1. बन्दूक(एक)
उन्होंने तुम्हें कभी नहीं कहा
बन्दूक उठाओ
उन्होंने बस रख दिया
तुम्हारे हाथों में धर्मग्रंथ०
2. बन्दूक(दो)
उन्हें सत्ता पर काब़िज होने के लिए
बन्दूक नहीं उठानी होती है
वे बड़े चालाक हैं
उन्होंने बखूबी जान लिया है
तुम्हारी कमजोरी तुम्हारा ईश्वर है
इसलिए वे बोतें हैं
तुम्हारे भीतर धर्म का बीज
ताकि तुम खुद ही अपने हाथों में
तान लो अपने-अपने धर्म की बंदूकें०
और वे बड़े आराम से
तुम्हारा शासक बन चरते रहें
तुम्हारी पूरी आवाम को०
3. बन्दूक(तीन)
उसे बलात्कार करना था
उसने बन्दूक नहीं निकाली
गोलियों की छर्रियाँ भी नहीं दिखायी
नाहीं उसने लड़की को
चाकू दिखाकर भयभीत किया०
उसने बड़े आराम से चखा
अलग-अलग अंगों का
अलग-अलग स्वाद
फिर किया बलात्कार०
उसने पढ़ लिया था
एक लड़की के भीतर का कमजोर पक्ष
उसे मालूम था बलात्कार से पहले
प्रेम का सारा समीकरण०
4. बड़ा आदमी!
बड़े आदमी होने से
पहले जो एक शर्त होती है
आदमी होने की
वह शर्त उन्हें
हमेशा से नामंजूर रही
बहरहाल
हम उन्हें अब भी
बड़ा आदमी ही कहते हैं०
5. इस दौर में!
खोखले होते जा रहे
सभी रिश्तों के बीच
भरी जा रही है
कृत्रिम संवेदनाएँ०
वक्त के
इस कठिन दौर में
आसान नहीं है करना
पहचान अपनों की०
अपने ही
रच रहें है
अपनों की हत्या
कि तमाम साजिशें०
वक्त के
इस कठिन दौर में
मुश्किल है
दो कदम साथ चलना
दो रातें साथ गुजारना
दो बातें प्रेम की करना०
6. इस समय का साहित्य!
कवि
समीक्षक
आलोचक
प्रकाशक
सबने मिलकर एक शाम
साथ बितायी मैखाने में०
फिर बारी बारी
कविताओं
समीक्षाओं
आलोचनाओं
प्रकाशनों ने भी
बखूबी निभाया
अपने-अपने हिस्से का फर्ज०
सबने दी एक दूसरे को
अपनी अपनी पुस्तकें पत्रिकाएँ
बधाइयाँ वाहवाहियाँ चिठ्ठियाँ शुभकामनाएँ०
इस कठिन समय में
साहित्यकारों के घर
शाही अलमारियों में
सुरक्षित होता रहा
इस समय का साहित्य०
7.वही लोग!
इन दिनों मैं हर रोज
पहले से थोड़ा अधिक
चिंतित
सशंकित
और भयभीत हुआ जाता हूँ
वे तमाम लोग
आज के कवि हैं
आज के लेखक हैं
आज के संपादक हैं
आज के बुद्धिजीवी हैं
जो हमारे बीच
हमारी ही शक्ल में
दिनरात हमें चरे जा रहे हैं
देखो यह समय की कैसी विडंबना है
वही हमारी संवेदनाएँ लिख रहे
वही हमारा पक्ष रख रहें
वही हमारे फैसले कर रहे
वही हमारा मार्ग प्रशस्त कर रहे
हाँ वे वही लोग हैं
जो कभी
आदमी हुए ही नहीं०
8.कवि के हाथों में लाठी!
वो बात किया करते हैं
अक्सर ही स्त्री स्वतंत्रता की
बुद्धिजीवियों की जमात में
उनका दैनिक उठना बैठना
चाय सिगरेट हुआ करता है०
साहित्यिक राजनीतिक मंचों से
स्त्री स्वतंत्रता के पक्ष में
धाराप्रवाह कविता पाठ किया करते हैं
अखबारी स्तंभों में भी
यदा कदा नजर आ ही जाते हैं
नवलेखन, साहित्य अकादमी,
साहित्य गौरव, साहित्य शिरोमणि, कविताश्री
और पता नहीं क्या-क्या इकट्ठा कर रखा है
उसने अपने अंतहीन परिचय में०
सड़क से गुजरते हुए
एकदिन अचानक देखा मैंने
उनके घर के आगे
भीड़! शोर शराबा!
पुलिस! पत्रकार!
कवि के हाथों में लाठी!
मुँह से गिरती धाराप्रवाह गालियाँ!
थोड़े ही फासले पर फटे वस्त्रों में खड़ी
रोती-कपसती एक सुंदर युवती
और ठीक उसकी बगल में
अपाहिज सा लड़खराता एक युवक०
इसी बीच
भीड़ की कानाफूसी ने मुझे बताया
पिछवाड़े की मंदिर
उनकी बेटी ने दूसरी जाति में
विवाह कर लिया है०
मैं अवाक् सोचता रहा
कि आखिर किनके भरोसे
बचा रहेगा हमारा समाज
क्या सच में कभी
स्त्रियों को मिल पायेगी
उनके हिस्से की स्वतंत्रता०
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परितोष कुमार ‘पीयूष’
7870786842
(जमालपुर,बिहार)
परिचयः
नाम- परितोष कुमार ‘पीयूष’
जन्म स्थान- जमालपुर (बिहार)
शिक्षा- बी०एससी० (फ़िजिक्स)
रचनाएँ-
विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं, ब्लागों, ई-पत्रिकाओं आदि में कविताएँ, समीक्षाएँ, आलेख आदि प्रकाशित।
कुछ प्रतिनिधि कविताएँ कविता कोश में संकलित।
संप्रति- अध्ययन एवं स्वतंत्र लेखन।
मो०-7870786842
ईमेल- [email protected]
पता-
【s/o स्व० डा० उमेश चन्द्र चौरसिया(अधिवक्ता)
मुहल्ला- मुंगरौड़ा पोस्ट- जमालपुर
पिन- 811214, जिला मुंगेर(बिहार)】