‘‘बौद्ध धर्म हिन्दु मत के कितना निकट कितना दूर’’

  • – आशा शैली   

हिमालय की निचली तराई के कपिल वस्तु राजघराने में उत्पन्न बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। गौतम नाम उनके प्राचीन गौतम वंश के कारण मिला। गौतम (सिद्धार्थ) को बुद्ध नाम उस बोध के कारण प्राप्त हुआ जिससे उसे तत्व-दृष्टि प्राप्त हुई। सुखमय जीवन की लालसा में यौवन काल ही में

राजप्रसाद के सुखों का त्याग करके उन्होंने तत्कालीन प्रथा के अनुसार पहले तपोमय जीवन जिया किन्तु शीघ्र ही वे जान गये कि उनका लक्ष्य इस मार्ग से प्राप्त होने वाला नहीं है। अतः वे समाज में लौट आये और जो बोध उन्हें प्राप्त हुआ उसका जनता में प्रचार करने लगे। यही बोध, यही ज्ञान अन्त में व्यापक प्रचार के कारण विश्वधर्म बन गया और बौद्ध मत अथवा बोध धर्म कहलाया।

बुद्ध ने प्राचीन हिन्दु मत के अनुसार धर्म के दस लक्षणों को अपनाया किन्तु इसमें भी प्रथमिकता अहिंसा को दी। बौद्ध धर्म अपने जन्मकाल में एक दम सरल रहा किन्तु समय के साथ ही गूढ़ से गूढ़तर होता गया। बुद्ध के निर्वाण के पश्चात (बहुत बाद में) प्रौढ़ता के साथ-साथ इसमें हिन्दु धर्म की समानताएँ स्वयंमेव समाहित होती गई। इसका ब्राह्मण धर्म के विकास के साथ-साथ विकसित होना ही इस प्रकार की समानता का मूल कारण हैं।

बुद्ध तो अपनी स्वाभावगत करुणा और परोपकार की भावना के कारण इस ओर प्रवृत्त हुए थे। उनका आशय न तो गुरु बनाना था न उन्होंने कभी स्वयं को भगवान कहा। उन्होंने कोई पुस्तक भी नहीं लिखी। इस लेख में दी गई सम्पूर्ण जानकारी बुद्ध के जीवनकाल से बहुत बाद के संकलनों पर आधारित है। इन्हीं संकलनों से प्राप्त जानकारी के अनुसार ‘‘बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् एक पुराने शिष्य ‘पुराण’ को प्राथमिकता देकर, धर्मग्रन्थ संग्रह करने के लिए राजगृह में आमन्त्रित किया गया। जिसे अन्य शिष्यों की समिति ने तब तक इस कार्य के लिए निश्चित कर दिया था, किन्तु उसने यह कह कर इनकार कर दिया कि वह गुरू मुख से जो कुछ सुना है उसी से बन्धा रहना पसन्द करता है अतः ग्रन्थों की प्रामाणिकता संदिग्ध है।’’

‘‘पाली’’ (जो उन दिनों मगध की भाषा थी) में लिखे गये त्रिपिटक (तीन पिटारियाँ) पर ही बौद्ध धर्म की सारी जानकारी आधारित है। त्रिपिटक में तीन ग्रन्थ सम्मिलित हैं, ‘सुत्तपिटक, (बुद्ध वचन संग्रह) विनय पिटक; आचरण के नियम,  और अभिधम्म पिटक, (दार्शनिक चर्चाएँ)।

‘‘बुद्ध’’ (ओल्डेनवर्ग) के अनुसार संकलनों में कुछ ऐसे तत्व भी हैं जो बुद्ध से पहले भी थे किन्तु उन्हें बोद्ध धर्म ग्रन्थ संग्रह में शामिल कर लिया गया। यद्यपि इन ग्रन्थों के सिद्धान्त उपनिषदों के सिद्धान्त से भिन्न (कहीं-कहीं’ विरुद्ध भी) दिखाई देते हैं, तथापि दोनों में सादृष्य भी दिखाई देता है।

