अनोखा

 

जैसा नाम कुछ अलग है ‘ अनोखा ‘ वैसी वो बिलकुल भी अलग नहीं थी बस न जाने क्यूँ उसका नाम अनोखा था . करीब पाँच फुट लम्बी, साँवला रंग ,छोटी निर्जीव आँखें ,भूरे सूखे बाल ,दांत कुछ आगे निकले से, कपड़ों से आती पसीने की असहनीय बदबू और शरीर में लिपटे पुराने कहीं-कहीं से फटे कपड़े ये थी अनोखा की रूपरेखा . एक बेहद गरीब नाई, हरी प्रसाद की बेटी थी वो और इकलौती नहीं बल्कि चार छोटी बहने और पाँचवा एक भाई भी था जिसकी माँ की भूमिका अनोखा ही निभा रही थी.

अनोखा की माँ रामरती लोगों के घर चौका-बासन और लिपाई-पुताई करके किसी तरह अपने बच्चों के लिए रोटी जुटा पाती थी . एक लड़के की चाह में पाँच बेटियाँ जनी थीं उसने . दबाव किसी का नहीं था उसे खुद ही बेटा चाहिए था . खुद की उम्र अभी तीस पार न थी पर देखने में किसी पिछली सदी सी दिखती थी वो. रंग इतना काला कि उसके दाँत चूने जैसे सफ़ेद चमकते थे , शरीर सिर्फ हड्डियों का ढांचा मात्र बचा था कई बार खेतों के बिजुका भी उससे भले दीखते थे .

अनोखा के पिता हरी प्रसाद को मिर्गी के दौरे पड़ते थे . आये दिन यही सुनने में आता कि आज यहाँ तो कल वहाँ हरी प्रसाद गिरा पड़ा है और मुंह से झाग फेंक रहा है . यही बीमारी उसकी सबसे बड़ी दुश्मन थी पूरे गाँव में कोई भी उससे अपने बाल या दाढ़ी ( हजामत ) नहीं बनवाता था कि कहीं उसकी साँसों से ये बीमारी उन्हें भी न लग जाए. पास के गाँव में सप्ताह में दो दिन सब्जी और मवेशी का बाज़ार लगता था अतः हरी प्रसाद वहीँ जाकर किसी पेड़ कि छाँव तले अपनी पिटारी खोल बैठ जाता और कोई दो-चार लोग जो उसे नहीं पहचानते थे अपने बाल कटवा लेते ,हजामत बनवा लेते थे . बस यही उसकी कमाई थी .खेती बाड़ी न के बराबर थी . एक बिसुआ उसरहा खेत उसे मिला था अपने भाइयों से बँटवारे के बाद जिसमे मुश्किल से धान कि फसल हो पाती थी और थोड़े बहुत गेंहूं भी मिल जाते थे . बीमारी के चलते दूसरे लोग उसे अपनी खेती भी बटाई पर नहीं देते थे . उसके पास अपने बैल या हल भी नहीं था जुताई आदि के लिए. बामुश्किल वो अपने भाइयों से बैल और हल ले पाता था अपने खेत कि जुताई के लिए .

इतनी सब कठिनाइयों के बीच जो दो-चार रूपए कमाता भी तो रोज तो नहीं पर हाँ महीने में एकाध बार देसी दारु में डुबो देता था .कमज़ोर शरीर झेल भी न पाता और पड़ा रहता वो कभी किसी मेड़ पर ,कभी किसी तालाब के किनारे . फिर उसे घिसलाती हुई रामरती और बड़ी बेटी अनोखा ले जाते घर तक .रामरती के मुँह से गालियाँ बरसतीं , अपनी किस्मत को कोसती और सारा गुस्सा अपनी बेटियों पर निकालती ,उन्हें पीट डालती. बेटे अनूप को कलेजे से लगा के कहती कि बस मेरा बेटा बड़ा हो जाए तो मुझे इस नरक की दुनिया से मुक्ति मिले न जाने इन पाँच-पाँच बोझ की गठरियों से कब पीछा छूटेगा , मुझे मार कर ही मरेंगी ये सब !

