लेखन करना, मतलब आप जो हैं, उसके अलावा कुछ और किरदारों को,  चाहे अनचाहे जो आपके अंदर परिस्थितिजनक और आपकी सोच से पैदा हो जाते है, उसे शब्दों में सर्जित करना। ऐसी बात नहीं कि चुनौतियाँ पुरुष लेखकों को झेलनी ही नहीं पड़ी, पर हमेशा नारी को ही ज्यादा चुनौतियाँ का सामना करना पड़ा है। हाँ, अब हालत पहले से कहीं ज्यादा बेहतर हैं। नारी शक्ति ने आज दिखा दिया कि, हम हर क्षेत्र में समान और कहीं बेहतर भी हैं। उसका लेखन किसी भी हालत में पुरुष लेखक से कमतर नहीं।

औरत के साथ शुरू से ही यह त्रासदी रही कि, उसे सिर्फ एक शरीर समझा गया, इस पुरुष प्रधान समाज ने उसके लिए बहुत सी लक्ष्मण रेखाएँ खींच डाली। उसका काम तो बस सिर्फ चूल्हा-चौका, घर का काम, बच्चे पैदा करना, उन्हे पालना-पोसना और भरे पूरे परिवार के साथ पति की सेवादारी। शुरू से हमारे समाज में महिलाओं की यही भूमिका रही है।  धीरे धीरे वक्त जैसे-जैसे करवट लेता गया, नारी भी जागरूक और मुखर हुई है। उसे कभी भी दोहरी ज़िम्मेदारी निभाने से ऐतराज नहीं था और न है। यह जानते हुए भी की लेखन का सफर आसान नहीं है, अभिव्यक्ति मार्ग में, संवेदनशील होने के कारण नारी ने अपनी रचनाओं में सहज ईमानदारी का परिचय दिया तो दिया ही है, साथ ही में यथार्थ का साथ कभी नहीं छोड़ा। नारी रुड़ियों की रस्में तोड़कर, नए मूल्य स्थापित करने हेतु, पूर्व ग्रह बुद्धि भ्रम को अपने लेखन द्वारा नया मार्ग दर्शाने के लिए निरंतर प्रयासरत है। साहसपूर्ण सब कठिन परिस्थियों से गुज़र, स्ंवय की पहचान बना नारी आज सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, व्यावसायिक और वैज्ञानिक क्षेत्र में पुरुष के समान ही नहीं बल्कि पुरुष से आगे बड़कर लेखन कर रही है, पढ़ी और सराही भी जा रही है। वर्तमान में नारी में आत्मनिर्भरता भी है और आत्मविश्वास भी। उसमे स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता है तो पति और परिवार के साथ सामंजस्य बनाने की शक्ति भी। अतः जीवन के यथार्थ को स्वीकार करने में कोई झिझक भी नहीं है।

नारी के लेखन को कभी प्रोत्साहित नहीं किया गया, कुछ मामलों में तो मैंने देखा अपने बचाए हुए वक्त में किसी महिला नें अगर कोई कविता लिखी और प्रकाशित करने भेज दी, प्रकाशन के बाद पता चलते ही उन पर पहरे बैठाए गए, जैसे कोई गुनाह किया हो। पर पुरुष के लिए सब छूट रही, क्योंकि लक्ष्मण रेखाओं में अंतर था।