ओल्डेनबर्ग का मानना है कि बुद्ध से ठीक पहले दार्शनिक चिंतन निरंकुश सा हो गया था। सिद्धांतों पर होने वाला वाद-विवाद अराजकता की ओर लिए जा रहा था। बुद्ध के उपदेशों में ठोस तथ्यों की ओर लौटने का निररंतर प्रयास है। उन्होंने न तो कभी वेदों की निन्दा की, न ही स्तुति। न कभी ईश्वर के बारे

में कुछ कहा, बल्कि उन्होंने इस संदर्भ में सदा मौन ही साधे रखा।

बुद्ध कर्म में विश्वास रखते थे, जिसमें परलोक की बात होती। ऐसा उस युग में सर्व साधारण की मनोभावनाओं को ध्यान में रख कर किया गया था। आम आदमी को अपनी बात समझाने के लिए यह सिद्धांत नितांत आवश्यक है। बौद्ध धर्म व्यवहार और निष्ठा से ओत-प्रोत है। अपने अनेक प्रवचनों में बुद्ध ने जिस सिद्धांत का अनुसरण किया वह इस कथा से स्पष्ट होता है। कथा इस प्रकार हैः-

‘एक बार बुद्ध अपने शिष्यों के साथ एक वृक्ष के नीचे बैठे थे, तो उन्होंने नीचे से कुछ पत्ते उठा कर अपने हाथ में लिए और अपने आस-पास बैठे शिष्यों से कहा कि, ‘‘देखो वृक्ष पर और पत्ते भी हैं या नहीं। या कि कुल इतने ही पत्ते थे?’’ शिष्यों ने वृक्ष पर और पत्ते होने की पुष्टि की तब उन्होंने कहा, ‘‘ठीक इसी प्रकार मैंने जो ज्ञान तुम लोगों को दिया है, उसके अतिरिक्त भी मैं बहुत कुछ जानता हूँ। वह मैंने तुमको इसलिए नहीं बताया कि तुमको उससे कोई लाभ नहीं होने वाला।’’

वास्तव में देखा जाए तो बौद्धमत न तो आत्मा को स्वीकारता है, न भौतिक जगत को। अपितु प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता और स्वीकारता है। गौतम बुद्ध का कथन है कि हम जो कुछ भी प्रत्यक्ष देखते हैं तो कोई न कोई दुःख-सुख, कोई धूप-छाँव हमारे सामने होती है और हम केवल इन्हीं क्षणिक संवेदनाओं की उसी सत्ता को स्वीकारते हैं। बुद्ध, आत्मा को एक अनावश्यक तत्व मानकर उसका निषेध करते हैं। मिसेज़ रीड डेविड्स के अनुसार ‘बुद्ध ने संवेदनाओं की सभा करने वाले आत्मा नाम के किसी राजा की सत्ता को नहीं माना है।’

बौद्धमत ऐसी आत्मा को तो नहीं मानता जो गीता के अनुसार अजर-अमर है और पुराने शरीर को त्याग कर पुराने संस्कारों के साथ नया शरीर धारण करती है, परन्तु उसके स्थान पर एक तरल आत्मा को मान लेता है जो अपने तरलतत्व के कारण परस्पर बिल्कुल पृथक और और असमान अवस्थाओं से उत्पन्न मानी जा सकती है। अस्पष्ट तौर पर एक ऐसी आत्मा को मानता है जो क्षणिक अनुभव से परे है।

बुद्ध आत्मा को पाँच घटकों में विभक्त करते हैं। इन्हें स्कंध कहा जाता है। ये पाँच स्कंध हैं, रूप, वेदना, संज्ञा और संस्कार। रूप स्कंध आत्मा का भौतिक घटक है और शेष चार मानसिक। इन मानसिक घटकों को आत्मचेतना, अनुभूति, प्रत्यक्ष और मानसिक वृत्तियों का नाम दिया जा सकता है। आत्मा की इस प्रकार की व्याख्या प्रारम्भिक बौद्ध धर्म की एक प्रमुख विशेषता ही है। यह विशेष विश्लेषण प्रधानतः मनोविज्ञान पर आधारित है। इस तरह आत्मा