न जाने कितनी रातें सिर्फ पानी पर रामरती ने गुज़ारीं थीं . दिन में तो फिर भी जिस घर काम करती कोई न कोई उसे बासी रोटी -आचार या खराब हो रहा खाना खिला ही देता . हाजमा इतना मज़बूत हो चूका था कि सब कुछ हजम हो जाता

. अनोखा अब चौदह वर्ष की हो चुकी थी , उसका शरीर अब छुप नहीं रहा था और रामरती के लिए सबसे बड़ी मुसीबत यही हो रही थी की सब गाँव वालों की नज़रों से कैसे बचाए क्यूंकि उसके उभरते अंग अब सिर्फ कुर्ते में छुप न पा रहे थे .जब रामरती ने अपनी समस्या जन घरों में काम करती थी उनकी मालकिनो से बताई तो कुछ भली औरतों ने अपनी पूरानी फटी ब्रा रामरती को दे दी, कि इसे सिल कर वो अनोखा को पहनाये और अनोखिया से बोल कि दुपट्टे से ढँक कर रखा करे ठीक से अपना शरीर . पुरानी साडी फाड़ कर रामरती ने अनोखा के लिए दुपट्टा भी बना दिया और फटी ब्रा की भी मरम्मत करके पहना दी अनोखा को .पर भला कब तक और कहाँ तक ढँक पाती ये पुरानी अंगिया और पूरानी ओढ़नी अनोखा के नित नए विकसित हो रहे शरीर को.आखिर उसे भी तो अच्छा लगता था अपने शारीर का बदलता हुआ यह रूप क्यों कि अब जब भी वो घर में रहती तो चचेरे भाई भी उसे बड़े ध्यान से निहारते और जब भी बाहर जाती गाँव के चाचा-ताऊ सब उसे अपने पास बुलाते,उसके हाल पूछते और बिना किसी काम के ही ५-१० रुपया भी पकड़ा देते कि रख लो कुछ अपनी पसंद का ले लेना .

आज तो गाँव के रज्जन काका ने बिसात खाने वाले से उसे पूरे ९ रूपये के कान के बुँदे और ३ रुपए की नाखूनी दिलवाई साथ ही बड़े प्यार से बोले कल यह बुँदे पहन कर इसी वक़्त मेरे टुबवेल पर आना जरा मैं भी तो देखूं कि कैसी दिखती है तू इन बूंदों में .अनोखा ने पहली बार कान के बुँदे पहने थे . आठ बरस की थी जब उसने शौक में कान छिदवाए थे लेकिन आज तक सिवाए नीम की सूखी डंडी के कोई जेवर उसे न मिला था .हरा नग था उन बुन्दो पर ,उन्हें पहन नाखूनी लगा इतरा रही थी वो और सोच रही थी कि माँ बस यूँ ही परेशान रहती है और सब को कोसती है,जबकि सब लोग कितने अच्छे हैं गाँव में ख़ास कर रज्जन काका .


रामरती की नज़र जैसे ही पड़ी अनोखा पर वह दंग रह गई और जोर से उसके बाल खींचते हुए बोली कहाँ से लाई ये सब ? अनोखा घबरा कर रोने लगी और डर के मारे झूठ बोल दिया कि रज्जन काका की बेटी बेबी जिज्जी ने दिए हैं हमें .वो कह रही थीं कि हमारी शादी हो गई है और अब हम सोने के गहने पहनते हैं ,इनका कोई काम नहीं तो तू रख ले . ये सुनकर रामरती कुछ शांत हुई और बोली, ठीक है चल अब रात के लिए रोटी सेंक ले, आज रामसरन कक्कू के यहाँ से मठठा मिला है उसी से सब खा लेंगे, और हाँ देख ये थोडा गुड़ है इसे अनूप के मट्ठे के में डाल देना कहकर रामरती पड़ोस की देवरानियो में गपियाने चली जाती है .

गाँव के सभी ठाकुरों की ठकुरई के बारे में बात करने और दबीं जुबान से उन्हें गरियाने में सबको भला  लगता हैं  . तभी मौका देखते ही उसकी जिठानी हमेशा की तरह उसे छेड़ती है – “अरे रामरती अनोखा सयानी हो गई है ,कोई लड़का देख भी रही है या नहीं ? मेरी मान जल्द उसकी शादी कर दे कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो क्या करेगी . तू कहे तो अपने बड़े भाई से बात चलाऊँ. कोई दान-दहेज़ भी नहीं देना पड़ेगा . बस मेरे भईया को एक लड़का दे दे और फिर क्या, राज करे पूरा जीवन. तीन बेटियां है बस चौथे बच्चे के समय भौजाई ख़तम हो गई तब से उनका घर सूना है खाने पीने की भी कोई कमी न है मेरे भईया के पास ,वैसे भी तू कहाँ से कर पायेगी अनोखिया की शादी “.

