कोई चुपके – चुपके चुरा रहा है
हमारा समय
रोटी की तरह खाता है हमारा वक्त
सूती कपड़े की तरह
तंग हो गए हैं हमारे दिन – रात
हमारा वजूद समा नहीं रहा उनमें
गरीब की चादर बन गया है वक्त
सिर ढँको तो पाँव नंगे
पाँव ढँको तो सिर

ये हाथ कहाँ दिखाई देते हैं
जो नचा रहे हैं हमें ?
हम कठपुतलियाँ हैं बेशक
क्योंकि नाच रहे हैं
पर काठ के नहीं बने हम
हम जीवित हैं
साँसें चल रही हैं हमारी
हमारे हाथ – पैर भी चल रहे हैं
दिल भी और दिमाग भी
पर सब चल रहे हैं
किसी और के इशारों पर
हम बँधुआ मजदूर हैं
बाजार के गुलाम
जो सिर्फ व्यापार का विस्तार चाहता है
विस्तार… विस्तार…विस्तार
और दुनिया में कुछ नहीं
कोई नहीं
किसीका वजूद नहीं
सब बेजान- बेकार
ढूँढती रही हूँ अब तक
अंजना वर्मा
आज तक तो
ढूँढती ही रह गई वैसे शब्द
जो हो सकते तुम्हारी ममता और
छोह के बराबर
पर मिले नह़ीं
अब तक ढूँढ रही हूँ वे पेन्सिलें
जिनसे बना सकूँ माँ !
तुम्हारी मोटी- मोटी आँखें
पूरी दुनिया में जो थीं
अपनापन की पहली और सच्ची पहचान
चिन्ता- भरे बोलों को छुपाये
तुम्हारे ओठ
बुखार में दवा की गोली
और पानी का गिलास थमाते
पिता ! तुम्हारे वे हाथ
मुरझाया चेहरा
और दिन – रात अपने बच्चों के लिए व्यस्त
तुम दोनों की कायाएँ !
वे स्वेटर बुनते
फल काटते और
अपने हाथ का अनोखा स्वाद वाला
खाना परोसते
माँ ! तुम्हारे दो कोमल हाथ
हम सबके भविष्य के सपने देखतींं
पिता ! तुम्हारी कभी चमकतीं
तो कभी धुंध से भरी आँखें !
अपने जादुई शब्दों से
हमारी बाँहों को पंखों में तब्दील करते
और हमारे लिए
एक अछोर आकाश रचते
पिता तुम !
कहाँ मिलीं वैसी पेन्सिलें ?
जिनसे उकेर पाती यह सब ?
अब तक खोजती रह गई वे रंग
जिनमें हल्का- सा भी अक्स
दिखाई देता तुम्हारा
अब करूँ क्या ?
इसीलिए बैठी रह गई हूँ
हाथ में थिज़ारस, पेन्सिल और ब्रश लिये

कृष्णाटोला, ब्रह्मपुरा
मुजफ्फरपुर – 842003
(बिहार)
भारत