को स्वीकारा भी गया है और नकारा भी गया है।

बुद्ध ने गुणों से पृथक किसी द्रव्य का अस्तित्व मानने से इन्कार किया है। संस्कृत साहित्य में इसे नकारात्मवाद की संज्ञा दी गई है और यह शब्द अभावबोधक संज्ञा की सूचना देता है कि क्या नहीं है। बुद्ध का कथन है कि भौतिक वस्तुएं भी आत्मा की ही भाँति एक संघात हैं। संघात शब्द भावबोधक है और बताता है कि क्या है। बुद्ध के अनुसार न सत्य है और न असत्य, मात्र परिवर्तन है। बौद्ध मत उपादान के अर्थ में एकता को तो अस्वीकृत करता है परन्तु सातत्य को स्वीकार करता है।

सब मिलाकर बौद्धधर्म भारतीय विचारधारा के सर्वाधिक विकसित रूपों में से एक है और हिन्दुमत (सनातन) से अद्भुत साम्यता रखता है। हिन्दुमत के दस लक्षणों दया, क्षमा अपरिग्रह आदि को बौद्धमत ने दृढ़ता से अपनाया है। यदि हिन्दुमत में मूर्ति पूजा का प्रचलन है तो बौद्ध मन्दिर भी मूर्तियों से

भरे पड़े हैं। भारतीय कर्मकाण्ड में मन्त्र-तंत्र का प्रचलन है तो बौद्ध मत में भी तन्त्र-मन्त्र का विशेष महत्व है। प्रसिद्ध अंग्रेज यात्री डॉ. डी.एल. स्नेलगोव ने अपनी पुस्तक ‘द बुद्धिस्ट हिमालय’ में लिखा है, ‘‘मैं सतलुज घाटी लाँघकर भारत आया था’’, उन दिनों कश्मीर से सतलुज तक का मार्ग एक ही था। यही वह समय था जब कश्मीर भारतीय तंत्र का केंद्र रहा है अतः बौद्ध मतावलम्बियों द्वारा भारतीय तंत्र को अपनाया जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं।

ईस्वी सन् 1996 में अपनी स्थापना के एक हज़ार वर्ष पूरे करने वाले हिमाचल के दूरस्थ क्षेत्र लाहुल-स्पिति के विश्वविख्यात ताबो मठ में स्थापित वैरोचन की चतुर्मुखी मूर्ति हिन्दु मत के प्रतिष्ठापित चतुर्मुख ब्रह्मा से समानता रखती है। बौद्ध देवता बज्रमुख काल भैरव की ही भान्ति रक्षक भी है और प्रखर होने के साथ-साथ भक्षक भी है। तारा देवी का जो महत्वपूर्ण स्थान पौराणिक धर्मशास्त्रों में है वही बौद्धमत में भी है। यहाँ भी यह तंत्र की अधिष्ठात्री है और वहाँ भी। बौद्ध मन्दिरों में स्थापित मूर्तियों की हस्त मुद्राएँ भारतीय कर्मकाण्ड की क्रिया मुद्राओं जैसी हैं। इन मूर्तियों के ध्यान में बैठने का ढंग भी भारतीय ऋषियों की भान्ति सिद्धासन अथवा पद्मासन जैसा है। उनकी अधमुन्दी आँखें हिन्दु योग पद्धति के कुडिलिनी योग में वर्णित षटचक्रों में महत्वपूर्ण आज्ञाचक्र पर केंद्रित ध्यान का ही रूप दर्शाती हैं। इसके अतिरिक्त उनके ढीले-ढाले वस्त्र भी ऋषि परम्परा का ही उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

सर्व तथागत तत्व संग्रह के अनुसार बौद्ध मुनियों को मिश्र एवं कौल नाम से संबोधित किया गया है। ऐसा आभास होता है कि मिश्र एवं कौल लोग या तो इन्हीं लोगों से अलग हुए हैं या इन्हें कुछ समय के लिए अपनाया गया होगा।

क्योंकि मिश्र लोग आज भी उत्तरी भारत के ब्राह्मणों में और कौल ब्राह्मण कश्मीरी ब्राह्मणों में श्रेष्ठ माने जाते हैं। तंत्र का कश्मीर केन्द्रित होना भी इस तथ्य की पुष्टि करता है। उक्त ग्रन्थ के अनुसार समय शाखा के चार भाग अथवा चार प्रकार बताए गए हैं। एक समय शाखा के छः मण्डल माने जाते हैं। इन मण्डलों को पुनः दो भागों में विभक्त किया गया है।