रामरती वहाँ से बिना कुछ बोले हुए चली आती है और मन ही मन सोचती है कि सही तो कह रही है उसकी जिठानी ,आखिर कैसे होगी अनोखा की शादी . खाने के बाद खाट पर लेटी रामरती इंतज़ार करती है नींद का , रात चढ़ आई पर नींद उसकी आँखों से कोसों दूर. तभी हरी प्रसाद आता है और एक झटके में उसके ऊपर ये कहते हुए कि मट्ठा खट्टा था बहुत,मेरी भूख अभी बाकी है. निष्प्राण,निर्जीव रामरती से अपनी वासना की भूख शांत कर हरीप्रसाद सो जाता है , और रामरती, उसकी भूख ? उसे भूख है ही नहीं . ज़िंदगी ने इतना भर दिया है उसे कि वो भूख को ही भूल गई है .

रात बीत जाती है और सुबह ले जाती है रामरती को उन घरों की ओर जहाँ वो चौका-बासन करती है ,सुबह की चाय उसे वहीँ नसीब हो जाती है . हालांकि दूध नहीं होता उस चाय में ,बची हुई उबली हुई पत्तियों में ही पानी डाल कर उबाल कर दे दिया जाता है उसे पीने को ,पर शक्कर खूब होती है क्यूंकि मालकिन अक्सर ही कहती हैं कि इन काम वालों को मीठा बहुत पसंद होता है,इनकी चाय में शक्कर खूब होनी चाहिए बस . सही तो कहती हैं मालकिन, हमारे जीवन की मिठास इसी चाय की ही तरह तो है, न पत्ती, न दूध,बस दिखावे की चाय .जिसका बस रंग गाढ़ा है हमारे गाढ़े जीवन की तरह |

.उधर घर में अनोखा जल्दी-जल्दी सारे काम निपटाती है अपने छोटे भाई अनूप को नहला-धुला कर ,उसकी आँखों में मोटा सा कानो तक फैला काजल लगाकर उसे अपनी छोटी बहनों के हवाले कर खुद नहा कर तैयार हो जाती है. अनोखा को ब्रा पहनना पसंद नहीं, रोज ही रामरती की डाँट से पहन लेती है पर आज वो ब्रा पहनना नहीं भूली . आज उसे अपने बदन पर ये कसाव अच्छा लग रहा था . कानो में हरे बुँदे खूब जँच रहे थे . अब रज्जन काका से मिलने कैसे जाए बस यही सोचते हुए वो हाँथों में लोटा उठा कर चल देती है ताकि कोई सवाल न करे कि वो कहाँ जा रही है . आखिर उसकी चाची और ताई सब अपनी मोटी नज़र उस पर रखते हैं, कि कब कोई गलती हो और वो रामरती को नीचा दिखा सके .

टिऊबवेळ पर रज्जन पहले से ही मौजूद था और अनोखा को देखते ही उसकी धमनियों का प्रवाह तेज़ हो गया . अनोखा कहती है काका हम आ गए आपने कहा था न कि बुँदे पहन कर दिखाना . हाँ ! रज्जन बोला .थोड़ा पास तो आ ,मेरे पास बैठ कहते हुए रज्जन अनोखा को खींच लेता है अपने बेहद करीब . अनोखा डरती है पर कहती कुछ नहीं,हिम्मत ही नहीं उसमे . रज्जन चुप्पी तोड़ता है ,कितनी अच्छी लग रही है तू ,किसी फिलम कि हीरोइन माफक . अनोखा शरमा जाती है और दुपट्टे से मुंह ढँक लेती है .रज्जन की नज़र सीधे अनोखा के कसे हुए शरीर पर जाती है . देख अनोखा मै तेरे लिए और भी बुँदे, माले और नया सूट भी ला दूँगा,या तू अपनी पसंद का ले लेना मै तुझे पैसे दे दूँगा अब शरमाना छोड़ और खुश रह बस ! अनोखा सोचती है कि आज तक मैंने कभी नया कपड़ा नहीं पहना ,घर में कुछ नई साड़ियाँ हैं माँ के बक्से में लेकिन उन्हें माँ भी नहीं पहनती,कहती है कि मेरे ब्याह में मुझे देगी पता नहीं सच कहती है या झूठ क्यूंकि प्यार तो वो सिर्फ अनूप को ही करती है .आप कितने अच्छे हो रज्जन काका कहते हुए वो सहज हो जाती है .

