दीपावली के अवसर पर एक कविता
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“मैं जुगनू हूँ” – आशीष कंधवे
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देखते-देखते
हमारा सारा जीवन
कट जाता है एक सपने की तरह
और हम अपने भाग्य- फल के हिसाब
में उलझ जाते हैं
पुनर्जन्म की शंका भी व्यर्थ है
हर सुबह हमारा नया जन्म ही तो होता है
कभी नींद से जाकर सोचा है तुमने ?

दरअसल, दी
तुम मुड़कर नहीं देखते
आगे ही बढ़ते जाते हो और
वहीं रुकना चाहते हो
जहां पहुंचकर तुम्हें मस्तक टेकना है

तुम जहां भी पहुँचो
मुझे आजमाने की मत सोचना
मुझे लुभाने की मत सोचना
तुम मुझे मेरी हारी हुई बाजी जिता सकते हो
ये भी नहीं सोचना

पहले तुम अपने मार्ग पर पड़ने वाले
सभी मठों को पूज कर आओ
उनके पश्चात अपने शरीर से निकलने वाले
कर्म-गंध को पहचानों
किसी मिल के पत्थर पर अपना नाम लिख आओ
किसी नवयौवन के उन्मांद को राह दे आओ
विफलताओं को एक नूतन आत्मविश्वास दे आओ
हाँ,तब मुझ से बात करना

मित्र,
अंधेरे पर विजय नहीं पाना है
बस अंधेरे में सिर नहीं झुकना है

हर ठोकर से
जीवन की चिरंतनता कुछ बढ़ जाती है
पवन के वेग में पांव को साधो
तुम्हारे सारे ग्रह- नक्षत्र ठीक हो जाएंगे

मैं तो जुगनू हूँ
मैं रात के अंधेरे में खो गए
अपने पद चिन्हों को भूलता नहीं हूँ
उस मार्ग को मैं याद रखता हूँ
जिससे मैं गुजर चुका हूँ

मैं जुगनू हूँ तो क्या
मेरी रक्त में महासागर अठखेलियां करती है
मैंने अपने वक्ष पर हजारों आघात सहे
मैंने सूरज से आंखें मिलाई हैं
मैंने आकाश के नीले सीने पर सवारी की है
और चाँद पर अपने हस्ताक्षर को टांग दिया है

मेरा जीवन सपना नहीं रहा
मैं जीवन रण में लड़ रहा हूँ
मैंने अपने ललाट पर कुमकुम लगा लिया है
स्वयं का श्रृंगार भी कर लिया है
मैंने अपने बाहुपाश में
दसों दिशाओं को समेट लिया है
महाशून्य के आलिंगन से पहले

मैं जुगनू हूँ ..!

आशीष कंधवे 
04/11/2018

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