पहले मण्डल का नाम है उत्पत्ति कर्म और दूसरे का उत्पन्न कर्म। सृष्टि का हिन्दु मान्यता के अनुसार पैदा होना और नष्ट होना प्रकृति का नियम है। सारा जगत इसी नियम से चलता है। सर्व तथागत तत्व संग्रह में वर्जित योग शाखा, (समय की) जिसमें उत्पन्न मण्डल शनैः-शनैः स्वयं को विरोचन में समाहित करते हैं, यह क्रिया प्रकृति के इसी नियम को दर्शाती है, ज्यों उत्पन्न होने वाली हर वस्तु विनाश को प्राप्त कर शून्य में विलीन हो जाती है।

हिन्दु जीवन दर्शन में निवार्ण का अर्थ है मोक्ष अथ्वा मुक्ति। बौद्ध ग्रन्थ त्रिपिटिक में निवार्ण की जो व्याख्या की गई है उसके अनुसार निवार्ण अन्तिम शुद्धि है। अहंकार मुक्त जीवन की स्थिति मानव की परमानन्द की स्थिति है, अध्यात्मानुभूति की चरमावस्था है। त्रिपिटिक में निवार्ण को अमृत पद कहा गया है। यही अमृतपद हिन्दु धर्मशास्त्रों के अनुसार मोक्ष है जहाँ परमानन्द है वहाँ सब दुःख-सुखों से मुक्ति प्राप्त होती है।

बुद्ध ने पाप-पुण्य को कर्म के साथ नहीं जोड़ा क्योंकि कर्म का नियम है घात होगी और प्रत्याघात भी होगा। बीज डालने पर वह उगेगा ही। यहाँ हिन्दुमत और बौद्धमत में अन्तर है। हिन्दु दर्शन कर्म और कर्मफल को पाप और पुण्य के साथ जोड़ता है किन्तु बुद्ध की धारणा ऐसी नहीं है। बुद्ध की करुणा और हिन्दु धर्म की दया में भी बुनियादी अन्तर है। हिन्दुमत में जहाँ दया भाव में अहंकार मिश्रित है वहाँ बौद्ध मत में दया, करुणागत संवेदना का प्रकटीकरण है। इसके अतिरिक्त एक अंतर और भी है और वह यह है कि बौद्ध विचारधारा निराशावादी नहीं है। बौद्ध धर्म में गुरू को आधार न बनाकर पुरुषार्थ को आधार बनाया गया है, जबकि हिन्दू धर्म में गुरू बिना गति नहीं। यहाँ निगुरे को नर्कगामी कहा गया है अर्थात् घोर निराशावाद।

सूफ़ी चिंतन जिसे फ़क्र-ए-फ़ना कहता है, भारतीय दर्शन-चिंतन उसे कालरात्रि के नाम से पुकारता है। इसी कालरात्रि को अथवा फ़क्र-ए-फ़ना को बौद्ध चिंतन अरहत का नाम देता है, जहाँ सब शाँत रहता है। बौद्ध चिंतन इस समाप्ति के बाद फिर होने की बात करता है। जहाँ शून्य तरंगित होता है, उस ध्वनि की बात करता है। उनका निर्वाण शून्य में विलीन होना नहीं है, अपितु नदी कासमुद्र में विलीन होना है। एक नए आरम्भ के लिए एक अंत। यही कृष्ण का विराट स्वरूप है, जैसे समुद्र से भाप उठे और बादल बनें, बरसे और नदियों में जल बढ़े, बाढ़ आए, फिर नदी समुद्र में मिले, फिर भाप बने और…..फिर…यही पुनर्जम का सिद्धाँत है।

 

आशा शैली / साहित्य सदन, इन्दिरा नगर-2, /  लालकुआँ, नैनीताल-262402

Email: asha.shaili@gmail.com

1 टिप्पणी

  1. हिन्दु जातकों ने बौद्ध धर्म को कभी भी अपने से अलग नहीं माना। हिन्दू मंदिरों में और घरों में महात्मा बुध की पूजा की जाती है।

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