देख मै तेरे लिए क्या लाया हूँ कहते हुए रज्जन अपने कुरते की जेब से अख़बार की  एक पुड़िया निकालता है जिसमे चिपकी होती हैं तीन-चार जलेबियाँ .अनोखा खुश होकर “जलेबी ! ” रज्जन कहता है हाँ ,तेरे लिए ही लाया हूँ और अनोखा झट से अखबार ले, जलेबियाँ खाने लगती है . रज्जन ध्यान से अनोखा के होठों को निहारता है और एकदम से उसका मुँह पकड़ कर अपने मुँह में ले लेता है . काका आप क्या कर रहे हैं कहते हुए अनोखा खुद को छुड़ाती है . कुछ नहीं तूने जलेबियाँ खाई तो मैंने सोचा मै भी मुँह मीठा कर लूं रज्जन कहता है . तू डर क्यूँ रही है अनोखा देख तुझे कुछ भी नहीं हुआ , मुझे अच्छा लगा क्या तुझे अच्छा नहीं लगा कहकर रज्जन अनोखा की कमर में हाँथ डालकर उसके पेट को दबाता है . मुझे डर लग रहा है काका यदि माँ को पता चला तो मुझे मार ही डालेगी कहते हुए अनोखा अपनी ओढ़नी को फैला लेती है . रज्जन कहता है मै तुझे प्यार करने लगा हूँ और तेरा पूरा ख्याल रखूँगा ,किसी को भी कुछ नहीं पता चलेगा और तू भी माँ को बताना ही नहीं कहते हुए रज्जन खुद को अनोखा के शरीर से पूरी तरह सटा देता है . अनोखा उम्र के जिस मोड़ पर है उसे ये सब किसी सपने और सतरंगी दुनिया के सामान लगता है . रज्जन धीरे-धीरे अनोखा के शरीर को सहलाता है वो डरती है और साथ ही शरमाती भी है लेकिन मना नहीं करती आखिर अभी-अभी जलेबियाँ खाई थीं उसने और फिर नया सूट भी तो मिलगा .

अचानक  किसी की आवाज़ आती है रज्जन …ओ रज्जन ! रज्जन चौकन्ना होता है अनोखा को छोड़ झट से खड़ा होता है, कल फिर आना कहते हुए उसे कोठरी के पीछे के दरवाजे से निकल जाने को कहता है और खुद को सँभालते हुए कोठरी के बाहर आता है वहाँ गाँव के प्रधान होते हैं . अरे प्रधान साहब आप यहाँ, बताइए कैसे आना हुआ .

अनोखा चली जाती है और आज पहली बार वो अपने शरीर में कुछ पिघलन महसूस करती है. जल्दी से घर पहुँच कर बुँदे उतार देती है और घर के कामो में जुट जाती है पर आज उसे अपना शरीर हवा की तरह उड़ता हुआ सा लगता है. माँ कभी भी जलेबी नहीं लाई हाँ , एक बार किसी ने दो जलेबियाँ दी थीं उसे वो भी माँ ने अनूप को खिला दी थीं,उसकी बची ज़रा सी चाशनी ही मुझे चाटने को मिली थी और आज पूरी चार जलेबियाँ खाईं मैंने,कितना अच्छा लगा था अनोखा सोचती है . इसी तरह पूरा दिन बीत जाता है और रात आते ही अनोखा सुबह की प्रतीक्षा में बेचैन हो रही है कि कल भी उसके लिए कुछ तो ज़रूर ही लायेंगे रज्जन काका .आज रात खुद से ही शरमा रही है और खुद को ही सहला भी रही है . ये सब उसे अच्छा लग रहा है पर क्यूँ ,क्या ये तो उसे खुद भी नहीं पता .

हरी नाई रोज ही निकल जाता कि शायद आज कोई उससे बाल बनवा ले और रामरती घरों के चौका-बासन करने चली जाती उनके जाते ही अनोखा भी फटाफट सारे काम निपटा कर निकल जाती किसी न किसी बहाने से अपने रज्जन काका से मिलने .

