजबूरी में टूटी-फूटी हिंदी बोलते थे अब अच्छी खासी हिंदी बोलते हैं और खूब बोलते हैं.
 हिंदी जन-जन की भाषा है. उसे किसी ग्लैमर की ज़रूरत नहीं है. आम भारतीय हिंदी से बेहतर किसी और भाषा को नहीं समझता. हिंदी साहित्य की दुर्गति के लिए हिंदी के लेखक, आलोचक और प्रकाशक ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने साहित्य को आम जनमानस से काट दिया. लोकप्रिय साहित्य को असाहित्य कहकर नकार दिया. पाठक इसके लिए कहीं ज़िम्मेदार नहीं है.
समस्या यह होती है कि जब कोई चीज़ नकार दी जाए तो उसे स्वीकारने में झिझक महसूस होती है, शर्म आती है. सामाजिक उपहास का डर लगता है. बस यही डर लोगों में बैठा हुआ है, जिसे दूर करना हमारा फ़र्ज़ है.
 हमें चाहिए कि हम अधिक से अधिक हिंदी साहित्य पर बात करें. लोगों के बीच, चाहे वह खुद को एलीट कहने वाला वर्ग हो, हिंदी साहित्य की चर्चा करने से झिझके नहीं. अपने साथ हिंदी की किताबें लेकर घूमें. सार्वजनिक स्थल पर हिंदी की किताबें पढ़ें. ट्रेन में, बस में, एअरपोर्ट में, हवाईजहाज में, हर जगह हिंदी की किताबें पढ़ें. पुस्तकालयों में, बुक स्टाल में जाकर हिंदी की किताबों की माँग करें. यह एक अभियान बनना चाहिए, एक आन्दोलन बनना चाहिए. आज हिंदी की किताबों की बिक्री सैकड़ों से बढ़कर हज़ारों तक तो पहुँच ही गई है. इसे लाखों और करोड़ों तक पहुँचाए बिना रुकना नहीं है.
जय हिंद, जय हिंदी

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