१) पुनर्जन्म

 

        घर में शादी का माहौल था। एक के बाद एक रस्में चल रही थीं। इसी बीच मैं वहाँ से उठकर ड्राइंग रूम में चला आया। वहाँ रखी अपनी पत्नी की तस्वीर के सामने खड़ा हो, उसे अपलक देखता रहा। फिर बोला, “शारदा, आज तुम्हारे बेटे की शादी हुई है।” फिर खुद ही मुस्कुरा दिया, “तुम तो सब देख ही रही हो। मैं भी न…बुढ़ा गया हूँ।” 

मैंने अपना धुंधलाया चश्मा साफ करते हुए कहा, “याद है न, जब तुम हम दोनों को छोड़कर चली गई थी तब… दस बरस का ही तो था अपना पलाश। वह तो जैसे पत्थर बन गया था। न रोया था और न ही कुछ बोला था। किसी ने कहा कि उसे सदमा लगा है तो किसी ने कहा कि छोटा है इसलिए कुछ समझ नहीं पाया होगा। लेकिन उस दिन मैंने तुम्हारे साथ-साथ अपने बेटे को भी खो दिया था।”

     मेरा गला रुंध आया, “जानती हो ना, उसकी आवाज सुनने के लिए मुझे दस-दस दिन इंतजार करना पड़ता था और देखो तो, अब कितना बड़ा हो गया है। दुल्हन ले आया है। शारदा….अब तो बस बहू को एक ही आशीर्वाद दो कि, जो खाई तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे बेटे के मन में निर्माण हुई है, वह उसे भर दे। वह उसे पत्नी के साथ-साथ माँ का भी प्यार दे।” मैंने कांपते हाथों से उसकी तस्वीर पर चढ़ा हार ठीक करते हुए कहा, “शारदा, सुन रही हो ना?” फिर दो पल उसे निहारता रहा और थके कदमों से चलता हुआ बेटे-बहू के पास चला आया।

      लगा जैसे वे दोनों और बाकी सब भी मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। मेरे वहाँ आते ही बुआजी ने पलाश को समझाते हुए कहा, “बेटा, हमारे यहाँ शादी के बाद बहु का नाम बदलने की रस्म है। वैसे कागज़ात पर तो नाम नही बदलेंगे लेकिन फिर भी…तू अपनी पसंद का कोई नाम रख ले दुल्हन का।”

       यह सुनते ही यकायक पलाश की आँखों में चमक आ गई। मैंने, आज कई सालों बाद, उसके होठों पर मुस्कान देखी। उसने दुल्हन का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा, “मैं…मैं तुम्हारा नाम….शारदा रखता हूँ।”

बहु ने भी आँखों में विश्वास भर उसका हाथ हौले-से दबाया।

        इस सुखद झटके के आनंद में मैंने अपनी आँखें मूंद लीं। दो आँसू मेरी आँखों से निकल कर होठों में समा गए। बस इतना ही कह पाया, “शारदा, तुम वापस आ गई।”

 

 

2)  तंत्र

 

        ‘उसके’ सामने जो भी घटना घटती उसे वह अपनी एक आँख में कैद कर लेता। उस पर पलकों का सख्त पहरा बैठा देता। इतना सख्त कि दूसरी आँख को भी उसका पता न चल सके। फिर आँख की कैद से मुक्त कराकर ‘वह’ उसे दिमाग तक पहुँचाता। दिमाग उसे देखता, समझता, तोड़ता-मरोड़ता। अपने मुताबिक उसमें कुछ जोड़ता तो कुछ घटाता और फिर उसे दूसरी आँख के सामने परोस देता।

          दूसरी आँख वही देखती जो उसे दिखाया जाता। इस पर वह कभी हँसती तो कभी रोते हुए आंसू बहाती। यह बहता पानी होठों से होता हुआ मुँह तक पहुँचता। जैसे ही मुँह को उसका स्वाद मिलता, वह आग उबलने लगता। चारों ओर तबाही-ही-तबाही मचा देता।

         इससे ‘वह’ सुर्खियों में आ जाता। अब उसके दोनों हाथ दूध-मलाई खाने लगते। बस……इस सब में…..उसके दिल का कोई काम न था।

           ‘वह’……मीडिया तंत्र था।

 

©अनघा जोगलेकर

अनघा जोगलेकर
32/4, प्रिमरोज़, वाटिका सिटी, सोहना रोड, सेक्टर 49, गुरुग्राम हरियाणा

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