रज्जन काका की उम्र करीब ४५ की होगी और उनकी बेटी, बेबी जो कि १९ की है इसी साल उसकी शादी हुई है . अनोखा अभी चौदह की पूरी हो पंद्रहवीं की दहलीज में कदम रख रही है. रज्जन रोज ही अनोखा के लिए मिठाई लाता,कभी कोई अँगूठी और नगद रूपए भी देता . आज तो उसने अनोखा को सौ रूपए दिए ये कहकर कि अपने लिए एक नई ब्रा खरीद ले जिसमे लाल रंग की लेस लगी हो.अनोखा रोज एक ही उधड़ी सी कुछ मटमैले रंग की ब्रा पहने रहती है यह जानने के लिए रज्जन को कभी उसकी कमीज़ नहीं उतारनी पड़ी क्यूंकि अनोखा के घिसे पारदर्शी कुरते के ऊपर से दुपट्टा हटाते ही रज्जन की ललचाई नज़रें सीधा वहीँ ठहरती हैं . ये रज्जन का रोज का काम था वो अनोखा की चुन्नी दूर रखवा देता की मुझसे क्या शर्म ,मै तो तेरा ही हूँ. और जी भर निहारता उसके अधखुले,अधढंके कसे शरीर को.

अगले ही दिन पैसे को सलवार के नारे में खोंस कर अनोखा बाज़ार से खरीद लाती है अपने जीवन का पहला नया कपड़ा वो भी अंतरंग और मचल पड़ती है सोचकर ही कि कल वो नया कपड़ा पहनेगी . पर माँ ! सोचते ही डर जाती है कि माँ को पता चलेगा तो मार ही डालेगी . मारे डर के नई ब्रा को भी खोंस लेती है सलवार के नारे के ही बीच में ताकि किसी कि नज़र न ही पड़े . खुश थी क्यूंकि पूरे पचास  रूपए भी बच गए थे जबकि उसने आइसक्रीम खा ली थी . सब कितना अच्छा लग रहा है वो सोचती है कि बड़े होने के कितने फायदे हैं. माँ तो घर में रोटी और नमक ही देती है या कभी-कभी मठ्ठा या चटनी बस ! रज्जन काका उसे रोज ही उसकी पसंद की चीज़े खिलाते हैं और माँ कहती है किसी से बात न करो ,खुद नहीं करती बात किसी से तभी कोई माँ को कुछ नहीं देता .

मै खुश हूँ और मुझे माँ जैसा नहीं बनना . अगले दिन नई ब्रा पहन ऐसे इतराती है खुद पर जैसे कोई सोने का हार पहन लिया हो. घर के छोटे से मटमैले शीशे में खुद को निहारती है मटक-मटक कर और जा पँहुचती है अपनी खुशियों के भगवान् रज्जन काका के पास .अनोखा को देखते ही रज्जन ताड़ जाता है फिर भी सवाल करता है,कुछ लिया या नहीं ? अनोखा नज़रें नीचे कर शरमा जाती है और रज्जन उसकी ओढ़नी हटा देता है धीरे से उसे बांहों में जकड़ लेता है उसके कानो में बोलता है ऐसे दिख नहीं रहा ज़रा ठीक से दिखा ,देखूं तो सही कहते हुए अनोखा का कुर्ता उतारने लगता है , अनोखा डर जाती है पर मना नहीं कर पाती आखिर रज्जन काका ने ही दिलवाई है और रज्जन हटा देता है उसके शरीर से कुर्ता और धीरे-धीरे सब समझाते हुए कर देता है अनोखा का कौमार्य भंग ! अनोखा तेज़ दर्द से कराह उठती है ,उठ भी नहीं पाती . नीचे खून देख कर डर कर रोने लगती है ,रज्जन उसे समझाता है मै हूँ तेरे साथ और पहली बार में होता है ऐसा, तू थोड़ी देर आराम कर फिर उठना सब ठीक हो जायेगा. अनोखा धीरे-धीरे सुस्त कदमो से खुद को संभालती घर आ जाती है . आज उसे कुछ अच्छा नहीं लगा,बहुत थक गई है वो घर आकर भी कोई काम नहीं करती बस लेटी रहती है पूरा दिन.शाम को रामरती से डांट भी खाती है पर उठती नहीं,पेट दर्द का बहाना बना लेटी रहती है.