मेरे जीवन में भी कई बार ऐसा समय आया है- जब मैंने किसी चीज़ को मुमकिन बनाने के लिए हर संभव कोशिश की, जैसे रिश्ते बनाना, घर परिवार की ज़िम्मेदारी को सहजता से निभाते हुए साथ ही बचे हुए वक्त में कुछ लिखते रहने की कोशिश – लेकिन, मेरे सभी प्रयासों के बावजूद भी पता नहीं क्यों, किसी न किसी वजह से चीजें उस तरह नहीं हो पाई जिस तरह में चाहती थी को वो हों, मैंने तो सारे कर्तव्य एक साथ निभाने की भरसक कोशिश की थी। पर जहां जरा सा चूक हुई तो घर से ताने सुनने पड़ते जैसे, सारा समय तो पता नहीं क्या-क्या लिखती रहती है आदि-आदि। इसके चलते कुछ अरसा गुमनामी छाई रही। फिर बच्चे बड़े हुए तो दोबारा अपने भीतर मर रहे एहसास को, सोच के दायरों से बाहर निकाल सहमे हुए सच से अर्जित दस्तावेज़ हाशिये से उठा कर कलम की नोंक से, उम्र के कई मोड़ों से गुजरने के बाद जब लिखा तो कच्ची धूप में पकती ताजा सरसों की महक सी कवितायें और बाकी रचनाओं के जब लेखनी चली तो बस जैसे लगा की अब तो अंधी गलियों से कई वर्षों से हर अंधे मोड़ की चुनौती को पार कर सुरंग से बार आ गयी हूँ। तब तक कुछ पहचान, प्रतिष्ठा और सम्मान भी मिलने लगे थे, उनके चलते घर में भी सम्मान मिलने लगा। लेखन और घर का तालमेल तो अब भी बिठाना पड़ता था, पर हाँ, उमस भरी दोपहरी में झरोखों से आती हवाएँ कुछ ठंडी हो चली थी।

हालाँकि आज यकीनन दृष्टिकोण बदल रहा है, पर उसके लिए भी नारी को ही दोहरी भूमिका निभाते हुए, आंतरिक और बाहरी दोनों स्तरों पर कठिन और अधिक संघर्ष करना पड़ता है। मुझे शादी से पहले अपने मायके में शुरू से ही सहयोग मिलता रहा था। लेखन का शौक बचपन से ही था। माँ बताती है, जब में छोटी थी तो अपनी पहली कविता “गुड़िया” लिखी थी, उसके बाद स्कूल/कॉलेज में पत्रिका सम्पादन भी किया। फिर शादी हुई और वो “गुड़िया” भी मेरे साथ मेरे ससुराल तो गयी, पर वहाँ माँ नहीं थी “गुड़िया” को सहेजने के लिए। थी तो नई जिंदगी चुनौतियाँ से भरपूर जिसने मेरी सांस, सोच, कल्पना और एक जिंदा एहसास के पंख कतर डाले थे। मुझे कहा गया, कि तुम उड़ तो सकती हो पर अपने पति और ससुराल के बनाए सीमित आकाश में।

जैसे की मैंने पहले भी बताया, कि सब जिम्मेदारियों को निभा कर जब मृतप्राय ‘गुड़िया’ को दोबारा जीवित किया, तो बाहर प्रकाशन समाज में रचना प्रकाशन करवाने और पुस्तक प्रकाशित करने के सर्वोधिकर पुरुष के पास पाये, वो एक नई तरह की चुनौती थी। खैर उसके बावजूद अब तो सृजन की आसक्ति के अभिसार में जुटी मैं, अपनी भावनाओं को रोकना नहीं चाहती थी।

वक्त ने प्रवासी बना दिया। अमेरिका आने के बाद नए समाज ने और परिवेश ने न अलग किस्म की चुनौतियाँ तो दी, मगर समुंदर लांघ आने के बाद दरिया का डर कहाँ सता पाया। खुद ही एक समाचार-पत्र काफी साल चलाया। उस अनुभव ने यह सिखाया कि, अपनी जगह खुद ही बनानी पड़ती है।

संभावनाओं के आकाश विस्तृत हैं। लेखन को निरंतरता देनी है तो मांगना नहीं वक्त निकालना पड़ेगा। जब विचार आयें लिख डालें। पर हम महिलाएं उनको पीछे धकेल अंतिम पाएँ पर रख बाकी काम करने लगती हैं, ताकि घर परिवार को खुश रख सकें। मेरा मानना है की, उनकी और ताकती हमारी निगाहें उनकी रजामंदी का इंतज़ार न करें, कुछ कर दिखाएँ तो तो ओस में भीगे सपने यथार्थ का रूप अवश्य ले लेंगे। मेरे लिए, मेरी ‘सच्चाई’ इस तरह है- मैं अपने जीवन कि सह-लेखिका हूँ, मेरे हाथ में फिर भी सब कुछ नहीं है, मेरी ईमानदार लेखनी के चलते किताब का एक पन्ना मैं लिखती हूँ तो दूसरे पेज़ की पहली पंक्ति ईश्वर लिखते हैं।  

 


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