अगली  सुबह उसे ठीक लगता है ,लेकिन कुछ मीठा खाने की चाह नही . दो-तीन दिन वो घर से नहीं निकली तो रज्जन खुद दोपहर उसके घर आकर उसकी तबियत पूछता है और साथ ही कल आना कुछ ज़रूरी बात करनी है कहकर चला जाता है. रज्जन के इस तरह से आने और उसका का हाल पूछने से अनोखा को अच्छा लगता है और वो खुद को बिलकुल ठीक महसूस करती है . अगले दिन फिर से वो रज्जन से मिलने जाती है . रज्जन उसे पकड़ कर सब जगह चूमने लग जाता है ये कहते हुए कि अनोखा तेरे बिन न रह पाऊंगा अब . क्या मै तुझे पसंद नहीं ,तू क्यूँ नहीं आई तीन दिन और जवाब की प्रतीक्षा किये बिना कुरते की जेब से पाजेब निकल कर खुद ही उसे पहनाने लगता है. अनोखा कुछ बोल ही नहीं पाती बस एक बार फिर रज्जन के साथ खुद को रज्जन का कर देती है ,इस बार उसे भी अच्छा लगता है . पर ज्यादा अच्छा क्या लगा रज्जन का साथ या अपने पैरों में चाँदी की पायल ये न समझ पाई वो.धीरे-धीरे ये मुलाकातें बढ़ती गईं और फिर एक रोज़ रामरती की नज़र पड़ी कि अनोखा का शरीर पहले से अधिक गठा और स्वस्थ नज़र आ रहा है इस फर्क को वो समझ पाती कि अनोखा की उबकाइयों ने सब बता दिया . अनोखा को बुरी तरह पीटती है और तलाशी लेने पर पायल मिलती है जो अनोखा ने छुपा रखी थी छप्पर के अन्दर .रामरती उसका गला दबाती है जोर से तब जाकर वो रज्जन का नाम लेती है.

रामरती वही आँगन में लड़खड़ा जाती है ये कहते हुए कि कहाँ से लाए ज़हर की पुड़िया जो खिला सके अनोखा को और खुद को भी. हरीप्रसाद को कोसते हुए, सब बताते हुए साथ ले कर जाती है रज्जन के घर. रज्जन घर में नहीं था और उसकी दुल्हिन से कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं हुई आखिर उनके घर ही काम करती है रामरती और यदि काम से निकाल दिया तो ? कहाँ से पेट भरेगी सबका .उधर अनोखा भाग कर खेत में रज्जन के पास जाकर सब बताती है कि माँ कह रही है तू पेट से है और मुझे बहुत मारा तो मैंने आपका नाम बता दिया .रज्जन कोई बात नहीं अनोखा तू चिंता मत कर और अपनी माँ को बोल कल तुझे लेकर दूसरे गाँव के अस्पताल में मिले ,जो भी खर्चा होगा मै दूंगा बस एक बात का ध्यान रहे ये बात किसी और को पता नहीं चलनी चहिये.

अगले दिन रामरती अनोखा को लेकर अस्पताल पहुँचती है रज्जन उसे पैसे देकर , साथ ही धमकी देकर कि ये बात कहीं और नहीं निकलनी चाहिए वहाँ से चला जाता है . पंद्रह वर्ष की अनोखा का उसकी जान के रिस्क पर कराया जाता है गर्भपात! इस उम्र में गर्भ में नया जन्म और फिर उसकी हत्या, अनोखा को ज्यादा कुछ फर्क नहीं पड़ता सिवा इसके की माँ बहुत गुस्सा है जबकि रामरती नहीं समझ पाती कि वो जिन्दा है या मर गई .

गाँव में आग की तरह ये बात फ़ैल गई और अब तो हर जवान-बूढ़ा पुरुष मिलना चाहता अनोखा से ,सिवाय रज्जन काका के . अनोखा को रामरती ने घर में बंद कर दिया था और वो कहीं आजा न सके ये जिम्मेदारी उसकी छोटी चारों बहनों की थी .पूरे गाँव में हर घर में हर एक की जुबान पर बस एक ही बात थी की फूटी किस्मत है रामरती की पति मिर्गी वाला मिला और लड़की ने तो नाक ही कटा दी,हमारी होती तो ज़हर खिला कर मार डालते ऐसी कुल्टा लड़की को, अरे रज्जन का क्या दोष आदमी है इसी से न संभाली गई होगी अपनी जवानी . पूरे गाँव के मुँह पर कालिख पोत दी इसने . इस गंदगी को जल्दी से जल्दी गाँव से फेंक देना चाहिए,हर कोई समझाता रामरती को. रामरती की जुबान चिपक चुकी थी और आँखे रेगिस्तान से भी अधिक सूखी हो चली थीं कोई राह नज़र नहीं आ रही थी उसे.कई ठाकुरों ने तो यहाँ तक समझाया कि अनोखा को मेरे पास भेज दिया कर ,तेरे दिन भी बहुर जायेंगे आखिर और भी तो चार बेटियाँ हैं तेरे .

रामरती बस यही सोचती कि पैदा होते ही गला क्यूँ न घोंट दिया मैंने इन लड़कियों का ,लड़कियां होती ही हैं भार कहते हुए बस अनूप को गले से चिपका लेती है.शाम का वक्त है रामरती की जिठानी आती है और बेहद दया भाव से कहती है जो होना था हो गया तू कहे तो अब भी बात बन सकती है मै अपने भईया को कुछ नहीं बताउंगी अनोखा की शादी जल्दी से उनके साथ करवा सकती हूँ तेरे सर से मुसीबत भी हट जाएगी और मेरे भाई का घर भी बस जायेगा . लेकिन जिज्जी तुम्हारे भईया की उम्र तो चालीस पार है और अनोखा अभी पंद्रह की भी पूरी नहीं हुई रामरती कहती है. 

जिठानी गरम तवे सी छन्ना के बोली हाँ !और रज्जन तो बस अभी सोलह बरस का ही है न ! जब पैंतालीस साल के आदमी के साथ सोना आता है तुम्हारी बेटी को तो हमारे भईया तो अभी चालीस के ही हैं.सही कहते हैं भला करने चलो और अपना ही हाँथ जलाओ जिठानी जोर से कहती है . रामरती कुछ सोच नहीं पाती कि क्या करे ,किससे मदद ले,कैसे अनोखा की शादी कर जल्द से जल्द उसे गाँव से अपने जीवन से निकल फेंके . इसी उधेड़बुन में बैठी है कि अनूप आता है रोते हुए, कहता है मम्मी मेरे पापा मर गए ! चलो देखो चल कर .

रामरती भागती है गाँव के बड़े तालाब के किनारे हरिप्रसाद पड़ा है और भीड़ लगी है कोई कह रहा है कि इसे मिर्गी आई है, कोई कह रहा है कि दारु पी है इसने .सब दूर खड़े हैं कोई उसके पास नहीं जाता . रामरती उसे छूती है ,ठंडा है उसका पूरा शरीर और दारू की तेज़ दुर्गन्ध आ रही है , मुंह से लेकर कान के अन्दर तक झाग फैला है, म्रत्यु एक साथ सारे ही ऐबों को ले जाती है. एक जोर की चीख गूँज जाती है पूरे गाँव में “अनूप के पापा ” ! रामरती वहीँ हांथों को पटक कर चूड़ियाँ तोड़ देती है और कहती है अच्छा हुआ मर गए, मुक्ति तो मिली . चूड़ियों के टूटने से हांथों से खून बहने लगता है और उन्ही खून भरे हांथों से मिटा देती है अपना सिन्दूर . हरी प्रसाद का क्रिया कर्म जैसे-तैसे उसके भाई कर देते हैं

 

.रामरती कई दिन घर से नहीं निकली एक सन्नाटा फैला है उसके चारों ओर . अनोखा आती है और सन्नाटे को तोड़ती हुई कहती है माँ घर में कुछ भी खाने को नहीं है . सब तो खा गई , अब मै ही बची हूँ,आ मुझे भी खाले कहते हुए रामरती अपनी चुप्पी तोड़ती है . तभी अनूप रोते हुए आता है माँ, मुझे भूख लगी है. रामरती उसे चुप कराती है और घर में तलाशती है कि कुछ खाने को मिल जाये लेकिन सिवाय ख़ाली बर्तन के कुछ भी नहीं मिलता . रामरती ठाकुर के घर जाकर रोती है और वहाँ से अनूप के लिए खाना लाती है,हालांकि ठकुराइन ने साथ ही कल से काम पर आने कि हिदायत भी दे दी उसे कि यदि काम नहीं करेगी तो उसके बच्चों के लिए खाना कौन देगा इस तरह.जितना शोक करना था कर लिया,वैसे भी क्या करता था तेरा पति, अब तू आगे की सोच .

रामरती घर जाकर अपने कलेजे के टुकड़े को खाना खिलाती है फिर लड़कियों को खाने के लिए कह देती है . अगले दिन से ही घरों में काम के लिए जाने लगती है.अभी एक महीना ही बीता कि फिर से जमींदार उसे नए-नए बहानों से परेशान करने लगे कि वो अनोखा को उनके पास भेज दे.रामरती बेहद डर चुकी थी अतः सीधा अपनी जिठानी से अनोखा कि शादी कि बात करती है उसके भाई के साथ .जिठानी अपनी ख़ुशी को दबाते हुए कहती है अब इतना अहसान तो करना ही पड़ेगा तुझ पर . एक महीने के अन्दर साधारण ढंग से अनोखा कि शादी हो जाती है.

बारात में दूल्हा और उसकी तीन बेटियाँ थी.दूल्हा अनोखा को देख किसी बांके छोरे की तरह लालायित था जबकि अनोखा इतनी शांत कि तालाब का शांत पानी भी उसके समक्ष कोलाहल करता नज़र आये .बच्चे उसे मम्मी-मम्मी पुकार रहे थे . बड़ी लड़की की उम्र तो १० या ११ की ही होगी .अनोखा की विदाई में उसे मिली थीं तीन बेटियाँ . वैसे भी अपने घर में अपनी चार बहनों और भाई अनूप की माँ तो वही थी बस फर्क ये था कि उसी उम्र के उसके भाई-बहन उस दीदी बुला रहे थे जबकि वो बेटियाँ उसे मम्मी.

अनोखा की विदाई में सभी आँखें शून्य थीं सिवाय अनूप के . सबसे छोटा था ना और अनोखा खुद से ज्यादा अनूप का ख्याल रखती थी . ससुराल में अनोखा का स्वागत करने के लिए भी कोई न था सिवाय अनोखा की विधवा सास के . पूरा दिन गुज़र गया शाम होते ही तीनो लड़कियों को दादी के पास भेज कर अनोखा का पति कांतिलाल कमरे में आता है और बिना किसी वार्तालाप के वसूल लेता है अपने पति होने का अधिकार .शादी के दूसरे ही महीने अनोखा फिर गर्भवती हो जाती है. सास और पति दोनों को लड़का ही चाहिए इस लिए उसकी जांच करवाते हैं. गर्भ में लड़की देख एक बार फिर करा दिया जाता है अनोखा का गर्भपात . पंद्रह की उम्र और दो-दो बार गर्भपात, अनोखा पीली पड़ जाती है ,उसका शरीर निष्प्राण सा दीखता है लेकिन उसके पति को इंतज़ार नहीं और कुछ ही महीनो में फिर से उसकी कोख हरी हो जाती है,कर दी जाती है. एक बार फिर से जाँच,लेकिन इस बार लड़का है कि खबर से सास और पति उसे भर पेट खाना भी खिलाते हैं और उसका ख्याल भी रखते हैं. अनोखा का शरीर टूट चूका है वो सिर्फ लेटी रहती है उससे चला भी नहीं जाता.आठवें महीने में ही प्रसव का दर्द उठ जाता है और निकल जाती है अनोखा की जान !

बड़ी मुश्किल से बच्चा बचता है क्यूंकि डॉक्टर से बच्चा बचाने के लिए ही कहा गया था. माँ तो नई भी आ जाएगी लेकिन लड़का, इतनी मुश्किल से तो घर का चिराग मिला है . कांतिलाल खुश है कि लड़का हुआ है और अनोखा, बिलकुल शांत कि उसे जीवन से मुक्ति मिली है . उसके जीवन में भले ही कुछ अनोखा न हुआ हो पर ये सच है कि उसका नाम अनोखा ही था| 

 

 इंदु  सिंह ,
102  सेकेण्ड फ्लोर ,
सेक्टर – 8 ,
जसोला विहार ,
नई दिल्ली 110025
ईमेल : induravisinghj@gmail.com

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